प्रत्यभिज्ञान: Difference between revisions
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<li><strong name="1" id="1"><span class="HindiText">प्रत्यभिज्ञान</span></strong><span class="HindiText"><strong> </strong></span><br> सर्वार्थसिद्धि/5/31/302/3 <span class="SanskritText">तदेवेदमिति स्मरणं प्रत्यभिज्ञानम् । तदकस्मान्न भवतीति योऽस्य हेतुः स तद्भावः । भवनं भावः । तस्य भावस्तद्भावः । येनात्मना प्राग्दृष्टं वस्तु तेनैवात्मना पुनरपि भावात्तदेवेदमिति प्रत्यभिज्ञायते । </span>= <span class="HindiText">‘वह यही है’ इस प्रकार के स्मरण को प्रत्यभिज्ञान कहते हैं । वह अकस्मात् तो होता नहीं, इसलिए जो इसका कारण है वही तद्भाव है ।... तात्पर्य यह है कि पहले जिस रूप वस्तुको देखा था, उसी रूप उसके पुनः होने से ‘वही यह है’ इस प्रकार का प्रत्यभिज्ञान होता है । ( स्याद्वादमंजरी/18/245/9 ) ( न्यायदर्शन सूत्र/ मू. व.टी./3/2/2/185) ।</span><br /> | <li><strong name="1" id="1"><span class="HindiText">प्रत्यभिज्ञान</span></strong><span class="HindiText"><strong> </strong></span><br><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/5/31/302/3 </span><span class="SanskritText">तदेवेदमिति स्मरणं प्रत्यभिज्ञानम् । तदकस्मान्न भवतीति योऽस्य हेतुः स तद्भावः । भवनं भावः । तस्य भावस्तद्भावः । येनात्मना प्राग्दृष्टं वस्तु तेनैवात्मना पुनरपि भावात्तदेवेदमिति प्रत्यभिज्ञायते । </span>= <span class="HindiText">‘वह यही है’ इस प्रकार के स्मरण को प्रत्यभिज्ञान कहते हैं । वह अकस्मात् तो होता नहीं, इसलिए जो इसका कारण है वही तद्भाव है ।... तात्पर्य यह है कि पहले जिस रूप वस्तुको देखा था, उसी रूप उसके पुनः होने से ‘वही यह है’ इस प्रकार का प्रत्यभिज्ञान होता है । (<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/18/245/9 </span>) (<span class="GRef"> न्यायदर्शन सूत्र/ </span>मू. व.टी./3/2/2/185) ।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> परीक्षामुख/2/5 </span><span class="SanskritText">दर्शनस्मरणकारणकं संकलनं प्रत्यभिज्ञानं ...।5।</span> = <span class="HindiText">प्रत्यक्ष और स्मरण की सहायता से जो जोड़रूप ज्ञान है, वह प्रत्यभिज्ञान है ।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> स्याद्वादमंजरी/28/321/25 </span><span class="SanskritText">अनुभवस्मृतिहेतुकं तिर्यगूर्ध्वतासामान्यादिगोचरं संकलनात्मकं ज्ञानं प्रत्यभिज्ञानम् । यथा तज्जातीय एवायं गोपिंडः गोसदृशो गवयः स एवायं जिनदत्त इत्यादिः ।</span> = <span class="HindiText">वर्तमान में किसी वस्तु के अनुभव करने पर और भूत काल में देखे हुए पदार्थ का स्मरण होने पर तिर्यक् सामान्य और ऊर्ध्वता सामान्य आदि को जानने वाले जोड़रूप ज्ञान को प्रत्यभिज्ञान कहते हैं । जैसे - यह गोपिंड उसी जाति का है, यह गवय गौ के समान है, यह वही जिनदत्त है इत्यादि (<span class="GRef"> न्यायदीपिका/3/8/56/2 </span>) ।</span><br /> | |||
