स्वर्ग देव: Difference between revisions
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<p class="HindiText"><strong id="1">वैमानिक देवों के भेद व लक्षण</strong></p> | <p class="HindiText"><strong id="1">वैमानिक देवों के भेद व लक्षण</strong></p> | ||
<p class="HindiText"><strong id="1.1">1. वैमानिक का लक्षण</strong></p> | <p class="HindiText"><strong id="1.1">1. वैमानिक का लक्षण</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> सर्वार्थसिद्धि/4/16/248/4 विमानेषु भवा वैमानिका:।</span> =<span class="HindiText">जो विमानों में होते हैं वे वैमानिक हैं। ( राजवार्तिक/4/16/1/222/29 )।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/4/16/248/4 </span>विमानेषु भवा वैमानिका:।</span> =<span class="HindiText">जो विमानों में होते हैं वे वैमानिक हैं। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/4/16/1/222/29 </span>)।</span></p> | ||
<p><span class="HindiText"><strong id="1.2">2. कल्प का लक्षण</strong></span></p> | <p><span class="HindiText"><strong id="1.2">2. कल्प का लक्षण</strong></span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> सर्वार्थसिद्धि/4/3/238/6 इंद्रादय: प्रकारा दश एतेषु कल्पयंत इति कल्पा:। भवनवासिषु तत्कल्पनासंभवेऽपि रूढिवशाद्वैमानिकेष्वेव वर्तते कल्पशब्द:।</span> =<span class="HindiText">जिनमें इंद्र आदि दस प्रकार कल्पें जाते हैं वे कल्प कहलाते हैं। इस प्रकार इंद्रादि की कल्पना ही कल्प संज्ञा का कारण है। यद्यपि इंद्रादि की कल्पना भवनवासियों में भी संभव है, फिर भी रूढ़ि से कल्प शब्द का व्यवहार वैमानिकों में ही किया जाता है। ( राजवार्तिक/4/3/3212/8 )।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/4/3/238/6 </span>इंद्रादय: प्रकारा दश एतेषु कल्पयंत इति कल्पा:। भवनवासिषु तत्कल्पनासंभवेऽपि रूढिवशाद्वैमानिकेष्वेव वर्तते कल्पशब्द:।</span> =<span class="HindiText">जिनमें इंद्र आदि दस प्रकार कल्पें जाते हैं वे कल्प कहलाते हैं। इस प्रकार इंद्रादि की कल्पना ही कल्प संज्ञा का कारण है। यद्यपि इंद्रादि की कल्पना भवनवासियों में भी संभव है, फिर भी रूढ़ि से कल्प शब्द का व्यवहार वैमानिकों में ही किया जाता है। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/4/3/3212/8 </span>)।</span></p> | ||
<p><span class="HindiText"><strong id="1.3">3. कल्प व कल्पातीत रूप भेद व लक्षण</strong></span></p> | <p><span class="HindiText"><strong id="1.3">3. कल्प व कल्पातीत रूप भेद व लक्षण</strong></span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> तत्त्वार्थसूत्र/4/17 कल्पोपपन्ना: कल्पातीताश्च।17।</span> =<span class="HindiText">वे दो प्रकार के हैं-कल्पोपपन्न और कल्पातीत। (विशेष देखें [[ स्वर्ग#5 | स्वर्ग - 5]])।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/4/17 </span>कल्पोपपन्ना: कल्पातीताश्च।17।</span> =<span class="HindiText">वे दो प्रकार के हैं-कल्पोपपन्न और कल्पातीत। (विशेष देखें [[ स्वर्ग#5 | स्वर्ग - 5]])।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> सर्वार्थसिद्धि/4/17/248/9 कल्पुषूपपन्ना: कल्पोपपन्ना: कल्पानतीता: कल्पातीताश्च।</span> =<span class="HindiText">जो कल्पों में उत्पन्न होते हैं वे कल्पोपपन्न कहलाते हैं और जो कल्पों के परे हैं वे कल्पातीत कहलाते हैं। ( राजवार्तिक/4/17/223/2 )।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/4/17/248/9 </span>कल्पुषूपपन्ना: कल्पोपपन्ना: कल्पानतीता: कल्पातीताश्च।</span> =<span class="HindiText">जो कल्पों में उत्पन्न होते हैं वे कल्पोपपन्न कहलाते हैं और जो कल्पों के परे हैं वे कल्पातीत कहलाते हैं। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/4/17/223/2 </span>)।</span></p> | ||
<p><span class="HindiText"><strong id="1.4">4. कल्पातीत देव सभी अहमिंद्र हैं</strong></span></p> | <p><span class="HindiText"><strong id="1.4">4. कल्पातीत देव सभी अहमिंद्र हैं</strong></span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> राजवार्तिक/4/17/1/223/4 स्यान्मतम् नवग्रैवेयका नवानुदिशा: पंचानुत्तरा: इति च कल्पनासंभवात् तेषामपि च कल्पत्वप्रसंग इति; तन्न; किं कारणम् । उक्तत्वात् । उक्तमेतत्-इंद्रादिदशतयकल्पनासद्भावात् कल्पा इति। नवग्रैवेयकादिषु इंद्रादिकल्पना नास्ति तेषामहमिंद्रत्वात् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>-नवग्रैवेयक, नव अनुदिश और पंच अनुत्तर इस प्रकार संख्याकृत कल्पना होने से उनमें कल्पत्व का प्रसंग आता है ? | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> राजवार्तिक/4/17/1/223/4 </span>स्यान्मतम् नवग्रैवेयका नवानुदिशा: पंचानुत्तरा: इति च कल्पनासंभवात् तेषामपि च कल्पत्वप्रसंग इति; तन्न; किं कारणम् । उक्तत्वात् । उक्तमेतत्-इंद्रादिदशतयकल्पनासद्भावात् कल्पा इति। नवग्रैवेयकादिषु इंद्रादिकल्पना नास्ति तेषामहमिंद्रत्वात् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>-नवग्रैवेयक, नव अनुदिश और पंच अनुत्तर इस प्रकार संख्याकृत कल्पना होने से उनमें कल्पत्व का प्रसंग आता है ? | ||
<strong>उत्तर</strong>-नहीं, क्योंकि, पहिले ही कहा जा चुका है कि इंद्रादि दश प्रकार की कल्पना के सद्भाव से ही कल्प कहलाते हैं। नव ग्रैवेयकादिक में इंद्रादि की कल्पना नहीं है, क्योंकि, वे अहमिंद्र हैं।</span></p> | <strong>उत्तर</strong>-नहीं, क्योंकि, पहिले ही कहा जा चुका है कि इंद्रादि दश प्रकार की कल्पना के सद्भाव से ही कल्प कहलाते हैं। नव ग्रैवेयकादिक में इंद्रादि की कल्पना नहीं है, क्योंकि, वे अहमिंद्र हैं।</span></p> | ||
<br/><p class="HindiText"><strong id="2">वैमानिक देव सामान्य निर्देश</strong></p> | <br/><p class="HindiText"><strong id="2">वैमानिक देव सामान्य निर्देश</strong></p> | ||
<p class="HindiText"><strong id="2.1">1. वैमानिक देवों में मोक्ष की योग्यता संबंधी नियम</strong></p> | <p class="HindiText"><strong id="2.1">1. वैमानिक देवों में मोक्ष की योग्यता संबंधी नियम</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> तत्त्वार्थसूत्र/4/26 विजयादिषु द्विचरमा:।26।</span> =<span class="HindiText">विजयादिक में अर्थात् विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित नाम के अनुत्तर विमानवासी देव द्विचरम देही होते हैं। [अर्थात् एक मनुष्य व एक देव ऐसे दो भव बीच में लेकर तीसरे भव मोक्ष जायेंगे (देखें [[ चरम ]])]।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/4/26 </span>विजयादिषु द्विचरमा:।26।</span> =<span class="HindiText">विजयादिक में अर्थात् विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित नाम के अनुत्तर विमानवासी देव द्विचरम देही होते हैं। [अर्थात् एक मनुष्य व एक देव ऐसे दो भव बीच में लेकर तीसरे भव मोक्ष जायेंगे (देखें [[ चरम ]])]।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> सर्वार्थसिद्धि/4/26/257/1 सर्वार्थसिद्धिप्रसंग इति चेत् । न; तेषां परमोत्कृष्टत्वात्, अन्वर्थसंज्ञात एकचमरमत्वसिद्धे:।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>-इस (उपरोक्त सूत्र से) सर्वार्थसिद्धि का भी ग्रहण प्राप्त होता है? | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/4/26/257/1 </span>सर्वार्थसिद्धिप्रसंग इति चेत् । न; तेषां परमोत्कृष्टत्वात्, अन्वर्थसंज्ञात एकचमरमत्वसिद्धे:।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>-इस (उपरोक्त सूत्र से) सर्वार्थसिद्धि का भी ग्रहण प्राप्त होता है? | ||
<strong>उत्तर</strong>-नहीं, क्योंकि, वे परम उत्कृष्ट हैं; उनका सर्वार्थसिद्धि यह सार्थक नाम है, इसलिए वे एक भवावतारी होते हैं। अर्थात् अगले भव से मोक्ष जायेंगे। ( राजवार्तिक/4/26/1/244/18 )।</span></p> | <strong>उत्तर</strong>-नहीं, क्योंकि, वे परम उत्कृष्ट हैं; उनका सर्वार्थसिद्धि यह सार्थक नाम है, इसलिए वे एक भवावतारी होते हैं। अर्थात् अगले भव से मोक्ष जायेंगे। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/4/26/1/244/18 </span>)।</span></p> | ||
<p><span class="HindiText">देखें [[ लौकांतिक ]][सब लौकांतिक देव एक भवावतारी हैं।]</span></p> | <p><span class="HindiText">देखें [[ लौकांतिक ]][सब लौकांतिक देव एक भवावतारी हैं।]</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> तिलोयपण्णत्ति/8/675-676 कप्पादीदा दुचरमदेहा हवंति केई सुरा। सक्को सहग्गमहिसी सलोयवालो य दक्खिणा इंदा।675। सव्वट्ठसिद्धिवासी लोयंतियणामधेयसव्वसुरा। णियमा दुचरिमदेहा सेसेसु णत्थि णियमो य।676।</span> =<span class="HindiText">कल्पवासी और कल्पातीतों में से कोई देव द्विचरमशरीरी अर्थात् आगामी भव में मोक्ष प्राप्त करने वाले हैं। अग्रमहिषी और लोकपालों से सहित सौधर्म इंद्र, सभी दक्षिणेंद्र, सर्वार्थसिद्धिवासी तथा लौकांतिक नामक सब देव नियम से द्विचरम शरीरी हैं। शेष देवों में नियम नहीं है।675-676।</span></p> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/8/675-676 </span>कप्पादीदा दुचरमदेहा हवंति केई सुरा। सक्को सहग्गमहिसी सलोयवालो य दक्खिणा इंदा।675। सव्वट्ठसिद्धिवासी लोयंतियणामधेयसव्वसुरा। णियमा दुचरिमदेहा सेसेसु णत्थि णियमो य।676।</span> =<span class="HindiText">कल्पवासी और कल्पातीतों में से कोई देव द्विचरमशरीरी अर्थात् आगामी भव में मोक्ष प्राप्त करने वाले हैं। अग्रमहिषी और लोकपालों से सहित सौधर्म इंद्र, सभी दक्षिणेंद्र, सर्वार्थसिद्धिवासी तथा लौकांतिक नामक सब देव नियम से द्विचरम शरीरी हैं। शेष देवों में नियम नहीं है।675-676।</span></p> | ||
<br/><p class="HindiText"><strong id="3">वैमानिक इंद्रों का निर्देश</strong></p> | <br/><p class="HindiText"><strong id="3">वैमानिक इंद्रों का निर्देश</strong></p> | ||
<p class="HindiText"><strong id="3.1">1. वैमानिक इंद्रों के नाम व संख्या आदि का निर्देश</strong></p> | <p class="HindiText"><strong id="3.1">1. वैमानिक इंद्रों के नाम व संख्या आदि का निर्देश</strong></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> सर्वार्थसिद्धि/4/19/250/3 प्रथमौ सौधर्मैशानकल्पौ, तयोरुपरि सनत्कुमारमाहेंद्रौ, तयोरुपरि ब्रह्मलोकब्रह्मोत्तरौ, तयोरुपरि लांतवकापिष्ठौ, तयोरुपरि शुक्रमहाशुक्रौ, तयोरुपरि शतारसहस्रारौ, तयोरुपरि आनतप्राणतौ, तयोरुपरि आरणाच्युतौ। अध उपरि च प्रत्येकमिंद्रसंबनधो वेदितव्य:। मध्ये तु प्रतिद्वयम् । सौधर्मैशानसानत्कुमारमाहेंद्राणां चतुर्णां चत्वार इंद्रा:। ब्रह्मलोकब्रह्मोत्तरयोरेको ब्रह्मा नाम। लांतवकापिष्ठयोरेको लांतवाख्य:। शुक्रमहाशुक्रयोरेक: शुक्रसंज्ञ:। शतारसहस्रारयोरेको शतारनामा। आनतप्राणतारणाच्युतानां चतुर्ण्णां चत्वार:। एवं कल्पवासिनां द्वादश इंद्रा भवंति।</span> =<span class="HindiText">सर्वप्रथम सौधर्म और ऐशान कल्प युगल है। इनके ऊपर क्रम से-सनत्कुमार-माहेंद्र, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर, लांतव-कापिष्ठ, शुक्र-महाशुक्र, शतार-सहस्रार, आनत-प्राणत, और आरण-अच्युत; ऐसे 16 स्वर्गों के कुल आठ युगल हैं। नीचे और ऊपर के चार-चार कल्पों में प्रत्येक में एक-एक इंद्र, मध्य के चार युगलों में दो-दो कल्पों के अर्थात् एक-एक युगल के एक-एक इंद्र हैं। तात्पर्य यह है, कि सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार और माहेंद्र इन चार कल्पों के चार इंद्र हैं। ब्रह्मलोक और ब्रह्मोत्तर इन दो कल्पों का एक ब्रह्म नामक इंद्र है। लांतव और कापिष्ठ इन दो कल्पों में एक लांतव नामक इंद्र है। शुक्र और महाशुक्र में एक शुक्र नामक इंद्र है। शतार और सहस्रार इन दो कल्पों में एक शतार नामक इंद्र है। तथा आनत, प्राणत, आरण, अच्युत इन चार कल्पों के चार इंद्र हैं। इस प्रकार कल्पवासियों के 12 इंद्र होते हैं। ( राजवार्तिक/4/19/6-7/225/4 ); ( त्रिलोकसार/452-454 ); (और भी देखें [[ स्वर्ग#5 | स्वर्ग - 5]]/2)</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/4/19/250/3 </span>प्रथमौ सौधर्मैशानकल्पौ, तयोरुपरि सनत्कुमारमाहेंद्रौ, तयोरुपरि ब्रह्मलोकब्रह्मोत्तरौ, तयोरुपरि लांतवकापिष्ठौ, तयोरुपरि शुक्रमहाशुक्रौ, तयोरुपरि शतारसहस्रारौ, तयोरुपरि आनतप्राणतौ, तयोरुपरि आरणाच्युतौ। अध उपरि च प्रत्येकमिंद्रसंबनधो वेदितव्य:। मध्ये तु प्रतिद्वयम् । सौधर्मैशानसानत्कुमारमाहेंद्राणां चतुर्णां चत्वार इंद्रा:। ब्रह्मलोकब्रह्मोत्तरयोरेको ब्रह्मा नाम। लांतवकापिष्ठयोरेको लांतवाख्य:। शुक्रमहाशुक्रयोरेक: शुक्रसंज्ञ:। शतारसहस्रारयोरेको शतारनामा। आनतप्राणतारणाच्युतानां चतुर्ण्णां चत्वार:। एवं कल्पवासिनां द्वादश इंद्रा भवंति।</span> =<span class="HindiText">सर्वप्रथम सौधर्म और ऐशान कल्प युगल है। इनके ऊपर क्रम से-सनत्कुमार-माहेंद्र, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर, लांतव-कापिष्ठ, शुक्र-महाशुक्र, शतार-सहस्रार, आनत-प्राणत, और आरण-अच्युत; ऐसे 16 स्वर्गों के कुल आठ युगल हैं। नीचे और ऊपर के चार-चार कल्पों में प्रत्येक में एक-एक इंद्र, मध्य के चार युगलों में दो-दो कल्पों के अर्थात् एक-एक युगल के एक-एक इंद्र हैं। तात्पर्य यह है, कि सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार और माहेंद्र इन चार कल्पों के चार इंद्र हैं। ब्रह्मलोक और ब्रह्मोत्तर इन दो कल्पों का एक ब्रह्म नामक इंद्र है। लांतव और कापिष्ठ इन दो कल्पों में एक लांतव नामक इंद्र है। शुक्र और महाशुक्र में एक शुक्र नामक इंद्र है। शतार और सहस्रार इन दो कल्पों में एक शतार नामक इंद्र है। तथा आनत, प्राणत, आरण, अच्युत इन चार कल्पों के चार इंद्र हैं। इस प्रकार कल्पवासियों के 12 इंद्र होते हैं। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/4/19/6-7/225/4 </span>); (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/452-454 </span>); (और भी देखें [[ स्वर्ग#5 | स्वर्ग - 5]]/2)</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> तिलोयपण्णत्ति/8/450 इदाणं चिण्हाणिं पत्तेकं ताव जा सहस्सारं। आणदआरणजुगले चोद्दसठाणेसु वोच्छामि।450। | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/8/450 </span>इदाणं चिण्हाणिं पत्तेकं ताव जा सहस्सारं। आणदआरणजुगले चोद्दसठाणेसु वोच्छामि।450। | ||
</span>=<span class="HindiText">सौधर्म से लेकर सहस्रार पर्यंत के 12 कल्पों में प्रत्येक का एक-एक इंद्र है। तथा आनत, प्राणत और आरण-अच्युत इन दो युगलों के एक-एक इंद्र हैं। इस प्रकार चौदह स्थानों में अर्थात् चौदह इंद्रों के चिह्नों को कहते हैं।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">सौधर्म से लेकर सहस्रार पर्यंत के 12 कल्पों में प्रत्येक का एक-एक इंद्र है। तथा आनत, प्राणत और आरण-अच्युत इन दो युगलों के एक-एक इंद्र हैं। इस प्रकार चौदह स्थानों में अर्थात् चौदह इंद्रों के चिह्नों को कहते हैं।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> राजवार्तिक/4/19/233/21 –त एते लोकानुयोगोपदेशेन चतुर्दशेंद्रा उक्ता:। इह द्वादशेष्यंते पूर्वोक्तेन क्रमेण ब्रह्मोत्तरकापिष्ठमहाशुक्रसहस्रारेंद्राणां दक्षिणेंद्रानुवृत्तित्वात् आनतप्राणतकल्पयोश्च एकैकेंद्रत्वात् । | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> राजवार्तिक/4/19/233/21 </span>–त एते लोकानुयोगोपदेशेन चतुर्दशेंद्रा उक्ता:। इह द्वादशेष्यंते पूर्वोक्तेन क्रमेण ब्रह्मोत्तरकापिष्ठमहाशुक्रसहस्रारेंद्राणां दक्षिणेंद्रानुवृत्तित्वात् आनतप्राणतकल्पयोश्च एकैकेंद्रत्वात् । | ||
