परिषह: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText" name="1.1" id="1.1"><strong>परिषह का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.1" id="1.1"><strong>परिषह का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/9/8 </span><span class="SanskritText">मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिषोढव्याः परीषहाः। 8। </span>= <span class="HindiText">मार्ग से च्युत न होने के लिए और कमो की निर्जरा के लिए जो सहन करने योग्य हों, वे परिषह हैं। 8। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/9/2/409/8 </span><span class="SanskritText">क्षुदादिवेदनोत्पत्तौ कर्मनिर्जरार्थ सहनं परिषहः।</span> =<span class="HindiText"> क्षुधादि वेदना के होने पर कमो की निर्जरा करने के लिए उसे सह लेना परिषह है। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/2/6/592/5 </span>)</span><br /> | |||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/2/6/592/2 </span><span class="SanskritText">परिषह्यत इति परीषहः। 6।</span> = <span class="HindiText">जो सही जाय वह परिषह हैं। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="1.2" id="1.2"><strong>परिषह जय का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.2" id="1.2"><strong>परिषह जय का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/9/2/409/9 </span><span class="SanskritText">परिषहस्य जयः परिषहजयः।</span> =<span class="HindiText"> परिषह का जीतना परिषहजय है। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/2/6/592/5 </span>)। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1171/1159/18 </span><span class="SanskritText">‘‘दुःखोपनिपाते संक्लेशरहिता परीषह-जयः।’’</span> = <span class="HindiText">दुःख आने पर भी संक्लेश परिणाम न होना ही परिषहजय है। </span><br /> | |||
<strong> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/98 <span class="PrakritText">सो विपरिसह</span></strong><span class="PrakritText">-विजओ छुहादि-पीडाण अइरउद्दाणं। सवणाणं च मुणीणं उवसम-भावेण जं सहणं। </span>= <span class="HindiText">अत्यंत भयानक भूख आदि की वेदना को ज्ञानी मुनि जो शांतभाव से सहन करते हैं, उसे परिषहजय कहते हैं। 98। </span><br /> | <strong><span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/98 </span><span class="PrakritText">सो विपरिसह</span></strong><span class="PrakritText">-विजओ छुहादि-पीडाण अइरउद्दाणं। सवणाणं च मुणीणं उवसम-भावेण जं सहणं। </span>= <span class="HindiText">अत्यंत भयानक भूख आदि की वेदना को ज्ञानी मुनि जो शांतभाव से सहन करते हैं, उसे परिषहजय कहते हैं। 98। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/35/146/10 </span><span class="SanskritText">‘‘क्षुधादिवेदनानां तीव्रोदयेऽपि... समतारूप परमसामायिकेन... निजपरमात्मभावनासंजातनिर्विकारनित्यानंदलक्षणसुखामृतसंवित्तेरचलनं स परिषहजय इति। </span>= <span class="HindiText">क्षुधादि वेदनाओं के तीव्र उदय होने पर भी... समता रूप परम सामायिक के द्वारा... निज परमात्मा की भावना से उत्पन्न, विकाररहित, नित्यानंद रूप सुखामृत अनुभव से, जो नहीं चलना सो परिषहजय है। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="1.3" id="1.3"><strong>परिषह के भेद</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="1.3" id="1.3"><strong>परिषह के भेद</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/9/9 </span><span class="SanskritText">क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्यानिषेद्याशय्याक्रोशवधयाचनालाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कार-पुरस्कारप्रज्ञाज्ञानादर्शनानि॥ 9॥