परमेष्ठी: Difference between revisions
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<span class="GRef"> भावपाहुड़ टीका/149/293/8 </span><span class="SanskritText">परमे इंद्रचंद्रधरणेंद्रवंदिते पदे तिष्ठतीति परमेष्ठी। </span>= <span class="HindiText">जो इंद्र, चंद्र, धरणेंद्र के द्वारा वंदित ऐसे परमपद में तिष्ठता है, वह परमेष्ठी होता है। (<span class="GRef"> समाधिशतक/ </span>टी./6/225)। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong>निश्चय से पंचपरमेष्ठी एक आत्मा की ही पर्याय है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong>निश्चय से पंचपरमेष्ठी एक आत्मा की ही पर्याय है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> मोक्षपाहुड़/104 </span><span class="PrakritGatha">अरुहा सिद्धायरिया उज्झाया साहु पंच परमेट्ठी। ते वि हु चिट्ठहि आधे तम्हा आदा हु मे सरणं। 104।</span> = <span class="HindiText">अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय अर साधु ये पंचपरमेष्ठी हैं, ते भी आत्माविषै ही चेष्टा रूप हैं, आत्मा की अवस्था है, इसलिए निश्चय से मेरे आत्मा ही का सरणा है। 104। <br /> | |||
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<p>आप एक कवि थे। आपने वागर्थसंग्रह पुराण की रचना की थी। आपका समय आ. जिनसेन के महापुराण (वि. 897) से पहले बताया जाता है। ( महापुराण/ प्र./21/पं. पन्नालाल)।</p> | <p>आप एक कवि थे। आपने वागर्थसंग्रह पुराण की रचना की थी। आपका समय आ. जिनसेन के महापुराण (वि. 897) से पहले बताया जाता है। (<span class="GRef"> महापुराण/ </span>प्र./21/पं. पन्नालाल)।</p> | ||
Revision as of 13:00, 14 October 2020
== सिद्धांतकोष से ==
- स्वयंभू स्तोत्र/ टी./39 परमपदे तिष्ठति इति परमेष्ठी परमात्मा। = जो परमपद में तिष्ठता है, वह परमेष्ठी परमात्मा होते हैं।
भावपाहुड़ टीका/149/293/8 परमे इंद्रचंद्रधरणेंद्रवंदिते पदे तिष्ठतीति परमेष्ठी। = जो इंद्र, चंद्र, धरणेंद्र के द्वारा वंदित ऐसे परमपद में तिष्ठता है, वह परमेष्ठी होता है। ( समाधिशतक/ टी./6/225)।
- निश्चय से पंचपरमेष्ठी एक आत्मा की ही पर्याय है
मोक्षपाहुड़/104 अरुहा सिद्धायरिया उज्झाया साहु पंच परमेट्ठी। ते वि हु चिट्ठहि आधे तम्हा आदा हु मे सरणं। 104। = अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय अर साधु ये पंचपरमेष्ठी हैं, ते भी आत्माविषै ही चेष्टा रूप हैं, आत्मा की अवस्था है, इसलिए निश्चय से मेरे आत्मा ही का सरणा है। 104।
- अन्य संबंधित विषय
आप एक कवि थे। आपने वागर्थसंग्रह पुराण की रचना की थी। आपका समय आ. जिनसेन के महापुराण (वि. 897) से पहले बताया जाता है। ( महापुराण/ प्र./21/पं. पन्नालाल)।
पुराणकोष से
(1) समस्त दोषों से रहित और समस्त गुणों सहित परमपद में स्थित अर्हत् (अर्हंत) और सिद्ध तथा मोक्षमार्ग में प्रवृत्त आचार्य, उपाध्याय और साधु । ये पंच परमेष्ठी है । इनके नाम-स्मरण से मन में पवित्रता का संचार होता है और पारिणामिक विशुद्धि उत्पन्न होती है । ये ही ‘पंच गुरु’ भी है । महापुराण 5. 235,245,6.56, 38.188
(2) भरतेश और सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुत वृषभदेव का एक नाम । महापुराण 24.33,25.105