रोग परीषह: Difference between revisions
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<p> सर्वार्थसिद्धि/9/9/425/9 <span class="SanskritText">सर्वाशुचिनिधानमिदमनित्यमपरित्राणमिति शरीरे निःशंकल्पत्वाद्विगतसंस्कारस्य गुणरत्नभांड-संचप्रवर्धनसंरक्षणसंधारणकारणत्वादभ्युपगतस्थिति-विधानस्याक्षम्रक्षणवद व्रणानुलेपनवद्वा बहूपकारमाहारमभ्युपगच्छतो विरुद्धाहारपानसेवनवैषम्यजनितवातादिविकाररोगस्य युगपदनेकशतसंख्य व्याधिप्रकोपे सत्यपि तद्वशवर्तितां विजहतो जल्लौषधिप्राप्तयाद्यनेकतपोविशेषर्द्धियोगे सत्यपि शरीरनिःस्पृहत्वात्तत्प्रतिकारानपेक्षिणो रोगपरिषहसहनमवगंतव्यम्। </span>= <span class="HindiText">यह सब प्रकार के अशुचि पदार्थों का आश्रय है, यह अनित्य है और परित्राण से रहित है, इस प्रकार इस शरीर में संकल्प रहित होने से जो विगत संस्कार है, गुण रूपी रत्नों के संचय, वर्धन, संरक्षण और संधारण का कारण होने से जिसने शरीर की स्थिति विधान को भले प्रकार स्वीकार किया है, धुर को ओंगन लगाने के समान या व्रण पर लेप करने के समान जो बहुत उपकार वाले आहार को स्वीकार करता है, विरुद्ध आहार-पान के सेवन रूप विषमता से जिसके वातादि विकार रोग उत्पन्न हुए हैं, एक साथ सैंकड़ों व्याधियों का प्रकोप होने पर भी जो उनके आधीन नहीं हुआ है, तथा तपोविशेष से जल्लौषधि और प्राप्ति आदि अनेक ऋद्धियों का संबंध होने पर भी शरीर से निस्पृह होने के कारण जो उनके प्रतिकार की अपेक्षा नहीं करता उसके रोग परीषह सहन जानना चाहिए। ( राजवार्तिक/9/9/21/611/24 ); ( चारित्रसार/124/3 )। </span></p> | <p><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/9/9/425/9 </span><span class="SanskritText">सर्वाशुचिनिधानमिदमनित्यमपरित्राणमिति शरीरे निःशंकल्पत्वाद्विगतसंस्कारस्य गुणरत्नभांड-संचप्रवर्धनसंरक्षणसंधारणकारणत्वादभ्युपगतस्थिति-विधानस्याक्षम्रक्षणवद व्रणानुलेपनवद्वा बहूपकारमाहारमभ्युपगच्छतो विरुद्धाहारपानसेवनवैषम्यजनितवातादिविकाररोगस्य युगपदनेकशतसंख्य व्याधिप्रकोपे सत्यपि तद्वशवर्तितां विजहतो जल्लौषधिप्राप्तयाद्यनेकतपोविशेषर्द्धियोगे सत्यपि शरीरनिःस्पृहत्वात्तत्प्रतिकारानपेक्षिणो रोगपरिषहसहनमवगंतव्यम्। </span>= <span class="HindiText">यह सब प्रकार के अशुचि पदार्थों का आश्रय है, यह अनित्य है और परित्राण से रहित है, इस प्रकार इस शरीर में संकल्प रहित होने से जो विगत संस्कार है, गुण रूपी रत्नों के संचय, वर्धन, संरक्षण और संधारण का कारण होने से जिसने शरीर की स्थिति विधान को भले प्रकार स्वीकार किया है, धुर को ओंगन लगाने के समान या व्रण पर लेप करने के समान जो बहुत उपकार वाले आहार को स्वीकार करता है, विरुद्ध आहार-पान के सेवन रूप विषमता से जिसके वातादि विकार रोग उत्पन्न हुए हैं, एक साथ सैंकड़ों व्याधियों का प्रकोप होने पर भी जो उनके आधीन नहीं हुआ है, तथा तपोविशेष से जल्लौषधि और प्राप्ति आदि अनेक ऋद्धियों का संबंध होने पर भी शरीर से निस्पृह होने के कारण जो उनके प्रतिकार की अपेक्षा नहीं करता उसके रोग परीषह सहन जानना चाहिए। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/9/9/21/611/24 </span>); (<span class="GRef"> चारित्रसार/124/3 </span>)। </span></p> | ||
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Revision as of 13:01, 14 October 2020
सर्वार्थसिद्धि/9/9/425/9 सर्वाशुचिनिधानमिदमनित्यमपरित्राणमिति शरीरे निःशंकल्पत्वाद्विगतसंस्कारस्य गुणरत्नभांड-संचप्रवर्धनसंरक्षणसंधारणकारणत्वादभ्युपगतस्थिति-विधानस्याक्षम्रक्षणवद व्रणानुलेपनवद्वा बहूपकारमाहारमभ्युपगच्छतो विरुद्धाहारपानसेवनवैषम्यजनितवातादिविकाररोगस्य युगपदनेकशतसंख्य व्याधिप्रकोपे सत्यपि तद्वशवर्तितां विजहतो जल्लौषधिप्राप्तयाद्यनेकतपोविशेषर्द्धियोगे सत्यपि शरीरनिःस्पृहत्वात्तत्प्रतिकारानपेक्षिणो रोगपरिषहसहनमवगंतव्यम्। = यह सब प्रकार के अशुचि पदार्थों का आश्रय है, यह अनित्य है और परित्राण से रहित है, इस प्रकार इस शरीर में संकल्प रहित होने से जो विगत संस्कार है, गुण रूपी रत्नों के संचय, वर्धन, संरक्षण और संधारण का कारण होने से जिसने शरीर की स्थिति विधान को भले प्रकार स्वीकार किया है, धुर को ओंगन लगाने के समान या व्रण पर लेप करने के समान जो बहुत उपकार वाले आहार को स्वीकार करता है, विरुद्ध आहार-पान के सेवन रूप विषमता से जिसके वातादि विकार रोग उत्पन्न हुए हैं, एक साथ सैंकड़ों व्याधियों का प्रकोप होने पर भी जो उनके आधीन नहीं हुआ है, तथा तपोविशेष से जल्लौषधि और प्राप्ति आदि अनेक ऋद्धियों का संबंध होने पर भी शरीर से निस्पृह होने के कारण जो उनके प्रतिकार की अपेक्षा नहीं करता उसके रोग परीषह सहन जानना चाहिए। ( राजवार्तिक/9/9/21/611/24 ); ( चारित्रसार/124/3 )।