वायु: Difference between revisions
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मू.आ./212<span class="PrakritGatha"> वादुब्भामो उक्कलि मंडलि गुंजा महा घणु तणू य। ते जाण वाउजीवा जाणित्त परिहरेदव्वा।212।</span> =<span class="HindiText"> सामान्य पवन, भ्रमता हुआ ऊँचा जाने वाला पवन, बहुत रज सहित गूँजने वाला पवन, पृथिवी में लगता हुआ चक्कर वाला पवन, गूँजता हुआ चलने वाला पवन, महापवन, घनोदधि वात, घनवात, तनुवात (विशेष देखें [[ वातवलय ]]) - ये वायुकायिक जीव हैं। (पं.सं./प्र./1/80); ( धवला 1/1, 1, 42/ गा.152/273); ( तत्त्वसार/2/65 )। </span><br /> | मू.आ./212<span class="PrakritGatha"> वादुब्भामो उक्कलि मंडलि गुंजा महा घणु तणू य। ते जाण वाउजीवा जाणित्त परिहरेदव्वा।212।</span> =<span class="HindiText"> सामान्य पवन, भ्रमता हुआ ऊँचा जाने वाला पवन, बहुत रज सहित गूँजने वाला पवन, पृथिवी में लगता हुआ चक्कर वाला पवन, गूँजता हुआ चलने वाला पवन, महापवन, घनोदधि वात, घनवात, तनुवात (विशेष देखें [[ वातवलय ]]) - ये वायुकायिक जीव हैं। (पं.सं./प्र./1/80); (<span class="GRef"> धवला 1/1, 1, 42/ </span>गा.152/273); (<span class="GRef"> तत्त्वसार/2/65 </span>)। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> भगवती आराधना / विजयोदया टीका/608/805/20 </span><span class="SanskritText">झंझामंडलिकादौ वायौ। </span>=<span class="HindiText"> वायु के झंझावात और मांडलिक ऐसे दो भेद हैं। जल वृष्टि सहित जो वायु बहती है उसको झंझावात कहते हैं और जो वर्तुलाकार भ्रमण करती है उसको मांडलिक वायु कहते हैं। <br /> | |||
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<span class="GRef"> ज्ञानार्णव/29/21, 26 </span><span class="SanskritText">सुवृत्तं बिंदुसंकीर्णं नीलांजनघनप्रभम्। चंचलं पवनोपेतं दुर्लक्ष्यं वायुमंडलम् ।21। तिर्यग्व-हत्यविश्रांतः पवनाख्यः षडंगलः। पवनः कृष्णवर्णोऽसौ उष्णः शीतश्च लक्ष्यते।26। </span>= <span class="HindiText">सुवृत्त कहिए गोलाकार तथा बिंदुओं सहित नीलांजनः घन के समान है वर्ण जिसका, तथा चंचला (बहता हुआ) पवन बीजाक्षर सहित, दुर्लक्ष्य (देखने में न आवे) ऐसा वायुमंडल है। यह पवनमंडल का स्वरूप कहा।21। जो पवन सब तरफ तिर्यक् बहता हो, विश्राम न लेकर निरंतर बहता ही रहे तथा 6 अंगुल बाहर आवै, कृष्णवर्ण हो, उष्ण हो तथा शीत भी हो ऐसा पवनमंडल संबंधी पवन पहचाना जाता है। <br /> | |||
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<span class="GRef"> ज्ञानार्णव/37/20-23 </span><span class="SanskritGatha">विमानपथमापूर्य संचरंतं समीरणम्। स्मरत्यविरत योगी महावेगं महाबलम्।20। चालयंतं सुरानीकं ध्वनंतं त्रिदशालयम्। दारयंतं घनव्रातं क्षोभयंतं महार्णवम्।21। व्रजंतं भुवनाभोगे संचरंतं हरिन्मुखे। विसर्पंतं जगन्नीडे निविशंतं धरातले।22। उद्धूय तद्रजः शीघ्रं तेन प्रबलवायुना। ततः स्थिरीकृताभ्यासः समीरं शांतिमानयेत।