</span> =<span class="HindiText"> क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नग्नता, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार-पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन इन नाम वाले परिषह हैं। 9। (मू.आ./254-255); (<span class="GRef"> चारित्रसार/108/3 </span>); (<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/6/89-112 </span>); (<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/35/146/9 </span>)। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="2.1" id="2.1"><strong>परिषह के अनुभव का कारण कषाय व दोष होते हैं</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="2.1" id="2.1"><strong>परिषह के अनुभव का कारण कषाय व दोष होते हैं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/9/12/431/4 </span><span class="SanskritText">तेषु हि अक्षणीकषायदोषत्वात्सर्वे संभवंति।</span> =<span class="HindiText"> प्रमत्त आदि गुणस्थानों में कषाय और दोषों के क्षीण न होने से सब परिषह संभव हैं। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="2.2" id="2.2"><strong>परिषह की ओर लक्ष्य न जाना ही वास्तविक परिषहजय है</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="2.2" id="2.2"><strong>परिषह की ओर लक्ष्य न जाना ही वास्तविक परिषहजय है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/9/9/420/10 </span><span class="SanskritText">क्षुद्बाधां प्रत्यचिंतनं क्षुद्विजयः।</span> = <span class="HindiText">क्षुधाजन्य-बाधा का चिंतन नहीं करना क्षुधा परिषहजय है। <br /> | |||
<strong>नोट </strong>- इसी प्रकार पिपासादि परिषहों की ओर लक्ष्य न जाना ही वह वह नाम की परिषह जय है। - देखें [[ वह वह नाम ]]। <br /> | <strong>नोट </strong>- इसी प्रकार पिपासादि परिषहों की ओर लक्ष्य न जाना ही वह वह नाम की परिषह जय है। - देखें [[ वह वह नाम ]]। <br /> | ||
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<li><span class="HindiText" name="2.3" id="2.3"><strong>मार्गणा की अपेक्षा परिषहों की संभावना</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="2.3" id="2.3"><strong>मार्गणा की अपेक्षा परिषहों की संभावना</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> चारित्रसार/132/7 </span><span class="SanskritText">नरकतिर्यग्गत्योः सर्वे परिषहाः मनुष्यगतावाद्यभंगा भवंति देवगतौ घातिकर्मोत्थपरिषहैः सह वेदनीयोत्पन्नक्षुत्पिपासावधैः सह चतुर्दश भवंति। इंद्रियकायमार्गणयोः सर्वे परिषहाः संति वैक्रियकद्वितयस्य देवगतिभंगा तिर्यग्मनुष्यापेक्षया द्वाविंशतिः शेषयोगानां वेदादिमार्गणानां च स्वकीयगुणस्थानभंगा भवंति।</span> = <span class="HindiText">नरक और तिर्यंचगति में सब परिषह होती हैं। मनुष्यगति में ऊपर कहे अनुसार (गुणस्थानवत्) होती हैं। देवगति में घातीकर्म के उदय से होनेवाली सात परिषह और वेदनीयकर्म के उदय से होनेवाला क्षुधा, पिपासा और वध, इस प्रकार चौदह परिषह होती हैं। इंद्रिय और कायमार्गणा में सब परिषह होती हैं। वैक्रियक और वैक्रियकमिश्र में देवगति की अपेक्षा देवगति के अनुसार और तिर्यंच मनुष्यों की अपेक्षा बाईस होती हैं। शेष योग मार्गणा में तथा वेदादि सब मार्गणओं में अपने-अपने गुणस्थानों की अपेक्षा लगा लेना चाहिए। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="2.4" id="2.4"><strong>गुणस्थानों की अपेक्षा परिषहों की संभावना</strong> <br /> | <li><span class="HindiText" name="2.4" id="2.4"><strong>गुणस्थानों की अपेक्षा परिषहों की संभावना</strong> <br /> | ||
<strong>( तत्त्वार्थसूत्र/9/10 </strong>-12); ( सर्वार्थसिद्धि/9/10-12/428-431 ); ( राजवार्तिक/9/10-12/613-614 ); ( चारित्रसार/130-132 )। </span></li> | <strong>(<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/9/10 </span></strong>-12); (<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/9/10-12/428-431 </span>); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/10-12/613-614 </span>); (<span class="GRef"> चारित्रसार/130-132 </span>)। </span></li> | ||