<span class="GRef"> न्यायदीपिका/3/10/57/3 </span><span class="SanskritText">केचिदाहुः - अनुभवस्मृतिव्यतिरिक्तं प्रत्यभिज्ञानं नास्तीति; तदसत्, अनुभवस्य वर्तमानकालवर्ति विवर्त्तमात्रप्रकाशक त्वम् स्मृतेश्चातीतविवर्त्तद्योतकत्वमिति तावद्वस्तुगतिः । कथं नाम तयोरतीतवर्त्तमान ... ।</span> = <span class="HindiText">कोई कहता कि अनुभव व स्मृति से अतिरिक्तप्रत्यभिज्ञान नाम का कोई ज्ञान नहीं है । सो ठीक नहीं है क्योंकि अनुभव केवल वर्तमान कालवर्ती होता है और स्मृति अतीत विवर्त द्योतक है, ऐसी वस्तुस्थिति है । (परंतु प्रत्यभिज्ञान दोनों का जोड़रूप है )।<br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> प्रत्यभिज्ञान के भेद</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="2" id="2"> प्रत्यभिज्ञान के भेद</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> न्यायविनिश्चय/ </span>टी./2/50/76/24 प्रत्यभिज्ञा द्विधा मिथ्या तथ्या चेतिद्विप्रकारा = <span class="HindiText">प्रत्यभिज्ञा दो प्रकार की होती है - </span> | |||
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<span class="GRef"> परीक्षामुख/3/5 </span>... <span class="SanskritText">प्रत्यभिज्ञानं तदेवेदं तस्सदृशं तद्विलक्षणं तत्प्रतियोगीत्यादि ।5। </span> | |||
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<span class="GRef"> न्यायदीपिका/3/9/59/9 </span><span class="SanskritText">तदिदमेकत्व .... सादृश्य... तृतीये तु पुनः ... वैसा दृश्यम् ... प्रत्यभिज्ञानम् । एवमन्येऽपि प्रत्यभिज्ञाभेदा यथाप्रतीति स्वयमुत्पेक्ष्या ।</span> = <span class="HindiText">वस्तुओं में रहने वाली </span> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> प्रत्यभिज्ञान के भेदों के लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="3" id="3"> प्रत्यभिज्ञान के भेदों के लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> न्यायविनिश्चय/ </span>मू. व टी./2/50-51/76 <span class="SanskritText">प्रत्यभिज्ञा द्विधा (काचित्सादृश्यविनि-बंधना) ।50। काचित् जलविषया न तच्चक्रादिगोचरा सादृशस्य विशेषेण तन्मात्रातिशायिना रूपेण निबंधनं व्यवस्थापनं यस्याः सा तथेपि । सैव कस्मात्तथा इत्याह- प्रमाणपूर्विका नान्या (दृष्टिमांद्यादिदोषत:) इति ।51। प्रमाणं प्रत्यक्षादिपूर्वं कारणं यस्याः सा काचिदेव नान्या तत्त्चक्रविषया यतः, .... दृष्टेर्मरीचिकादर्शनस्य मांद्यं यथावस्थिततत्परिच्छित्तिं प्रत्यपाटवम् आदिर्यस्य जलाभिलाषादेः स एव दोषस्तत इति ।</span> = | |||