</span>=<span class="HindiText">ये सब 14 इंद्र (देखें [[ स्वर्ग#5 | स्वर्ग - 5]]/9 में | </span>=<span class="HindiText">ये सब 14 इंद्र (देखें [[ स्वर्ग#5 | स्वर्ग - 5]]/9 में <span class="GRef"> राजवार्तिक </span>) लोकानुयोग के उपदेश से कहे गये हैं। परंतु यहाँ (तत्त्वार्थ सूत्र में) 12 इंद्र अपेक्षित हैं। क्योंकि 14 इंद्रों में जिनका पृथक् ग्रहण किया गया है ऐसे ब्रह्मोत्तर, कापिष्ठ, शुक्र और सहस्रार ये चार इंद्र अपने-अपने दक्षिणेंद्रों के अर्थात् ब्रह्म, लांतव, महाशुक्र और शतार के अनुवर्ती हैं। तथा 14 इंद्रों में युगलरूप ग्रहण करके जिनके केवल दो इंद्र माने गये हैं ऐसे आनतादि चार कल्पों के पृथक्-पृथक् चार इंद्र हैं। [इस प्रकार 14 इंद्र व 12 इंद्र इन दोनों मान्यताओं का समन्वय हो जाता है।]</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong id="3.2">2. वैमानिक इंद्रों में दक्षिण व उत्तर इंद्रों का विभाग</strong></p> | <p class="HindiText"><strong id="3.2">2. वैमानिक इंद्रों में दक्षिण व उत्तर इंद्रों का विभाग</strong></p> | ||
<p class="HindiText">देखें [[ स्वर्ग#5 | स्वर्ग - 5]]/9 में–( तिलोयपण्णत्ति/8/339-351 ), ( राजवार्तिक/4/19/8/ पृष्ठ/पंक्ति), ( हरिवंशपुराण/6/101-102 ), (ति.सा./483)</p> | <p class="HindiText">देखें [[ स्वर्ग#5 | स्वर्ग - 5]]/9 में–(<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/8/339-351 </span>), (<span class="GRef"> राजवार्तिक/4/19/8/ </span>पृष्ठ/पंक्ति), (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/6/101-102 </span>), (ति.सा./483)</p> | ||
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<td colspan="2"><p><strong> हरिवंशपुराण </strong></p></td> | <td colspan="2"><p><strong><span class="GRef"> हरिवंशपुराण </span></strong></p></td> | ||
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<p><strong class="HindiText" id="3.3">3. वैमानिक इंद्रों व देवों के आहार व श्वास का अंतराल</strong></p> | <p><strong class="HindiText" id="3.3">3. वैमानिक इंद्रों व देवों के आहार व श्वास का अंतराल</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">मू.आ./1145 जदि सागरोपमाऊ तदि वाससहस्सियादु आहारो। पक्खेहिं दु उस्सासो सागरसमयेहिं चेव भवे।1145।</span> =<span class="HindiText">जितने सागर की आयु है उतने ही हजार वर्ष के बाद देवों के आहार है और उतने ही पक्ष बीतने पर श्वासोच्छ्वास है। ये सब सागर के समयों कर होता है। ( त्रिलोकसार/544 ); (जं.प./11/350)</span></p> | <p><span class="PrakritText">मू.आ./1145 जदि सागरोपमाऊ तदि वाससहस्सियादु आहारो। पक्खेहिं दु उस्सासो सागरसमयेहिं चेव भवे।1145।</span> =<span class="HindiText">जितने सागर की आयु है उतने ही हजार वर्ष के बाद देवों के आहार है और उतने ही पक्ष बीतने पर श्वासोच्छ्वास है। ये सब सागर के समयों कर होता है। (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/544 </span>); (जं.प./11/350)</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> तिलोयपण्णत्ति/8/552-555 –जेत्तियजलणिहि उवमा जो जीवदि तस्स तेत्तिएहिं च। वरिससहस्सेहि हवे आहारो पणुदिणाणि पल्लमिदे।552। पडिइंदाणं सामाणियाण तेत्तीससुरवरणं। भोयणकालपमाणं णिय-णिय-इंदाण सारिच्छं।553। इंदप्पहुदिचउक्के देवीणं भोयणम्मि जो समओ। तस्स पमाणरूवणउवएसो संपहि पणट्ठो।554। सोहममिंददिगिंदे सोमम्मि जयम्मि भोयणावसरो। सामाणियाण ताणं पत्तेक्कं पंचवीसदलदिवसा।555।</span> =<span class="HindiText">जो देव जितने सागरोपम काल तक जीवित रहता है उसके उतने ही हजार वर्षों में आहार होता है। पल्य प्रमाण काल तक जीवित रहने वाले देव के पाँच दिन में आहार होता है।552। प्रतींद्र, सामानिक और त्रयस्त्रिंश देवों के आहार काल का प्रमाण अपने-अपने इंद्रों के सदृश है।553। इंद्र आदि चार की देवियों के भोजन का जो समय है उसके प्रमाण के निरूपण का उपदेश नष्ट हो गया है।554। सौधर्म इंद्र के दिक्पालों में से सोम व यम के तथा उनके सामानिकों में से प्रत्येक के भोजन का अवसर 12</span>[[File:1141557407clip_image002.gif ]]<span class="HindiText"> दिन है।555।</span></p> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/8/552-555 </span>–जेत्तियजलणिहि उवमा जो जीवदि तस्स तेत्तिएहिं च। वरिससहस्सेहि हवे आहारो पणुदिणाणि पल्लमिदे।552। पडिइंदाणं सामाणियाण तेत्तीससुरवरणं। भोयणकालपमाणं णिय-णिय-इंदाण सारिच्छं।553। इंदप्पहुदिचउक्के देवीणं भोयणम्मि जो समओ। तस्स पमाणरूवणउवएसो संपहि पणट्ठो।554। सोहममिंददिगिंदे सोमम्मि जयम्मि भोयणावसरो। सामाणियाण ताणं पत्तेक्कं पंचवीसदलदिवसा।555।</span> =<span class="HindiText">जो देव जितने सागरोपम काल तक जीवित रहता है उसके उतने ही हजार वर्षों में आहार होता है। पल्य प्रमाण काल तक जीवित रहने वाले देव के पाँच दिन में आहार होता है।552। प्रतींद्र, सामानिक और त्रयस्त्रिंश देवों के आहार काल का प्रमाण अपने-अपने इंद्रों के सदृश है।553। इंद्र आदि चार की देवियों के भोजन का जो समय है उसके प्रमाण के निरूपण का उपदेश नष्ट हो गया है।554। सौधर्म इंद्र के दिक्पालों में से सोम व यम के तथा उनके सामानिकों में से प्रत्येक के भोजन का अवसर 12</span>[[File:1141557407clip_image002.gif ]]<span class="HindiText"> दिन है।555।</span></p> | ||
<p><span class="HindiText">देखें [[ देव#II.2 | देव - II.2]]–(सभी देवों को अमृतमयी दिव्य आहार होता है।)</span></p> | <p><span class="HindiText">देखें [[ देव#II.2 | देव - II.2]]–(सभी देवों को अमृतमयी दिव्य आहार होता है।)</span></p> | ||
<p><strong class="HindiText" id="3.4">4. इंद्रों के चिह्न व यान विमान</strong></p> | <p><strong class="HindiText" id="3.4">4. इंद्रों के चिह्न व यान विमान</strong></p> | ||
<p><span class="HindiText"> तिलोयपण्णत्ति/5/84-97 का भावार्थ–(नंदीश्वरद्वीप की वंदनार्थ सौधर्मादिक इंद्र निम्न प्रकार के यानों पर आरूढ़ होकर आते हैं। सौधर्मेंद्र=हाथी; ईशानेंद्र=वृषभ; सनत्कुमार=सिंह; माहेंद्र=अश्व; ब्रह्मेंद्र=हंस; ब्रह्मोत्तर=क्रौंच; शुकेंद्र=चक्रवाक; महाशुक्रेंद्र=तोता; शतारेंद्र=कोयल; सहस्रारेंद्र=गरुड़; आनतेंद्र=गरुड़; प्राणतेंद्र=पद्म विमान; आरणेंद्र=कुमुद विमान; अच्युतेंद्र=मयूर।)</span></p> | <p><span class="HindiText"><span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/5/84-97 </span>का भावार्थ–(नंदीश्वरद्वीप की वंदनार्थ सौधर्मादिक इंद्र निम्न प्रकार के यानों पर आरूढ़ होकर आते हैं। सौधर्मेंद्र=हाथी; ईशानेंद्र=वृषभ; सनत्कुमार=सिंह; माहेंद्र=अश्व; ब्रह्मेंद्र=हंस; ब्रह्मोत्तर=क्रौंच; शुकेंद्र=चक्रवाक; महाशुक्रेंद्र=तोता; शतारेंद्र=कोयल; सहस्रारेंद्र=गरुड़; आनतेंद्र=गरुड़; प्राणतेंद्र=पद्म विमान; आरणेंद्र=कुमुद विमान; अच्युतेंद्र=मयूर।)</span></p> | ||
<p><span class="HindiText"> तिलोयपण्णत्ति/8/438-440 का भावार्थ–[इंद्रों के यान विमान निम्न प्रकार हैं–सौधर्म=बालुक; ईशान=पुष्पक; सनत्कुमार=सौमनस; माहेंद्र=श्रीवृक्ष; ब्रह्म=सर्वतोभद्र; लांतव=प्रीतिंकर; शुक्र=रम्यक; शतार=मनोहर; आनत=लक्ष्मी; प्राणत=मादिंति (?); आरण=विमल; अच्युत=विमल]</span></p> | <p><span class="HindiText"><span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/8/438-440 </span>का भावार्थ–[इंद्रों के यान विमान निम्न प्रकार हैं–सौधर्म=बालुक; ईशान=पुष्पक; सनत्कुमार=सौमनस; माहेंद्र=श्रीवृक्ष; ब्रह्म=सर्वतोभद्र; लांतव=प्रीतिंकर; शुक्र=रम्यक; शतार=मनोहर; आनत=लक्ष्मी; प्राणत=मादिंति (?); आरण=विमल; अच्युत=विमल]</span></p> | ||
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<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/8/448-450 </span>का भावार्थ–[14 इंद्रवाली मान्यता की अपेक्षा प्रत्येक इंद्र के क्रम से निम्न प्रकार मुकुटों में नौ चिह्न हैं जिनसे कि वे पहिचाने जाते हैं–शूकर, हरिणी, महिष, मत्स्य, भेक(मेंढक) ; सर्प, छागल, वृषभ व कल्पतरु।]</p> | |||
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<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/8/451 </span>का भावार्थ–[दूसरी दृष्टि से उन्हीं 14 इंद्रों में क्रम से–शूकर, हरिणी, महिष, मत्स्य, कूर्म, भेक(मेंढक), हय, हाथी, चंद्र, सर्प, गवय, छगल, वृषभ और कल्पतरु ये 14 चिह्न मुकुटों में होते हैं।] (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/486-487 </span>)</p> | |||
<p class="HindiText"><strong id="3.5">5. इंद्रों व देवों की शक्ति व विक्रिया</strong></p> | <p class="HindiText"><strong id="3.5">5. इंद्रों व देवों की शक्ति व विक्रिया</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> तिलोयपण्णत्ति/8/697-699 एक्कपलिदोवमाऊ उप्पाडेदुं धराए छक्खंडे। तग्गदणरतिरियजणे मारेदुं पोसेदुं सक्को।697। उवहिउवमाणजीवी पल्लट्टेदुं च जंबुदीवं हि। तग्गदणरतिरियाणं मारेदुं पोसिदुं सक्को।698। सोहम्मिंदो णियमा जंबूदीवं समुक्खिवदि एवं। केई आइरिया इय सत्तिसहावं परूवंति।699।</span> =<span class="HindiText">एक पल्योपम प्रमाण आयुवाला देव पृथिवी के छह खंडों को उखाड़ने के लिए और उनमें स्थित मनुष्यों व तिर्यंचों को मारने अथवा पोषने के लिए समर्थ हैं।697। सागरोपम प्रमाण काल तक जीवित रहने वाला देव जंबूद्वीप को भी पलटने के लिए और उसमें स्थित तिर्यंचों व मनुष्यों को मारने अथवा पोषने के लिए समर्थ है।698। सौधर्म इंद्र नियम से जंबूद्वीप को फेंक सकता है, इस प्रकार कोई आचार्य शक्ति स्वभाव का निरूपण करते हैं।699।</span></p> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/8/697-699 </span>एक्कपलिदोवमाऊ उप्पाडेदुं धराए छक्खंडे। तग्गदणरतिरियजणे मारेदुं पोसेदुं सक्को।697। उवहिउवमाणजीवी पल्लट्टेदुं च जंबुदीवं हि। तग्गदणरतिरियाणं मारेदुं पोसिदुं सक्को।698। सोहम्मिंदो णियमा जंबूदीवं समुक्खिवदि एवं। केई आइरिया इय सत्तिसहावं परूवंति।699।</span> =<span class="HindiText">एक पल्योपम प्रमाण आयुवाला देव पृथिवी के छह खंडों को उखाड़ने के लिए और उनमें स्थित मनुष्यों व तिर्यंचों को मारने अथवा पोषने के लिए समर्थ हैं।697। सागरोपम प्रमाण काल तक जीवित रहने वाला देव जंबूद्वीप को भी पलटने के लिए और उसमें स्थित तिर्यंचों व मनुष्यों को मारने अथवा पोषने के लिए समर्थ है।698। सौधर्म इंद्र नियम से जंबूद्वीप को फेंक सकता है, इस प्रकार कोई आचार्य शक्ति स्वभाव का निरूपण करते हैं।699।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> त्रिलोकसार/527 दुसु-दुसु तिचक्केसु य णवचोद्दसगे विगुव्वणा सत्ती। पढमखिदीदो सत्तमखिदिपेरंतो त्ति अवही य।527।</span> =<span class="HindiText">दो स्वर्गों में दूसरी नरक पृथिवी पर्यंत चार स्वर्गों में तीसरी पर्यंत, चार स्वर्गों में, चौथी पर्यंत, चार स्वर्गों में पाँचवीं पर्यंत, नवग्रैवेयकों में छठीं पर्यंत और अनुदिश अनुत्तर विमानों में सातवीं पर्यंत, इस प्रकार देवों में क्रम से विक्रिया शक्ति व अवधि ज्ञान से जानने की शक्ति है (विशेष–देखें [[ अवधिज्ञान#9 | अवधिज्ञान - 9]])।</span></p> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> त्रिलोकसार/527 </span>दुसु-दुसु तिचक्केसु य णवचोद्दसगे विगुव्वणा सत्ती। पढमखिदीदो सत्तमखिदिपेरंतो त्ति अवही य।527।</span> =<span class="HindiText">दो स्वर्गों में दूसरी नरक पृथिवी पर्यंत चार स्वर्गों में तीसरी पर्यंत, चार स्वर्गों में, चौथी पर्यंत, चार स्वर्गों में पाँचवीं पर्यंत, नवग्रैवेयकों में छठीं पर्यंत और अनुदिश अनुत्तर विमानों में सातवीं पर्यंत, इस प्रकार देवों में क्रम से विक्रिया शक्ति व अवधि ज्ञान से जानने की शक्ति है (विशेष–देखें [[ अवधिज्ञान#9 | अवधिज्ञान - 9]])।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong id="3.6">6. वैमानिक इंद्रों का परिवार</strong></p> | <p class="HindiText"><strong id="3.6">6. वैमानिक इंद्रों का परिवार</strong></p> | ||
<p class="HindiText" id="3.6.1">1. सामानिक आदि देवों की अपेक्षा ( तिलोयपण्णत्ति/8/218-246 ), ( राजवार्तिक 4/19/8/225-235 ), ( त्रिलोकसार/494,495,498 ), (ज.पं./16/239-242,270-278)।</p> | <p class="HindiText" id="3.6.1">1. सामानिक आदि देवों की अपेक्षा (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/8/218-246 </span>), (<span class="GRef"> राजवार्तिक 4/19/8/225-235 </span>), (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/494,495,498 </span>), (ज.पं./16/239-242,270-278)।</p> | ||
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<p>*<strong>नोट</strong>—[वृषभ तुरंग आदि सात अनीक सेना है। प्रत्येक सेना में सात-सात कक्षा हैं। प्रथम कक्षा अपने सामानिक प्रमाण है। द्वितीयादि कक्षाएँ उत्तरोत्तर दूनी-दूनी हैं। अत: एक अनीक का प्रमाण=सामानिक का प्रमाण×127। कुल सातों अनीकों का प्रमाण=एक अनीक×7–(देखें [[ अनीक ]]); ( तिलोयपण्णत्ति/8/235-237 )]</p> | <p>*<strong>नोट</strong>—[वृषभ तुरंग आदि सात अनीक सेना है। प्रत्येक सेना में सात-सात कक्षा हैं। प्रथम कक्षा अपने सामानिक प्रमाण है। द्वितीयादि कक्षाएँ उत्तरोत्तर दूनी-दूनी हैं। अत: एक अनीक का प्रमाण=सामानिक का प्रमाण×127। कुल सातों अनीकों का प्रमाण=एक अनीक×7–(देखें [[ अनीक ]]); (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/8/235-237 </span>)]</p> | ||
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<br/><p class="HindiText" id="3.6.2">2. देवियों की अपेक्षा</p> | <br/><p class="HindiText" id="3.6.2">2. देवियों की अपेक्षा</p> | ||
<p class="HindiText">( तिलोयपण्णत्ति/8/306-315 +379–385); ( राजवार्तिक/4/19/8/225-235 ); ( त्रिलोकसार/509-513 )।</p> | <p class="HindiText">(<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/8/306-315 </span>+379–385); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/4/19/8/225-235 </span>); (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/509-513 </span>)।</p> | ||
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<br/><p class="HindiText"><strong id="3.7">7. वैमानिक इंद्रों के परिवार देवों की देवियाँ</strong></p> | <br/><p class="HindiText"><strong id="3.7">7. वैमानिक इंद्रों के परिवार देवों की देवियाँ</strong></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
( तिलोयपण्णत्ति/8/319-330 ); ( राजवार्तिक/4/19/8/225-235 )।</p> | (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/8/319-330 </span>); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/4/19/8/225-235 </span>)।</p> | ||
<table class="HindiText" border="1" width="708"> | <table class="HindiText" border="1" width="708"> | ||
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<br/><p class="HindiText"><strong id="3.8">8. वैमानिक इंद्रों के परिवार, देवों का परिवार व विमान आदि</strong></p> | <br/><p class="HindiText"><strong id="3.8">8. वैमानिक इंद्रों के परिवार, देवों का परिवार व विमान आदि</strong></p> | ||