23।</span> = <span class="HindiText">योगी आकाश में पूर्ण होकर विचरते हुए महावेगवाले और महाबलवान् ऐसे वायुमंडल का चिंतवन करै।20। तत्पश्चात् उस पवन को ऐसा चिंतवन करै कि - देवों की सेना को चलायमान करता है, मेरु पर्वत को कँपाता है, मेघों के समूह को बखेरता हुआ, समुद्र को क्षोभरूप करता है।21। तथा लोक के मध्य गमन करता हुआ दशों दिशाओं में संचरता हुआ जगत्रूप घर में फैला हुआ, पृथिवीतल में प्रवेश करता हुआ चिंतवन करै।22। तत्पश्चात् ध्यानी (मुनि) ऐसा चिंतवन करै कि वह जो शरीरादिक का भस्म है (देखें [[ आग्नेसी धारणा ]]) उसको इस प्रबल वायुमंडल ने तत्काल उड़ा दिया, तत्पश्चात् इस वायु को स्थिररूप चिंतवन करके स्थिर करे।23। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> तत्त्वानुशासन/184 </span><span class="SanskritGatha">अकारं मरुता पूर्य कुंभित्वा रेफवह्निना। दग्ध्वा स्ववपुषा कर्म, स्वतो भस्म विरेच्य च।184। </span>= <span class="HindiText">अर्हं मंत्र के ‘अ’ अक्षर को पूरक पवन के द्वारा पूरित और कुंभित करके रेफकी अग्नि से कर्म चक्र को अपने शरीर सहित भस्म करके फिर भस्म को स्वयं विरेचित करे।184। <br /> | |||
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ष.ख./4/1, 3/सूत्र 24/99<span class="SanskritText"> बादरवाउक्काइयपज्जत्त केवडि खेत्ते, लोगस्स संखेज्जदिभागे।24। </span><br /> | ष.ख./4/1, 3/सूत्र 24/99<span class="SanskritText"> बादरवाउक्काइयपज्जत्त केवडि खेत्ते, लोगस्स संखेज्जदिभागे।24। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 4/1, 3, 17/83/6 </span><span class="PrakritText">मंदरमूलादो उवरि जाव सदरसहस्सारकप्पो त्ति पंचरज्जु उस्सेधेण लोगणाली समचउरंसा वादेण आउण्णा। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 4/3, 24/99/8 </span><span class="PrakritText">बादरवाउपज्जत्तरासी लोगस्स संखेज्जदिभागमेत्ते मारणंतिय उववादगदो सव्वलोगे किण्ण होदि त्ति वुत्ते ण होदि, रज्जुपदरमुहेण पंचरज्जुआयामेण ट्ठिदखेत्ते चेव पाएण तेसिमुप्पत्तीदो। </span>= <span class="HindiText">बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं? लोक के संख्यातवें भाग में रहते हैं।24। (वह इस प्रकार कि) - मंदराचल के मूलभाग से लेकर ऊपर शतार और सहस्रार कल्प तक पाँच राजू उत्सेधरूप से समचतुरस्र लोकनाली वायु से परिपूर्ण है। प्रश्न - बादर वायुकायिक पर्याप्त राशि लोक के संख्यातवें भागप्रमाण हैं, जब वह मारणांतिक समुद्धात और उपपाद पदों को प्राप्त हो तब वह सर्व लोक में क्यों नहीं रहती है? उत्तर - नहीं रहती है, क्योंकि राजुप्रतरप्रमाण मुख से और पाँच राजु आयाम से स्थित क्षेत्र में ही प्रायः करके उन बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवों की उत्पत्ति होती है। <br /> | |||