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<li class="HindiText"> सम्यक् प्रत्यभिज्ञान प्रमाण पूर्वक होता है जैसे - जल में उठने वाले चक्रादि को न देखकर केवल जल मात्रमें, पूर्व गृहीत जल के साथ सादृश्यता देखने से ‘यह जल ही है’ ऐसा निर्णय होता है । </li> | <li class="HindiText"> सम्यक् प्रत्यभिज्ञान प्रमाण पूर्वक होता है जैसे - जल में उठने वाले चक्रादि को न देखकर केवल जल मात्रमें, पूर्व गृहीत जल के साथ सादृश्यता देखने से ‘यह जल ही है’ ऐसा निर्णय होता है । </li> | ||
<li><span class="HindiText"> मिथ्या प्रत्यभिज्ञान प्रमाण पूर्वक नहीं होता, बल्कि दृष्टि की मंदता आदि दोषों के कारण से कदाचित् मरीचिका में भी जल की अभिलाषा कर बैठता है ।</span><br /> | <li><span class="HindiText"> मिथ्या प्रत्यभिज्ञान प्रमाण पूर्वक नहीं होता, बल्कि दृष्टि की मंदता आदि दोषों के कारण से कदाचित् मरीचिका में भी जल की अभिलाषा कर बैठता है ।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> परीक्षामुख/3/5-10 </span>... <span class="SanskritText">प्रत्यभिज्ञानं तदेवेदं तत्सदृशं तद्विलक्षणं तत्प्रतियोगीत्यादि ।5। यथा स एवायं देवदत्तः।6। गोसदृशो गवयः ।7। गोविलक्षणो महिष: ।8। इदमस्माद्दूरं ।9। वृक्षोऽयमित्यादि ।10। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> न्यायदीपिका/3/8-9/59/5 </span><span class="SanskritText">यथा स एवाऽयं जिनदत्तः, गोसदृशो गवयः, गोविलक्षणमहिष इत्यादि ।8. अत्र हि पूर्वस्मिन्नुदाहरणे जिनदत्तस्य पूर्वोत्तरदशाद्वयव्यापकमेकत्वं प्रत्यभिज्ञानस्य विषयः । तदिदमेकत्वप्रत्यभिज्ञानम् । द्वितीयेतु पूर्वानुभूतगोप्रतियोगिकं गवयनिष्ठं सादृश्यम् । तदिदं सादृश्यप्रत्यभिज्ञानम् । तृतीये तु पुनः प्रागनुभूतगोप्रतियोगिकं महिषनिष्ठं वैसादृश्यम् । तदिदं वैसादृश्यप्रत्यभिज्ञानम् ।</span> =<span class="HindiText">जैसे वही यह जिनदत्त है, गौके समान गवय होता है, गाय से भिन्न भैंसा होता है, इत्यादि । यहां </span> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> प्रत्यभिज्ञानामास का लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4" id="4"> प्रत्यभिज्ञानामास का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> परीक्षामुख/6/9 </span><span class="SanskritText"> सदृशे तदेवेदं तस्मिन्नेवं तेन सदृशं यमलकवदित्यादि प्रत्यभिज्ञानाभासं ।9।</span> = <span class="HindiText">सदृश में यह वही है ऐसा ज्ञान; और यह वही है इस जगह है - यह उसके समान है, ऐसा ज्ञान प्रत्यभिज्ञानाभास कहा जाता है जैसे - एक साथ उत्पन्न हुए पुरुष में तदेवेदं की जगह तत्सदृश और तत्सदृश की जगह तदेवेदं यह ज्ञान प्रत्यभिज्ञानाभास कहा जाता है ।9।</span></li> | |||
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Revision as of 13:01, 14 October 2020
- प्रत्यभिज्ञान
