प्रशम: Difference between revisions
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<p> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/426-430 <span class="SanskritText">प्रशमो विषयेषूच्चैर्भावक्रोधादिकेषु च । लोकासंख्यातमात्रेषु स्वरूपाच्छिथिलं मनः ।426। सद्यः कृतापराधेषु यद्वा जीवेषु जातुचित् । तद्वधादिविकाराय न बुद्धि-प्रशमो मतः । 427। हेतुस्तत्रोदयाभावः स्यादनंतानुबंधिनाम् । अपि शेष कषायाणां नूनं मंदोदर्योंऽशतः .428। सम्यक्त्वेनाविनाभूतः प्रशमः परमो गुणः । अन्यत्र प्रशमंमन्येऽप्याभासः स्यात्तदत्ययात् ।430।</span> =<span class="HindiText"> पंचेंद्रियों के विषयों में और लोक के असंख्यातवें भाग प्रमाण तीव्र भाव क्रोधादिकों में स्वरूप से शिथिल मनका होना ही प्रशम भाव कहलाता है ।426। अथवा उसी समय अपराध करने वाले जीवों पर कभी भी उनके वधादिरूप विकार के लिए बुद्धि का नहीं होना प्रशम माना गया है ।427। उस प्रशम भाव की उत्पत्ति में निश्चय से अनंतानुबंधी कषायों का उदयाभाव और प्रत्याख्यानादि कषायों का मंद उदय कारण है ।428। ( दर्शनपाहुड़/ पं. जयचंद/2) सम्यक्त्व का अविनाभावी प्रशम भाव सम्यग्दृष्टि का परम गुण है । प्रशम भाव का झूठा अहंकार करने वाले मिथ्यादृष्टि के सम्यक्त्व का सद्भाव न होने से प्रशमाभास होता है । </span></p> | <p><span class="GRef"> पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/426-430 </span><span class="SanskritText">प्रशमो विषयेषूच्चैर्भावक्रोधादिकेषु च । लोकासंख्यातमात्रेषु स्वरूपाच्छिथिलं मनः ।426। सद्यः कृतापराधेषु यद्वा जीवेषु जातुचित् । तद्वधादिविकाराय न बुद्धि-प्रशमो मतः । 427। हेतुस्तत्रोदयाभावः स्यादनंतानुबंधिनाम् । अपि शेष कषायाणां नूनं मंदोदर्योंऽशतः .428। सम्यक्त्वेनाविनाभूतः प्रशमः परमो गुणः । अन्यत्र प्रशमंमन्येऽप्याभासः स्यात्तदत्ययात् ।430।</span> =<span class="HindiText"> पंचेंद्रियों के विषयों में और लोक के असंख्यातवें भाग प्रमाण तीव्र भाव क्रोधादिकों में स्वरूप से शिथिल मनका होना ही प्रशम भाव कहलाता है ।426। अथवा उसी समय अपराध करने वाले जीवों पर कभी भी उनके वधादिरूप विकार के लिए बुद्धि का नहीं होना प्रशम माना गया है ।427। उस प्रशम भाव की उत्पत्ति में निश्चय से अनंतानुबंधी कषायों का उदयाभाव और प्रत्याख्यानादि कषायों का मंद उदय कारण है ।428। (<span class="GRef"> दर्शनपाहुड़/ </span>पं. जयचंद/2) सम्यक्त्व का अविनाभावी प्रशम भाव सम्यग्दृष्टि का परम गुण है । प्रशम भाव का झूठा अहंकार करने वाले मिथ्यादृष्टि के सम्यक्त्व का सद्भाव न होने से प्रशमाभास होता है । </span></p> | ||
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Revision as of 13:01, 14 October 2020
== सिद्धांतकोष से ==
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/426-430 प्रशमो विषयेषूच्चैर्भावक्रोधादिकेषु च । लोकासंख्यातमात्रेषु स्वरूपाच्छिथिलं मनः ।426। सद्यः कृतापराधेषु यद्वा जीवेषु जातुचित् । तद्वधादिविकाराय न बुद्धि-प्रशमो मतः । 427। हेतुस्तत्रोदयाभावः स्यादनंतानुबंधिनाम् । अपि शेष कषायाणां नूनं मंदोदर्योंऽशतः .428। सम्यक्त्वेनाविनाभूतः प्रशमः परमो गुणः । अन्यत्र प्रशमंमन्येऽप्याभासः स्यात्तदत्ययात् ।430। = पंचेंद्रियों के विषयों में और लोक के असंख्यातवें भाग प्रमाण तीव्र भाव क्रोधादिकों में स्वरूप से शिथिल मनका होना ही प्रशम भाव कहलाता है ।426। अथवा उसी समय अपराध करने वाले जीवों पर कभी भी उनके वधादिरूप विकार के लिए बुद्धि का नहीं होना प्रशम माना गया है ।427। उस प्रशम भाव की उत्पत्ति में निश्चय से अनंतानुबंधी कषायों का उदयाभाव और प्रत्याख्यानादि कषायों का मंद उदय कारण है ।428। ( दर्शनपाहुड़/ पं. जयचंद/2) सम्यक्त्व का अविनाभावी प्रशम भाव सम्यग्दृष्टि का परम गुण है । प्रशम भाव का झूठा अहंकार करने वाले मिथ्यादृष्टि के सम्यक्त्व का सद्भाव न होने से प्रशमाभास होता है ।
पुराणकोष से
सम्यग्दर्शन की अभिर्व्यक्ति में आवश्यक रूप से हेतुभूत आत्मा का प्रथम गुण । इससे कषायों का शमन हो जाता है । महापुराण 4.123, 15-214