दर्शनपाहुड़ गाथा 4: Difference between revisions
From जैनकोष
('<div class="PrakritGatha"><div>सम्मत्तरयणभट्ठा जाणंता बहुविहाइं सत...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
No edit summary |
||
Line 7: | Line 7: | ||
<br> | <br> | ||
<div class="HindiUtthanika">अब, जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं और शास्त्रों को अनेक प्रकार से जानते हैं तथापि संसार में भटकते हैं - ऐसे ज्ञान से भी दर्शन को अधिक कहते हैं -</div> | <div class="HindiUtthanika">अब, जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं और शास्त्रों को अनेक प्रकार से जानते हैं तथापि संसार में भटकते हैं - ऐसे ज्ञान से भी दर्शन को अधिक कहते हैं -</div> | ||
<div class=" | <div class="HindiBhavarth"><div>अर्थ - जो पुरुष सम्यक्त्वरूप रत्न से भ्रष्ट है तथा अनेक प्रकार के शास्त्रों को जानते हैं, तथापि वह आराधना से रहित होते हुए संसार में ही भ्रमण करते हैं करते हैं । दो बार कहकर बहुत परिभ्रमण बतलाया है ।</div> | ||
</div> | </div> | ||
<div class="HindiBhavarth"><div>भावार्थ - जो जिनमत की श्रद्धा से भ्रष्ट हैं और शब्द, न्याय, छन्द, अलंकार आदि अनेक प्रकार के शास्त्रों को जानते हैं तथापि सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तपरूप आराधना उनके नहीं होती; इसलिए कुमरण से चतुर्गतिरूप संसार में ही भ्रमण करते हैं-मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाते; इसलिए सम्यक्त्वरहित ज्ञान को आराधना नाम नहीं देते ।</div> | <div class="HindiBhavarth"><div>भावार्थ - जो जिनमत की श्रद्धा से भ्रष्ट हैं और शब्द, न्याय, छन्द, अलंकार आदि अनेक प्रकार के शास्त्रों को जानते हैं तथापि सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तपरूप आराधना उनके नहीं होती; इसलिए कुमरण से चतुर्गतिरूप संसार में ही भ्रमण करते हैं-मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाते; इसलिए सम्यक्त्वरहित ज्ञान को आराधना नाम नहीं देते ।</div> |
Latest revision as of 22:21, 2 November 2013
सम्मत्तरयणभट्ठा जाणंता बहुविहाइं सत्थाइं ।
आराहणाविरहिया भमंति तत्थेव तत्थेव ॥४॥
सम्यक्त्वरत्नभ्रष्टा: जानन्तो बहुविधानि शास्त्राणि ।
आराधना विरहिता: भ्रमन्ति तत्रैव तत्रैव ॥४॥
अब, जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं और शास्त्रों को अनेक प्रकार से जानते हैं तथापि संसार में भटकते हैं - ऐसे ज्ञान से भी दर्शन को अधिक कहते हैं -
अर्थ - जो पुरुष सम्यक्त्वरूप रत्न से भ्रष्ट है तथा अनेक प्रकार के शास्त्रों को जानते हैं, तथापि वह आराधना से रहित होते हुए संसार में ही भ्रमण करते हैं करते हैं । दो बार कहकर बहुत परिभ्रमण बतलाया है ।
भावार्थ - जो जिनमत की श्रद्धा से भ्रष्ट हैं और शब्द, न्याय, छन्द, अलंकार आदि अनेक प्रकार के शास्त्रों को जानते हैं तथापि सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तपरूप आराधना उनके नहीं होती; इसलिए कुमरण से चतुर्गतिरूप संसार में ही भ्रमण करते हैं-मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाते; इसलिए सम्यक्त्वरहित ज्ञान को आराधना नाम नहीं देते ।