श्रमण: Difference between revisions
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<span class="PrakritText">1. <span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/332 </span>सम्मा वा मिच्छा विय तवोहणा समण तह य अणयारा। होंति विराय सराया जदिरिसिमुणिणो य णायव्वा।332।</span> =<span class="HindiText">श्रमण तथा अनगार सम्यक् व मिथ्या दोनों प्रकार के होते हैं। सम्यक् श्रमण विरागी और मिथ्या श्रमण सरागी होते हैं। उनको ही यति, ऋषि, मुनि और अनगार कहते हैं।332। (<span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/249 </span>); (विशेष - देखें [[ साधु ]]) 2. श्रमण के 10 कल्पों का निर्देश - साधु/2।</span> | <span class="PrakritText">1. <span class="GRef"> नयचक्र बृहद्/332 </span>सम्मा वा मिच्छा विय तवोहणा समण तह य अणयारा। होंति विराय सराया जदिरिसिमुणिणो य णायव्वा।332।</span> =<span class="HindiText">श्रमण तथा अनगार सम्यक् व मिथ्या दोनों प्रकार के होते हैं। सम्यक् श्रमण विरागी और मिथ्या श्रमण सरागी होते हैं। उनको ही यति, ऋषि, मुनि और अनगार कहते हैं।332। (<span class="GRef"> प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/249 </span>); (विशेष - देखें [[ साधु ]]) 2. श्रमण के 10 कल्पों का निर्देश - साधु/2।</span> | ||
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<p> निर्ग्रंथ-मुनि । ये प्राणियों के सतत हितैषी होते हैं । संसार के कारणों की संगति से दूर रहते हैं । ये स्वभाव से समुद्र के समान गंभीर और निर्दोष-श्रम अथवा समता में प्रवर्त्तमान होते हैं । <span class="GRef"> पद्मपुराण 6. 272-274, 109.90 </span></p> | <div class="HindiText"> <p> निर्ग्रंथ-मुनि । ये प्राणियों के सतत हितैषी होते हैं । संसार के कारणों की संगति से दूर रहते हैं । ये स्वभाव से समुद्र के समान गंभीर और निर्दोष-श्रम अथवा समता में प्रवर्त्तमान होते हैं । <span class="GRef"> पद्मपुराण 6. 272-274, 109.90 </span></p> | ||
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Revision as of 16:58, 14 November 2020
सिद्धांतकोष से
1. नयचक्र बृहद्/332 सम्मा वा मिच्छा विय तवोहणा समण तह य अणयारा। होंति विराय सराया जदिरिसिमुणिणो य णायव्वा।332। =श्रमण तथा अनगार सम्यक् व मिथ्या दोनों प्रकार के होते हैं। सम्यक् श्रमण विरागी और मिथ्या श्रमण सरागी होते हैं। उनको ही यति, ऋषि, मुनि और अनगार कहते हैं।332। ( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/249 ); (विशेष - देखें साधु ) 2. श्रमण के 10 कल्पों का निर्देश - साधु/2।
पुराणकोष से
निर्ग्रंथ-मुनि । ये प्राणियों के सतत हितैषी होते हैं । संसार के कारणों की संगति से दूर रहते हैं । ये स्वभाव से समुद्र के समान गंभीर और निर्दोष-श्रम अथवा समता में प्रवर्त्तमान होते हैं । पद्मपुराण 6. 272-274, 109.90