चर्या: Difference between revisions
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<p> महापुराण/39/147-148 <span class="SanskritText"> चर्या तु देवतार्थं वा मंत्रसिद्धयर्थमेव वा। औषधाहारक्लृप्त्यै वा न हिंस्यामीति चेष्टितम् ।147। तत्राकामकृते: शुद्धि: प्रायश्चित्तैर्विधीयते। पश्चाच्चात्मालयं सूनौ व्यवस्थाप्य गृहोज्झनम् ।148।</span>=<span class="HindiText">किसी देवता के लिए, किसी मंत्र की सिद्धि के लिए, अथवा किसी औषधि या भोजन बनवाने के लिए मैं किसी जीव की हिंसा नहीं करूँगा, ऐसी प्रतिज्ञा करना चर्या कहलाती है।147। इस प्रतिज्ञा में यदि कभी इच्छा न रहते हुए प्रमाद से दोष लग जावे तो प्रायश्चित्त से उसकी शुद्धि की जाती है।148।<br /> | <p><span class="GRef"> महापुराण/39/147-148 </span><span class="SanskritText"> चर्या तु देवतार्थं वा मंत्रसिद्धयर्थमेव वा। औषधाहारक्लृप्त्यै वा न हिंस्यामीति चेष्टितम् ।147। तत्राकामकृते: शुद्धि: प्रायश्चित्तैर्विधीयते। पश्चाच्चात्मालयं सूनौ व्यवस्थाप्य गृहोज्झनम् ।148।</span>=<span class="HindiText">किसी देवता के लिए, किसी मंत्र की सिद्धि के लिए, अथवा किसी औषधि या भोजन बनवाने के लिए मैं किसी जीव की हिंसा नहीं करूँगा, ऐसी प्रतिज्ञा करना चर्या कहलाती है।147। इस प्रतिज्ञा में यदि कभी इच्छा न रहते हुए प्रमाद से दोष लग जावे तो प्रायश्चित्त से उसकी शुद्धि की जाती है।148।<br /> | ||
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<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/9/9/423/4 </span><span class="SanskritText">निराकृतपादावरणस्य परुषशर्कराकंटकादिव्यधनजातचरणखेदस्यापि सत: पूर्वोचितयानवाहनादिगमनमस्मरतो यथाकालमावश्यकापरिहाणिमास्कंदतश्चर्यापरिषहसहनमवसेयम् ।</span>=<span class="HindiText">जिसका शरीर तपश्चरणादि के कारण अत्यंत अशक्त हो गया है, जिसने खड़ाऊँ आदि का त्याग कर दिया है, तीक्ष्ण कंकड़ और काँटे आदि के बिंधने से चरण में खेद के उत्पन्न होने पर भी पूर्व में भोगे यान और वाहन आदि से गमन करने का जो स्मरण नहीं करता है, तथा जो यथाकाल आवश्यकों का परिपूर्ण परिपालन करता है उसके चर्या परिषहजय जानना चाहिए। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/9/14/610/19 </span>) (<span class="GRef"> चारित्रसार/118/1 </span>)।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong> चर्या निषद्या व शय्या परिषह में अंतर </strong></span><strong> <br></strong> राजवार्तिक/9/17/7/616/11/ <span class="SanskritText">स्यान्मतम्–चर्यादीनां त्रयाणां परीषहाणामविशेषादेकत्र नियमाभावादेकत्वमित्येकान्नविंशतिवचनं क्रियते इति; तन्न, किं कारणम् । अरतौ परीषहजयाभावात् । यद्यत्र रतिर्नास्ति परीषहजय एवास्य