अलोकाकाश: Difference between revisions
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<p> आकाश के लोकाकाश और अलोकाकाश इन दो भेदों में दूसरा भेद― चौदह राजु प्रमाण लोक के बाहर का अनंतआकाश । यह अनंत विस्तारयुक्त तथा अनंत प्रदेशों से युक्त और अन्य द्रव्यों से रहित है । यहाँ धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का अभाव होने से जीव और पुद्गल की न गति है और न स्थिति । इसके मध्य में असंख्यात प्रदेशी तथा लोकाकाश से मिश्रित अनादि और अनंत लोक स्थित है । <span class="GRef"> पद्मपुराण 31.15, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 4.1-4, 2.110, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 16.133 </span></p> | <div class="HindiText"> <p> आकाश के लोकाकाश और अलोकाकाश इन दो भेदों में दूसरा भेद― चौदह राजु प्रमाण लोक के बाहर का अनंतआकाश । यह अनंत विस्तारयुक्त तथा अनंत प्रदेशों से युक्त और अन्य द्रव्यों से रहित है । यहाँ धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का अभाव होने से जीव और पुद्गल की न गति है और न स्थिति । इसके मध्य में असंख्यात प्रदेशी तथा लोकाकाश से मिश्रित अनादि और अनंत लोक स्थित है । <span class="GRef"> पद्मपुराण 31.15, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 4.1-4, 2.110, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 16.133 </span></p> | ||
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Revision as of 16:51, 14 November 2020
सिद्धांतकोष से
देखें आकाश - 1,2।
पुराणकोष से
आकाश के लोकाकाश और अलोकाकाश इन दो भेदों में दूसरा भेद― चौदह राजु प्रमाण लोक के बाहर का अनंतआकाश । यह अनंत विस्तारयुक्त तथा अनंत प्रदेशों से युक्त और अन्य द्रव्यों से रहित है । यहाँ धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का अभाव होने से जीव और पुद्गल की न गति है और न स्थिति । इसके मध्य में असंख्यात प्रदेशी तथा लोकाकाश से मिश्रित अनादि और अनंत लोक स्थित है । पद्मपुराण 31.15, हरिवंशपुराण 4.1-4, 2.110, वीरवर्द्धमान चरित्र 16.133