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<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/8/286-304 </span>का भावार्थ–प्रतींद्र, सामानिक व त्रायस्त्रिंश में प्रत्येक के 10 प्रकार के परिवार अपने-अपने इंद्रों के समान हैं।286। सौधर्मादि 12 इंद्रों के लोकपालों में प्रत्येक सामंत क्रम से 4000, 4000, 1000, 1000, 500, 400, 300, 200, 100, 100, 100, 100 है।287-288। समस्त दक्षिणेंद्रों में प्रत्येक के सोम व यम लोकपाल के अभ्यंतर आदि तीनों पारिषद के देव क्रम से 50,400 व 500 हैं।289। वरुण के 60,500,600 हैं तथा कुबेर के 70,600,700 हैं।290। उत्तरेंद्रों में इससे विपरीत क्रम करना चाहिए।290। सोम आदि लोकपालों की सात सेनाओं में प्रत्येक की प्रथम कक्षा 28000 और द्वितीय आदि 6 कक्षाओं में उत्तरोत्तर दुगुनी है। इस प्रकार वृषभादि सेनाओं में से प्रत्येक सेना का कुल प्रमाण 28000×127=3556000 है।294। और सातों सेनाओं का कुल प्रमाण 3556000×7=24892000 है।295। सौधर्म सनत्कुमार व ब्रह्म इंद्रों के चार-चार लोकपालों में से प्रत्येक के विमानों की संख्या 666666 है। शेष की संख्या उपलब्ध नहीं है। 297,299,302। सौधर्म के सोमादि चारों लोकपालों के प्रधान विमानों के नाम क्रम से स्वयंप्रभ, अरिष्ट, चलप्रभ और वल्गुप्रभ हैं।298। शेष दक्षिणेंद्रों में सोमादि उन लोकपालों के प्रधान विमानों के नाम क्रम से स्वयंप्रभ, वरज्येष्ठ, अंजन और वल्गु है।300। उत्तरेंद्रों के लोकपालों के प्रधान विमानों के नाम क्रम से सोक (सम), सर्वतोभद्र, सुभद्र और अमित हैं।301। दक्षिणेंद्रों के सोम और यम समान ऋद्धिवाले हैं; उनसे अधिक वरुण और उससे भी अधिक कुबेर है।303। उत्तरेंद्रों के सोम और यम समान ऋद्धिवाले हैं। उनसे अधिक कुबेर और उससे अधिक वरुण होता है।304।</p> | |||
<br/><p class="HindiText"><strong id="4">वैमानिक देवियों का निर्देश</strong></p> | <br/><p class="HindiText"><strong id="4">वैमानिक देवियों का निर्देश</strong></p> | ||
<p class="HindiText"><strong id="4.1">1. वैमानिक इंद्रों की प्रधान देवियों के नाम</strong></p> | <p class="HindiText"><strong id="4.1">1. वैमानिक इंद्रों की प्रधान देवियों के नाम</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> तिलोयपण्णत्ति/8/306-307,316-318 बलमाणा अच्चिणिया ताओ सव्विंदसरिसणामाओ। एक्केक्कउत्तरिंदे तम्मेत्ता जेट्ठदेवीओ।306। किण्हा या ये पुराइं रामावइरामरक्खिदा वसुका। वसुमित्ता वसुधम्मा वसंधरा सव्वइंद समणामा।307। विणयसिरिकणयमालापउमाणंदासुसीमजिणदत्ता। एक्केक्कदक्खिंणिदे एक्केक्का पाणवल्लहिया।316। एक्केक्कउत्तरिंदे एक्केक्का होदि हेममाला य। णिलुप्पलविस्सुदया णंदावइलक्खणादो जिणदासी।317। सयलिंदवल्लभाणं चत्तारि महत्तरीओ पत्तेवकं कामा कामिणिआओ पंकयगंधा यलंबुणामा य।318।</span>=<span class="HindiText">सभी दक्षिणेंद्रों की 8 ज्येष्ठ देवियों के नाम समान होते हुए क्रम से पद्मा, शिवा, शची, अंजुका, रोहिणी, नवमी, बला और अर्चिनिका ये हैं और सभी उत्तरेंद्रों की आठ-आठ ज्येष्ठ देवियों के नाम, मेघराजी, रामापति, रामरक्षिता, वसुका, वसुमित्रा, वसुधर्मा और वसुंधरा ये हैं।306-307। छह दक्षिणेंद्रों की प्रधान वल्लभाओं के नाम क्रम से विनयश्री, कनकमाला, पद्मा, नंदा, सुसीमा, और जिनदत्ता ये हैं।316। छह उत्तरेंद्रों की प्रधान वल्लभाओं के नाम हेममाला, नीलोत्पला, विश्रुता, नंदा, वैलक्षणा और जिनदासी ये हैं।317। इन वल्लभाओं में से प्रत्येक के कामा, कामिनिका, पंकजगंधा और अलंबु नाम की चार महत्तरिका होती हैं।318।</span></p> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/8/306-307,316-318 </span>बलमाणा अच्चिणिया ताओ सव्विंदसरिसणामाओ। एक्केक्कउत्तरिंदे तम्मेत्ता जेट्ठदेवीओ।306। किण्हा या ये पुराइं रामावइरामरक्खिदा वसुका। वसुमित्ता वसुधम्मा वसंधरा सव्वइंद समणामा।307। विणयसिरिकणयमालापउमाणंदासुसीमजिणदत्ता। एक्केक्कदक्खिंणिदे एक्केक्का पाणवल्लहिया।316। एक्केक्कउत्तरिंदे एक्केक्का होदि हेममाला य। णिलुप्पलविस्सुदया णंदावइलक्खणादो जिणदासी।317। सयलिंदवल्लभाणं चत्तारि महत्तरीओ पत्तेवकं कामा कामिणिआओ पंकयगंधा यलंबुणामा य।318।</span>=<span class="HindiText">सभी दक्षिणेंद्रों की 8 ज्येष्ठ देवियों के नाम समान होते हुए क्रम से पद्मा, शिवा, शची, अंजुका, रोहिणी, नवमी, बला और अर्चिनिका ये हैं और सभी उत्तरेंद्रों की आठ-आठ ज्येष्ठ देवियों के नाम, मेघराजी, रामापति, रामरक्षिता, वसुका, वसुमित्रा, वसुधर्मा और वसुंधरा ये हैं।306-307। छह दक्षिणेंद्रों की प्रधान वल्लभाओं के नाम क्रम से विनयश्री, कनकमाला, पद्मा, नंदा, सुसीमा, और जिनदत्ता ये हैं।316। छह उत्तरेंद्रों की प्रधान वल्लभाओं के नाम हेममाला, नीलोत्पला, विश्रुता, नंदा, वैलक्षणा और जिनदासी ये हैं।317। इन वल्लभाओं में से प्रत्येक के कामा, कामिनिका, पंकजगंधा और अलंबु नाम की चार महत्तरिका होती हैं।318।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> त्रिलोकसार/506,510-511 ताओ चउरो सग्गे कामा कामिणि य पउमगंधा य। तो होदि अलंबूसा सव्विंदपुराणमेस कमो।506। सचि पउम सिव सियामा कालिंदीसुलसअज्जुकाणामा भाणुत्ति जेट्ठदेवी सव्वेसिं दक्खिणिंदाणं।510। सिरिमति रामा सुसीमापभावदि जयसेण णाम य सुसेणा। वसुमित्त वसुंधर वरदेवीओ उत्तरिंदाणं।511। | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> त्रिलोकसार/506,510-511 </span>ताओ चउरो सग्गे कामा कामिणि य पउमगंधा य। तो होदि अलंबूसा सव्विंदपुराणमेस कमो।506। सचि पउम सिव सियामा कालिंदीसुलसअज्जुकाणामा भाणुत्ति जेट्ठदेवी सव्वेसिं दक्खिणिंदाणं।510। सिरिमति रामा सुसीमापभावदि जयसेण णाम य सुसेणा। वसुमित्त वसुंधर वरदेवीओ उत्तरिंदाणं।511। | ||
</span>=<span class="HindiText">सौधर्मादि स्वर्ग में कामा, कामिनी, पद्मगंधा, अलंबुसा ऐसी नाम वाली चार प्रधान गणिका हैं।506। छह दक्षिणेंद्रों की आठ-आठ ज्येष्ठ देवियों के नाम क्रम से शची, पद्मा, शिवा, श्यामा, कालिंदी, सुलसा, अज्जुका और भानु ये हैं।510। छहों उत्तरेंद्रों की आठ-आठ ज्येष्ठ देवियों के नाम क्रम से श्रीमती, रामा, सुसीमा, प्रभावती, जयसेना, सुषेणा, वसुमित्रा और वसुंधरा ये हैं।511।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">सौधर्मादि स्वर्ग में कामा, कामिनी, पद्मगंधा, अलंबुसा ऐसी नाम वाली चार प्रधान गणिका हैं।506। छह दक्षिणेंद्रों की आठ-आठ ज्येष्ठ देवियों के नाम क्रम से शची, पद्मा, शिवा, श्यामा, कालिंदी, सुलसा, अज्जुका और भानु ये हैं।510। छहों उत्तरेंद्रों की आठ-आठ ज्येष्ठ देवियों के नाम क्रम से श्रीमती, रामा, सुसीमा, प्रभावती, जयसेना, सुषेणा, वसुमित्रा और वसुंधरा ये हैं।511।</span></p> | ||
<p><strong class="HindiText" id="4.2">2. देवियों की उत्पत्ति व गमनागमन संबंधी नियम</strong></p> | <p><strong class="HindiText" id="4.2">2. देवियों की उत्पत्ति व गमनागमन संबंधी नियम</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText">मू.आ./1131-1132 आईसाणा कप्पा उववादो होइ देवदेवीणं। तत्तो परंतु णियमा उववादो होइ देवाणं।1131। जावदु आरण-अच्युद गमणागमणं च होइ देवीणं। तत्तो परं तु णियमा देवीणं णत्थिसे गमणं।1132।</span> =<span class="HindiText">[भवनवासी से लेकर] ईशान स्वर्ग पर्यंत देव व देवी दोनों की उत्पत्ति होती है। इससे आगे नियम से देव ही उत्पन्न होते हैं, देवियाँ नहीं।1131। आरण अच्युत स्वर्ग तक देवियों का गमनागमन है, इससे आगे नियम से उनका गमनागमन नहीं है।1132। ( तिलोयपण्णत्ति/8/565 )।</span></p> | <p><span class="PrakritText">मू.आ./1131-1132 आईसाणा कप्पा उववादो होइ देवदेवीणं। तत्तो परंतु णियमा उववादो होइ देवाणं।1131। जावदु आरण-अच्युद गमणागमणं च होइ देवीणं। तत्तो परं तु णियमा देवीणं णत्थिसे गमणं।1132।</span> =<span class="HindiText">[भवनवासी से लेकर] ईशान स्वर्ग पर्यंत देव व देवी दोनों की उत्पत्ति होती है। इससे आगे नियम से देव ही उत्पन्न होते हैं, देवियाँ नहीं।1131। आरण अच्युत स्वर्ग तक देवियों का गमनागमन है, इससे आगे नियम से उनका गमनागमन नहीं है।1132। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/8/565 </span>)।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> तिलोयपण्णत्ति/8/ गा. सोहम्मीसाणेसुं उप्पज्जंते हु सव्वदेवीओ। उवरिमकप्पे ताणं उप्पत्ती णत्थि कइया वि।331। तेसुं उप्पणाओ देवीओ भिण्णओहिणाणेहिं। णादूणं णियकप्पे णेंति हु देवा सरागमणा।333। णवरि विसेसो एसो सोहम्मीसाणजाददेवीणं। वच्चंति मूलदेहा णियणियकप्पामराण पासम्मि।596।</span> =<span class="HindiText">सब (कल्पवासिनी) देवियाँ सौधर्म और ईशान कल्पों में ही उत्पन्न होती हैं, इससे उपरिम कल्पों में उनकी उत्पत्ति नहीं होती।331। उन कल्पों में उत्पन्न हुई देवियों को भिन्न अवधिज्ञान से जानकर सराग मनवाले देव अपने कल्पों में ले जाते हैं।334। विशेष यह है कि सौधर्म और ईशान कल्प में उत्पन्न हुई देवियों के मूल शरीर अपने-अपने कल्पों के देवों के पास जाते हैं।596।</span></p> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/8/ </span>गा. सोहम्मीसाणेसुं उप्पज्जंते हु सव्वदेवीओ। उवरिमकप्पे ताणं उप्पत्ती णत्थि कइया वि।331। तेसुं उप्पणाओ देवीओ भिण्णओहिणाणेहिं। णादूणं णियकप्पे णेंति हु देवा सरागमणा।333। णवरि विसेसो एसो सोहम्मीसाणजाददेवीणं। वच्चंति मूलदेहा णियणियकप्पामराण पासम्मि।596।</span> =<span class="HindiText">सब (कल्पवासिनी) देवियाँ सौधर्म और ईशान कल्पों में ही उत्पन्न होती हैं, इससे उपरिम कल्पों में उनकी उत्पत्ति नहीं होती।331। उन कल्पों में उत्पन्न हुई देवियों को भिन्न अवधिज्ञान से जानकर सराग मनवाले देव अपने कल्पों में ले जाते हैं।334। विशेष यह है कि सौधर्म और ईशान कल्प में उत्पन्न हुई देवियों के मूल शरीर अपने-अपने कल्पों के देवों के पास जाते हैं।596।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> हरिवंशपुराण/6/119-121 दक्षिणाशारणांतानां देव्य: सौधर्ममेव तु। निजागारेषु जायंते नीयंते च निजास्पदम् ।119। उत्तराशाच्युतांतानां देवानां दिव्यमूर्तय:। ऐशानकल्पसंभूता देव्यो यांति निजाश्रयम् ।120। शुद्धदेवीयुतान्याहुर्विमानानि मुनीश्वरा:। षट्लक्षास्तु चतुर्लक्षा: सौधर्मैशानकल्पयो:।121।</span>=<span class="HindiText">आरण स्वर्ग पर्यंत दक्षिण दिशा के देवों की देवियाँ सौधर्म स्वर्ग में ही अपने-अपने उपपाद स्थानों में उत्पन्न होती हैं और नियोगी देवों के द्वारा यथास्थान ले जायी जाती हैं।119। तथा अच्युत स्वर्ग पर्यंत उत्तर दिशा के देवों की सुंदर देवियाँ ऐशान स्वर्ग में उत्पन्न होती हैं, एवं अपने-अपने नियोगी देवों के स्थान पर जाती हैं।120। सौधर्म और ऐशान स्वर्ग में शुद्ध देवियों से युक्त विमानों की संख्या क्रम से 600,000 और 400,000 बतायी हैं। अर्थात् इतने उनके उपपाद स्थान हैं।121। ( त्रिलोकसार/524-525 ); ( तत्त्वसार/2/81 )।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> हरिवंशपुराण/6/119-121 </span>दक्षिणाशारणांतानां देव्य: सौधर्ममेव तु। निजागारेषु जायंते नीयंते च निजास्पदम् ।119। उत्तराशाच्युतांतानां देवानां दिव्यमूर्तय:। ऐशानकल्पसंभूता देव्यो यांति निजाश्रयम् ।120। शुद्धदेवीयुतान्याहुर्विमानानि मुनीश्वरा:। षट्लक्षास्तु चतुर्लक्षा: सौधर्मैशानकल्पयो:।121।</span>=<span class="HindiText">आरण स्वर्ग पर्यंत दक्षिण दिशा के देवों की देवियाँ सौधर्म स्वर्ग में ही अपने-अपने उपपाद स्थानों में उत्पन्न होती हैं और नियोगी देवों के द्वारा यथास्थान ले जायी जाती हैं।119। तथा अच्युत स्वर्ग पर्यंत उत्तर दिशा के देवों की सुंदर देवियाँ ऐशान स्वर्ग में उत्पन्न होती हैं, एवं अपने-अपने नियोगी देवों के स्थान पर जाती हैं।120। सौधर्म और ऐशान स्वर्ग में शुद्ध देवियों से युक्त विमानों की संख्या क्रम से 600,000 और 400,000 बतायी हैं। अर्थात् इतने उनके उपपाद स्थान हैं।121। (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/524-525 </span>); (<span class="GRef"> तत्त्वसार/2/81 </span>)।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> धवला 1/1,1,98/338/2 सनत्कुमारादुपरि न स्त्रिय: समुत्पद्यंते सौधर्मादाविव तदुत्पत्त्यप्रतिपादनात् । तत्र स्त्रीणामभावे कथं तेषां देवानामनुपशांततत्संतापानां सुखमिति चेन्न, तत्स्त्रीणां सौधर्मकल्पोपपत्ते:।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–सनत्कुमार स्वर्ग से लेकर ऊपर स्त्रियाँ उत्पन्न नहीं होती हैं, क्योंकि सौधर्म और ऐशान स्वर्ग में देवांगनाओं के उत्पन्न होने का जिस प्रकार कथन किया गया है, उसी प्रकार आगे के स्वर्गों में उनकी उत्पत्ति का कथन नहीं किया गया है इसलिए वहाँ स्त्रियों का अभाव होने पर, जिनका स्त्री संबंधी संताप शांत नहीं हुआ है, ऐसे देवों के उनके बिना सुख कैसे हो सकता है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि सनत्कुमार आदि कल्प संबंधी स्त्रियों की सौधर्म और ऐशान स्वर्ग में उत्पत्ति होती है।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> धवला 1/1,1,98/338/2 </span>सनत्कुमारादुपरि न स्त्रिय: समुत्पद्यंते सौधर्मादाविव तदुत्पत्त्यप्रतिपादनात् । तत्र स्त्रीणामभावे कथं तेषां देवानामनुपशांततत्संतापानां सुखमिति चेन्न, तत्स्त्रीणां सौधर्मकल्पोपपत्ते:।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–सनत्कुमार स्वर्ग से लेकर ऊपर स्त्रियाँ उत्पन्न नहीं होती हैं, क्योंकि सौधर्म और ऐशान स्वर्ग में देवांगनाओं के उत्पन्न होने का जिस प्रकार कथन किया गया है, उसी प्रकार आगे के स्वर्गों में उनकी उत्पत्ति का कथन नहीं किया गया है इसलिए वहाँ स्त्रियों का अभाव होने पर, जिनका स्त्री संबंधी संताप शांत नहीं हुआ है, ऐसे देवों के उनके बिना सुख कैसे हो सकता है ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि सनत्कुमार आदि कल्प संबंधी स्त्रियों की सौधर्म और ऐशान स्वर्ग में उत्पत्ति होती है।</span></p> | ||
<br/><p class="HindiText"><strong id="5">स्वर्ग लोक निर्देश</strong></p> | <br/><p class="HindiText"><strong id="5">स्वर्ग लोक निर्देश</strong></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
<strong id="5.1">1. स्वर्ग लोक सामान्य निर्देश</strong></p> | <strong id="5.1">1. स्वर्ग लोक सामान्य निर्देश</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> तिलोयपण्णत्ति/8/6-10 उत्तरकुरुमणुबाणं एक्केणूणेणं तह य बालेणं। पणवीसुत्तरचउसहकोसयदंडेहिं विहीणेणं।6। इगिसट्ठीअहिएणं लक्खेणं जोयणेण ऊणाओ। रज्जूओ सत्त गयणे उड्ढुड्ढं णाकपडलाणिं।7। कणयद्दिचूलिउवरिं उत्तरकुरुमणुवएक्कबालस्स। परिमाणेणंतरिदौ चेट्ठदि हु इंदओ पढमो।8। लोयसिहरादु हेट्ठा चउसय पणवीसं चावमाणाणिं। इगिवीस जोयणाणिं गंतूणं इंदओ चरिमो।9। सेसा य एकसट्ठी एदाणं इंदयाण विच्चाले। सव्वे अणादिणिहणा रयणमया इंदया होंति।10।</span> =<span class="HindiText">उत्तरकुरु में स्थित मनुष्यों के एक बाल हीन चार सौ पचीस धनुष और एक लाख इकसठ योजनों से रहित सात राजू प्रमाण आकाश में ऊपर-ऊपर स्वर्ग पटल स्थित हैं।6-7। मेरु की चूलिका के ऊपर उत्तरकुरु क्षेत्रवर्ती मनुष्य के एक बालमात्र के अंतर से प्रथम इंद्रक स्थित है।8। लोक शिखर के नीचे 425 धनुष और 21 योजन मात्र जाकर अंतिम इंद्रक स्थित है।9। शेष इकसठ इंद्रक इन दोनों इंद्रकों के बीच में हैं। ये सब रत्नमय इंद्रक विमान अनादिनिधन हैं।10। ( सर्वार्थसिद्धि/4/19/251/1 ), ( हरिवंशपुराण/6/35 ), ( धवला 4/1,3,1/9/2 ), ( त्रिलोकसार/470 )।</span></p> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/8/6-10 </span>उत्तरकुरुमणुबाणं एक्केणूणेणं तह य बालेणं। पणवीसुत्तरचउसहकोसयदंडेहिं विहीणेणं।6। इगिसट्ठीअहिएणं लक्खेणं जोयणेण ऊणाओ। रज्जूओ सत्त गयणे उड्ढुड्ढं णाकपडलाणिं।7। कणयद्दिचूलिउवरिं उत्तरकुरुमणुवएक्कबालस्स। परिमाणेणंतरिदौ चेट्ठदि हु इंदओ पढमो।8। लोयसिहरादु हेट्ठा चउसय पणवीसं चावमाणाणिं। इगिवीस जोयणाणिं गंतूणं इंदओ चरिमो।9। सेसा य एकसट्ठी एदाणं इंदयाण विच्चाले। सव्वे अणादिणिहणा रयणमया इंदया होंति।10।</span> =<span class="HindiText">उत्तरकुरु में स्थित मनुष्यों के एक बाल हीन चार सौ पचीस धनुष और एक लाख इकसठ योजनों से रहित सात राजू प्रमाण आकाश में ऊपर-ऊपर स्वर्ग पटल स्थित हैं।6-7। मेरु की चूलिका के ऊपर उत्तरकुरु क्षेत्रवर्ती मनुष्य के एक बालमात्र के अंतर से प्रथम इंद्रक स्थित है।8। लोक शिखर के नीचे 425 धनुष और 21 योजन मात्र जाकर अंतिम इंद्रक स्थित है।9। शेष इकसठ इंद्रक इन दोनों इंद्रकों के बीच में हैं। ये सब रत्नमय इंद्रक विमान अनादिनिधन हैं।10। (<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/4/19/251/1 </span>), (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/6/35 </span>), (<span class="GRef"> धवला 4/1,3,1/9/2 </span>), (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/470 </span>)।</span></p> | ||