व्युच्छिद्यते। तस्माद्यथोक्तप्रतिद्वंद्विसांनिध्यात् परीषहस्वभावाश्रयपरिणामात्मलाभनिमित्तविचक्षणस्य तत्परित्यागायादरप्रवृत्त्यर्थमौपोद्धातिकं प्रकरणमुक्तम् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–चर्या आदि तीन परिषह समान हैं, एक साथ नहीं हो सकतीं, क्योंकि बैठने में परीषह आने पर सो सकता है, सोने में परीषह आने पर चल सकता है, और सहनविधि एक जैसी है, तब इन्हें एक परिषह मान लेना चाहिए? और इस प्रकार 22 की बजाय 19 परीषह कहनी चाहिए? <strong>उत्तर</strong>–अरति यदि रहती है, तो परीषहजय नहीं कहा जा सकता। यदि साधु चर्याकष्ट से उद्विग्न होकर बैठ जाता है या बैठने से उद्विग्न होकर लेट जाता है तो परीषह जय कैसा ? यदि परीषहों को जीतूँगा इस प्रकार की रुचि नहीं है, तो वह परीषहजयी नहीं कहा जा सकता। अत: तीनों क्रियाओं के कष्टों को जीतना और एक के कष्ट के निवारण के लिए दूसरे की इच्छा न करना ही परीषहजय है। | <li><span class="HindiText"><strong> चर्या निषद्या व शय्या परिषह में अंतर </strong></span><strong> <br></strong><span class="GRef"> राजवार्तिक/9/17/7/616/11/ </span><span class="SanskritText">स्यान्मतम्–चर्यादीनां त्रयाणां परीषहाणामविशेषादेकत्र नियमाभावादेकत्वमित्येकान्नविंशतिवचनं क्रियते इति; तन्न, किं कारणम् । अरतौ परीषहजयाभावात् । यद्यत्र रतिर्नास्ति परीषहजय एवास्य व्युच्छिद्यते। तस्माद्यथोक्तप्रतिद्वंद्विसांनिध्यात् परीषहस्वभावाश्रयपरिणामात्मलाभनिमित्तविचक्षणस्य तत्परित्यागायादरप्रवृत्त्यर्थमौपोद्धातिकं प्रकरणमुक्तम् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–चर्या आदि तीन परिषह समान हैं, एक साथ नहीं हो सकतीं, क्योंकि बैठने में परीषह आने पर सो सकता है, सोने में परीषह आने पर चल सकता है, और सहनविधि एक जैसी है, तब इन्हें एक परिषह मान लेना चाहिए? और इस प्रकार 22 की बजाय 19 परीषह कहनी चाहिए? <strong>उत्तर</strong>–अरति यदि रहती है, तो परीषहजय नहीं कहा जा सकता। यदि साधु चर्याकष्ट से उद्विग्न होकर बैठ जाता है या बैठने से उद्विग्न होकर लेट जाता है तो परीषह जय कैसा ? यदि परीषहों को जीतूँगा इस प्रकार की रुचि नहीं है, तो वह परीषहजयी नहीं कहा जा सकता। अत: तीनों क्रियाओं के कष्टों को जीतना और एक के कष्ट के निवारण के लिए दूसरे की इच्छा न करना ही परीषहजय है। | ||
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Revision as of 12:59, 14 October 2020
== सिद्धांतकोष से ==
महापुराण/39/147-148 चर्या तु देवतार्थं वा मंत्रसिद्धयर्थमेव वा। औषधाहारक्लृप्त्यै वा न हिंस्यामीति चेष्टितम् ।147। तत्राकामकृते: शुद्धि: प्रायश्चित्तैर्विधीयते। पश्चाच्चात्मालयं सूनौ व्यवस्थाप्य गृहोज्झनम् ।148।=किसी देवता के लिए, किसी मंत्र की सिद्धि के लिए, अथवा किसी औषधि या भोजन बनवाने के लिए मैं किसी जीव की हिंसा नहीं करूँगा, ऐसी प्रतिज्ञा करना चर्या कहलाती है।147। इस प्रतिज्ञा में यदि कभी इच्छा न रहते हुए प्रमाद से दोष लग जावे तो प्रायश्चित्त से उसकी शुद्धि की जाती है।148।
