पुनरुक्त निग्रहस्थान: Difference between revisions
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<p> न्यायदर्शन सूत्र/ मू. व टी./5/2/14-15/315 <span class="SanskritText">शब्दार्थयोः पुनर्वचनं पुनरुक्तमन्यत्रानुवादात्। 14। अर्थादापन्नस्य स्वशब्देन पुनर्वचनम्। 15।</span> = <span class="HindiText">पुनरुक्त दो प्रकार का है - शब्द पुनरुक्त व अर्थ पुनरुक्त। उनमें से अनुवाद करने के अतिरिक्त जो शब्द का पुनः कथन होता है, उसे शब्द पुनरुक्त कहते हैं। 14। एक शब्द से जिस अर्थ की प्रतीति हो रही हो उसी अर्थ को पुनः अन्य शब्द से कहना अर्थपुनरुक्त है। 15। ( श्लोकवार्तिक 4/ न्या./232/408/13 पर उद्धृत)। </span><br /> | <p><span class="GRef"> न्यायदर्शन सूत्र/ </span>मू. व टी./5/2/14-15/315 <span class="SanskritText">शब्दार्थयोः पुनर्वचनं पुनरुक्तमन्यत्रानुवादात्। 14। अर्थादापन्नस्य स्वशब्देन पुनर्वचनम्। 15।</span> = <span class="HindiText">पुनरुक्त दो प्रकार का है - शब्द पुनरुक्त व अर्थ पुनरुक्त। उनमें से अनुवाद करने के अतिरिक्त जो शब्द का पुनः कथन होता है, उसे शब्द पुनरुक्त कहते हैं। 14। एक शब्द से जिस अर्थ की प्रतीति हो रही हो उसी अर्थ को पुनः अन्य शब्द से कहना अर्थपुनरुक्त है। 15। (<span class="GRef"> श्लोकवार्तिक 4/ </span>न्या./232/408/13 पर उद्धृत)। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सप्तभंगीतरंगिणी/14/4 </span><span class="SanskritText">स्वजन्यबोधसमानाकारबोधजनकवाक्योत्तरकालीनवाक्यत्वमेव हि पुनरुक्तत्वम्। </span>= <span class="HindiText">एक वाक्य जन्य जो बोध है, उसी बोध के समान बोधजनक यदि उत्तरकाल का वाक्य हो तो यही पुनरुक्त दोष है। (<span class="GRef"> परमात्मप्रकाश टीका/2 </span>।211)। </span></p> | |||
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Revision as of 13:01, 14 October 2020
न्यायदर्शन सूत्र/ मू. व टी./5/2/14-15/315 शब्दार्थयोः पुनर्वचनं पुनरुक्तमन्यत्रानुवादात्। 14। अर्थादापन्नस्य स्वशब्देन पुनर्वचनम्। 15। = पुनरुक्त दो प्रकार का है - शब्द पुनरुक्त व अर्थ पुनरुक्त। उनमें से अनुवाद करने के अतिरिक्त जो शब्द का पुनः कथन होता है, उसे शब्द पुनरुक्त कहते हैं। 14। एक शब्द से जिस अर्थ की प्रतीति हो रही हो उसी अर्थ को पुनः अन्य शब्द से कहना अर्थपुनरुक्त है। 15। ( श्लोकवार्तिक 4/ न्या./232/408/13 पर उद्धृत)।
सप्तभंगीतरंगिणी/14/4 स्वजन्यबोधसमानाकारबोधजनकवाक्योत्तरकालीनवाक्यत्वमेव हि पुनरुक्तत्वम्। = एक वाक्य जन्य जो बोध है, उसी बोध के समान बोधजनक यदि उत्तरकाल का वाक्य हो तो यही पुनरुक्त दोष है। ( परमात्मप्रकाश टीका/2 ।211)।