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<td width="49" valign="top"><p><span class="HindiText"> चारित्रसार </span></p> | <td width="49" valign="top"><p><span class="HindiText"><span class="GRef"> चारित्रसार </span></span></p> | ||
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<p><span class="HindiText"> चारित्रसार </span></p> | <p><span class="HindiText"><span class="GRef"> चारित्रसार </span></span></p> | ||
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<p><span class="HindiText">अदर्शन </span></p> | <p><span class="HindiText">अदर्शन </span></p> | ||
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<p><span class="HindiText"> सर्वार्थसिद्धि </span></p> | <p><span class="HindiText"><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि </span></span></p> | ||
<p><span class="HindiText"> चारित्रसार </span></p></td> | <p><span class="HindiText"><span class="GRef"> चारित्रसार </span></span></p></td> | ||
<td width="65" valign="top"><p><span class="HindiText">क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श, मल</span></p> | <td width="65" valign="top"><p><span class="HindiText">क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श, मल</span></p> | ||
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<li><span class="HindiText" name="2.5" id="2.5"><strong>एक समय में एक जीव को परिषहों का प्रमाण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="2.5" id="2.5"><strong>एक समय में एक जीव को परिषहों का प्रमाण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/9/17 </span><span class="SanskritText">एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नैकान्नविंशतेः। 17 ।</span> = <span class="HindiText">एक साथ एक आत्मा में उन्नीस तक परिषह विकल्प से हो सकते हैं॥ 17॥ </span><br /> | |||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/9/17 </span><span class="SanskritText">शीतोष्णपरिषहयोरेकःशय्यानिषद्याचर्याणां चान्यतम एव भवति एकस्मिन्नात्मनि। कुतः। विरोधात्। तत्त्रयाणामपगमे युगपदेकात्मनीतरेषां संभवादेकोनविंशतिविकल्पा बोद्धव्याः।</span> = <span class="HindiText">एक आत्मा में शीत और उष्ण परिषहों में - से एक, शय्या, निषद्या और चर्या इनमें से कोई एक परिषह ही होते हैं, क्योंकि शीत और उष्ण इन दोनों के तथा शय्या, निषद्या और चर्या इन तीनों के एक साथ होने में विरोध आता है। इन तीनों के निकाल देने पर एक साथ एक आत्मा में इतर परिषह संभव होने से सब मिलकर उन्नीस परिषह जानना चाहिए। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/17/2/615/25 </span>)। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="2.6" id="2.6"><strong>परिषहों के कारणभूत कर्मों का निर्देश</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="2.6" id="2.6"><strong>परिषहों के कारणभूत कर्मों का निर्देश</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/9/13-16 </span><span class="SanskritText">ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने॥ 13॥ दर्शनमोहांतराययोरदर्शनालाभौ॥ 14॥ चारित्रमोहे नाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कारपुरस्काराः॥ 15॥ वेदनीये शेषाः॥ 16॥ </span>= <span class="HindiText">ज्ञानावरण के सद्भाव में प्रज्ञा और अज्ञान परिषह होते हैं॥ 13॥ दर्शनमोह और अंतराय के सद्भाव में क्रम से अदर्शन और अलाभ परिषह होते हैं॥ 14॥ चारित्रमोह के सद्भाव में नाग्न्य, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना और सत्कार-पुरस्कार परिषह होते हैं॥ 