<p><strong class="HindiText" id="5.2">2. कल्प व कल्पातीत विभाग निर्देश</strong></p> | <p><strong class="HindiText" id="5.2">2. कल्प व कल्पातीत विभाग निर्देश</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> तिलोयपण्णत्ति/8/115-128 कप्पाकप्पातीदं इदि दुविहं होदि।114। बारस कप्पा केइ केइ सोलस वदंति आइरिया। तिविहाणि भासिदाणिं कप्पतीदाणि पडलाणिं।115। हेट्ठिम मज्झे उवरिं पत्तेक्कं ताणं होंति चत्तारि। एवं बारसकप्पा सोलस उड्ढुड्ढमट्ठ जुगलाणिं।116। गेवज्जमणुद्दिसयं अणुत्तरं इय हुवंति तिविहप्पा। कप्पातीदा पडला गेवज्जं णवविहं तेसु।117। सोहम्मीसाणसणक्कुमारमाहिंदबम्हलंतवया। महसुक्कसहस्सारा आणदपाणदयआरणच्चुदया।120। एवं बारस कप्पा कप्पातीदेसु णव य गेवेज्जा।...।121। आइच्चइंदयस्स य पुव्वादिसु...चत्तारो वरविमोणाइं।123। पइण्णयाणि य चत्तारो तस्स णादव्वा।124। विजयंत...पुव्वावरदक्खिणुत्तरदिसाए।125। सोहम्मो ईसाणो सणक्कुमारो तहेव माहिंदो। बम्हाबम्हुत्तरयं लंतवकापिट्ठसुक्कमहसुक्का।127। सदरसहस्साराणदपाणदआरणयअच्चुदा णामा। इय सोलस कप्पाणिं मण्णंते केइ आइरिया।128। | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/8/115-128 </span>कप्पाकप्पातीदं इदि दुविहं होदि।114। बारस कप्पा केइ केइ सोलस वदंति आइरिया। तिविहाणि भासिदाणिं कप्पतीदाणि पडलाणिं।115। हेट्ठिम मज्झे उवरिं पत्तेक्कं ताणं होंति चत्तारि। एवं बारसकप्पा सोलस उड्ढुड्ढमट्ठ जुगलाणिं।116। गेवज्जमणुद्दिसयं अणुत्तरं इय हुवंति तिविहप्पा। कप्पातीदा पडला गेवज्जं णवविहं तेसु।117। सोहम्मीसाणसणक्कुमारमाहिंदबम्हलंतवया। महसुक्कसहस्सारा आणदपाणदयआरणच्चुदया।120। एवं बारस कप्पा कप्पातीदेसु णव य गेवेज्जा।...।121। आइच्चइंदयस्स य पुव्वादिसु...चत्तारो वरविमोणाइं।123। पइण्णयाणि य चत्तारो तस्स णादव्वा।124। विजयंत...पुव्वावरदक्खिणुत्तरदिसाए।125। सोहम्मो ईसाणो सणक्कुमारो तहेव माहिंदो। बम्हाबम्हुत्तरयं लंतवकापिट्ठसुक्कमहसुक्का।127। सदरसहस्साराणदपाणदआरणयअच्चुदा णामा। इय सोलस कप्पाणिं मण्णंते केइ आइरिया।128। | ||
</span>=<span class="HindiText">1. स्वर्ग में दो प्रकार के पटल हैं–कल्प और कल्पातीत।114। कल्प पटलों के संबंध में दृष्टिभेद है। कोई 12 कहता है और कोई सोलह, कल्पातीत पटल तीन हैं।115। 12 कल्प की मान्यता के अनुसार अधो, मध्यम व उपरिम भाग में चार-चार कल्प हैं (देखें [[ स्वर्ग#3.1 | स्वर्ग - 3.1]]) और 16 कल्पों की मान्यता के अनुसार ऊपर-ऊपर आठ युगलों में 16 कल्प हैं।116। ग्रैवेयक, अनुदिश व अनुत्तर ये तीन कल्पातीत पटल हैं।117। सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेंद्र, ब्रह्म, लांतव, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत ये बारह कल्प हैं। इनसे ऊपर कल्पातीत विमान हैं। जिनमें नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमान हैं।120-125। ( तत्त्वार्थसूत्र/4/16-18,23 ) + (स्वर्ग/3/1)। 2. सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेंद्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत नामक ये 16 कल्प हैं, ऐसा कोई आचार्य मानते हैं।127-128। ( तत्त्वार्थसूत्र/4/19 ), ( हरिवंशपुराण/6/36-37 )। (देखें [[ अगले पृष्ठ पर चित्र सं#6 | अगले पृष्ठ पर चित्र सं - 6]])</span></p> | </span>=<span class="HindiText">1. स्वर्ग में दो प्रकार के पटल हैं–कल्प और कल्पातीत।114। कल्प पटलों के संबंध में दृष्टिभेद है। कोई 12 कहता है और कोई सोलह, कल्पातीत पटल तीन हैं।115। 12 कल्प की मान्यता के अनुसार अधो, मध्यम व उपरिम भाग में चार-चार कल्प हैं (देखें [[ स्वर्ग#3.1 | स्वर्ग - 3.1]]) और 16 कल्पों की मान्यता के अनुसार ऊपर-ऊपर आठ युगलों में 16 कल्प हैं।116। ग्रैवेयक, अनुदिश व अनुत्तर ये तीन कल्पातीत पटल हैं।117। सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेंद्र, ब्रह्म, लांतव, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत ये बारह कल्प हैं। इनसे ऊपर कल्पातीत विमान हैं। जिनमें नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमान हैं।120-125। (<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/4/16-18,23 </span>) + (स्वर्ग/3/1)। 2. सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेंद्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत नामक ये 16 कल्प हैं, ऐसा कोई आचार्य मानते हैं।127-128। (<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/4/19 </span>), (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/6/36-37 </span>)। (देखें [[ अगले पृष्ठ पर चित्र सं#6 | अगले पृष्ठ पर चित्र सं - 6]])</span></p> | ||
<p>चित्र</p> | <p>चित्र</p> | ||
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देखें [[ स्वर्ग#5 | स्वर्ग - 5]]/1 (मेरु की चूलिका से लेकर ऊपर लोक के अंत तक ऊपर-ऊपर 63 पटल या इंद्रक स्थित हैं।)</p> | देखें [[ स्वर्ग#5 | स्वर्ग - 5]]/1 (मेरु की चूलिका से लेकर ऊपर लोक के अंत तक ऊपर-ऊपर 63 पटल या इंद्रक स्थित हैं।)</p> | ||
<p><span class="PrakritText"> तिलोयपण्णत्ति/8/11 एक्केक्क इंदयस्स य विच्चालमसंखजोयणाण समं। एदाणं णामाणिं वोच्छोमो आणुपुव्वीए।11।</span> =<span class="HindiText">एक-एक इंद्रक का अंतराल असंख्यात योजन प्रमाण है। अब इनके नामों को अनुक्रम से कहते हैं।11। (देखें [[ आगे कोष्ठक ]])।</span></p> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/8/11 </span>एक्केक्क इंदयस्स य विच्चालमसंखजोयणाण समं। एदाणं णामाणिं वोच्छोमो आणुपुव्वीए।11।</span> =<span class="HindiText">एक-एक इंद्रक का अंतराल असंख्यात योजन प्रमाण है। अब इनके नामों को अनुक्रम से कहते हैं।11। (देखें [[ आगे कोष्ठक ]])।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> राजवार्तिक/4/19/8/225/15 तयोरेकत्रिंशद् विमानप्रस्तारा:।</span> =<span class="HindiText">उन सौधर्म व ईशान कल्पों के 31 विमान प्रस्तार हैं। (अर्थात् जो इंद्रक का नाम हो वही पटल का नाम है।)</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> राजवार्तिक/4/19/8/225/15 </span>तयोरेकत्रिंशद् विमानप्रस्तारा:।</span> =<span class="HindiText">उन सौधर्म व ईशान कल्पों के 31 विमान प्रस्तार हैं। (अर्थात् जो इंद्रक का नाम हो वही पटल का नाम है।)</span></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
कोष्ठक सं.1-4=( तिलोयपण्णत्ति/8/12-17 ); ( राजवार्तिक/4/19/8/ पृष्ठ/पंक्ति–225/14+227/30+229/14+230/12+231/7+231/36+233/30); ( हरिवंशपुराण/6/44-54 ); ( त्रिलोकसार/464-469 )।</p> | कोष्ठक सं.1-4=(<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/8/12-17 </span>); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/4/19/8/ </span>पृष्ठ/पंक्ति–225/14+227/30+229/14+230/12+231/7+231/36+233/30); (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/6/44-54 </span>); (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/464-469 </span>)।</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
कोष्ठक सं.6-7=( तिलोयपण्णत्ति/8/82-85 ); ( राजवार्तिक/4/19/8/ पृष्ठ/पंक्ति=225/17+227/29+229/14+230/12+231/9+231/35+232/28); ( हरिवंशपुराण/6/43 ); ( त्रिलोकसार/473-474 )।</p> | कोष्ठक सं.6-7=(<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/8/82-85 </span>); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/4/19/8/ </span>पृष्ठ/पंक्ति=225/17+227/29+229/14+230/12+231/9+231/35+232/28); (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/6/43 </span>); (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/473-474 </span>)।</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
<strong>नोट</strong>—( हरिवंशपुराण में 62 की बजाय 63 श्रेणीबद्ध से प्रारंभ किया है।)</p> | <strong>नोट</strong>—(<span class="GRef"> हरिवंशपुराण </span>में 62 की बजाय 63 श्रेणीबद्ध से प्रारंभ किया है।)</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
कोष्ठक नं.8–( तिलोयपण्णत्ति/8/18-81 ); ( त्रिलोकसार/472 )।</p> | कोष्ठक नं.8–(<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/8/18-81 </span>); (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/472 </span>)।</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
<strong>संकेत</strong>–इस ओर वाला नाम = [[File:602484334clip_image006.gif ]]</p> | <strong>संकेत</strong>–इस ओर वाला नाम = [[File:602484334clip_image006.gif ]]</p> | ||
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<td><p><strong>1 | <td><p><strong>1 <span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति </span></strong></p></td> | ||
<td><p><strong>2 | <td><p><strong>2 <span class="GRef"> राजवार्तिक </span></strong></p></td> | ||
<td><p><strong>3 | <td><p><strong>3 <span class="GRef"> हरिवंशपुराण </span></strong></p></td> | ||
<td><p><strong>4 | <td><p><strong>4 <span class="GRef"> त्रिलोकसार </span></strong></p></td> | ||
<td><p><strong>6 प्रति दिशा</strong></p></td> | <td><p><strong>6 प्रति दिशा</strong></p></td> | ||
<td><p><strong>7 कुल योग</strong></p></td> | <td><p><strong>7 कुल योग</strong></p></td> | ||
Line 855: | Line 855: | ||
<br/><p class="HindiText">517 व 518 सिंगल पेज अलग से है।</p> | <br/><p class="HindiText">517 व 518 सिंगल पेज अलग से है।</p> | ||
<br/><p><strong class="HindiText" id="5.4">4. श्रेणी बद्धों के नाम निर्देश</strong></p> | <br/><p><strong class="HindiText" id="5.4">4. श्रेणी बद्धों के नाम निर्देश</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> तिलोयपण्णत्ति/8/87-100 णियणियमाणि सेढिबद्धेसुं। पढमेसुं पहमज्झिमआवत्तविसिट्ठजुत्ताणि।89। उडुइंदयपुव्वादी सेढिगया जे हुवंति बासट्ठी। ताणं विदियादीणं एक्कदिसाए भणामो णामाइं।90। संठियणामा सिरिवच्छवट्टणामा य कुसुमजावाणिं। छत्तंजणकलसा...।96। एवं चउसु दिसासुं णामेसुं दक्खिणादियदिसासुं। सेढिगदाणं णामा पीदिकरइंदयं जाव।98। आइच्चइंदययस्स य पुव्वादिसु लच्छिलच्छिमालिणिया। वइरावइरावणिया चत्तारो वरविमाणाणिं।99। विजयंतवइजयंत जयंतमपराजिदं च चत्तारो। पुव्वादिसु माणाणिं ठिदाणि सव्वट्ठसिद्धिस्स।100।</span> =<span class="HindiText">1. ऋतु आदि सर्व इंद्रकों की चारों दिशाओं में स्थित श्रेणी बद्धों में से प्रथम चार का नाम उस-उस इंद्र के नाम के साथ प्रभ, मध्यम, आवर्त व विशिष्ट ये चार शब्द जोड़ देने से बन जाते हैं। जैसे–ऋतुप्रभ, ऋतु मध्यम, ऋतु आवर्त और ऋतु विशिष्ट। 2. ऋतु इंद्र के पूर्वादि दिशाओं में स्थित, शेष द्वितीय आदि 61-61 विमानों के नाम इस प्रकार हैं। एक दिशा के 61 विमानों के नाम–संस्थित, श्रीवत्स, वृत्त, कुसुम, चाप, छत्र, अंजन, कलश आदि हैं। शेष तीन दिशाओं के नाम बनाने के लिए इन नामों के साथ ‘मध्यम’, ‘आवर्त’ और ‘विशिष्ट’ ये तीन शब्द जोड़ने चाहिए। इस प्रकार नवग्रैवेयक के अंतिम प्रीतिंकर विमान तक के श्रेणी बद्धों के नाम प्राप्त होते हैं। 3. आदित्य इंद्रक की पूर्वादि दिशाओं में लक्ष्मी, लक्ष्मीमालिनी, वज्र और वज्रावनि ये चार विमान हैं। विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित ये चार विमान सर्वार्थसिद्धि की पूर्वादि दिशाओं में हैं।</span></p> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/8/87-100 </span>णियणियमाणि सेढिबद्धेसुं। पढमेसुं पहमज्झिमआवत्तविसिट्ठजुत्ताणि।89। उडुइंदयपुव्वादी सेढिगया जे हुवंति बासट्ठी। ताणं विदियादीणं एक्कदिसाए भणामो णामाइं।90। संठियणामा सिरिवच्छवट्टणामा य कुसुमजावाणिं। छत्तंजणकलसा...।96। एवं चउसु दिसासुं णामेसुं दक्खिणादियदिसासुं। सेढिगदाणं णामा पीदिकरइंदयं जाव।98। आइच्चइंदययस्स य पुव्वादिसु लच्छिलच्छिमालिणिया। वइरावइरावणिया चत्तारो वरविमाणाणिं।99। विजयंतवइजयंत जयंतमपराजिदं च चत्तारो। पुव्वादिसु माणाणिं ठिदाणि सव्वट्ठसिद्धिस्स।100।</span> =<span class="HindiText">1. ऋतु आदि सर्व इंद्रकों की चारों दिशाओं में स्थित श्रेणी बद्धों में से प्रथम चार का नाम उस-उस इंद्र के नाम के साथ प्रभ, मध्यम, आवर्त व विशिष्ट ये चार शब्द जोड़ देने से बन जाते हैं। जैसे–ऋतुप्रभ, ऋतु मध्यम, ऋतु आवर्त और ऋतु विशिष्ट। 2. ऋतु इंद्र के पूर्वादि दिशाओं में स्थित, शेष द्वितीय आदि 61-61 विमानों के नाम इस प्रकार हैं। एक दिशा के 61 विमानों के नाम–संस्थित, श्रीवत्स, वृत्त, कुसुम, चाप, छत्र, अंजन, कलश आदि हैं। शेष तीन दिशाओं के नाम बनाने के लिए इन नामों के साथ ‘मध्यम’, ‘आवर्त’ और ‘विशिष्ट’ ये तीन शब्द जोड़ने चाहिए। इस प्रकार नवग्रैवेयक के अंतिम प्रीतिंकर विमान तक के श्रेणी बद्धों के नाम प्राप्त होते हैं। 3. आदित्य इंद्रक की पूर्वादि दिशाओं में लक्ष्मी, लक्ष्मीमालिनी, वज्र और वज्रावनि ये चार विमान हैं। विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित ये चार विमान सर्वार्थसिद्धि की पूर्वादि दिशाओं में हैं।</span></p> | ||