सर्वार्थसिद्धि/5/31/302/3 तदेवेदमिति स्मरणं प्रत्यभिज्ञानम् । तदकस्मान्न भवतीति योऽस्य हेतुः स तद्भावः । भवनं भावः । तस्य भावस्तद्भावः । येनात्मना प्राग्दृष्टं वस्तु तेनैवात्मना पुनरपि भावात्तदेवेदमिति प्रत्यभिज्ञायते । = ‘वह यही है’ इस प्रकार के स्मरण को प्रत्यभिज्ञान कहते हैं । वह अकस्मात् तो होता नहीं, इसलिए जो इसका कारण है वही तद्भाव है ।... तात्पर्य यह है कि पहले जिस रूप वस्तुको देखा था, उसी रूप उसके पुनः होने से ‘वही यह है’ इस प्रकार का प्रत्यभिज्ञान होता है । ( स्याद्वादमंजरी/18/245/9 ) ( न्यायदर्शन सूत्र/ मू. व.टी./3/2/2/185) ।
परीक्षामुख/2/5 दर्शनस्मरणकारणकं संकलनं प्रत्यभिज्ञानं ...।5। = प्रत्यक्ष और स्मरण की सहायता से जो जोड़रूप ज्ञान है, वह प्रत्यभिज्ञान है ।
स्याद्वादमंजरी/28/321/25 अनुभवस्मृतिहेतुकं तिर्यगूर्ध्वतासामान्यादिगोचरं संकलनात्मकं ज्ञानं प्रत्यभिज्ञानम् । यथा तज्जातीय एवायं गोपिंडः गोसदृशो गवयः स एवायं जिनदत्त इत्यादिः । = वर्तमान में किसी वस्तु के अनुभव करने पर और भूत काल में देखे हुए पदार्थ का स्मरण होने पर तिर्यक् सामान्य और ऊर्ध्वता सामान्य आदि को जानने वाले जोड़रूप ज्ञान को प्रत्यभिज्ञान कहते हैं । जैसे - यह गोपिंड उसी जाति का है, यह गवय गौ के समान है, यह वही जिनदत्त है इत्यादि ( न्यायदीपिका/3/8/56/2 ) ।
न्यायदीपिका/3/10/57/3 केचिदाहुः - अनुभवस्मृतिव्यतिरिक्तं प्रत्यभिज्ञानं नास्तीति; तदसत्, अनुभवस्य वर्तमानकालवर्ति विवर्त्तमात्रप्रकाशक त्वम् स्मृतेश्चातीतविवर्त्तद्योतकत्वमिति तावद्वस्तुगतिः । कथं नाम तयोरतीतवर्त्तमान ... । = कोई कहता कि अनुभव व स्मृति से अतिरिक्तप्रत्यभिज्ञान नाम का कोई ज्ञान नहीं है । सो ठीक नहीं है क्योंकि अनुभव केवल वर्तमान कालवर्ती होता है और स्मृति अतीत विवर्त द्योतक है, ऐसी वस्तुस्थिति है । (परंतु प्रत्यभिज्ञान दोनों का जोड़रूप है )।
- प्रत्यभिज्ञान के भेद
न्यायविनिश्चय/ टी./2/50/76/24 प्रत्यभिज्ञा द्विधा मिथ्या तथ्या चेतिद्विप्रकारा = प्रत्यभिज्ञा दो प्रकार की होती है -- सम्यक् व
- मिथ्या ।
परीक्षामुख/3/5 ... प्रत्यभिज्ञानं तदेवेदं तस्सदृशं तद्विलक्षणं तत्प्रतियोगीत्यादि ।5।- यह वही है,
- यह उसके सदृश है,
- यह उससे विलक्षण है,
- यह उससे दूर है,
- यह वृक्ष है इत्यादि अनेक प्रकार का प्रत्यभिज्ञान होता है ।
न्यायदीपिका/3/9/59/9 तदिदमेकत्व .... सादृश्य... तृतीये तु पुनः ... वैसा दृश्यम् ... प्रत्यभिज्ञानम् । एवमन्येऽपि प्रत्यभिज्ञाभेदा यथाप्रतीति स्वयमुत्पेक्ष्या । = वस्तुओं में रहने वाली- एकता
- सादृशता और
- विसदृशता प्रत्यभिज्ञान के विषय हैं । इसी प्रकार और भी प्रत्यभिज्ञान के भेद अपने अनुभव से स्वयं विचार लेना ।
- प्रत्यभिज्ञान के भेदों के लक्षण
