दिव्यध्यनि: Difference between revisions
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<p> तीर्थंकर के आठ प्रातिहार्यों में एक प्रातिहार्य― धर्मोपदेश देने के लिए एक योजन पर्यंत व्याप्त केवली जिनेंद्र की दिव्य वाणी । यह तालू, ओठ तथा काठ की चंचलता से रहित और अक्षर-विहीना होती है । <span class="GRef"> महापुराण 1.184,24.82, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 2.113, 3.38-39, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 1.119 </span>यह विवक्षा रहित होती है और विश्व का हित करती है । यह नाना भाषामयी और व्यक्त अक्षरा होकर अनेक देशों में उत्पन्न मनुष्यों, देवों और पशुओं के संदेह का नाश कर धर्म के स्वरूप का कथन करती है । सर्व भाषाओं में परिणमन होने का स्वभाव होने से सभी इसे अपनी भाषा में समझ लेते हैं । यह गणधर की अनुपस्थिति में नहीं खिरती । <span class="GRef"> महापुराण 1.186-187,24.84, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 2.113, 58.15, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 15.14-17,78-82 </span></p> | <div class="HindiText"> <p> तीर्थंकर के आठ प्रातिहार्यों में एक प्रातिहार्य― धर्मोपदेश देने के लिए एक योजन पर्यंत व्याप्त केवली जिनेंद्र की दिव्य वाणी । यह तालू, ओठ तथा काठ की चंचलता से रहित और अक्षर-विहीना होती है । <span class="GRef"> महापुराण 1.184,24.82, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 2.113, 3.38-39, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 1.119 </span>यह विवक्षा रहित होती है और विश्व का हित करती है । यह नाना भाषामयी और व्यक्त अक्षरा होकर अनेक देशों में उत्पन्न मनुष्यों, देवों और पशुओं के संदेह का नाश कर धर्म के स्वरूप का कथन करती है । सर्व भाषाओं में परिणमन होने का स्वभाव होने से सभी इसे अपनी भाषा में समझ लेते हैं । यह गणधर की अनुपस्थिति में नहीं खिरती । <span class="GRef"> महापुराण 1.186-187,24.84, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 2.113, 58.15, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 15.14-17,78-82 </span></p> | ||
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Revision as of 16:54, 14 November 2020
तीर्थंकर के आठ प्रातिहार्यों में एक प्रातिहार्य― धर्मोपदेश देने के लिए एक योजन पर्यंत व्याप्त केवली जिनेंद्र की दिव्य वाणी । यह तालू, ओठ तथा काठ की चंचलता से रहित और अक्षर-विहीना होती है । महापुराण 1.184,24.82, हरिवंशपुराण 2.113, 3.38-39, पांडवपुराण 1.119 यह विवक्षा रहित होती है और विश्व का हित करती है । यह नाना भाषामयी और व्यक्त अक्षरा होकर अनेक देशों में उत्पन्न मनुष्यों, देवों और पशुओं के संदेह का नाश कर धर्म के स्वरूप का कथन करती है । सर्व भाषाओं में परिणमन होने का स्वभाव होने से सभी इसे अपनी भाषा में समझ लेते हैं । यह गणधर की अनुपस्थिति में नहीं खिरती । महापुराण 1.186-187,24.84, हरिवंशपुराण 2.113, 58.15, वीरवर्द्धमान चरित्र 15.14-17,78-82