<p><span class="SanskritText"> हरिवंशपुराण/6/63-65 अर्चिराद्यं परं ख्यातमर्चिमालिन्यभिख्यया। वज्रं वैरोचनं चैव सौम्यं स्यात्सौम्यरूप्यकम् ।63। अंकं च स्फुटिकं चेति दिशास्वनुदिशानि तु। आदित्याख्यस्य वर्तंते प्राच्या: प्रभृति सक्रमम् ।64। विजयं वैजयंतं च जयंतमपराजितम् । दिक्षु सर्वार्थसिद्धेस्तु विमानानि स्थितानि वै।65।</span> =<span class="HindiText">अनुदिशों में आदित्य नाम का विमान बीच में है और उसकी पूर्वादि दिशाओं तथा विदिशाओं में क्रम से–अर्चि, अर्चिमालिनी, वज्र, वैरोचन, सौम्य, सौम्यरूपक, अंक और स्फटिक ये आठ विमान हैं। अनुत्तर विमानों में सर्वार्थसिद्धि विमान बीच में है और उसकी पूर्वादि चार दिशाओं में विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित ये चार विमान स्थित हैं।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> हरिवंशपुराण/6/63-65 </span>अर्चिराद्यं परं ख्यातमर्चिमालिन्यभिख्यया। वज्रं वैरोचनं चैव सौम्यं स्यात्सौम्यरूप्यकम् ।63। अंकं च स्फुटिकं चेति दिशास्वनुदिशानि तु। आदित्याख्यस्य वर्तंते प्राच्या: प्रभृति सक्रमम् ।64। विजयं वैजयंतं च जयंतमपराजितम् । दिक्षु सर्वार्थसिद्धेस्तु विमानानि स्थितानि वै।65।</span> =<span class="HindiText">अनुदिशों में आदित्य नाम का विमान बीच में है और उसकी पूर्वादि दिशाओं तथा विदिशाओं में क्रम से–अर्चि, अर्चिमालिनी, वज्र, वैरोचन, सौम्य, सौम्यरूपक, अंक और स्फटिक ये आठ विमान हैं। अनुत्तर विमानों में सर्वार्थसिद्धि विमान बीच में है और उसकी पूर्वादि चार दिशाओं में विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित ये चार विमान स्थित हैं।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/338-340 अच्ची य अच्चिमालिणी दिव्वं वइरोयणं पभासं च। पुव्वावरदक्खिण उत्तरेण आदिच्चदो होंति।338। विजयं च वेजयंतं जयंतमपराजियं च णामेण। सव्वट्टस्स दु एदे चदुसु वि य दिसासु चत्तारि।340।</span> =<span class="HindiText">अर्चि, अर्चिमालिनी, दिव्य, वैरोचन और प्रभास ये चार विमान आदित्य पटल के पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर में हैं।338। विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित ये चार विमान सर्वार्थपटल की चारों ही दिशाओं में स्थित है।340।</span></p> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/338-340 </span>अच्ची य अच्चिमालिणी दिव्वं वइरोयणं पभासं च। पुव्वावरदक्खिण उत्तरेण आदिच्चदो होंति।338। विजयं च वेजयंतं जयंतमपराजियं च णामेण। सव्वट्टस्स दु एदे चदुसु वि य दिसासु चत्तारि।340।</span> =<span class="HindiText">अर्चि, अर्चिमालिनी, दिव्य, वैरोचन और प्रभास ये चार विमान आदित्य पटल के पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर में हैं।338। विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित ये चार विमान सर्वार्थपटल की चारों ही दिशाओं में स्थित है।340।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
<strong>सौधर्म युगल के 31 पटल</strong></p> | <strong>सौधर्म युगल के 31 पटल</strong></p> | ||
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<p class="HindiText" id="5.5.1">1. 12 इंद्रों की अपेक्षा</p> | <p class="HindiText" id="5.5.1">1. 12 इंद्रों की अपेक्षा</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
( तिलोयपण्णत्ति/8/149 –177+186); ( राजवार्तिक/4/19/8/-221/26/ +233/24); ( त्रिलोकसार/459 –462+473–479)।</p> | (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/8/149 </span>–177+186); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/4/19/8/-221/26/ </span>+233/24); (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/459 </span>–462+473–479)।</p> | ||
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<p class="HindiText" id="5.5.2">2. 14 इंद्रों की अपेक्षा</p> | <p class="HindiText" id="5.5.2">2. 14 इंद्रों की अपेक्षा</p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
1. (ति.पं./8/178-185); ( हरिवंशपुराण/6/44-62 +66-88)।</p> | 1. (ति.पं./8/178-185); (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/6/44-62 </span>+66-88)।</p> | ||
<table class="HindiText" border="1" > | <table class="HindiText" border="1" > | ||
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<br/><p class="HindiText"><strong id="5.6">6. विमानों के वर्ण व उनका अवस्थान</strong></p> | <br/><p class="HindiText"><strong id="5.6">6. विमानों के वर्ण व उनका अवस्थान</strong></p> | ||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
( तिलोयपण्णत्ति/8/203-207 ); ( राजवार्तिक/4/19/235/3 ), ( हरिवंशपुराण/6/97-100 ); ( त्रिलोकसार/481-482 )।</p> | (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/8/203-207 </span>); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/4/19/235/3 </span>), (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/6/97-100 </span>); (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/481-482 </span>)।</p> | ||
<table class="HindiText" border="1" > | <table class="HindiText" border="1" > | ||
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<p><span class="SanskritText"> हरिवंशपुराण/6/91 सर्वश्रेणीविमानानामर्द्धमूर्ध्वमितोऽपरम् । अन्येषां स्वविमानार्धं स्वयंभूरमणोदधे:।91।</span> =<span class="HindiText">समस्त श्रेणीबद्ध विमानों की जो संख्या है, उसका आधा भाग तो स्वंभूरमण समुद्र के ऊपर है और आधा अन्य समस्त द्वीप समुद्रों के ऊपर फैला हुआ है।</span></p> | <p><span class="SanskritText"><span class="GRef"> हरिवंशपुराण/6/91 </span>सर्वश्रेणीविमानानामर्द्धमूर्ध्वमितोऽपरम् । अन्येषां स्वविमानार्धं स्वयंभूरमणोदधे:।91।</span> =<span class="HindiText">समस्त श्रेणीबद्ध विमानों की जो संख्या है, उसका आधा भाग तो स्वंभूरमण समुद्र के ऊपर है और आधा अन्य समस्त द्वीप समुद्रों के ऊपर फैला हुआ है।</span></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> त्रिलोकसार/474 उडुसेढीबद्धदलं सयंभुरमणुदहिपणिधिभागम्हि। आइल्लतिण्णि दीवे तिण्णि समुद्दे य सेसा हु।474।</span> =<span class="HindiText">सौधर्म के प्रथम ऋतु इंद्रक संबंधी श्रेणीबद्धों का एक दिशा संबंधी प्रमाण 62 है, उसके आधे अर्थात् 31 श्रेणीबद्ध तो स्वयंभूरमण समुद्र के उपरिमभाग में स्थित हैं और अवशेष विमानों में से 15 स्वयंभूरमण द्वीप के ऊपर आठ अपने से लगते समुद्र के ऊपर, 4 अपने से लगते द्वीप के ऊपर, 2 अपने से लगते समुद्र के ऊपर, 1 अपने से लगते द्वीप के ऊपर तथा अंतिम 1 अपने से लगते अनेक द्वीपसमुद्रों के ऊपर है।</span></p> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> त्रिलोकसार/474 </span>उडुसेढीबद्धदलं सयंभुरमणुदहिपणिधिभागम्हि। आइल्लतिण्णि दीवे तिण्णि समुद्दे य सेसा हु।474।</span> =<span class="HindiText">सौधर्म के प्रथम ऋतु इंद्रक संबंधी श्रेणीबद्धों का एक दिशा संबंधी प्रमाण 62 है, उसके आधे अर्थात् 31 श्रेणीबद्ध तो स्वयंभूरमण समुद्र के उपरिमभाग में स्थित हैं और अवशेष विमानों में से 15 स्वयंभूरमण द्वीप के ऊपर आठ अपने से लगते समुद्र के ऊपर, 4 अपने से लगते द्वीप के ऊपर, 2 अपने से लगते समुद्र के ऊपर, 1 अपने से लगते द्वीप के ऊपर तथा अंतिम 1 अपने से लगते अनेक द्वीपसमुद्रों के ऊपर है।</span></p> | ||
<p><strong class="HindiText" id="5.7">7. दक्षिण व उत्तर कल्पों में विमानों का विभाग</strong></p> | <p><strong class="HindiText" id="5.7">7. दक्षिण व उत्तर कल्पों में विमानों का विभाग</strong></p> | ||
<p><span class="HindiText"> तिलोयपण्णत्ति/8/137-148 का भावार्थ–जिनके पृथक्-पृथक् इंद्र हैं ऐसे पहिले व पिछले चार-चार कल्पों में सौधर्म, सनत्कुमार, आनत व आरण ये चार दक्षिण कल्प हैं। ईशान, माहेंद्र, प्राणत व अच्युत ये चार उत्तर विमान हैं, क्योंकि, जैसा कि निम्न प्ररूपणा से विदित है इनमें क्रम से दक्षिण व उत्तर दिशा के श्रेणीबद्ध सम्मिलित हैं। तहाँ सभी दक्षिण कल्पों में उस-उस युगल संबंधी सर्व इंद्रक, पूर्व, पश्चिम व दक्षिण दिशा के श्रेणीबद्ध और नैर्ऋत्य व अग्नि दिशा के प्रकीर्णक सम्मिलित हैं। सभी उत्तर कल्पों में उत्तर दिशा के श्रेणीबद्ध तथा वायु व ईशान दिशा के प्रकीर्णक सम्मिलित हैं। बीच के ब्रह्म आदि चार युगल जिनका एक-एक ही इंद्र माना गया है, उनमें दक्षिण व उत्तर का विभाग न करके सभी इंद्रक, सभी श्रेणीबद्ध व सभी प्रकीर्णक सम्मिलित हैं। ( त्रिलोकसार/476 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/2/3-218 )।</span></p> | <p><span class="HindiText"><span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/8/137-148 </span>का भावार्थ–जिनके पृथक्-पृथक् इंद्र हैं ऐसे पहिले व पिछले चार-चार कल्पों में सौधर्म, सनत्कुमार, आनत व आरण ये चार दक्षिण कल्प हैं। ईशान, माहेंद्र, प्राणत व अच्युत ये चार उत्तर विमान हैं, क्योंकि, जैसा कि निम्न प्ररूपणा से विदित है इनमें क्रम से दक्षिण व उत्तर दिशा के श्रेणीबद्ध सम्मिलित हैं। तहाँ सभी दक्षिण कल्पों में उस-उस युगल संबंधी सर्व इंद्रक, पूर्व, पश्चिम व दक्षिण दिशा के श्रेणीबद्ध और नैर्ऋत्य व अग्नि दिशा के प्रकीर्णक सम्मिलित हैं। सभी उत्तर कल्पों में उत्तर दिशा के श्रेणीबद्ध तथा वायु व ईशान दिशा के प्रकीर्णक सम्मिलित हैं। बीच के ब्रह्म आदि चार युगल जिनका एक-एक ही इंद्र माना गया है, उनमें दक्षिण व उत्तर का विभाग न करके सभी इंद्रक, सभी श्रेणीबद्ध व सभी प्रकीर्णक सम्मिलित हैं। (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/476 </span>); (<span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/2/3-218 </span>)।</span></p> | ||
<p><strong class="HindiText" id="5.8">8. दक्षिण व उत्तर इंद्रों का निश्चित निवास स्थान</strong></p> | <p><strong class="HindiText" id="5.8">8. दक्षिण व उत्तर इंद्रों का निश्चित निवास स्थान</strong></p> | ||
<p><span class="PrakritText"> तिलोयपण्णत्ति/8/351 छज्जुगलसेसएसुं अट्ठारसमम्मि सेढिबद्धेसुं। दोहीणकमं दक्खिण उत्तरभागम्मि होंति देविंदा।351।</span> =<span class="HindiText">छह युगलों और शेष कल्पों में यथाक्रम से प्रथम युगल में अपने अंतिम इंद्रक से संबद्ध अठारहवें श्रेणीबद्ध में, तथा इससे आगे दो हीन क्रम से अर्थात् 16वें, 14वें, 12वें, 10वें, 8वें और 6ठें श्रेणीबद्ध में, दक्षिण भाग में दक्षिण इंद्र और उत्तर भाग में उत्तर इंद्र स्थित हैं।351। ( त्रिलोकसार/483 )।</span></p> | <p><span class="PrakritText"><span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/8/351 </span>छज्जुगलसेसएसुं अट्ठारसमम्मि सेढिबद्धेसुं। दोहीणकमं दक्खिण उत्तरभागम्मि होंति देविंदा।351।</span> =<span class="HindiText">छह युगलों और शेष कल्पों में यथाक्रम से प्रथम युगल में अपने अंतिम इंद्रक से संबद्ध अठारहवें श्रेणीबद्ध में, तथा इससे आगे दो हीन क्रम से अर्थात् 16वें, 14वें, 12वें, 10वें, 8वें और 6ठें श्रेणीबद्ध में, दक्षिण भाग में दक्षिण इंद्र और उत्तर भाग में उत्तर इंद्र स्थित हैं।351। (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/483 </span>)।</span></p> | ||
<p><span class="HindiText"> तिलोयपण्णत्ति/8/339-350 का भावार्थ–[अपने-अपने पटल के अंतिम इंद्रक की दक्षिण दिशा वाले श्रेणीबद्धों में से 18वें, 16वें, 14वें, 12वें, 6ठें और पुन: 6ठें श्रेणीबद्ध विमान में क्रम से सौधर्म, सनत्कुमार, ब्रह्म, लांतव, आनत और आरण ये छह इंद्र स्थित हैं। उन्हीं इंद्रकों की उत्तर दिशा वाले श्रेणीबद्धों में से 18वें, 16वें, 10वें, 8वें, 6ठें और पुन: 6ठें श्रेणीबद्धों में क्रम से, ईशान, माहेंद्र, महाशुक्र, सहस्रार, प्राण और अच्युत ये छह इंद्र रहते हैं।] ( हरिवंशपुराण/6/101-102 )।</span></p> | <p><span class="HindiText"><span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/8/339-350 </span>का भावार्थ–[अपने-अपने पटल के अंतिम इंद्रक की दक्षिण दिशा वाले श्रेणीबद्धों में से 18वें, 16वें, 14वें, 12वें, 6ठें और पुन: 6ठें श्रेणीबद्ध विमान में क्रम से सौधर्म, सनत्कुमार, ब्रह्म, लांतव, आनत और आरण ये छह इंद्र स्थित हैं। उन्हीं इंद्रकों की उत्तर दिशा वाले श्रेणीबद्धों में से 18वें, 16वें, 10वें, 8वें, 6ठें और पुन: 6ठें श्रेणीबद्धों में क्रम से, ईशान, माहेंद्र, महाशुक्र, सहस्रार, प्राण और अच्युत ये छह इंद्र रहते हैं।] (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/6/101-102 </span>)।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong>नोट</strong>–[ हरिवंशपुराण में लांतव के स्थान पर शुक्र और महाशुक्र के स्थान पर लांतव दिया है। इस प्रकार वहाँ शुक्र को दक्षिणेंद्र और लांतव को उत्तरेंद्र कहा है।]</p> | <p class="HindiText"><strong>नोट</strong>–[<span class="GRef"> हरिवंशपुराण </span>में लांतव के स्थान पर शुक्र और महाशुक्र के स्थान पर लांतव दिया है। इस प्रकार वहाँ शुक्र को दक्षिणेंद्र और लांतव को उत्तरेंद्र कहा है।]</p> | ||
<p class="HindiText"> राजवार्तिक/4/19/8/ पृ./पंक्ति का भावार्थ–सौधर्म युगल के अंतिम इंद्रक की दक्षिण दिशा वाले श्रेणीबद्धों में से 18वें में सौधर्मेंद्र (225/21)। उसी के उत्तर दिशा वाले 18वें श्रेणीबद्ध में ईशानेंद्र (227/6)। सनत्कुमार युगल के अंतिम इंद्रक की दक्षिण दिशा वाले 16वें श्रेणी बद्ध में सनत्कुमारेंद्र (227/32)। और उसी की उत्तर दिशा वाले 16वें श्रेणीबद्ध में माहेंद्र (228/25)। ब्रह्मयुगल के अंतिम इंद्रक की दक्षिण दिशा वाले 12वें श्रेणीबद्ध में ब्रह्मेंद्र (229/17)। और उसी की उत्तर दिशा वाले 12वें श्रेणीबद्ध में ब्रह्मोत्तरेंद्र (230/3)। लांतव युगल के अंतिम इंद्रक की दक्षिण दिशा वाले 9वें श्रेणीबद्ध में लांतवेंद्र (230/12) और उसी के उत्तर दिशा वाले 9वें श्रेणीबद्ध में कापिष्ठेंद्र (230/34)। शुक्र युगल के एक ही इंद्रक की दक्षिण दिशा वाले 12वें श्रेणीबद्ध में शुक्रेंद्र (231/8) और उसी की उत्तर दिशा वाले 12वें श्रेणीबद्ध में महाशुक्रेंद्र (231/26)। शतार युगल के एक ही सहस्रार इंद्रक की दक्षिण दिशा वाले 9वें श्रेणीबद्ध में शतारेंद्र (231/36) और उसी की उत्तर दिशा वाले 9वें श्रेणीबद्ध में सहस्रारेंद्र (232/18)। आनतादि चार कल्पों के आरण इंद्रक की दक्षिण दिशा वाले 6ठें श्रेणीबद्ध में आरणेंद्र (232/31) और अच्युत इंद्रक की उत्तर दिशा वाले 6ठें श्रेणीबद्ध में अच्युतेंद्र (233/14)। इस प्रकार ये 14 इंद्र क्रम से स्थित हैं।</p> | <p class="HindiText"><span class="GRef"> राजवार्तिक/4/19/8/ </span>पृ./पंक्ति का भावार्थ–सौधर्म युगल के अंतिम इंद्रक की दक्षिण दिशा वाले श्रेणीबद्धों में से 18वें में सौधर्मेंद्र (225/21)। उसी के उत्तर दिशा वाले 18वें श्रेणीबद्ध में ईशानेंद्र (227/6)। सनत्कुमार युगल के अंतिम इंद्रक की दक्षिण दिशा वाले 16वें श्रेणी बद्ध में सनत्कुमारेंद्र (227/32)। और उसी की उत्तर दिशा वाले 16वें श्रेणीबद्ध में माहेंद्र (228/25)। ब्रह्मयुगल के अंतिम इंद्रक की दक्षिण दिशा वाले 12वें श्रेणीबद्ध में ब्रह्मेंद्र (229/17)। और उसी की उत्तर दिशा वाले 12वें श्रेणीबद्ध में ब्रह्मोत्तरेंद्र (230/3)। लांतव युगल के अंतिम इंद्रक की दक्षिण दिशा वाले 9वें श्रेणीबद्ध में लांतवेंद्र (230/12) और उसी के उत्तर दिशा वाले 9वें श्रेणीबद्ध में कापिष्ठेंद्र (230/34)। शुक्र युगल के एक ही इंद्रक की दक्षिण दिशा वाले 12वें श्रेणीबद्ध में शुक्रेंद्र (231/8) और उसी की उत्तर दिशा वाले 12वें श्रेणीबद्ध में महाशुक्रेंद्र (231/26)। शतार युगल के एक ही सहस्रार इंद्रक की दक्षिण दिशा वाले 9वें श्रेणीबद्ध में शतारेंद्र (231/36) और उसी की उत्तर दिशा वाले 9वें श्रेणीबद्ध में सहस्रारेंद्र (232/18)। आनतादि चार कल्पों के आरण इंद्रक की दक्षिण दिशा वाले 6ठें श्रेणीबद्ध में आरणेंद्र (232/31) और अच्युत इंद्रक की उत्तर दिशा वाले 6ठें श्रेणीबद्ध में अच्युतेंद्र (233/14)। इस प्रकार ये 14 इंद्र क्रम से स्थित हैं।</p> | ||
<p><strong class="HindiText" id="5.9">9. इंद्रों के निवासभूत विमानों का परिचय</strong></p> | <p><strong class="HindiText" id="5.9">9. इंद्रों के निवासभूत विमानों का परिचय</strong></p> | ||
