मिथ्यात्व: Difference between revisions
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<p>जीव आदि पदार्थों के विषय में विपरीत श्रद्धान । इससे जीव संसार में भटकता है । चौदह गुणस्थानों मैं इसका सर्व प्रथम कथन है । अभव्य जीवों के यही गुणस्थान होता है । भले ही वे मुनि होकर दीर्घकाल तक दीक्षित रहें और ग्यारह अंगधारी क्यों न हो जावें । कर्मास्रव के पाँच कारणों में यह प्रथम कारण है । अन्य चार कारण है― असंयम (अविरति), प्रमाद, कषाय और योगों का होना । इसके उदय से उत्पन्न परिणाम श्रद्धा और ज्ञान को भी विपरीत कर देता है । इसके पाँच भेद हैं― अज्ञान, संशय, एकांत, विपरीत और विनय । पाप से युक्त और धार्मिक ज्ञान से रहित जीवों के इसके उदय से उत्पन्न परिणाम अज्ञानमिथ्यात्व हैं । तत्त्व के स्वरूप में दोलायमानता संशयमिथ्यात्व है । द्रव्यपर्यायरूप पदार्थ में अथवा रत्नत्रय में किसी एक का ही निश्चय करना एकांत मिथ्यादर्शन है । ज्ञान, ज्ञायक और ज्ञेय के यथार्थ स्वरूप का विपरीत निर्णय विपरीत मिथ्यादर्शन है और मन, वचन, काय से सभी देवों को प्रणाम करना, समस्त पदार्थों को मोक्ष का उपाय मानना विनयमिथ्यात्व है । <span class="GRef"> महापुराण 54.151, 62. 296-302, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 4.40, 16. 58-62 </span></p> | <div class="HindiText"> <p>जीव आदि पदार्थों के विषय में विपरीत श्रद्धान । इससे जीव संसार में भटकता है । चौदह गुणस्थानों मैं इसका सर्व प्रथम कथन है । अभव्य जीवों के यही गुणस्थान होता है । भले ही वे मुनि होकर दीर्घकाल तक दीक्षित रहें और ग्यारह अंगधारी क्यों न हो जावें । कर्मास्रव के पाँच कारणों में यह प्रथम कारण है । अन्य चार कारण है― असंयम (अविरति), प्रमाद, कषाय और योगों का होना । इसके उदय से उत्पन्न परिणाम श्रद्धा और ज्ञान को भी विपरीत कर देता है । इसके पाँच भेद हैं― अज्ञान, संशय, एकांत, विपरीत और विनय । पाप से युक्त और धार्मिक ज्ञान से रहित जीवों के इसके उदय से उत्पन्न परिणाम अज्ञानमिथ्यात्व हैं । तत्त्व के स्वरूप में दोलायमानता संशयमिथ्यात्व है । द्रव्यपर्यायरूप पदार्थ में अथवा रत्नत्रय में किसी एक का ही निश्चय करना एकांत मिथ्यादर्शन है । ज्ञान, ज्ञायक और ज्ञेय के यथार्थ स्वरूप का विपरीत निर्णय विपरीत मिथ्यादर्शन है और मन, वचन, काय से सभी देवों को प्रणाम करना, समस्त पदार्थों को मोक्ष का उपाय मानना विनयमिथ्यात्व है । <span class="GRef"> महापुराण 54.151, 62. 296-302, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 4.40, 16. 58-62 </span></p> | ||
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Revision as of 16:56, 14 November 2020
सिद्धांतकोष से
देखें मिथ्यादर्शन ।
पुराणकोष से
जीव आदि पदार्थों के विषय में विपरीत श्रद्धान । इससे जीव संसार में भटकता है । चौदह गुणस्थानों मैं इसका सर्व प्रथम कथन है । अभव्य जीवों के यही गुणस्थान होता है । भले ही वे मुनि होकर दीर्घकाल तक दीक्षित रहें और ग्यारह अंगधारी क्यों न हो जावें । कर्मास्रव के पाँच कारणों में यह प्रथम कारण है । अन्य चार कारण है― असंयम (अविरति), प्रमाद, कषाय और योगों का होना । इसके उदय से उत्पन्न परिणाम श्रद्धा और ज्ञान को भी विपरीत कर देता है । इसके पाँच भेद हैं― अज्ञान, संशय, एकांत, विपरीत और विनय । पाप से युक्त और धार्मिक ज्ञान से रहित जीवों के इसके उदय से उत्पन्न परिणाम अज्ञानमिथ्यात्व हैं । तत्त्व के स्वरूप में दोलायमानता संशयमिथ्यात्व है । द्रव्यपर्यायरूप पदार्थ में अथवा रत्नत्रय में किसी एक का ही निश्चय करना एकांत मिथ्यादर्शन है । ज्ञान, ज्ञायक और ज्ञेय के यथार्थ स्वरूप का विपरीत निर्णय विपरीत मिथ्यादर्शन है और मन, वचन, काय से सभी देवों को प्रणाम करना, समस्त पदार्थों को मोक्ष का उपाय मानना विनयमिथ्यात्व है । महापुराण 54.151, 62. 296-302, वीरवर्द्धमान चरित्र 4.40, 16. 58-62