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<li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5"> अन्य संबंधित विषय </strong><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="5" id="5"> अन्य संबंधित विषय </strong><br /> |
Revision as of 13:02, 14 October 2020
== सिद्धांतकोष से ==
वायु भी अनेक प्रकार की है। उनमें से कुछ अचित्त होती हैं और कुछ सचित्त। प्राणायाम ध्यान आदि में भी वायुमंडल व वायवी धारणाओं का प्रयोग किया जाता है।
- वायु के अनेकों भेद व लक्षण
देखें पृथिवी (वायु, वायुकायिक, वायुकाय और वायु इस प्रकार वायु के चार भेद हैं। तहाँ वायुकायिक निम्न रूप से अनेक प्रकार हैं)।
मू.आ./212 वादुब्भामो उक्कलि मंडलि गुंजा महा घणु तणू य। ते जाण वाउजीवा जाणित्त परिहरेदव्वा।212। = सामान्य पवन, भ्रमता हुआ ऊँचा जाने वाला पवन, बहुत रज सहित गूँजने वाला पवन, पृथिवी में लगता हुआ चक्कर वाला पवन, गूँजता हुआ चलने वाला पवन, महापवन, घनोदधि वात, घनवात, तनुवात (विशेष देखें वातवलय ) - ये वायुकायिक जीव हैं। (पं.सं./प्र./1/80); ( धवला 1/1, 1, 42/ गा.152/273); ( तत्त्वसार/2/65 )।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/608/805/20 झंझामंडलिकादौ वायौ। = वायु के झंझावात और मांडलिक ऐसे दो भेद हैं। जल वृष्टि सहित जो वायु बहती है उसको झंझावात कहते हैं और जो वर्तुलाकार भ्रमण करती है उसको मांडलिक वायु कहते हैं।
- प्राणायाम संबंधी वायु मंडल
ज्ञानार्णव/29/21, 26 सुवृत्तं बिंदुसंकीर्णं नीलांजनघनप्रभम्। चंचलं पवनोपेतं दुर्लक्ष्यं वायुमंडलम् ।21। तिर्यग्व-हत्यविश्रांतः पवनाख्यः षडंगलः। पवनः कृष्णवर्णोऽसौ उष्णः शीतश्च लक्ष्यते।26। = सुवृत्त कहिए गोलाकार तथा बिंदुओं सहित नीलांजनः घन के समान है वर्ण जिसका, तथा चंचला (बहता हुआ) पवन बीजाक्षर सहित, दुर्लक्ष्य (देखने में न आवे) ऐसा वायुमंडल है। यह पवनमंडल का स्वरूप कहा।21। जो पवन सब तरफ तिर्यक् बहता हो, विश्राम न लेकर निरंतर बहता ही रहे तथा 6 अंगुल बाहर आवै, कृष्णवर्ण हो, उष्ण हो तथा शीत भी हो ऐसा पवनमंडल संबंधी पवन पहचाना जाता है।
- मारुती धारणा का स्वरूप
ज्ञानार्णव/37/20-23 विमानपथमापूर्य संचरंतं समीरणम्। स्मरत्यविरत योगी महावेगं महाबलम्।20। चालयंतं सुरानीकं ध्वनंतं त्रिदशालयम्। दारयंतं घनव्रातं क्षोभयंतं महार्णवम्।21। व्रजंतं भुवनाभोगे संचरंतं हरिन्मुखे। विसर्पंतं जगन्नीडे निविशंतं धरातले।22। उद्धूय तद्रजः शीघ्रं तेन प्रबलवायुना। ततः स्थिरीकृताभ्यासः समीरं शांतिमानयेत।23। = योगी आकाश में पूर्ण होकर विचरते हुए महावेगवाले और महाबलवान् ऐसे वायुमंडल का चिंतवन करै।20। तत्पश्चात् उस पवन को ऐसा चिंतवन करै कि - देवों की सेना को चलायमान करता है, मेरु पर्वत को कँपाता है, मेघों के समूह को बखेरता हुआ, समुद्र को क्षोभरूप करता है।21। तथा लोक के मध्य गमन करता हुआ दशों दिशाओं में संचरता हुआ जगत्रूप घर में फैला हुआ, पृथिवीतल में प्रवेश करता हुआ चिंतवन करै।22। तत्पश्चात् ध्यानी (मुनि) ऐसा चिंतवन करै कि वह जो शरीरादिक का भस्म है (देखें आग्नेसी धारणा ) उसको इस प्रबल वायुमंडल ने तत्काल उड़ा दिया, तत्पश्चात् इस वायु को स्थिररूप चिंतवन करके स्थिर करे।23।