<p class="HindiText"> तिलोयपण्णत्ति/8/ गा.का भावार्थ–1. इंद्रक श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक, इन तीनों प्रकार के विमानों के ऊपर समचतुष्कोण व दीर्घ विविध प्रकार के प्रासाद स्थित हैं।208। ये सब प्रासाद सात-आठ-नौ-दस भूमियों से भूषित हैं। आसनशाला, नाट्यशाला व क्रीड़नशाला आदिकों से शोभायमान हैं। सिंहासन, गजासन, मकरासन आदि से परिपूर्ण हैं। मणिमय शय्याओं से कमनीय हैं। अनादिनिधन व अकृत्रिम विराजमान हैं।209-213। 2. प्रधान प्रासाद के पूर्व दिशाभाग आदि में चार-चार प्रासाद होते हैं।396। दक्षिण इंद्रों में वैडूर्य, रजत, अशोक और मृषत्कसार तथा उत्तर इंद्रों में रुचक, मंदर, अशोक और सप्तच्छद ये चार-चार प्रासाद होते हैं।397। ( त्रिलोकसार/484-485 )। 3. सौधर्म व सनत्कुमार युगल के ग्रहों के आगे स्तंभ होते हैं, जिनपर तीर्थंकर बालकों के वस्त्राभरणों के पिटारे लटके रहते हैं।398-404। सभी इंद्र मंदिरों के सामने चैत्य वृक्ष होते हैं।405-406। सौधर्म इंद्र के प्रासाद के ईशान दिशा में सुधर्मा सभा, उपपाद सभा और जिनमंदिर हैं।407-411। (इस प्रकार अनेक प्रासाद व पुष्प वाटिकाओं आदि से युक्त वे इंद्रों के नगरों में) एक के पीछे एक ऊँची-ऊँची पाँच वेदियाँ होती हैं। प्रथम वेदी के बाहर चारों दिशाओं में देवियों के भवन, द्वितीय के बाहर चारों दिशाओं में पारिषद, तृतीय के बाहर सामानिक और चौथी के बाहर अभियोग्य आदि रहते हैं।413-428। पाँचवी वेदी के बाहर वन हैं और उनसे भी आगे दिशाओं में लोकपालों के।428-433। और विदिशाओं में गणिका महत्तरियों के नगर हैं।435। इसी प्रकार कल्पातीतों के भी विविध प्रकार के प्रासाद, उपपाद सभा, जिनभवन आदि होते हैं।453-454।</p> | <p class="HindiText"><span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/8/ </span>गा.का भावार्थ–1. इंद्रक श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक, इन तीनों प्रकार के विमानों के ऊपर समचतुष्कोण व दीर्घ विविध प्रकार के प्रासाद स्थित हैं।208। ये सब प्रासाद सात-आठ-नौ-दस भूमियों से भूषित हैं। आसनशाला, नाट्यशाला व क्रीड़नशाला आदिकों से शोभायमान हैं। सिंहासन, गजासन, मकरासन आदि से परिपूर्ण हैं। मणिमय शय्याओं से कमनीय हैं। अनादिनिधन व अकृत्रिम विराजमान हैं।209-213। 2. प्रधान प्रासाद के पूर्व दिशाभाग आदि में चार-चार प्रासाद होते हैं।396। दक्षिण इंद्रों में वैडूर्य, रजत, अशोक और मृषत्कसार तथा उत्तर इंद्रों में रुचक, मंदर, अशोक और सप्तच्छद ये चार-चार प्रासाद होते हैं।397। (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/484-485 </span>)। 3. सौधर्म व सनत्कुमार युगल के ग्रहों के आगे स्तंभ होते हैं, जिनपर तीर्थंकर बालकों के वस्त्राभरणों के पिटारे लटके रहते हैं।398-404। सभी इंद्र मंदिरों के सामने चैत्य वृक्ष होते हैं।405-406। सौधर्म इंद्र के प्रासाद के ईशान दिशा में सुधर्मा सभा, उपपाद सभा और जिनमंदिर हैं।407-411। (इस प्रकार अनेक प्रासाद व पुष्प वाटिकाओं आदि से युक्त वे इंद्रों के नगरों में) एक के पीछे एक ऊँची-ऊँची पाँच वेदियाँ होती हैं। प्रथम वेदी के बाहर चारों दिशाओं में देवियों के भवन, द्वितीय के बाहर चारों दिशाओं में पारिषद, तृतीय के बाहर सामानिक और चौथी के बाहर अभियोग्य आदि रहते हैं।413-428। पाँचवी वेदी के बाहर वन हैं और उनसे भी आगे दिशाओं में लोकपालों के।428-433। और विदिशाओं में गणिका महत्तरियों के नगर हैं।435। इसी प्रकार कल्पातीतों के भी विविध प्रकार के प्रासाद, उपपाद सभा, जिनभवन आदि होते हैं।453-454।</p> | ||
<p><strong class="HindiText" id="5.10">10. कल्प विमनों व इंद्र भवनों के विस्ताद आदि</strong></p> | <p><strong class="HindiText" id="5.10">10. कल्प विमनों व इंद्र भवनों के विस्ताद आदि</strong></p> | ||
<p class="HindiText"><strong>नोट</strong>–सभी प्रमाण योजनों में बताये गये हैं।</p> | <p class="HindiText"><strong>नोट</strong>–सभी प्रमाण योजनों में बताये गये हैं।</p> | ||
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<td><p> तिलोयपण्णत्ति/8/198-202 | <td><p><span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/8/198-202 </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण/6/92-93 </span><span class="GRef"> त्रिलोकसार/480 </span></p></td> | ||
<td colspan="3"><p> तिलोयपण्णत्ति/8/372-373 +455-456 | <td colspan="3"><p><span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/8/372-373 </span>+455-456 <span class="GRef"> हरिवंशपुराण/6/94-96 </span></p></td> | ||
<td colspan="3"><p> तिलोयपण्णत्ति/8/414-417 </p></td> | <td colspan="3"><p><span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/8/414-417 </span></p></td> | ||
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Revision as of 13:03, 14 October 2020
वैमानिक देवों के भेद व लक्षण
1. वैमानिक का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/4/16/248/4 विमानेषु भवा वैमानिका:। =जो विमानों में होते हैं वे वैमानिक हैं। ( राजवार्तिक/4/16/1/222/29 )।
2. कल्प का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/4/3/238/6 इंद्रादय: प्रकारा दश एतेषु कल्पयंत इति कल्पा:। भवनवासिषु तत्कल्पनासंभवेऽपि रूढिवशाद्वैमानिकेष्वेव वर्तते कल्पशब्द:। =जिनमें इंद्र आदि दस प्रकार कल्पें जाते हैं वे कल्प कहलाते हैं। इस प्रकार इंद्रादि की कल्पना ही कल्प संज्ञा का कारण है। यद्यपि इंद्रादि की कल्पना भवनवासियों में भी संभव है, फिर भी रूढ़ि से कल्प शब्द का व्यवहार वैमानिकों में ही किया जाता है। ( राजवार्तिक/4/3/3212/8 )।
3. कल्प व कल्पातीत रूप भेद व लक्षण
तत्त्वार्थसूत्र/4/17 कल्पोपपन्ना: कल्पातीताश्च।17। =वे दो प्रकार के हैं-कल्पोपपन्न और कल्पातीत। (विशेष देखें स्वर्ग - 5)।
सर्वार्थसिद्धि/4/17/248/9 कल्पुषूपपन्ना: कल्पोपपन्ना: कल्पानतीता: कल्पातीताश्च। =जो कल्पों में उत्पन्न होते हैं वे कल्पोपपन्न कहलाते हैं और जो कल्पों के परे हैं वे कल्पातीत कहलाते हैं। ( राजवार्तिक/4/17/223/2 )।
4. कल्पातीत देव सभी अहमिंद्र हैं
राजवार्तिक/4/17/1/223/4 स्यान्मतम् नवग्रैवेयका नवानुदिशा: पंचानुत्तरा: इति च कल्पनासंभवात् तेषामपि च कल्पत्वप्रसंग इति; तन्न; किं कारणम् । उक्तत्वात् । उक्तमेतत्-इंद्रादिदशतयकल्पनासद्भावात् कल्पा इति। नवग्रैवेयकादिषु इंद्रादिकल्पना नास्ति तेषामहमिंद्रत्वात् ।=प्रश्न-नवग्रैवेयक, नव अनुदिश और पंच अनुत्तर इस प्रकार संख्याकृत कल्पना होने से उनमें कल्पत्व का प्रसंग आता है ? उत्तर-नहीं, क्योंकि, पहिले ही कहा जा चुका है कि इंद्रादि दश प्रकार की कल्पना के सद्भाव से ही कल्प कहलाते हैं। नव ग्रैवेयकादिक में इंद्रादि की कल्पना नहीं है, क्योंकि, वे अहमिंद्र हैं।
वैमानिक देव सामान्य निर्देश
1. वैमानिक देवों में मोक्ष की योग्यता संबंधी नियम
तत्त्वार्थसूत्र/4/26 विजयादिषु द्विचरमा:।26। =विजयादिक में अर्थात् विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित नाम के अनुत्तर विमानवासी देव द्विचरम देही होते हैं। [अर्थात् एक मनुष्य व एक देव ऐसे दो भव बीच में लेकर तीसरे भव मोक्ष जायेंगे (देखें चरम )]।
सर्वार्थसिद्धि/4/26/257/1 सर्वार्थसिद्धिप्रसंग इति चेत् । न; तेषां परमोत्कृष्टत्वात्, अन्वर्थसंज्ञात एकचमरमत्वसिद्धे:। =प्रश्न-इस (उपरोक्त सूत्र से) सर्वार्थसिद्धि का भी ग्रहण प्राप्त होता है? उत्तर-नहीं, क्योंकि, वे परम उत्कृष्ट हैं; उनका सर्वार्थसिद्धि यह सार्थक नाम है, इसलिए वे एक भवावतारी होते हैं। अर्थात् अगले भव से मोक्ष जायेंगे। ( राजवार्तिक/4/26/1/244/18 )।
देखें लौकांतिक [सब लौकांतिक देव एक भवावतारी हैं।]
तिलोयपण्णत्ति/8/675-676 कप्पादीदा दुचरमदेहा हवंति केई सुरा। सक्को सहग्गमहिसी सलोयवालो य दक्खिणा इंदा।675। सव्वट्ठसिद्धिवासी लोयंतियणामधेयसव्वसुरा। णियमा दुचरिमदेहा सेसेसु णत्थि णियमो य।676। =कल्पवासी और कल्पातीतों में से कोई देव द्विचरमशरीरी अर्थात् आगामी भव में मोक्ष प्राप्त करने वाले हैं। अग्रमहिषी और लोकपालों से सहित सौधर्म इंद्र, सभी दक्षिणेंद्र, सर्वार्थसिद्धिवासी तथा लौकांतिक नामक सब देव नियम से द्विचरम शरीरी हैं। शेष देवों में नियम नहीं है।675-676।
वैमानिक इंद्रों का निर्देश
1. वैमानिक इंद्रों के नाम व संख्या आदि का निर्देश
सर्वार्थसिद्धि/4/19/250/3 प्रथमौ सौधर्मैशानकल्पौ, तयोरुपरि सनत्कुमारमाहेंद्रौ, तयोरुपरि ब्रह्मलोकब्रह्मोत्तरौ, तयोरुपरि लांतवकापिष्ठौ, तयोरुपरि शुक्रमहाशुक्रौ, तयोरुपरि शतारसहस्रारौ, तयोरुपरि आनतप्राणतौ, तयोरुपरि आरणाच्युतौ। अध उपरि च प्रत्येकमिंद्रसंबनधो वेदितव्य:। मध्ये तु प्रतिद्वयम् । सौधर्मैशानसानत्कुमारमाहेंद्राणां चतुर्णां चत्वार इंद्रा:। ब्रह्मलोकब्रह्मोत्तरयोरेको ब्रह्मा नाम। लांतवकापिष्ठयोरेको लांतवाख्य:। शुक्रमहाशुक्रयोरेक: शुक्रसंज्ञ:। शतारसहस्रारयोरेको शतारनामा। आनतप्राणतारणाच्युतानां चतुर्ण्णां चत्वार:। एवं कल्पवासिनां द्वादश इंद्रा भवंति। =सर्वप्रथम सौधर्म और ऐशान कल्प युगल है। इनके ऊपर क्रम से-सनत्कुमार-माहेंद्र, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर, लांतव-कापिष्ठ, शुक्र-महाशुक्र, शतार-सहस्रार, आनत-प्राणत, और आरण-अच्युत; ऐसे 16 स्वर्गों के कुल आठ युगल हैं। नीचे और ऊपर के चार-चार कल्पों में प्रत्येक में एक-एक इंद्र, मध्य के चार युगलों में दो-दो कल्पों के अर्थात् एक-एक युगल के एक-एक इंद्र हैं। तात्पर्य यह है, कि सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार और माहेंद्र इन चार कल्पों के चार इंद्र हैं। ब्रह्मलोक और ब्रह्मोत्तर इन दो कल्पों का एक ब्रह्म नामक इंद्र है। लांतव और कापिष्ठ इन दो कल्पों में एक लांतव नामक इंद्र है। शुक्र और महाशुक्र में एक शुक्र नामक इंद्र है। शतार और सहस्रार इन दो कल्पों में एक शतार नामक इंद्र है। तथा आनत, प्राणत, आरण, अच्युत इन चार कल्पों के चार इंद्र हैं। इस प्रकार कल्पवासियों के 12 इंद्र होते हैं। ( राजवार्तिक/4/19/6-7/225/4 ); ( त्रिलोकसार/452-454 ); (और भी देखें स्वर्ग - 5/2)
तिलोयपण्णत्ति/8/450 इदाणं चिण्हाणिं पत्तेकं ताव जा सहस्सारं। आणदआरणजुगले चोद्दसठाणेसु वोच्छामि।450। =सौधर्म से लेकर सहस्रार पर्यंत के 12 कल्पों में प्रत्येक का एक-एक इंद्र है। तथा आनत, प्राणत और आरण-अच्युत इन दो युगलों के एक-एक इंद्र हैं। इस प्रकार चौदह स्थानों में अर्थात् चौदह इंद्रों के चिह्नों को कहते हैं।
राजवार्तिक/4/19/233/21 –त एते लोकानुयोगोपदेशेन चतुर्दशेंद्रा उक्ता:। इह द्वादशेष्यंते पूर्वोक्तेन क्रमेण ब्रह्मोत्तरकापिष्ठमहाशुक्रसहस्रारेंद्राणां दक्षिणेंद्रानुवृत्तित्वात् आनतप्राणतकल्पयोश्च एकैकेंद्रत्वात् । =ये सब 14 इंद्र (देखें स्वर्ग - 5/9 में राजवार्तिक ) लोकानुयोग के उपदेश से कहे गये हैं। परंतु यहाँ (तत्त्वार्थ सूत्र में) 12 इंद्र अपेक्षित हैं। क्योंकि 14 इंद्रों में जिनका पृथक् ग्रहण किया गया है ऐसे ब्रह्मोत्तर, कापिष्ठ, शुक्र और सहस्रार ये चार इंद्र अपने-अपने दक्षिणेंद्रों के अर्थात् ब्रह्म, लांतव, महाशुक्र और शतार के अनुवर्ती हैं। तथा 14 इंद्रों में युगलरूप ग्रहण करके जिनके केवल दो इंद्र माने गये हैं ऐसे आनतादि चार कल्पों के पृथक्-पृथक् चार इंद्र हैं। [इस प्रकार 14 इंद्र व 12 इंद्र इन दोनों मान्यताओं का समन्वय हो जाता है।]
2. वैमानिक इंद्रों में दक्षिण व उत्तर इंद्रों का विभाग
देखें स्वर्ग - 5/9 में–( तिलोयपण्णत्ति/8/339-351 ), ( राजवार्तिक/4/19/8/ पृष्ठ/पंक्ति), ( हरिवंशपुराण/6/101-102 ), (ति.सा./483)
12 इंद्रों की अपेक्षा |
12 इंद्रों की अपेक्षा |
14 इंद्रों की अपेक्षा |
||||
क्र. |
तिलोयपण्णत्ति व त्रिलोकसार |
हरिवंशपुराण |
राजवार्तिक |
|||
दक्षिण |
उत्तर |
दक्षिण |
उत्तर |
दक्षिण |
उत्तर |
|
1 |
सौधर्म |
ईशान |
सौधर्म |
ईशान |
सौधर्म |
ईशान |
2 |
सनत्कुमार |
माहेंद्र |
सनत्कुमार |
माहेंद्र |
सनत्कुमार |
माहेंद्र |
3 |
ब्रह्म |
× |
ब्रह्म |
× |
ब्रह्म |
ब्रह्मोत्तर |
4 |
लांतव |
× |
× |
लांतव |
लांतव |
कापिष्ठ |
5 |
× |
महाशुक्र |
महाशुक्र |
× |
शुक्र |
महाशुक्र |
6 |
× |
सहस्रार |
× |
शतार |
शतार |
सहस्रार |
7 |
आनत |
प्राणत |
आनत |
प्राणत |
× |
× |
8 |
आरण |
अच्युत |
आरण |
अच्युत |
आरण |
अच्युत |
3. वैमानिक इंद्रों व देवों के आहार व श्वास का अंतराल
मू.आ./1145 जदि सागरोपमाऊ तदि वाससहस्सियादु आहारो। पक्खेहिं दु उस्सासो सागरसमयेहिं चेव भवे।1145। =जितने सागर की आयु है उतने ही हजार वर्ष के बाद देवों के आहार है और उतने ही पक्ष बीतने पर श्वासोच्छ्वास है। ये सब सागर के समयों कर होता है। ( त्रिलोकसार/544 ); (जं.प./11/350)
तिलोयपण्णत्ति/8/552-555 –जेत्तियजलणिहि उवमा जो जीवदि तस्स तेत्तिएहिं च। वरिससहस्सेहि हवे आहारो पणुदिणाणि पल्लमिदे।552। पडिइंदाणं सामाणियाण तेत्तीससुरवरणं। भोयणकालपमाणं णिय-णिय-इंदाण सारिच्छं।553। इंदप्पहुदिचउक्के देवीणं भोयणम्मि जो समओ। तस्स पमाणरूवणउवएसो संपहि पणट्ठो।554। सोहममिंददिगिंदे सोमम्मि जयम्मि भोयणावसरो। सामाणियाण ताणं पत्तेक्कं पंचवीसदलदिवसा।555। =जो देव जितने सागरोपम काल तक जीवित रहता है उसके उतने ही हजार वर्षों में आहार होता है। पल्य प्रमाण काल तक जीवित रहने वाले देव के पाँच दिन में आहार होता है।552। प्रतींद्र, सामानिक और त्रयस्त्रिंश देवों के आहार काल का प्रमाण अपने-अपने इंद्रों के सदृश है।553। इंद्र आदि चार की देवियों के भोजन का जो समय है उसके प्रमाण के निरूपण का उपदेश नष्ट हो गया है।554। सौधर्म इंद्र के दिक्पालों में से सोम व यम के तथा उनके सामानिकों में से प्रत्येक के भोजन का अवसर 12 दिन है।555।
देखें देव - II.2–(सभी देवों को अमृतमयी दिव्य आहार होता है।)
4. इंद्रों के चिह्न व यान विमान
तिलोयपण्णत्ति/5/84-97 का भावार्थ–(नंदीश्वरद्वीप की वंदनार्थ सौधर्मादिक इंद्र निम्न प्रकार के यानों पर आरूढ़ होकर आते हैं। सौधर्मेंद्र=हाथी; ईशानेंद्र=वृषभ; सनत्कुमार=सिंह; माहेंद्र=अश्व; ब्रह्मेंद्र=हंस; ब्रह्मोत्तर=क्रौंच; शुकेंद्र=चक्रवाक; महाशुक्रेंद्र=तोता; शतारेंद्र=कोयल; सहस्रारेंद्र=गरुड़; आनतेंद्र=गरुड़; प्राणतेंद्र=पद्म विमान; आरणेंद्र=कुमुद विमान; अच्युतेंद्र=मयूर।)
तिलोयपण्णत्ति/8/438-440 का भावार्थ–[इंद्रों के यान विमान निम्न प्रकार हैं–सौधर्म=बालुक; ईशान=पुष्पक; सनत्कुमार=सौमनस; माहेंद्र=श्रीवृक्ष; ब्रह्म=सर्वतोभद्र; लांतव=प्रीतिंकर; शुक्र=रम्यक; शतार=मनोहर; आनत=लक्ष्मी; प्राणत=मादिंति (?); आरण=विमल; अच्युत=विमल]
तिलोयपण्णत्ति/8/448-450 का भावार्थ–[14 इंद्रवाली मान्यता की अपेक्षा प्रत्येक इंद्र के क्रम से निम्न प्रकार मुकुटों में नौ चिह्न हैं जिनसे कि वे पहिचाने जाते हैं–शूकर, हरिणी, महिष, मत्स्य, भेक(मेंढक) ; सर्प, छागल, वृषभ व कल्पतरु।]
तिलोयपण्णत्ति/8/451 का भावार्थ–[दूसरी दृष्टि से उन्हीं 14 इंद्रों में क्रम से–शूकर, हरिणी, महिष, मत्स्य, कूर्म, भेक(मेंढक), हय, हाथी, चंद्र, सर्प, गवय, छगल, वृषभ और कल्पतरु ये 14 चिह्न मुकुटों में होते हैं।] ( त्रिलोकसार/486-487 )
5. इंद्रों व देवों की शक्ति व विक्रिया
तिलोयपण्णत्ति/8/697-699 एक्कपलिदोवमाऊ उप्पाडेदुं धराए छक्खंडे। तग्गदणरतिरियजणे मारेदुं पोसेदुं सक्को।697। उवहिउवमाणजीवी पल्लट्टेदुं च जंबुदीवं हि। तग्गदणरतिरियाणं मारेदुं पोसिदुं सक्को।698। सोहम्मिंदो णियमा जंबूदीवं समुक्खिवदि एवं। केई आइरिया इय सत्तिसहावं परूवंति।699। =एक पल्योपम प्रमाण आयुवाला देव पृथिवी के छह खंडों को उखाड़ने के लिए और उनमें स्थित मनुष्यों व तिर्यंचों को मारने अथवा पोषने के लिए समर्थ हैं।697। सागरोपम प्रमाण काल तक जीवित रहने वाला देव जंबूद्वीप को भी पलटने के लिए और उसमें स्थित तिर्यंचों व मनुष्यों को मारने अथवा पोषने के लिए समर्थ है।698। सौधर्म इंद्र नियम से जंबूद्वीप को फेंक सकता है, इस प्रकार कोई आचार्य शक्ति स्वभाव का निरूपण करते हैं।699।