न्यायविनिश्चय/ मू. व टी./2/50-51/76 प्रत्यभिज्ञा द्विधा (काचित्सादृश्यविनि-बंधना) ।50। काचित् जलविषया न तच्चक्रादिगोचरा सादृशस्य विशेषेण तन्मात्रातिशायिना रूपेण निबंधनं व्यवस्थापनं यस्याः सा तथेपि । सैव कस्मात्तथा इत्याह- प्रमाणपूर्विका नान्या (दृष्टिमांद्यादिदोषत:) इति ।51। प्रमाणं प्रत्यक्षादिपूर्वं कारणं यस्याः सा काचिदेव नान्या तत्त्चक्रविषया यतः, .... दृष्टेर्मरीचिकादर्शनस्य मांद्यं यथावस्थिततत्परिच्छित्तिं प्रत्यपाटवम् आदिर्यस्य जलाभिलाषादेः स एव दोषस्तत इति । =- सम्यक् प्रत्यभिज्ञान प्रमाण पूर्वक होता है जैसे - जल में उठने वाले चक्रादि को न देखकर केवल जल मात्रमें, पूर्व गृहीत जल के साथ सादृश्यता देखने से ‘यह जल ही है’ ऐसा निर्णय होता है ।
- मिथ्या प्रत्यभिज्ञान प्रमाण पूर्वक नहीं होता, बल्कि दृष्टि की मंदता आदि दोषों के कारण से कदाचित् मरीचिका में भी जल की अभिलाषा कर बैठता है ।
परीक्षामुख/3/5-10 ... प्रत्यभिज्ञानं तदेवेदं तत्सदृशं तद्विलक्षणं तत्प्रतियोगीत्यादि ।5। यथा स एवायं देवदत्तः।6। गोसदृशो गवयः ।7। गोविलक्षणो महिष: ।8। इदमस्माद्दूरं ।9। वृक्षोऽयमित्यादि ।10।
न्यायदीपिका/3/8-9/59/5 यथा स एवाऽयं जिनदत्तः, गोसदृशो गवयः, गोविलक्षणमहिष इत्यादि ।8. अत्र हि पूर्वस्मिन्नुदाहरणे जिनदत्तस्य पूर्वोत्तरदशाद्वयव्यापकमेकत्वं प्रत्यभिज्ञानस्य विषयः । तदिदमेकत्वप्रत्यभिज्ञानम् । द्वितीयेतु पूर्वानुभूतगोप्रतियोगिकं गवयनिष्ठं सादृश्यम् । तदिदं सादृश्यप्रत्यभिज्ञानम् । तृतीये तु पुनः प्रागनुभूतगोप्रतियोगिकं महिषनिष्ठं वैसादृश्यम् । तदिदं वैसादृश्यप्रत्यभिज्ञानम् । =जैसे वही यह जिनदत्त है, गौके समान गवय होता है, गाय से भिन्न भैंसा होता है, इत्यादि । यहां
- पहले उदाहरण में जिनदत्त की पूर्व और उत्तर अवस्था में रहने वाली एकता प्रत्यभिज्ञान का विषय है । इसी को एकत्व प्रत्यभिज्ञान कहते हैं ।
- दूसरे उदाहरण में, पहले अनुभव की हुई गाय को लेकर गवय में रहने वाली सदृश्यता प्रत्यभिज्ञान का विषय है . इस प्रकार के ज्ञान को सादृस्य प्रत्यभिज्ञान कहते हैं ।
- तीसरे उदाहरण में पहले अनुभव की हुई गाय को लेकर भैंसा में रहने वाली विसदृशता प्रत्यभिज्ञान का विषय है, इस तरह का ज्ञान वैसादृश्य प्रत्यभिज्ञान कहलाता है ।
- यह प्रदेश उस प्रदेश से दूर है इस प्रकार का ज्ञान तत्प्रतियोगी नाम का प्रत्यभिज्ञान कहलाता है ।
- यह वृक्ष है जो हमने सुना था । इत्यादि अनेक प्रकार का प्रत्यभिज्ञान होता है ।
- स्मृति आदिज्ञानों की उत्पत्ति का क्रम- देखें मतिज्ञान - 3।
- स्मृति प्रत्यभिज्ञान में अंतर - देखें मतिज्ञान - 3।
- प्रत्यभिज्ञानामास का लक्षण
परीक्षामुख/6/9 सदृशे तदेवेदं तस्मिन्नेवं तेन सदृशं यमलकवदित्यादि प्रत्यभिज्ञानाभासं ।9। = सदृश में यह वही है ऐसा ज्ञान; और यह वही है इस जगह है - यह उसके समान है, ऐसा ज्ञान प्रत्यभिज्ञानाभास कहा जाता है जैसे - एक साथ उत्पन्न हुए पुरुष में तदेवेदं की जगह तत्सदृश और तत्सदृश की जगह तदेवेदं यह ज्ञान प्रत्यभिज्ञानाभास कहा जाता है ।9।