देवसेन: Difference between revisions
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<p id="1"> (1) राजा भोजकवृष्णि और पद्मावती रानी का कनिष्ठ पुत्र, उग्रसेन और महासेन का अनुज । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 18-16 </span></p> | <div class="HindiText"> <p id="1"> (1) राजा भोजकवृष्णि और पद्मावती रानी का कनिष्ठ पुत्र, उग्रसेन और महासेन का अनुज । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 18-16 </span></p> | ||
<p id="2">(2) राजा सत्यंधर के सेनापति विजयमति और उसकी रानी जयावती का पुत्र । <span class="GRef"> महापुराण 75.256-259 </span></p> | <p id="2">(2) राजा सत्यंधर के सेनापति विजयमति और उसकी रानी जयावती का पुत्र । <span class="GRef"> महापुराण 75.256-259 </span></p> | ||
<p id="3">(3) मृगावती देश में दशार्ण-नगर का नृप, देवकी का पिता । <span class="GRef"> महापुराण 71. 292 </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 11. 55 </span></p> | <p id="3">(3) मृगावती देश में दशार्ण-नगर का नृप, देवकी का पिता । <span class="GRef"> महापुराण 71. 292 </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 11. 55 </span></p> | ||
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Revision as of 16:54, 14 November 2020
सिद्धांतकोष से
- पंचस्तूप संघ की गुर्वावली के अनुसार–देखें इतिहास । आप वीरसेन (धवलाकार) के शिष्य थे। समय–ई.820-870 ( महापुराण/ प्र./31पं.पन्नालाल)–देखें इतिहास /7/7।
- माथुर संघी आ.विमल गणों के शिष्य तथा अमितगति प्र.के गुरु। कृतियें–दर्शनसार, भावसंग्रह, आराधनासार, नयचक्र, आलापपद्धति, तत्त्वार्थसार, ज्ञानसार, धर्मसंग्रह, सावय धम्मदोहा। समय–वि.990-1012 (ई.933-955। दर्शनसार का रचनाकाल वि.990। (ती./2/369)। (देखें इतिहास /7/11)। (जै./2/369)।
- पं.परमानंद जी के अनुसार सुलोचना चरित्र के कर्ता देवसेन ही भावसंग्रह के कर्ता थे, देवसेन द्वि.नहीं। समय–वि.1132-1192 (ई.1075-1135)। (ती./2/368,4/151) 4. हरिवंशपुराण/18/16 भोजकवृष्णि का पुत्र उग्रसेन का छोटा भाई था।
- वरांगचरित/सर्ग/श्लोक ललितपुर के राजा थे, तथा वरांग के मामा लगते थे (16/13)। वरांग की युद्ध में विजय देख उसके लिए अपना आधा राज्य व कन्या प्रदान की (19/30)।
पुराणकोष से
(1) राजा भोजकवृष्णि और पद्मावती रानी का कनिष्ठ पुत्र, उग्रसेन और महासेन का अनुज । हरिवंशपुराण 18-16
(2) राजा सत्यंधर के सेनापति विजयमति और उसकी रानी जयावती का पुत्र । महापुराण 75.256-259
(3) मृगावती देश में दशार्ण-नगर का नृप, देवकी का पिता । महापुराण 71. 292 पांडवपुराण 11. 55