त्रिलोकसार/527 दुसु-दुसु तिचक्केसु य णवचोद्दसगे विगुव्वणा सत्ती। पढमखिदीदो सत्तमखिदिपेरंतो त्ति अवही य।527। =दो स्वर्गों में दूसरी नरक पृथिवी पर्यंत चार स्वर्गों में तीसरी पर्यंत, चार स्वर्गों में, चौथी पर्यंत, चार स्वर्गों में पाँचवीं पर्यंत, नवग्रैवेयकों में छठीं पर्यंत और अनुदिश अनुत्तर विमानों में सातवीं पर्यंत, इस प्रकार देवों में क्रम से विक्रिया शक्ति व अवधि ज्ञान से जानने की शक्ति है (विशेष–देखें अवधिज्ञान - 9)।
6. वैमानिक इंद्रों का परिवार
1. सामानिक आदि देवों की अपेक्षा ( तिलोयपण्णत्ति/8/218-246 ), ( राजवार्तिक 4/19/8/225-235 ), ( त्रिलोकसार/494,495,498 ), (ज.पं./16/239-242,270-278)।
पारिषद् |
सप्त अनीक* |
|||||||||
इंद्रों के नाम |
प्रतींद्र |
सामानिक |
त्रायस्त्रिंश |
अभ्यंतर समिति |
मध्य समिति |
बाह्य समिति |
आत्मरक्ष |
लोकपाल |
प्रत्येक अनीक |
कुल अनीक |
सहस्र |
सहस्र |
|||||||||
सौधर्म |
1 |
84000 |
33 |
12000 |
14000 |
16000 |
336000 |
4 |
10668 |
74676 |
ईशान |
1 |
80000 |
33 |
10000 |
12000 |
14000 |
32000 |
4 |
10160 |
71120 |
सनत्कु. |
1 |
72000 |
33 |
8000 |
10000 |
12000 |
288000 |
4 |
9144 |
64008 |
माहेंद्र |
1 |
70000 |
33 |
6000 |
8000 |
10000 |
280000 |
4 |
8890 |
62230 |
ब्रह्म |
1 |
60000 |
33 |
4000 |
6000 |
8000 |
240000 |
4 |
7620 |
53340 |
लांतव |
1 |
50000 |
33 |
2000 |
4000 |
6000 |
200000 |
4 |
6350 |
44450 |
महाशुक्र |
1 |
40000 |
33 |
1000 |
2000 |
4000 |
160000 |
4 |
5080 |
35560 |
सहस्रार |
1 |
30000 |
33 |
500 |
1000 |
2000 |
120000 |
4 |
3810 |
26670 |
आनत |
1 |
20000 |
33 |
250 |
500 |
1000 |
80000 |
4 |
2540 |
17780 |
प्राणत |
1 |
20000 |
33 |
250 |
500 |
1000 |
80000 |
4 |
2540 |
17780 |
आरण |
1 |
20000 |
33 |
125 |
500 |
1000 |
80000 |
4 |
2540 |
17780 |
अच्युत |
1 |
20000 |
33 |
125 |
500 |
1000 |
80000 |
4 |
2540 |
17780 |
*नोट—[वृषभ तुरंग आदि सात अनीक सेना है। प्रत्येक सेना में सात-सात कक्षा हैं। प्रथम कक्षा अपने सामानिक प्रमाण है। द्वितीयादि कक्षाएँ उत्तरोत्तर दूनी-दूनी हैं। अत: एक अनीक का प्रमाण=सामानिक का प्रमाण×127। कुल सातों अनीकों का प्रमाण=एक अनीक×7–(देखें अनीक ); ( तिलोयपण्णत्ति/8/235-237 )] |
2. देवियों की अपेक्षा
( तिलोयपण्णत्ति/8/306-315 +379–385); ( राजवार्तिक/4/19/8/225-235 ); ( त्रिलोकसार/509-513 )।
क्र. |
इंद्र का नाम |
ज्येष्ठ देवियाँ |
प्रत्येक ज्येष्ठ देवी की परिवार देवियाँ |
वल्लभिका |
अग्र देवियाँ |
प्रत्येक देवी के वैक्रियक रूप |
1 |
सौधर्म |
8 |
16000 |
32000 |
160,000 |
16000 |
2 |
ईशान |
8 |
16000 |
32000 |
160,000 |
16000 |
3 |
सनत्कुमार |
8 |
8000 |
8000 |
72,000 |
32000 |
4 |
माहेंद्र |
8 |
8000 |
8000 |
72,000 |
32000 |
5 |
ब्रह्म |
8 |
4000 |
2000 |
34,000 |
64000 |
6 |
लांतव |
8 |
2000 |
500 |
16500 |
128000 |
7 |
महाशुक्र |
8 |
1000 |
250 |
8250 |
256000 |
8 |
सहस्रार |
8 |
500 |
125 |
4125 |
512000 |
9 |
आनत |
8 |
250 |
63 |
2063 |
1024000 |
10 |
प्राणत |
8 |
250 |
63 |
2063 |
1024000 |
11 |
आरण |
8 |
250 |
63 |
2063 |
1024000 |
12 |
अच्युत |
250 |
63 |
2063 |
1024000 |
7. वैमानिक इंद्रों के परिवार देवों की देवियाँ
( तिलोयपण्णत्ति/8/319-330 ); ( राजवार्तिक/4/19/8/225-235 )।
परिवार देव |
देवी का पद |
सौधर्म ईशान |
सनत्कुमार माहेंद्र |
ब्रह्म ब्रह्मोत्तर |
लांतव कापिष्ठ |
शुक्र महाशुक्र |
शतार सहस्रार |
आनत-प्राणत आरण-अच्युत |
प्रतींद्र सामानिक त्रायस्त्रिंश |
अग्र देवी |
— |
अपने इंद्रों के समान |
— |
||||
परिवार देवी |
4000 |
2000 |
1000 |
500 |
250 |
125 |
63,62 |
|
प्रत्येक लोकपाल |
अग्र देवी |
— |
— |
— |
— |
|||
अभ्यंतर पारिषद् |
अग्र देवी |
500 |
400 |
300 |
200 |
100 |
50 |
25 |
मध्य पारिषद् |
अग्र देवी |
600 |
500 |
400 |
300 |
200 |
100 |
50 |
बाह्य पारिषद् |
अग्र देवी |
700 |
600 |
500 |
400 |
300 |
200 |
100 |
अनीक मह |
अग्र देवी |
600 |
600 |
600 |
600 |
600 |
600 |
600 |
अनीक- |
अग्र देवी |
200 |
200 |
200 |
200 |
200 |
200 |
|200 |
आत्मरक्ष |
ज्येष्ठ देवी |
1 |
1 |
1 |
1 |
1 |
1 |
1 |
आत्मरक्ष |
वल्लभा देवी |
1 |
1 |
1 |
1 |
1 |
1 |
1 |
प्रकीर्णक आदि |
— |
उपदेशनष्ट |
— |
— |
8. वैमानिक इंद्रों के परिवार, देवों का परिवार व विमान आदि
तिलोयपण्णत्ति/8/286-304 का भावार्थ–प्रतींद्र, सामानिक व त्रायस्त्रिंश में प्रत्येक के 10 प्रकार के परिवार अपने-अपने इंद्रों के समान हैं।286। सौधर्मादि 12 इंद्रों के लोकपालों में प्रत्येक सामंत क्रम से 4000, 4000, 1000, 1000, 500, 400, 300, 200, 100, 100, 100, 100 है।287-288। समस्त दक्षिणेंद्रों में प्रत्येक के सोम व यम लोकपाल के अभ्यंतर आदि तीनों पारिषद के देव क्रम से 50,400 व 500 हैं।289। वरुण के 60,500,600 हैं तथा कुबेर के 70,600,700 हैं।290। उत्तरेंद्रों में इससे विपरीत क्रम करना चाहिए।290। सोम आदि लोकपालों की सात सेनाओं में प्रत्येक की प्रथम कक्षा 28000 और द्वितीय आदि 6 कक्षाओं में उत्तरोत्तर दुगुनी है। इस प्रकार वृषभादि सेनाओं में से प्रत्येक सेना का कुल प्रमाण 28000×127=3556000 है।294। और सातों सेनाओं का कुल प्रमाण 3556000×7=24892000 है।295। सौधर्म सनत्कुमार व ब्रह्म इंद्रों के चार-चार लोकपालों में से प्रत्येक के विमानों की संख्या 666666 है। शेष की संख्या उपलब्ध नहीं है। 297,299,302। सौधर्म के सोमादि चारों लोकपालों के प्रधान विमानों के नाम क्रम से स्वयंप्रभ, अरिष्ट, चलप्रभ और वल्गुप्रभ हैं।298। शेष दक्षिणेंद्रों में सोमादि उन लोकपालों के प्रधान विमानों के नाम क्रम से स्वयंप्रभ, वरज्येष्ठ, अंजन और वल्गु है।300। उत्तरेंद्रों के लोकपालों के प्रधान विमानों के नाम क्रम से सोक (सम), सर्वतोभद्र, सुभद्र और अमित हैं।301। दक्षिणेंद्रों के सोम और यम समान ऋद्धिवाले हैं; उनसे अधिक वरुण और उससे भी अधिक कुबेर है।303। उत्तरेंद्रों के सोम और यम समान ऋद्धिवाले हैं। उनसे अधिक कुबेर और उससे अधिक वरुण होता है।304।
वैमानिक देवियों का निर्देश
1. वैमानिक इंद्रों की प्रधान देवियों के नाम
तिलोयपण्णत्ति/8/306-307,316-318 बलमाणा अच्चिणिया ताओ सव्विंदसरिसणामाओ। एक्केक्कउत्तरिंदे तम्मेत्ता जेट्ठदेवीओ।306। किण्हा या ये पुराइं रामावइरामरक्खिदा वसुका। वसुमित्ता वसुधम्मा वसंधरा सव्वइंद समणामा।307। विणयसिरिकणयमालापउमाणंदासुसीमजिणदत्ता। एक्केक्कदक्खिंणिदे एक्केक्का पाणवल्लहिया।316। एक्केक्कउत्तरिंदे एक्केक्का होदि हेममाला य। णिलुप्पलविस्सुदया णंदावइलक्खणादो जिणदासी।317। सयलिंदवल्लभाणं चत्तारि महत्तरीओ पत्तेवकं कामा कामिणिआओ पंकयगंधा यलंबुणामा य।318।=सभी दक्षिणेंद्रों की 8 ज्येष्ठ देवियों के नाम समान होते हुए क्रम से पद्मा, शिवा, शची, अंजुका, रोहिणी, नवमी, बला और अर्चिनिका ये हैं और सभी उत्तरेंद्रों की आठ-आठ ज्येष्ठ देवियों के नाम, मेघराजी, रामापति, रामरक्षिता, वसुका, वसुमित्रा, वसुधर्मा और वसुंधरा ये हैं।306-307। छह दक्षिणेंद्रों की प्रधान वल्लभाओं के नाम क्रम से विनयश्री, कनकमाला, पद्मा, नंदा, सुसीमा, और जिनदत्ता ये हैं।316। छह उत्तरेंद्रों की प्रधान वल्लभाओं के नाम हेममाला, नीलोत्पला, विश्रुता, नंदा, वैलक्षणा और जिनदासी ये हैं।317। इन वल्लभाओं में से प्रत्येक के कामा, कामिनिका, पंकजगंधा और अलंबु नाम की चार महत्तरिका होती हैं।318।
त्रिलोकसार/506,510-511 ताओ चउरो सग्गे कामा कामिणि य पउमगंधा य। तो होदि अलंबूसा सव्विंदपुराणमेस कमो।506। सचि पउम सिव सियामा कालिंदीसुलसअज्जुकाणामा भाणुत्ति जेट्ठदेवी सव्वेसिं दक्खिणिंदाणं।510। सिरिमति रामा सुसीमापभावदि जयसेण णाम य सुसेणा। वसुमित्त वसुंधर वरदेवीओ उत्तरिंदाणं।511। =सौधर्मादि स्वर्ग में कामा, कामिनी, पद्मगंधा, अलंबुसा ऐसी नाम वाली चार प्रधान गणिका हैं।506। छह दक्षिणेंद्रों की आठ-आठ ज्येष्ठ देवियों के नाम क्रम से शची, पद्मा, शिवा, श्यामा, कालिंदी, सुलसा, अज्जुका और भानु ये हैं।510। छहों उत्तरेंद्रों की आठ-आठ ज्येष्ठ देवियों के नाम क्रम से श्रीमती, रामा, सुसीमा, प्रभावती, जयसेना, सुषेणा, वसुमित्रा और वसुंधरा ये हैं।511।
2. देवियों की उत्पत्ति व गमनागमन संबंधी नियम
मू.आ./1131-1132 आईसाणा कप्पा उववादो होइ देवदेवीणं। तत्तो परंतु णियमा उववादो होइ देवाणं।1131। जावदु आरण-अच्युद गमणागमणं च होइ देवीणं। तत्तो परं तु णियमा देवीणं णत्थिसे गमणं।1132। =[भवनवासी से लेकर] ईशान स्वर्ग पर्यंत देव व देवी दोनों की उत्पत्ति होती है। इससे आगे नियम से देव ही उत्पन्न होते हैं, देवियाँ नहीं।1131। आरण अच्युत स्वर्ग तक देवियों का गमनागमन है, इससे आगे नियम से उनका गमनागमन नहीं है।1132। ( तिलोयपण्णत्ति/8/565 )।
तिलोयपण्णत्ति/8/ गा. सोहम्मीसाणेसुं उप्पज्जंते हु सव्वदेवीओ। उवरिमकप्पे ताणं उप्पत्ती णत्थि कइया वि।331। तेसुं उप्पणाओ देवीओ भिण्णओहिणाणेहिं। णादूणं णियकप्पे णेंति हु देवा सरागमणा।333। णवरि विसेसो एसो सोहम्मीसाणजाददेवीणं। वच्चंति मूलदेहा णियणियकप्पामराण पासम्मि।596। =सब (कल्पवासिनी) देवियाँ सौधर्म और ईशान कल्पों में ही उत्पन्न होती हैं, इससे उपरिम कल्पों में उनकी उत्पत्ति नहीं होती।331। उन कल्पों में उत्पन्न हुई देवियों को भिन्न अवधिज्ञान से जानकर सराग मनवाले देव अपने कल्पों में ले जाते हैं।334। विशेष यह है कि सौधर्म और ईशान कल्प में उत्पन्न हुई देवियों के मूल शरीर अपने-अपने कल्पों के देवों के पास जाते हैं।596।
हरिवंशपुराण/6/119-121 दक्षिणाशारणांतानां देव्य: सौधर्ममेव तु। निजागारेषु जायंते नीयंते च निजास्पदम् ।119। उत्तराशाच्युतांतानां देवानां दिव्यमूर्तय:। ऐशानकल्पसंभूता देव्यो यांति निजाश्रयम् ।120। शुद्धदेवीयुतान्याहुर्विमानानि मुनीश्वरा:। षट्लक्षास्तु चतुर्लक्षा: सौधर्मैशानकल्पयो:।121।=आरण स्वर्ग पर्यंत दक्षिण दिशा के देवों की देवियाँ सौधर्म स्वर्ग में ही अपने-अपने उपपाद स्थानों में उत्पन्न होती हैं और नियोगी देवों के द्वारा यथास्थान ले जायी जाती हैं।119। तथा अच्युत स्वर्ग पर्यंत उत्तर दिशा के देवों की सुंदर देवियाँ ऐशान स्वर्ग में उत्पन्न होती हैं, एवं अपने-अपने नियोगी देवों के स्थान पर जाती हैं।120। सौधर्म और ऐशान स्वर्ग में शुद्ध देवियों से युक्त विमानों की संख्या क्रम से 600,000 और 400,000 बतायी हैं। अर्थात् इतने उनके उपपाद स्थान हैं।121। ( त्रिलोकसार/524-525 ); ( तत्त्वसार/2/81 )।
धवला 1/1,1,98/338/2 सनत्कुमारादुपरि न स्त्रिय: समुत्पद्यंते सौधर्मादाविव तदुत्पत्त्यप्रतिपादनात् । तत्र स्त्रीणामभावे कथं तेषां देवानामनुपशांततत्संतापानां सुखमिति चेन्न, तत्स्त्रीणां सौधर्मकल्पोपपत्ते:। =प्रश्न–सनत्कुमार स्वर्ग से लेकर ऊपर स्त्रियाँ उत्पन्न नहीं होती हैं, क्योंकि सौधर्म और ऐशान स्वर्ग में देवांगनाओं के उत्पन्न होने का जिस प्रकार कथन किया गया है, उसी प्रकार आगे के स्वर्गों में उनकी उत्पत्ति का कथन नहीं किया गया है इसलिए वहाँ स्त्रियों का अभाव होने पर, जिनका स्त्री संबंधी संताप शांत नहीं हुआ है, ऐसे देवों के उनके बिना सुख कैसे हो सकता है ? उत्तर–नहीं, क्योंकि सनत्कुमार आदि कल्प संबंधी स्त्रियों की सौधर्म और ऐशान स्वर्ग में उत्पत्ति होती है।
स्वर्ग लोक निर्देश
1. स्वर्ग लोक सामान्य निर्देश
तिलोयपण्णत्ति/8/6-10 उत्तरकुरुमणुबाणं एक्केणूणेणं तह य बालेणं। पणवीसुत्तरचउसहकोसयदंडेहिं विहीणेणं।6। इगिसट्ठीअहिएणं लक्खेणं जोयणेण ऊणाओ। रज्जूओ सत्त गयणे उड्ढुड्ढं णाकपडलाणिं।7। कणयद्दिचूलिउवरिं उत्तरकुरुमणुवएक्कबालस्स। परिमाणेणंतरिदौ चेट्ठदि हु इंदओ पढमो।8। लोयसिहरादु हेट्ठा चउसय पणवीसं चावमाणाणिं। इगिवीस जोयणाणिं गंतूणं इंदओ चरिमो।9। सेसा य एकसट्ठी एदाणं इंदयाण विच्चाले। सव्वे अणादिणिहणा रयणमया इंदया होंति।10। =उत्तरकुरु में स्थित मनुष्यों के एक बाल हीन चार सौ पचीस धनुष और एक लाख इकसठ योजनों से रहित सात राजू प्रमाण आकाश में ऊपर-ऊपर स्वर्ग पटल स्थित हैं।6-7। मेरु की चूलिका के ऊपर उत्तरकुरु क्षेत्रवर्ती मनुष्य के एक बालमात्र के अंतर से प्रथम इंद्रक स्थित है।8। लोक शिखर के नीचे 425 धनुष और 21 योजन मात्र जाकर अंतिम इंद्रक स्थित है।9। शेष इकसठ इंद्रक इन दोनों इंद्रकों के बीच में हैं। ये सब रत्नमय इंद्रक विमान अनादिनिधन हैं।10। ( सर्वार्थसिद्धि/4/19/251/1 ), ( हरिवंशपुराण/6/35 ), ( धवला 4/1,3,1/9/2 ), ( त्रिलोकसार/470 )।
2. कल्प व कल्पातीत विभाग निर्देश
तिलोयपण्णत्ति/8/115-128 कप्पाकप्पातीदं इदि दुविहं होदि।114। बारस कप्पा केइ केइ सोलस वदंति आइरिया। तिविहाणि भासिदाणिं कप्पतीदाणि पडलाणिं।115। हेट्ठिम मज्झे उवरिं पत्तेक्कं ताणं होंति चत्तारि। एवं बारसकप्पा सोलस उड्ढुड्ढमट्ठ जुगलाणिं।116। गेवज्जमणुद्दिसयं अणुत्तरं इय हुवंति तिविहप्पा। कप्पातीदा पडला गेवज्जं णवविहं तेसु।117। सोहम्मीसाणसणक्कुमारमाहिंदबम्हलंतवया। महसुक्कसहस्सारा आणदपाणदयआरणच्चुदया।120। एवं बारस कप्पा कप्पातीदेसु णव य गेवेज्जा।...।121। आइच्चइंदयस्स य पुव्वादिसु...चत्तारो वरविमोणाइं।123। पइण्णयाणि य चत्तारो तस्स णादव्वा।124। विजयंत...पुव्वावरदक्खिणुत्तरदिसाए।125। सोहम्मो ईसाणो सणक्कुमारो तहेव माहिंदो। बम्हाबम्हुत्तरयं लंतवकापिट्ठसुक्कमहसुक्का।127। सदरसहस्साराणदपाणदआरणयअच्चुदा णामा। इय सोलस कप्पाणिं मण्णंते केइ आइरिया।128। =1. स्वर्ग में दो प्रकार के पटल हैं–कल्प और कल्पातीत।114। कल्प पटलों के संबंध में दृष्टिभेद है। कोई 12 कहता है और कोई सोलह, कल्पातीत पटल तीन हैं।115। 12 कल्प की मान्यता के अनुसार अधो, मध्यम व उपरिम भाग में चार-चार कल्प हैं (देखें स्वर्ग - 3.1) और 16 कल्पों की मान्यता के अनुसार ऊपर-ऊपर आठ युगलों में 16 कल्प हैं।116। ग्रैवेयक, अनुदिश व अनुत्तर ये तीन कल्पातीत पटल हैं।117। सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेंद्र, ब्रह्म, लांतव, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत ये बारह कल्प हैं। इनसे ऊपर कल्पातीत विमान हैं। जिनमें नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमान हैं।120-125। ( तत्त्वार्थसूत्र/4/16-18,23 ) + (स्वर्ग/3/1)। 2. सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेंद्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत नामक ये 16 कल्प हैं, ऐसा कोई आचार्य मानते हैं।127-128। ( तत्त्वार्थसूत्र/4/19 ), ( हरिवंशपुराण/6/36-37 )। (देखें अगले पृष्ठ पर चित्र सं - 6)
चित्र
3. स्वर्गों में स्थित पटलों के नाम व उनमें स्थित इंद्रक व श्रेणीबद्ध
देखें स्वर्ग - 5/1 (मेरु की चूलिका से लेकर ऊपर लोक के अंत तक ऊपर-ऊपर 63 पटल या इंद्रक स्थित हैं।)
तिलोयपण्णत्ति/8/11 एक्केक्क इंदयस्स य विच्चालमसंखजोयणाण समं। एदाणं णामाणिं वोच्छोमो आणुपुव्वीए।11। =एक-एक इंद्रक का अंतराल असंख्यात योजन प्रमाण है। अब इनके नामों को अनुक्रम से कहते हैं।11। (देखें आगे कोष्ठक )।
राजवार्तिक/4/19/8/225/15 तयोरेकत्रिंशद् विमानप्रस्तारा:। =उन सौधर्म व ईशान कल्पों के 31 विमान प्रस्तार हैं। (अर्थात् जो इंद्रक का नाम हो वही पटल का नाम है।)
कोष्ठक सं.1-4=( तिलोयपण्णत्ति/8/12-17 ); ( राजवार्तिक/4/19/8/ पृष्ठ/पंक्ति–225/14+227/30+229/14+230/12+231/7+231/36+233/30); ( हरिवंशपुराण/6/44-54 ); ( त्रिलोकसार/464-469 )।