15॥ बाकी के सब परिषह वेदनीय के सद्भाव में होते हैं॥ 16॥ (<span class="GRef"> चारित्रसार/129/3 </span>)। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="2.7" id="2.7"><strong>परिषहजय का कारण व प्रयोजन</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="2.7" id="2.7"><strong>परिषहजय का कारण व प्रयोजन</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/9/8 </span><span class="SanskritText"> मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/9/8/417/13 </span><span class="SanskritText"> जिनोपदिष्टान्मार्गादप्रदच्यवमानास्तन्मार्गपरिक्रमणपरिचयेन कर्मागमद्वारं संवृण्वंत औपक्रमिकं कर्मफलमनुभवंतः क्रमेण निर्जीर्णकर्माणो मोक्षमाप्नुवंति।</span> = <span class="HindiText">जिनदेव के द्वारा कहे हुए मार्ग से नहीं च्युत होनेवाले, उस मार्ग के सतत् अभ्यासरूप परिचय के द्वारा कर्मागम द्वार को संवृत करनेवाले तथा औपक्रमिक कर्मफल को अनुभव करनेवाले क्रम से कर्मों की निर्जरा करके मोक्ष को प्राप्त होते हैं। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/6/83 </span><span class="SanskritText">दुःखे भिक्षुरुपस्थिते शिवपथाद्भ्रस्यत्यदुःखाश्रितात् तत्तन्मार्गपरिग्रहेण दुरितं रोद्धुं मुमुक्षुर्नवम्। भोक्तुं च प्रतपनक्षुदादिवपुषो द्वाविंशतिं वेदनाः, स्वस्थो यत्सहते परीषहजयः साध्यः स धीरैः परम्॥ 83॥</span> = <span class="HindiText">संयमी साधु बिना दुःखों का अनुभव किये ही मोक्षमार्ग का सेवन करे तो वह उसमें दुःखों के उपस्थित होते ही भ्रष्ट हो सकता है। जो मुमुक्षु पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करने के लिए आत्म-स्वरूप में स्थित होकर क्षुधादि 22 प्रकार की वेदनाओं को सहता है, उसी को परिषह विजयी कहते हैं। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/57/229/4 </span><span class="SanskritText">परीषहजयश्चेति... ध्यानहेतवः।</span> = <span class="HindiText">परिषहजय ध्यान का कारण है। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1">क्षुदादि को परिषह व परिषहजय कहने का कारण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1">क्षुदादि को परिषह व परिषहजय कहने का कारण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना </span>व टी./1171/1159<span class="SanskritText"> सीदुण्हदंसमसयादियाण दिण्णी परिसहाण उरो। सीदादिणिवारणाए गंथे णिययं जहत्तेण॥ 1171॥ क्षुदादिजन्यदुःखविषयत्वात् क्षुदादिशब्दानाम्। तेन क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यादीनां परीषहवाचो युक्तिर्न विरुध्यते।</span> = <span class="HindiText">शीत, उष्ण इत्यादि को मिटानेवाला वस्त्रादि परिग्रह जिसने नियम से छोड़ दिया है, उसने शीत, उष्ण, दंश-मशक वगैरह परिषहों को छाती आगे करके शूर पुरुष के समान जीत लिया है, ऐसा समझना चाहिए॥ 1171॥ क्षुदादिकों से उत्पन्न होनेवाला दुःख क्षुदादि शब्दों का विषय है, इस वास्ते क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नाग्न्य इत्यादिकों को परिषह कहना अनुचित नहीं है। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2">केशलोंच को परिषहों में क्यों नहीं गिनते</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2">केशलोंच को परिषहों में क्यों नहीं गिनते</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/9/9/426/8 </span><span class="SanskritText">केशलुंचसंस्काराभ्यामुत्पन्नखेदसहनं मलसामांयसहनेऽंतर्भवतीति न पृथगुक्तम्।</span> =<span class="HindiText"> केश लुंचन या केशों का संस्कार न करने से उत्पन्न खेद को सहना होता है, यह मल परिषह सामान्य में ही अंतर्भूत है। अतः उसको पृथक् नहीं गिनाया है। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/9/24/612/1 </span>)। