विमलनाथ: Difference between revisions
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<span class="GRef"> महापुराण/59/ </span>श्लोक नं.–पूर्वभव नं. 2 में पश्चिम धातकी खंड के पश्चिम मेरु के वत्सकावती देश के रम्यकावती नगरी के राजा पद्मसेन थे।2–3। पूर्वभव नं. 1 में सहस्त्रार स्वर्ग में इंद्र हुए।10। वर्तमान भव में 13वें तीर्थंकर हुए।–देखें [[ तीर्थंकर#5 | तीर्थंकर - 5]]। | |||
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Revision as of 13:02, 14 October 2020
== सिद्धांतकोष से == महापुराण/59/ श्लोक नं.–पूर्वभव नं. 2 में पश्चिम धातकी खंड के पश्चिम मेरु के वत्सकावती देश के रम्यकावती नगरी के राजा पद्मसेन थे।2–3। पूर्वभव नं. 1 में सहस्त्रार स्वर्ग में इंद्र हुए।10। वर्तमान भव में 13वें तीर्थंकर हुए।–देखें तीर्थंकर - 5।
पुराणकोष से
अवसर्पिणी काल के चौथे दुःखमा-सुषमा काल में उत्पन्न शलाका पुरुष एवं वर्तमान के तेरहवें तीर्थंकर । दूसरे पूर्वभव में ये पश्चिम घातकीखंड द्वीप में रम्यकावती देश के पद्मसेन नृप थे । तीर्थंकर-प्रकृति का बंध कर सहस्रार स्वर्ग में इन्होंने इंद्र पद प्राप्त किया था । ये सहस्रार स्वर्ग से चयकर भरतक्षेत्र के कांपिल्य नगर में वृषभदेव के वंशज कृतवर्मा की रानी जयश्यामा के ज्येष्ठ कृष्ण दशमी की रात्रि के पिछले प्रहर में उत्तरा-भाद्रपद नक्षत्र के रहते हुए सोलह स्वप्नपूर्वक गर्भ में आये । माघ शुक्ल चतुर्थी के दिन अहिर्बुध योग में इनका जन्म हुआ । देवों ने इनका नाम विमलवाहन रखा । तीर्थंकर वासुपूज्य के तीर्थ के पश्चात् तीस सागर वर्ष का समय बीत जाने पर इनका जन्म हुआ । इनकी आयु साठ लाख वर्ष थी । शरीर साठ धनुष ऊँचा था । देह स्वर्ण के समान कांतिमां थी । पंद्रह लाख वर्ष प्रमाण कुमार काल बीत जाने के बाद ये राजा बने । हेमंत ऋतु में बर्फ की शोभा को तत्क्षण विलीन होते देखकर इन्हें वैराग्य हुआ । लौकांतिक देवों ने आकर उनके वैराग्य की स्तुति की । अन्य देवों ने उनका दीक्षाकल्याणक मनाया । पश्चात् देवदत्ता नामक पाल की में बैठकर ये सहेतुक वन गये । वहाँ दो दिन के उपवास का नियम लेकर माघ शुक्ल चतुर्थी के सायंकाल में ये एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हुए । दीक्षा लेते समय उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र था । दीक्षा लेते हो इन्हें मन:पर्ययज्ञान हो गया । ये पारणा के लिए नंदनपुर आये वहाँ राजा कनकप्रभ ने आहार देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये । दीक्षित हुए तीन वर्ष बीत जाने के बाद दीक्षावन में दो दिन के उपवास का नियम लेकर जामुन वृक्ष के नीचे जैसे ही ये ध्यानारूढ़ हुए कि ध्यान के फल स्वरूप माघ शुकल षष्ठी की सायंवेला में दीक्षाग्रहण के नक्षण में इन्हें केवलज्ञान प्रकट हुआ । इनके संघ में पचपन गणधर, ग्यारह सौ पूर्वधारी मुनि, छत्तीस हजार पांच सौ तीस शिक्षक मुनि, चार हजार आठ सौ अवधिज्ञानी मुनि, पाँच हजार पाँच सौ केवलज्ञानी मुनि, नौ हजार विक्रियाऋद्धिधारी मुनि, पाँच हजार पांच सौ मनःपर्ययज्ञानी मुनि और तीन हजार छ: सौ वादी मुनि कुछ अड़सठ हजार मुनि तथा एक लाख तीन हजार आर्यिकाएँ, दो लाख आवक, चार लाख श्राविकाएँ, असंख्यात देवी-देवता और संख्यात तिर्यंच थे । अंत में ये सम्मेदशिखर आये । यहाँ इन्होंने एक माह का योग निरोध किया । आठ हजार छ: सौ मुनियों के साथ योग धारण कर के आषाढ़ कृष्ण अष्टमी को उत्तराभाद्र पद नक्षत्र में प्रात: मोक्ष प्राप्त किया । महापुराण 59.2-56, पद्मपुराण 20. 61, वीरवर्द्धमान चरित्र 18.106