- चर्या परिषह
सर्वार्थसिद्धि/9/9/423/4 निराकृतपादावरणस्य परुषशर्कराकंटकादिव्यधनजातचरणखेदस्यापि सत: पूर्वोचितयानवाहनादिगमनमस्मरतो यथाकालमावश्यकापरिहाणिमास्कंदतश्चर्यापरिषहसहनमवसेयम् ।=जिसका शरीर तपश्चरणादि के कारण अत्यंत अशक्त हो गया है, जिसने खड़ाऊँ आदि का त्याग कर दिया है, तीक्ष्ण कंकड़ और काँटे आदि के बिंधने से चरण में खेद के उत्पन्न होने पर भी पूर्व में भोगे यान और वाहन आदि से गमन करने का जो स्मरण नहीं करता है, तथा जो यथाकाल आवश्यकों का परिपूर्ण परिपालन करता है उसके चर्या परिषहजय जानना चाहिए। ( राजवार्तिक/9/9/14/610/19 ) ( चारित्रसार/118/1 )।
- चर्या निषद्या व शय्या परिषह में अंतर
राजवार्तिक/9/17/7/616/11/ स्यान्मतम्–चर्यादीनां त्रयाणां परीषहाणामविशेषादेकत्र नियमाभावादेकत्वमित्येकान्नविंशतिवचनं क्रियते इति; तन्न, किं कारणम् । अरतौ परीषहजयाभावात् । यद्यत्र रतिर्नास्ति परीषहजय एवास्य व्युच्छिद्यते। तस्माद्यथोक्तप्रतिद्वंद्विसांनिध्यात् परीषहस्वभावाश्रयपरिणामात्मलाभनिमित्तविचक्षणस्य तत्परित्यागायादरप्रवृत्त्यर्थमौपोद्धातिकं प्रकरणमुक्तम् ।=प्रश्न–चर्या आदि तीन परिषह समान हैं, एक साथ नहीं हो सकतीं, क्योंकि बैठने में परीषह आने पर सो सकता है, सोने में परीषह आने पर चल सकता है, और सहनविधि एक जैसी है, तब इन्हें एक परिषह मान लेना चाहिए? और इस प्रकार 22 की बजाय 19 परीषह कहनी चाहिए? उत्तर–अरति यदि रहती है, तो परीषहजय नहीं कहा जा सकता। यदि साधु चर्याकष्ट से उद्विग्न होकर बैठ जाता है या बैठने से उद्विग्न होकर लेट जाता है तो परीषह जय कैसा ? यदि परीषहों को जीतूँगा इस प्रकार की रुचि नहीं है, तो वह परीषहजयी नहीं कहा जा सकता। अत: तीनों क्रियाओं के कष्टों को जीतना और एक के कष्ट के निवारण के लिए दूसरे की इच्छा न करना ही परीषहजय है।
पुराणकोष से
(1) गृहस्थों के षट्कर्म जनित हिंसा आदि दोषों की शुद्धि के लिए कथित तीन अंगों-पक्ष, चर्या और साधन में दूसरा अंग । किसी देवता या मंत्र की सिद्धि के लिए तथा औषधि या भोजन बनवाने के लिए किसी जीव की हिंसा न करने की प्रतिज्ञा करना चर्या होती है । इस प्रतिज्ञा में प्रमादवश दोष लग जाने पर प्रायश्चित्त आदि से शुद्धि की जाती है तथा अंत में अपना सब कौटुंबिक भार पुत्र को सौंपकर घर का परित्याग किया जाता है । महापुराण 39.143-148
(2) त्रिशृंग नगर के राजा प्रचंडवाहन और उसकी रानी विमलप्रभा की नवीं पुत्री । इसने और इसकी सभी बहिनों ने युधिष्ठिर को ही अपना पति माना था । बाद में इसके वनवास आदि का समाचार मिलने पर ये सब अणुव्रत धारण करके श्राविका बन गयी थीं । हरिवंशपुराण 45.95-99