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3">अवधि आदि दर्शन परिषहों का भी निर्देश क्यों नहीं करते</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3">अवधि आदि दर्शन परिषहों का भी निर्देश क्यों नहीं करते</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/9/31/312/33 </span><span class="SanskritText">नूनमस्मिंस्तद्योग्या गुणा न संतीत्येवमादिवचनसहनमवध्यादिदर्शनपरीषहजयः, तस्योपसंख्यानं कर्तव्यमितिः तन्नः किं कारणम्। अज्ञानपरीषहाविरोधात्। तत्कथमिति चेत्। उच्यते - अवध्यादिज्ञानाभावे तत्सहचरितदर्शनाभावः, आदित्यस्य प्रकाशाभावे प्रतापाभाववत्। तस्मादज्ञानपरीषहेऽवरोधः। </span>= <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> अवधिदर्शन आदि के न उत्पन्न होने पर भी ‘इसमें वे गुण नहीं हैं’ आदि रूप से अवधिदर्शन आदि संबंधी परिषह हो सकती हैं, अतः उसका निर्देश करना चाहिए था। <strong>उत्तर -</strong> ऐसा नहीं है, क्योंकि ये दर्शन अपने-अपने ज्ञानों के सहचारी हैं, अतः अज्ञान परिषह में ही इनका अंतर्भाव हो जाता है। जैसे, सूर्य के प्रकाश के अभाव में प्रताप नहीं होता, उसी तरह अवधिज्ञान के अभाव में अवधिदर्शन नहीं होता। अतः अज्ञानपरिषह में ही उन उन अवधिदर्शनाभाव आदि परिषहों का अंतर्भाव है। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText" name="3.4" id="3.4"><strong>दसवें आदि गुणस्थानों में परिषहों के निर्देश संबंधी</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText" name="3.4" id="3.4"><strong>दसवें आदि गुणस्थानों में परिषहों के निर्देश संबंधी</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/9/10/428/8 </span><span class="SanskritText">आह युक्तं तावद्वीतरागच्छद्मस्थे मोहनीयाभावात् तत्कृतवक्ष्यमाणाष्टपरिषहाभावाच्चतुर्दशनियमवचनम्। सूक्ष्ंसांपराये तु मोहोदयसद्भावात् ‘चतुर्दश’ इति नियमो नोपपद्यत इति। तद्युक्तम्ः सन्मात्रत्वात्। तत्र हि केवलो लोभसंज्वलनकषायोदयः सोऽप्यतिसूक्ष्मः। ततो वीतरागछद्मस्थकल्पत्वात् चतुर्दशं इति नियमस्तत्रापि युज्यते। ननु मोहोदयसहायाभावांमंदोदयत्वाच्च क्षुदादिवेदनाभावात्तत्सहनकृतपरिषहव्यपदेशो न युक्तिमवतरति। तन्न। किं कारणम्। शक्तिमात्रस्य विवक्षितत्वात्। सर्वार्थसिद्धिदेवस्य सप्तमपृथिवीगमनसामर्थ्यव्यपदेशवत्। वीतरागछद्मस्थस्य कर्मोदयसद्भावकृतपरीषहव्यपदेशो युक्तिमवतरति।</span> = <span class="HindiText"><strong>प्रश्न -</strong> वीतराग छद्मस्थ के मोहनीय के अभाव से तत्कृत आगे कहे जानेवाले आठ परिषहों का अभाव होने से चौदह परिषहों के नियम का वचन तो युक्त है, परंतु सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान में मोहनीय का उदय होने से चौदह परिषह होते हैं, यह नियम नहीं बनता? <strong>उत्तर -</strong> यह कहना अयुक्त है, क्योंकि वहाँ मोहनीय की सत्ता मात्र है। वहाँ पर केवल लोभ संज्वलनकषाय का उदय होता है, और वह भी अतिसूक्ष्म इसलिए वीतराग छद्मस्थ के समान होने से सूक्ष्मसांपराय में भी चौदह परिषह होते हैं यह नियम बन जाता है। <strong>प्रश्न -</strong> इन स्थानों में मोह के उदय की सहायता न होने से और मंद उदय होने से क्षुधादि वेदना का अभाव है, इसलिए इनके कार्यरूप से ‘परिषह’ संज्ञा युक्ति को प्राप्त नहीं होती? <strong>उत्तर -</strong> ऐसा नहीं है, क्योंकि यहाँ शक्तिमात्र विवक्षित है। जिस प्रकार सर्वार्थसिद्धि के देव के सातवीं पृथ्वी के गमन की सामर्थ्य का निर्देश करते हैं, उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिए। अर्थात् कर्मोदय सद्भावकृत परिषह व्यपदेश हो सकता है। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/10/2-3/613/10 </span>)<br /> | |||
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Revision as of 13:00, 14 October 2020
गर्मी, सर्दी, भूख, प्यास, मच्छर आदि की बाधाएँ आने पर आर्त परिणामों का न होना अथवा ध्यान से चिगना परिषह जय है। यद्यपि अल्प भूमिकाओं में साधक को उनमें पीड़ा का अनुभव होता है, परंतु वैराग्य भावनाओं आदि के द्वारा वह परमार्थ से चलित नहीं होता।