कोष्ठक सं.6-7=( तिलोयपण्णत्ति/8/82-85 ); ( राजवार्तिक/4/19/8/ पृष्ठ/पंक्ति=225/17+227/29+229/14+230/12+231/9+231/35+232/28); ( हरिवंशपुराण/6/43 ); ( त्रिलोकसार/473-474 )।
नोट—( हरिवंशपुराण में 62 की बजाय 63 श्रेणीबद्ध से प्रारंभ किया है।)
कोष्ठक नं.8–( तिलोयपण्णत्ति/8/18-81 ); ( त्रिलोकसार/472 )।
क्र. |
प्रत्येक स्वर्ग के इंद्रक या पटल |
5 प्रत्येक पटल में इंद्रक |
श्रेणीबद्ध |
8 इंद्रकों का विस्तार योजन |
||||
1 तिलोयपण्णत्ति |
2 राजवार्तिक |
3 हरिवंशपुराण |
4 त्रिलोकसार |
6 प्रति दिशा |
7 कुल योग |
|||
(1) |
सौधर्म ईशान युगल में 31 |
|||||||
1 |
ऋतु |
1 |
62 |
248 |
4500000 योजन |
|||
2 |
विमल |
चंद्र |
विमल |
विमल |
1 |
61 |
244 |
|
3 |
चंद्र |
विमल |
चंद्र |
चंद्र |
1 |
60 |
240 |
|
4 |
वल्गु |
1 |
59 |
236 |
||||
5 |
वीर |
1 |
58 |
232 |
||||
6 |
अरुण |
1 |
57 |
228 |
||||
7 |
नंदन |
1 |
56 |
224 |
||||
8 |
नलिन |
1 |
55 |
220 |
||||
9 |
कंचन |
लोहित |
कांचन |
कांचन |
1 |
54 |
216 |
|
10 |
रुधिर (रोहित) |
कांचन |
रोहित |
रोहित |
1 |
53 |
212 |
|
11 |
चंचत् |
वंचन |
चंचतल |
चंचल |
1 |
52 |
208 |
|
12 |
मरुत |
1 |
51 |
204 |
||||
13 |
ऋद्धीश |
1 |
50 |
200 |
||||
14 |
वैडूर्य |
1 |
49 |
196 |
||||
15 |
रुचक |
1 |
48 |
192 |
||||
16 |
रुचिर |
1 |
47 |
188 |
||||
17 |
अंक |
अर्क |
अंक |
1 |
46 |
184 |
||
18 |
स्फटिक |
1 |
45 |
180 |
||||
19 |
तपनीय |
1 |
44 |
176 |
||||
20 |
मेघ |
1 |
43 |
172 |
517 व 518 सिंगल पेज अलग से है।
4. श्रेणी बद्धों के नाम निर्देश
तिलोयपण्णत्ति/8/87-100 णियणियमाणि सेढिबद्धेसुं। पढमेसुं पहमज्झिमआवत्तविसिट्ठजुत्ताणि।89। उडुइंदयपुव्वादी सेढिगया जे हुवंति बासट्ठी। ताणं विदियादीणं एक्कदिसाए भणामो णामाइं।90। संठियणामा सिरिवच्छवट्टणामा य कुसुमजावाणिं। छत्तंजणकलसा...।96। एवं चउसु दिसासुं णामेसुं दक्खिणादियदिसासुं। सेढिगदाणं णामा पीदिकरइंदयं जाव।98। आइच्चइंदययस्स य पुव्वादिसु लच्छिलच्छिमालिणिया। वइरावइरावणिया चत्तारो वरविमाणाणिं।99। विजयंतवइजयंत जयंतमपराजिदं च चत्तारो। पुव्वादिसु माणाणिं ठिदाणि सव्वट्ठसिद्धिस्स।100। =1. ऋतु आदि सर्व इंद्रकों की चारों दिशाओं में स्थित श्रेणी बद्धों में से प्रथम चार का नाम उस-उस इंद्र के नाम के साथ प्रभ, मध्यम, आवर्त व विशिष्ट ये चार शब्द जोड़ देने से बन जाते हैं। जैसे–ऋतुप्रभ, ऋतु मध्यम, ऋतु आवर्त और ऋतु विशिष्ट। 2. ऋतु इंद्र के पूर्वादि दिशाओं में स्थित, शेष द्वितीय आदि 61-61 विमानों के नाम इस प्रकार हैं। एक दिशा के 61 विमानों के नाम–संस्थित, श्रीवत्स, वृत्त, कुसुम, चाप, छत्र, अंजन, कलश आदि हैं। शेष तीन दिशाओं के नाम बनाने के लिए इन नामों के साथ ‘मध्यम’, ‘आवर्त’ और ‘विशिष्ट’ ये तीन शब्द जोड़ने चाहिए। इस प्रकार नवग्रैवेयक के अंतिम प्रीतिंकर विमान तक के श्रेणी बद्धों के नाम प्राप्त होते हैं। 3. आदित्य इंद्रक की पूर्वादि दिशाओं में लक्ष्मी, लक्ष्मीमालिनी, वज्र और वज्रावनि ये चार विमान हैं। विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित ये चार विमान सर्वार्थसिद्धि की पूर्वादि दिशाओं में हैं।
हरिवंशपुराण/6/63-65 अर्चिराद्यं परं ख्यातमर्चिमालिन्यभिख्यया। वज्रं वैरोचनं चैव सौम्यं स्यात्सौम्यरूप्यकम् ।63। अंकं च स्फुटिकं चेति दिशास्वनुदिशानि तु। आदित्याख्यस्य वर्तंते प्राच्या: प्रभृति सक्रमम् ।64। विजयं वैजयंतं च जयंतमपराजितम् । दिक्षु सर्वार्थसिद्धेस्तु विमानानि स्थितानि वै।65। =अनुदिशों में आदित्य नाम का विमान बीच में है और उसकी पूर्वादि दिशाओं तथा विदिशाओं में क्रम से–अर्चि, अर्चिमालिनी, वज्र, वैरोचन, सौम्य, सौम्यरूपक, अंक और स्फटिक ये आठ विमान हैं। अनुत्तर विमानों में सर्वार्थसिद्धि विमान बीच में है और उसकी पूर्वादि चार दिशाओं में विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित ये चार विमान स्थित हैं।
जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/338-340 अच्ची य अच्चिमालिणी दिव्वं वइरोयणं पभासं च। पुव्वावरदक्खिण उत्तरेण आदिच्चदो होंति।338। विजयं च वेजयंतं जयंतमपराजियं च णामेण। सव्वट्टस्स दु एदे चदुसु वि य दिसासु चत्तारि।340। =अर्चि, अर्चिमालिनी, दिव्य, वैरोचन और प्रभास ये चार विमान आदित्य पटल के पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर में हैं।338। विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित ये चार विमान सर्वार्थपटल की चारों ही दिशाओं में स्थित है।340।
सौधर्म युगल के 31 पटल
Insert picture
5. स्वर्गों में विमानों की संख्या
1. 12 इंद्रों की अपेक्षा
( तिलोयपण्णत्ति/8/149 –177+186); ( राजवार्तिक/4/19/8/-221/26/ +233/24); ( त्रिलोकसार/459 –462+473–479)।
क्र. |
कल्प का नाम |
इंद्रक |
श्रेणीबद्ध |
प्रकीर्णक |
कुल योग |
सं.व असं.योजन युक्त |
1 |
सौधर्म |
31 |
4371 |
3195598 |
32 लाख |
सर्व राशि के पाँचवें भाग प्रमाण संख्यात योजन विस्तार युक्त है और शेष असंख्यात योजन विस्तार युक्त। |
2 |
ईशान |
— |
1457 |
2798543 |
28 लाख |
|
3 |
सनत्कुमार |
7 |
588 |
1199405 |
12 लाख |
|
4 |
|माहेंद्र |
— |
196 |
799804 |
8 लाख |
|
5 |
ब्रह्म |
4 |
360 |
399636 |
4 लाख |
|
6 |
लांतव |
2 |
156 |
49842 |
50,000 |
|
7 |
महाशुक्र |
1 |
72 |
39927 |
40,000 |
|
8 |
सहस्रार |
1 |
68 |
5931 |
6,000 |
|
9 |
आनतादि चार |
6 |
324 |
370 |
700 |
|
10 |
अधो ग्रै. |
3 |
108 |
× |
111 |
|
11 |
मध्य ग्रै. |
3 |
72 |
32 |
107 |
|
12 |
ऊर्ध्व ग्रै. |
3 |
36 |
52 |
91 |
|
13 |
अनुदिश |
1 |
4 |
4 |
9 |
|
14 |
अनुत्तर |
1 |
4 |
× |
5 |
2. 14 इंद्रों की अपेक्षा
1. (ति.पं./8/178-185); ( हरिवंशपुराण/6/44-62 +66-88)।
नं. |
कल्प का नाम |
इंद्रक |
श्रेणीबद्ध |
प्रकीर्णक |
कुल योग |
संख्यात यो.युक्त |
1 |
सौधर्म |
31 |
4495 |
कुल राशि में से इंद्रक व श्रेणीबद्ध की संख्या घटाकर जो शेष बचे |
32 लाख |
640,000 |
2 |
ईशान |
— |
1488 |
28 लाख |
508,000 |
|
3 |
सनत्कुमार |
7 |
616 |
12 लाख |
240,000 |
|
4 |
माहेंद्र |
— |
203 |
8 लाख |
160,000 |
|
5 |
ब्रह्म |
4 |
246 |
296000 |
80,000 |
|
6 |
ब्रह्मोत्तर |
— |
94 |
104000 |
||
7 |
लांतव |
2 |
125 |
25042 |
10,000 |
|
8 |
कापिष्ठ |
— |
41 |
24958 |
||
9 |
शुक्र |
— |
58 |
20020 |
4000 |
|
10 |
महाशुक्र |
1 |
19 |
19980 |
3000 |
|
11 |
शतार |
— |
55 |
3019 |
1200 |
|
12 |
सहस्रार |
1 |
18 |
2981 |
||
13 |
आनत-प्राणत |
3 |
195 |
440 |
88 |
|
14 |
आरण-अच्युत |
3 |
159 |
260 |
52 |
|
15 |
अधो ग्रै. |
3 |
113 |
111 |
|
|
16 |
मध्य ग्रै. |
3 |
87 |
107 |
|
|
17 |
उपरि ग्रै. |
3 |
61 |
91 |
|
|
18 |
अनुदिश |
1 |
8 |
9 |
|
|
19 |
अनुत्तर |
1 |
4 |
5 |
|
6. विमानों के वर्ण व उनका अवस्थान
( तिलोयपण्णत्ति/8/203-207 ); ( राजवार्तिक/4/19/235/3 ), ( हरिवंशपुराण/6/97-100 ); ( त्रिलोकसार/481-482 )।
कल्प का नाम |
वर्ण |
आधार |
सौधर्म-ईशान |
पंच वर्ण |
घन वात |
सनत्कुमार-माहेंद्र |
कृष्ण रहित 4 |
केवल पवन |
ब्रह्म-लांतव |
कृष्ण नील रहित 3 |
जल व वायु दोनों |
महाशुक्र-सहस्रार |
श्वेत व हरित |
जल व वायु दोनों |
आनतादि चार |
श्वेत |
शुद्ध आकाश |
ग्रैवेयक आदि |
श्वेत |
शुद्ध आकाश |
हरिवंशपुराण/6/91 सर्वश्रेणीविमानानामर्द्धमूर्ध्वमितोऽपरम् । अन्येषां स्वविमानार्धं स्वयंभूरमणोदधे:।91। =समस्त श्रेणीबद्ध विमानों की जो संख्या है, उसका आधा भाग तो स्वंभूरमण समुद्र के ऊपर है और आधा अन्य समस्त द्वीप समुद्रों के ऊपर फैला हुआ है।
त्रिलोकसार/474 उडुसेढीबद्धदलं सयंभुरमणुदहिपणिधिभागम्हि। आइल्लतिण्णि दीवे तिण्णि समुद्दे य सेसा हु।474। =सौधर्म के प्रथम ऋतु इंद्रक संबंधी श्रेणीबद्धों का एक दिशा संबंधी प्रमाण 62 है, उसके आधे अर्थात् 31 श्रेणीबद्ध तो स्वयंभूरमण समुद्र के उपरिमभाग में स्थित हैं और अवशेष विमानों में से 15 स्वयंभूरमण द्वीप के ऊपर आठ अपने से लगते समुद्र के ऊपर, 4 अपने से लगते द्वीप के ऊपर, 2 अपने से लगते समुद्र के ऊपर, 1 अपने से लगते द्वीप के ऊपर तथा अंतिम 1 अपने से लगते अनेक द्वीपसमुद्रों के ऊपर है।
7. दक्षिण व उत्तर कल्पों में विमानों का विभाग
तिलोयपण्णत्ति/8/137-148 का भावार्थ–जिनके पृथक्-पृथक् इंद्र हैं ऐसे पहिले व पिछले चार-चार कल्पों में सौधर्म, सनत्कुमार, आनत व आरण ये चार दक्षिण कल्प हैं। ईशान, माहेंद्र, प्राणत व अच्युत ये चार उत्तर विमान हैं, क्योंकि, जैसा कि निम्न प्ररूपणा से विदित है इनमें क्रम से दक्षिण व उत्तर दिशा के श्रेणीबद्ध सम्मिलित हैं। तहाँ सभी दक्षिण कल्पों में उस-उस युगल संबंधी सर्व इंद्रक, पूर्व, पश्चिम व दक्षिण दिशा के श्रेणीबद्ध और नैर्ऋत्य व अग्नि दिशा के प्रकीर्णक सम्मिलित हैं। सभी उत्तर कल्पों में उत्तर दिशा के श्रेणीबद्ध तथा वायु व ईशान दिशा के प्रकीर्णक सम्मिलित हैं। बीच के ब्रह्म आदि चार युगल जिनका एक-एक ही इंद्र माना गया है, उनमें दक्षिण व उत्तर का विभाग न करके सभी इंद्रक, सभी श्रेणीबद्ध व सभी प्रकीर्णक सम्मिलित हैं। ( त्रिलोकसार/476 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/2/3-218 )।
8. दक्षिण व उत्तर इंद्रों का निश्चित निवास स्थान
तिलोयपण्णत्ति/8/351 छज्जुगलसेसएसुं अट्ठारसमम्मि सेढिबद्धेसुं। दोहीणकमं दक्खिण उत्तरभागम्मि होंति देविंदा।351। =छह युगलों और शेष कल्पों में यथाक्रम से प्रथम युगल में अपने अंतिम इंद्रक से संबद्ध अठारहवें श्रेणीबद्ध में, तथा इससे आगे दो हीन क्रम से अर्थात् 16वें, 14वें, 12वें, 10वें, 8वें और 6ठें श्रेणीबद्ध में, दक्षिण भाग में दक्षिण इंद्र और उत्तर भाग में उत्तर इंद्र स्थित हैं।351। ( त्रिलोकसार/483 )।
तिलोयपण्णत्ति/8/339-350 का भावार्थ–[अपने-अपने पटल के अंतिम इंद्रक की दक्षिण दिशा वाले श्रेणीबद्धों में से 18वें, 16वें, 14वें, 12वें, 6ठें और पुन: 6ठें श्रेणीबद्ध विमान में क्रम से सौधर्म, सनत्कुमार, ब्रह्म, लांतव, आनत और आरण ये छह इंद्र स्थित हैं। उन्हीं इंद्रकों की उत्तर दिशा वाले श्रेणीबद्धों में से 18वें, 16वें, 10वें, 8वें, 6ठें और पुन: 6ठें श्रेणीबद्धों में क्रम से, ईशान, माहेंद्र, महाशुक्र, सहस्रार, प्राण और अच्युत ये छह इंद्र रहते हैं।] ( हरिवंशपुराण/6/101-102 )।
नोट–[ हरिवंशपुराण में लांतव के स्थान पर शुक्र और महाशुक्र के स्थान पर लांतव दिया है। इस प्रकार वहाँ शुक्र को दक्षिणेंद्र और लांतव को उत्तरेंद्र कहा है।]
राजवार्तिक/4/19/8/ पृ./पंक्ति का भावार्थ–सौधर्म युगल के अंतिम इंद्रक की दक्षिण दिशा वाले श्रेणीबद्धों में से 18वें में सौधर्मेंद्र (225/21)। उसी के उत्तर दिशा वाले 18वें श्रेणीबद्ध में ईशानेंद्र (227/6)। सनत्कुमार युगल के अंतिम इंद्रक की दक्षिण दिशा वाले 16वें श्रेणी बद्ध में सनत्कुमारेंद्र (227/32)। और उसी की उत्तर दिशा वाले 16वें श्रेणीबद्ध में माहेंद्र (228/25)। ब्रह्मयुगल के अंतिम इंद्रक की दक्षिण दिशा वाले 12वें श्रेणीबद्ध में ब्रह्मेंद्र (229/17)। और उसी की उत्तर दिशा वाले 12वें श्रेणीबद्ध में ब्रह्मोत्तरेंद्र (230/3)। लांतव युगल के अंतिम इंद्रक की दक्षिण दिशा वाले 9वें श्रेणीबद्ध में लांतवेंद्र (230/12) और उसी के उत्तर दिशा वाले 9वें श्रेणीबद्ध में कापिष्ठेंद्र (230/34)। शुक्र युगल के एक ही इंद्रक की दक्षिण दिशा वाले 12वें श्रेणीबद्ध में शुक्रेंद्र (231/8) और उसी की उत्तर दिशा वाले 12वें श्रेणीबद्ध में महाशुक्रेंद्र (231/26)। शतार युगल के एक ही सहस्रार इंद्रक की दक्षिण दिशा वाले 9वें श्रेणीबद्ध में शतारेंद्र (231/36) और उसी की उत्तर दिशा वाले 9वें श्रेणीबद्ध में सहस्रारेंद्र (232/18)। आनतादि चार कल्पों के आरण इंद्रक की दक्षिण दिशा वाले 6ठें श्रेणीबद्ध में आरणेंद्र (232/31) और अच्युत इंद्रक की उत्तर दिशा वाले 6ठें श्रेणीबद्ध में अच्युतेंद्र (233/14)। इस प्रकार ये 14 इंद्र क्रम से स्थित हैं।
9. इंद्रों के निवासभूत विमानों का परिचय
तिलोयपण्णत्ति/8/ गा.का भावार्थ–1. इंद्रक श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक, इन तीनों प्रकार के विमानों के ऊपर समचतुष्कोण व दीर्घ विविध प्रकार के प्रासाद स्थित हैं।208। ये सब प्रासाद सात-आठ-नौ-दस भूमियों से भूषित हैं। आसनशाला, नाट्यशाला व क्रीड़नशाला आदिकों से शोभायमान हैं। सिंहासन, गजासन, मकरासन आदि से परिपूर्ण हैं। मणिमय शय्याओं से कमनीय हैं। अनादिनिधन व अकृत्रिम विराजमान हैं।209-213। 2. प्रधान प्रासाद के पूर्व दिशाभाग आदि में चार-चार प्रासाद होते हैं।396। दक्षिण इंद्रों में वैडूर्य, रजत, अशोक और मृषत्कसार तथा उत्तर इंद्रों में रुचक, मंदर, अशोक और सप्तच्छद ये चार-चार प्रासाद होते हैं।397। ( त्रिलोकसार/484-485 )। 3. सौधर्म व सनत्कुमार युगल के ग्रहों के आगे स्तंभ होते हैं, जिनपर तीर्थंकर बालकों के वस्त्राभरणों के पिटारे लटके रहते हैं।398-404। सभी इंद्र मंदिरों के सामने चैत्य वृक्ष होते हैं।405-406। सौधर्म इंद्र के प्रासाद के ईशान दिशा में सुधर्मा सभा, उपपाद सभा और जिनमंदिर हैं।407-411। (इस प्रकार अनेक प्रासाद व पुष्प वाटिकाओं आदि से युक्त वे इंद्रों के नगरों में) एक के पीछे एक ऊँची-ऊँची पाँच वेदियाँ होती हैं। प्रथम वेदी के बाहर चारों दिशाओं में देवियों के भवन, द्वितीय के बाहर चारों दिशाओं में पारिषद, तृतीय के बाहर सामानिक और चौथी के बाहर अभियोग्य आदि रहते हैं।413-428। पाँचवी वेदी के बाहर वन हैं और उनसे भी आगे दिशाओं में लोकपालों के।428-433। और विदिशाओं में गणिका महत्तरियों के नगर हैं।435। इसी प्रकार कल्पातीतों के भी विविध प्रकार के प्रासाद, उपपाद सभा, जिनभवन आदि होते हैं।453-454।
10. कल्प विमनों व इंद्र भवनों के विस्ताद आदि
नोट–सभी प्रमाण योजनों में बताये गये हैं।
इंद्रों के नाम |
कल्प विमान |
इंद्रों के भवन |
देवियों के भवन |
||||
तिलोयपण्णत्ति/8/198-202 हरिवंशपुराण/6/92-93 त्रिलोकसार/480 |
तिलोयपण्णत्ति/8/372-373 +455-456 हरिवंशपुराण/6/94-96 |
तिलोयपण्णत्ति/8/414-417 |
|||||
|
मोटाई |
लंबाई |
चौड़ाई |
ऊँचाई |
लंबाई |
चौड़ाई |
ऊँचाई |
सौधर्म यु. |
1121 |
120 |
60 |
600 |
100 |
50 |
500 |
सनत.यु. |
1022 |
100 |
50 |
500 |
90 |
45 |
450 |
ब्रह्म यु. |
923 |
90 |
45 |
450 |
80 |
40 |
400 |
लांतव यु. |
824 |
80 |
40 |
400 |
70 |
35 |
350 |
महाशुक्र यु. |
725 |
70 |
35 |
350 |
60 |
30 |
300 |
सहस्रार यु. |
626 |
60 |
30 |
300 |
50 |
25 |
250 |
आनतादि 4 |
527 |
50 |
25 |
250 |
40 |
20 |
200 |
अधो ग्रै. |
428 |
40 |
20 |
200 |
|
|
|
मध्य ग्रै. |
329 |
30 |
15 |
150 |
|
|
|
उपरि ग्रै. |
230 |
20 |
10 |
100 |
|
|
|
अनुदिश |
131 |
10 |
5 |
50 |
|
|
|
अनुत्तर |
121 |
5 |
2 |
25 |
|
|
|
11. इंद्र नगरों का विस्तार आदि
नोट–सभी प्रमाण योजनों में जानने।
इंद्रों के नाम |
नगर |
नगरकोट |
नगर द्वार |
|||
त्रिलोकसार/489 |
त्रिलोकसार/490-491 |
त्रिलोकसार/492-493 |
||||
|
लंबाई |
चौड़ाई |
ऊँचाई |
मोटाई व नींव |
संख्या व ऊँचाई |
चौड़ाई |
सौधर्म |
84000 |
84000 |
300 |
50 |
400 |
100 |
ईशान |
80000 |
80000 |
300 |
50 |
400 |
100 |
सनत्कुमार |
72000 |
72000 |
250 |
25 |
300 |
90 |
माहेंद्र |
70,000 |
70000 |
250 |
25 |
300 |
90 |
ब्रह्म ब्रह्मोत्तर |
60,000 |
60000 |
200 |
12 |
200 |
80 |
लांतव कापिष्ठ |
50,000 |
50000 |
150 |
6 |
160 |
70 |
शुक्र महाशुक्र |
40,000 |
40000 |
120 |
4 |
140 |
50 |
शतार सहस्रार |
30,000 |
30000 |
100 |
3 |
120 |
40 |
आनतादि 4 |
20,000 |
20000 |
80 |
2 |
100 |
30 |