तत्त्वानुशासन/184 अकारं मरुता पूर्य कुंभित्वा रेफवह्निना। दग्ध्वा स्ववपुषा कर्म, स्वतो भस्म विरेच्य च।184। = अर्हं मंत्र के ‘अ’ अक्षर को पूरक पवन के द्वारा पूरित और कुंभित करके रेफकी अग्नि से कर्म चक्र को अपने शरीर सहित भस्म करके फिर भस्म को स्वयं विरेचित करे।184।
- बादर वायुकायिकों का लोक में अवस्थान
ष.ख./4/1, 3/सूत्र 24/99 बादरवाउक्काइयपज्जत्त केवडि खेत्ते, लोगस्स संखेज्जदिभागे।24।
धवला 4/1, 3, 17/83/6 मंदरमूलादो उवरि जाव सदरसहस्सारकप्पो त्ति पंचरज्जु उस्सेधेण लोगणाली समचउरंसा वादेण आउण्णा।
धवला 4/3, 24/99/8 बादरवाउपज्जत्तरासी लोगस्स संखेज्जदिभागमेत्ते मारणंतिय उववादगदो सव्वलोगे किण्ण होदि त्ति वुत्ते ण होदि, रज्जुपदरमुहेण पंचरज्जुआयामेण ट्ठिदखेत्ते चेव पाएण तेसिमुप्पत्तीदो। = बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं? लोक के संख्यातवें भाग में रहते हैं।24। (वह इस प्रकार कि) - मंदराचल के मूलभाग से लेकर ऊपर शतार और सहस्रार कल्प तक पाँच राजू उत्सेधरूप से समचतुरस्र लोकनाली वायु से परिपूर्ण है। प्रश्न - बादर वायुकायिक पर्याप्त राशि लोक के संख्यातवें भागप्रमाण हैं, जब वह मारणांतिक समुद्धात और उपपाद पदों को प्राप्त हो तब वह सर्व लोक में क्यों नहीं रहती है? उत्तर - नहीं रहती है, क्योंकि राजुप्रतरप्रमाण मुख से और पाँच राजु आयाम से स्थित क्षेत्र में ही प्रायः करके उन बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवों की उत्पत्ति होती है।
- अन्य संबंधित विषय
- बादर तैजसकायिक आदिकों का भवनवासियों के विमानों व आठों पृथिवियों में अवस्थान -(देखें काय - 2.5) ।
- सूक्ष्म तैजसकायिक आदिकों का लोक में सर्वत्र अवस्थान - (देखें क्षेत्र - 4) ।
- वायु में पुद्गल के सर्व गुणों का अस्तित्व - (देखें पुद्गल - 2) ।
- वायु कायिकों में कथंचित् त्रसपना - (देखें स्थावर ) ।
- वायुकायिकों में वैक्रियिक योग की संभावना - (देखें वैक्रियिक ) ।
- वमार्गणा प्रकरण में भाव मार्गणा की इष्टता तथा तहाँ आय के अनुसार ही व्यय होने का नियम - (देखें मार्गणा )।
- वायुकायिकों में गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणास्थान आदि 20 प्ररूपणाएँ - (देखें सत् ) ।
- वायुकायिकों संबंधी सत्, संख्या. क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव व अल्पबहुत्व रूप 8 प्ररूपणाएँ - (देखें वह वह नाम ) ।
- वायुकायिकों में कर्मों का बंध उदय सत्त्व - (देखें वह वह नाम ) ।
- बादर तैजसकायिक आदिकों का भवनवासियों के विमानों व आठों पृथिवियों में अवस्थान -(देखें काय - 2.5) ।
पुराणकोष से
जयंतगिरि के दुर्जय वन का एक विद्याधर । सरस्वती इसकी स्त्री और रति पुत्री थी । हरिवंशपुराण 47.43
(2) वायव्य दिशा का एक रक्षक देव । महापुराण 54.107
(3) लोक का आवर्तक वातवलय । हरिवंशपुराण 4.33, 42, देखें वातवलय