- भेद व लक्षण
- परिषह का लक्षण
तत्त्वार्थसूत्र/9/8 मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिषोढव्याः परीषहाः। 8। = मार्ग से च्युत न होने के लिए और कमो की निर्जरा के लिए जो सहन करने योग्य हों, वे परिषह हैं। 8।
सर्वार्थसिद्धि/9/2/409/8 क्षुदादिवेदनोत्पत्तौ कर्मनिर्जरार्थ सहनं परिषहः। = क्षुधादि वेदना के होने पर कमो की निर्जरा करने के लिए उसे सह लेना परिषह है। ( राजवार्तिक/9/2/6/592/5 )
राजवार्तिक/9/2/6/592/2 परिषह्यत इति परीषहः। 6। = जो सही जाय वह परिषह हैं।
- परिषह जय का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/9/2/409/9 परिषहस्य जयः परिषहजयः। = परिषह का जीतना परिषहजय है। ( राजवार्तिक/9/2/6/592/5 )।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1171/1159/18 ‘‘दुःखोपनिपाते संक्लेशरहिता परीषह-जयः।’’ = दुःख आने पर भी संक्लेश परिणाम न होना ही परिषहजय है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/98 सो विपरिसह-विजओ छुहादि-पीडाण अइरउद्दाणं। सवणाणं च मुणीणं उवसम-भावेण जं सहणं। = अत्यंत भयानक भूख आदि की वेदना को ज्ञानी मुनि जो शांतभाव से सहन करते हैं, उसे परिषहजय कहते हैं। 98।
द्रव्यसंग्रह टीका/35/146/10 ‘‘क्षुधादिवेदनानां तीव्रोदयेऽपि... समतारूप परमसामायिकेन... निजपरमात्मभावनासंजातनिर्विकारनित्यानंदलक्षणसुखामृतसंवित्तेरचलनं स परिषहजय इति। = क्षुधादि वेदनाओं के तीव्र उदय होने पर भी... समता रूप परम सामायिक के द्वारा... निज परमात्मा की भावना से उत्पन्न, विकाररहित, नित्यानंद रूप सुखामृत अनुभव से, जो नहीं चलना सो परिषहजय है।
- परिषह के भेद
तत्त्वार्थसूत्र/9/9 क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारतिस्त्रीचर्यानिषेद्याशय्याक्रोशवधयाचनालाभरोगतृणस्पर्शमलसत्कार-पुरस्कारप्रज्ञाज्ञानादर्शनानि॥ 9॥ = क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नग्नता, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार-पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान और अदर्शन इन नाम वाले परिषह हैं। 9। (मू.आ./254-255); ( चारित्रसार/108/3 ); ( अनगारधर्मामृत/6/89-112 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/35/146/9 )।
- परिषह का लक्षण
- परिषहजय विशेष के लक्षण- देखें वह वह नाम ।
- परिषह निर्देश
- परिषह के अनुभव का कारण कषाय व दोष होते हैं
सर्वार्थसिद्धि/9/12/431/4 तेषु हि अक्षणीकषायदोषत्वात्सर्वे संभवंति। = प्रमत्त आदि गुणस्थानों में कषाय और दोषों के क्षीण न होने से सब परिषह संभव हैं।
- परिषह की ओर लक्ष्य न जाना ही वास्तविक परिषहजय है
सर्वार्थसिद्धि/9/9/420/10 क्षुद्बाधां प्रत्यचिंतनं क्षुद्विजयः। = क्षुधाजन्य-बाधा का चिंतन नहीं करना क्षुधा परिषहजय है।
नोट - इसी प्रकार पिपासादि परिषहों की ओर लक्ष्य न जाना ही वह वह नाम की परिषह जय है। - देखें वह वह नाम ।
- मार्गणा की अपेक्षा परिषहों की संभावना
चारित्रसार/132/7 नरकतिर्यग्गत्योः सर्वे परिषहाः मनुष्यगतावाद्यभंगा भवंति देवगतौ घातिकर्मोत्थपरिषहैः सह वेदनीयोत्पन्नक्षुत्पिपासावधैः सह चतुर्दश भवंति। इंद्रियकायमार्गणयोः सर्वे परिषहाः संति वैक्रियकद्वितयस्य देवगतिभंगा तिर्यग्मनुष्यापेक्षया द्वाविंशतिः शेषयोगानां वेदादिमार्गणानां च स्वकीयगुणस्थानभंगा भवंति। = नरक और तिर्यंचगति में सब परिषह होती हैं। मनुष्यगति में ऊपर कहे अनुसार (गुणस्थानवत्) होती हैं। देवगति में घातीकर्म के उदय से होनेवाली सात परिषह और वेदनीयकर्म के उदय से होनेवाला क्षुधा, पिपासा और वध, इस प्रकार चौदह परिषह होती हैं। इंद्रिय और कायमार्गणा में सब परिषह होती हैं। वैक्रियक और वैक्रियकमिश्र में देवगति की अपेक्षा देवगति के अनुसार और तिर्यंच मनुष्यों की अपेक्षा बाईस होती हैं। शेष योग मार्गणा में तथा वेदादि सब मार्गणओं में अपने-अपने गुणस्थानों की अपेक्षा लगा लेना चाहिए।
- गुणस्थानों की अपेक्षा परिषहों की संभावना
