बोधपाहुड़ गाथा 26: Difference between revisions
From जैनकोष
('<div class="PrakritGatha"><div>वयसम्मत्तविसुद्धे पंचेंदियसंजदे णि...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
No edit summary |
||
Line 7: | Line 7: | ||
<br> | <br> | ||
<div class="HindiUtthanika">(९) आगे तीर्थ का स्वरूप कहते हैं -</div> | <div class="HindiUtthanika">(९) आगे तीर्थ का स्वरूप कहते हैं -</div> | ||
<div class=" | <div class="HindiBhavarth"><div>अर्थ - व्रत सम्यक्त्व से विशुद्ध और पाँच इन्द्रियों से संयत अर्थात् संवरसहित तथा निरपेक्ष अर्थात् ख्याति, लाभ, पूजादिक इस लोक के फल की तथा परलोक में स्वर्गादिक के भोगों की अपेक्षा से रहित ऐसे आत्मस्वरूप तीर्थ में दीक्षा-शिक्षारूप स्नान से पवित्र होओ ।</div> | ||
</div> | </div> | ||
<div class="HindiBhavarth"><div>तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षण-सहित, पाँच महाव्रत से शुद्ध और पाँच इन्द्रियों के विषयों से विरक्त, इस लोक-परलोक में विषयभोगों की वांछा से रहित ऐसे निर्मल आत्मा के स्वभावरूप तीर्थ में स्नान करने से पवित्र होते हैं, ऐसी प्रेरणा करते हैं ॥२६॥</div> | <div class="HindiBhavarth"><div>भावार्थ - तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षण-सहित, पाँच महाव्रत से शुद्ध और पाँच इन्द्रियों के विषयों से विरक्त, इस लोक-परलोक में विषयभोगों की वांछा से रहित ऐसे निर्मल आत्मा के स्वभावरूप तीर्थ में स्नान करने से पवित्र होते हैं, ऐसी प्रेरणा करते हैं ॥२६॥</div> | ||
</div> | </div> | ||
<br> | <br> |
Latest revision as of 17:32, 2 November 2013
वयसम्मत्तविसुद्धे पंचेंदियसंजदे णिरावेक्खे ।
ण्हाएउ मुणी तित्थे, दिक्खासिक्खासुण्हाणेण ॥२६॥
व्रतसम्यक्त्वविशुद्धे पञ्चेन्द्रियसंयते निरपेक्षे ।
स्नातु मुनि: तीर्थे दीक्षाशिक्षासुस्नानेन ॥२६॥
(९) आगे तीर्थ का स्वरूप कहते हैं -
अर्थ - व्रत सम्यक्त्व से विशुद्ध और पाँच इन्द्रियों से संयत अर्थात् संवरसहित तथा निरपेक्ष अर्थात् ख्याति, लाभ, पूजादिक इस लोक के फल की तथा परलोक में स्वर्गादिक के भोगों की अपेक्षा से रहित ऐसे आत्मस्वरूप तीर्थ में दीक्षा-शिक्षारूप स्नान से पवित्र होओ ।
भावार्थ - तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षण-सहित, पाँच महाव्रत से शुद्ध और पाँच इन्द्रियों के विषयों से विरक्त, इस लोक-परलोक में विषयभोगों की वांछा से रहित ऐसे निर्मल आत्मा के स्वभावरूप तीर्थ में स्नान करने से पवित्र होते हैं, ऐसी प्रेरणा करते हैं ॥२६॥