( तत्त्वार्थसूत्र/9/10 -12); ( सर्वार्थसिद्धि/9/10-12/428-431 ); ( राजवार्तिक/9/10-12/613-614 ); ( चारित्रसार/130-132 )।
- परिषह के अनुभव का कारण कषाय व दोष होते हैं
गुणस्थान |
गुण की विशेषता |
प्रमाण |
असंभव |
संभव |
गुणस्थान |
गुण की विशेषता |
प्रमाण |
असंभव |
संभव |
1-7 8
9-6 9
’’
9-12 |
सामान्य ’
’’ सवेद
अवेद
मान क0 रहित 9 |
चारित्रसार ’’
सर्वार्थसिद्धि चारित्रसार
’’
चारित्रसार |
अदर्शन
अदर्शन, अरति ’’ ’’स्त्री ’’ =8 |
22 21
22 20
19
14 |
12
13-14 ’’
|
सामान्य
’’ ’’ |
चारित्रसार
सर्वार्थसिद्धि चारित्रसार |
क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श, मल ’’ ’’ |
11
11 11 उपचार से। |
- एक समय में एक जीव को परिषहों का प्रमाण
तत्त्वार्थसूत्र/9/17 एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नैकान्नविंशतेः। 17 । = एक साथ एक आत्मा में उन्नीस तक परिषह विकल्प से हो सकते हैं॥ 17॥
सर्वार्थसिद्धि/9/17 शीतोष्णपरिषहयोरेकःशय्यानिषद्याचर्याणां चान्यतम एव भवति एकस्मिन्नात्मनि। कुतः। विरोधात्। तत्त्रयाणामपगमे युगपदेकात्मनीतरेषां संभवादेकोनविंशतिविकल्पा बोद्धव्याः। = एक आत्मा में शीत और उष्ण परिषहों में - से एक, शय्या, निषद्या और चर्या इनमें से कोई एक परिषह ही होते हैं, क्योंकि शीत और उष्ण इन दोनों के तथा शय्या, निषद्या और चर्या इन तीनों के एक साथ होने में विरोध आता है। इन तीनों के निकाल देने पर एक साथ एक आत्मा में इतर परिषह संभव होने से सब मिलकर उन्नीस परिषह जानना चाहिए। ( राजवार्तिक/9/17/2/615/25 )।
- परिषहों के कारणभूत कर्मों का निर्देश
तत्त्वार्थसूत्र/9/13-16 ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने॥ 13॥ दर्शनमोहांतराययोरदर्शनालाभौ॥ 14॥ चारित्रमोहे नाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचनासत्कारपुरस्काराः॥ 15॥ वेदनीये शेषाः॥ 16॥ = ज्ञानावरण के सद्भाव में प्रज्ञा और अज्ञान परिषह होते हैं॥ 13॥ दर्शनमोह और अंतराय के सद्भाव में क्रम से अदर्शन और अलाभ परिषह होते हैं॥ 14॥ चारित्रमोह के सद्भाव में नाग्न्य, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना और सत्कार-पुरस्कार परिषह होते हैं॥ 15॥ बाकी के सब परिषह वेदनीय के सद्भाव में होते हैं॥ 16॥ ( चारित्रसार/129/3 )।
- परिषह आने पर वैराग्य भावनाओं का भाना भी कथंचित् परिषहजय है।- देखें अलोभ , आक्रोश व वध परिषह।
- परिषहजय का कारण व प्रयोजन
तत्त्वार्थसूत्र/9/8 मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः।
सर्वार्थसिद्धि/9/8/417/13 जिनोपदिष्टान्मार्गादप्रदच्यवमानास्तन्मार्गपरिक्रमणपरिचयेन कर्मागमद्वारं संवृण्वंत औपक्रमिकं कर्मफलमनुभवंतः क्रमेण निर्जीर्णकर्माणो मोक्षमाप्नुवंति। = जिनदेव के द्वारा कहे हुए मार्ग से नहीं च्युत होनेवाले, उस मार्ग के सतत् अभ्यासरूप परिचय के द्वारा कर्मागम द्वार को संवृत करनेवाले तथा औपक्रमिक कर्मफल को अनुभव करनेवाले क्रम से कर्मों की निर्जरा करके मोक्ष को प्राप्त होते हैं।
अनगारधर्मामृत/6/83 दुःखे भिक्षुरुपस्थिते शिवपथाद्भ्रस्यत्यदुःखाश्रितात् तत्तन्मार्गपरिग्रहेण दुरितं रोद्धुं मुमुक्षुर्नवम्। भोक्तुं च प्रतपनक्षुदादिवपुषो द्वाविंशतिं वेदनाः, स्वस्थो यत्सहते परीषहजयः साध्यः स धीरैः परम्॥ 83॥ = संयमी साधु बिना दुःखों का अनुभव किये ही मोक्षमार्ग का सेवन करे तो वह उसमें दुःखों के उपस्थित होते ही भ्रष्ट हो सकता है। जो मुमुक्षु पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करने के लिए आत्म-स्वरूप में स्थित होकर क्षुधादि 22 प्रकार की वेदनाओं को सहता है, उसी को परिषह विजयी कहते हैं।
द्रव्यसंग्रह टीका/57/229/4 परीषहजयश्चेति... ध्यानहेतवः। = परिषहजय ध्यान का कारण है।
- परिषहजय भी संयम का एक अंग है- देखें कायक्लेश ।
- शंका समाधान
- क्षुदादि को परिषह व परिषहजय कहने का कारण
भगवती आराधना व टी./1171/1159 सीदुण्हदंसमसयादियाण दिण्णी परिसहाण उरो। सीदादिणिवारणाए गंथे णिययं जहत्तेण॥ 1171॥ क्षुदादिजन्यदुःखविषयत्वात् क्षुदादिशब्दानाम्। तेन क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यादीनां परीषहवाचो युक्तिर्न विरुध्यते। = शीत, उष्ण इत्यादि को मिटानेवाला वस्त्रादि परिग्रह जिसने नियम से छोड़ दिया है, उसने शीत, उष्ण, दंश-मशक वगैरह परिषहों को छाती आगे करके शूर पुरुष के समान जीत लिया है, ऐसा समझना चाहिए॥ 1171॥ क्षुदादिकों से उत्पन्न होनेवाला दुःख क्षुदादि शब्दों का विषय है, इस वास्ते क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नाग्न्य इत्यादिकों को परिषह कहना अनुचित नहीं है।
- केशलोंच को परिषहों में क्यों नहीं गिनते
सर्वार्थसिद्धि/9/9/426/8 केशलुंचसंस्काराभ्यामुत्पन्नखेदसहनं मलसामांयसहनेऽंतर्भवतीति न पृथगुक्तम्। = केश लुंचन या केशों का संस्कार न करने से उत्पन्न खेद को सहना होता है, यह मल परिषह सामान्य में ही अंतर्भूत है। अतः उसको पृथक् नहीं गिनाया है। ( राजवार्तिक/9/9/24/612/1 )।
- परिषहजय व कायकलेश में अंतर- देखें कायक्लेश ।
- अवधि आदि दर्शन परिषहों का भी निर्देश क्यों नहीं करते
राजवार्तिक/9/9/31/312/33 नूनमस्मिंस्तद्योग्या गुणा न संतीत्येवमादिवचनसहनमवध्यादिदर्शनपरीषहजयः, तस्योपसंख्यानं कर्तव्यमितिः तन्नः किं कारणम्। अज्ञानपरीषहाविरोधात्। तत्कथमिति चेत्। उच्यते - अवध्यादिज्ञानाभावे तत्सहचरितदर्शनाभावः, आदित्यस्य प्रकाशाभावे प्रतापाभाववत्। तस्मादज्ञानपरीषहेऽवरोधः। = प्रश्न - अवधिदर्शन आदि के न उत्पन्न होने पर भी ‘इसमें वे गुण नहीं हैं’ आदि रूप से अवधिदर्शन आदि संबंधी परिषह हो सकती हैं, अतः उसका निर्देश करना चाहिए था। उत्तर - ऐसा नहीं है, क्योंकि ये दर्शन अपने-अपने ज्ञानों के सहचारी हैं, अतः अज्ञान परिषह में ही इनका अंतर्भाव हो जाता है। जैसे, सूर्य के प्रकाश के अभाव में प्रताप नहीं होता, उसी तरह अवधिज्ञान के अभाव में अवधिदर्शन नहीं होता। अतः अज्ञानपरिषह में ही उन उन अवधिदर्शनाभाव आदि परिषहों का अंतर्भाव है।
- दसवें आदि गुणस्थानों में परिषहों के निर्देश संबंधी
सर्वार्थसिद्धि/9/10/428/8 आह युक्तं तावद्वीतरागच्छद्मस्थे मोहनीयाभावात् तत्कृतवक्ष्यमाणाष्टपरिषहाभावाच्चतुर्दशनियमवचनम्। सूक्ष्ंसांपराये तु मोहोदयसद्भावात् ‘चतुर्दश’ इति नियमो नोपपद्यत इति। तद्युक्तम्ः सन्मात्रत्वात्। तत्र हि केवलो लोभसंज्वलनकषायोदयः सोऽप्यतिसूक्ष्मः। ततो वीतरागछद्मस्थकल्पत्वात् चतुर्दशं इति नियमस्तत्रापि युज्यते। ननु मोहोदयसहायाभावांमंदोदयत्वाच्च क्षुदादिवेदनाभावात्तत्सहनकृतपरिषहव्यपदेशो न युक्तिमवतरति। तन्न। किं कारणम्। शक्तिमात्रस्य विवक्षितत्वात्। सर्वार्थसिद्धिदेवस्य सप्तमपृथिवीगमनसामर्थ्यव्यपदेशवत्। वीतरागछद्मस्थस्य कर्मोदयसद्भावकृतपरीषहव्यपदेशो युक्तिमवतरति। = प्रश्न - वीतराग छद्मस्थ के मोहनीय के अभाव से तत्कृत आगे कहे जानेवाले आठ परिषहों का अभाव होने से चौदह परिषहों के नियम का वचन तो युक्त है, परंतु सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान में मोहनीय का उदय होने से चौदह परिषह होते हैं, यह नियम नहीं बनता? उत्तर - यह कहना अयुक्त है, क्योंकि वहाँ मोहनीय की सत्ता मात्र है। वहाँ पर केवल लोभ संज्वलनकषाय का उदय होता है, और वह भी अतिसूक्ष्म इसलिए वीतराग छद्मस्थ के समान होने से सूक्ष्मसांपराय में भी चौदह परिषह होते हैं यह नियम बन जाता है। प्रश्न - इन स्थानों में मोह के उदय की सहायता न होने से और मंद उदय होने से क्षुधादि वेदना का अभाव है, इसलिए इनके कार्यरूप से ‘परिषह’ संज्ञा युक्ति को प्राप्त नहीं होती? उत्तर - ऐसा नहीं है, क्योंकि यहाँ शक्तिमात्र विवक्षित है। जिस प्रकार सर्वार्थसिद्धि के देव के सातवीं पृथ्वी के गमन की सामर्थ्य का निर्देश करते हैं, उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिए। अर्थात् कर्मोदय सद्भावकृत परिषह व्यपदेश हो सकता है। ( राजवार्तिक/9/10/2-3/613/10 )
- केवली में परिषहों संबंधी शंकाएँ- देखें केवली - 4।
- क्षुदादि को परिषह व परिषहजय कहने का कारण