संज्ञा: Difference between revisions
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<p class="HindiText">3. इच्छा के अर्थ में</p> | <p class="HindiText">3. इच्छा के अर्थ में</p> | ||
<p> <span class="SanskritText"><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/24/182/1 </span>आहारादिविषयाभिलाष: संज्ञेति।</span> =<span class="HindiText">आहारादि विषयों की अभिलाषा को संज्ञा कहा जाता है। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/2/24/7/136/17 </span>)।</span></p> | <p> <span class="SanskritText"><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/24/182/1 </span>आहारादिविषयाभिलाष: संज्ञेति।</span> =<span class="HindiText">आहारादि विषयों की अभिलाषा को संज्ञा कहा जाता है। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/2/24/7/136/17 </span>)।</span></p> | ||
<p> <span class="PrakritText"> | <p> <span class="PrakritText"><span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/1/51 </span>इह जाहि बाहिया वि य जीवा पावंति दारुणं दुक्खं। सेवंता वि य उभए...।51।</span> =<span class="HindiText">जिनसे बाधित होकर जीव इस लोक में दारुण दु:ख को पाते हैं, और जिनको सेवन करने से जीव दोनों ही भवों में दारुण दु:ख को प्राप्त करते हैं उन्हें संज्ञा कहते हैं। (पं.स./सं./1/344); (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/134 </span>)।</span></p> | ||
<p> <span class="SanskritText"><span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/2/21/10 </span>आगमप्रसिद्धा वांछा संज्ञा अभिलाष इति।</span> =<span class="HindiText"> आगम में प्रसिद्ध वांछा संज्ञा अभिलाषा ये एकार्थवाची हैं। (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/134/347/16 </span>)।</span></p> | <p> <span class="SanskritText"><span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/2/21/10 </span>आगमप्रसिद्धा वांछा संज्ञा अभिलाष इति।</span> =<span class="HindiText"> आगम में प्रसिद्ध वांछा संज्ञा अभिलाषा ये एकार्थवाची हैं। (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/134/347/16 </span>)।</span></p> | ||
<p class="HindiText"><strong>2. संज्ञा के भेद</strong></p> | <p class="HindiText"><strong>2. संज्ञा के भेद</strong></p> | ||
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<p> <span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 2/1,1/419/3 </span>एदासिं चउण्हं सण्णाणं अभावो खीणसण्णा णाम।</span> =<span class="HindiText"> इन चारों संज्ञाओं के अभाव को क्षीणसंज्ञा कहते हैं।</span></p> | <p> <span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला 2/1,1/419/3 </span>एदासिं चउण्हं सण्णाणं अभावो खीणसण्णा णाम।</span> =<span class="HindiText"> इन चारों संज्ञाओं के अभाव को क्षीणसंज्ञा कहते हैं।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> <strong>4. आहारादि संज्ञाओं के कारण</strong></p> | <p class="HindiText"> <strong>4. आहारादि संज्ञाओं के कारण</strong></p> | ||
<p> <span class="PrakritText"> | <p> <span class="PrakritText"><span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/1/52-55 </span>आहारदंसणेण य तस्सुवओगेण ऊणकुट्ठेण। सादिदरुदीरणाए होदि हु आहारसण्णा दु।52। अइ भीमदंसणेण य तस्सुवओगेण ऊणसत्तेण। भयकम्मुदीरणाए भयसण्णा जायदे चउहिं।53। पणिदरसभोयणेण य तस्सुवओगेण कुसीलसेवणाए। वेदस्सुदीरणाए मेहुणसण्णा हवदि एवं।54। उवयरणदंसणेण य तस्सुवओगेण मुच्छियाए व। लोहस्सुदीरणाए परिग्गहे जायते सण्णा।55।</span> =<span class="HindiText"> बहिरंग में आहार के देखने से, उसके उपयोग से और उदररूप कोष्ठ के खाली होने पर तथा अंतरंग में असाता वेदनीय की उदीरणा होने पर <strong>आहारसंज्ञा</strong> उत्पन्न होती है।52। बहिरंग अति भीमदर्शन से, उसके उपयोग से, शक्ति की हीनता होने पर, अंतरंग में भयकर्म की उदीरणा होने पर <strong>भयसंज्ञा</strong> उत्पन्न होती है।53। बहिरंग में गरिष्ठ, स्वादिष्ठ, और रसयुक्त भोजन करने से, पूर्व-भुक्त विषयों का ध्यान करने से, कुशील का सेवन करने से तथा अंतरंग में वेदकर्म की उदीरणा होने पर <strong>मैथुनसंज्ञा</strong> उत्पन्न होती है।54। बहिरंग में भोगोपभोग के साधनभूत उपकरणों के देखने से, उनका उपयोग करने से, उनमें मूर्छाभाव रखने से तथा अंतरंग में लोभकर्म की उदीरणा होने पर <strong>परिग्रहसंज्ञा</strong> उत्पन्न होती है।55। (<span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/135-138 </span>); (पं.सं./सं./1/348-352)।</span></p> | ||
<p class="HindiText"> <strong>5. संज्ञा व संज्ञी में अंतर</strong></p> | <p class="HindiText"> <strong>5. संज्ञा व संज्ञी में अंतर</strong></p> | ||
<p> <span class="SanskritText"><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/24/181/8 </span>ननु च संज्ञिन इत्यनेनैव गतार्थत्वात्समनस्का इति विशेषणमनर्थकम् । यतो मनोव्यापारहिताहितप्राप्तिपरिहारपरीक्षा। संज्ञापि सैवेति। नैतद्युक्तम्, संज्ञाशब्दार्थव्यभिचारात् । संज्ञा नामेत्युच्यते। तद्वंत: संज्ञिन इति सर्वेषामतिप्रसंग:। संज्ञा ज्ञानमिति चेत्, सर्वेषां प्राणिनां ज्ञानात्मकत्वादतिप्रसंग:। आहारादिविषयाभिलाष: संज्ञेति चेत् । तुल्यं तस्मात्समनस्का इत्युच्यते।</span> =<span class="HindiText"><strong> प्रश्न</strong> - सूत्र में 'संज्ञिन:' इतना पद देने से ही काम चल जाता है, अत: 'समनस्का:' यह विशेषण देना निष्फल है, क्योंकि हित की प्राप्ति और अहित के त्याग की परीक्षा करने में मन का व्यापार होता है यही संज्ञा है ? <strong>उत्तर</strong> - यह कहना उचित नहीं है, क्योंकि संज्ञा शब्द के अर्थ में व्यभिचार पाया जाता है। संज्ञा का अर्थ नाम है। यदि नाम वाले जीव संज्ञी माने जायें तो सभी जीवों को संज्ञीपने का प्रसंग प्राप्त हो जायेगा। संज्ञा का अर्थ यदि ज्ञान मान लिया जाता है तो भी सभी प्राणी ज्ञान स्वभावी होने से सबको संज्ञीपने का प्रसंग प्राप्त होता है। यदि आहारादि विषयों की अभिलाषा को संज्ञी कहा जाता है तो भी पहले के समान दोष प्राप्त होता है। चूँकि यह दोष प्राप्त न हो अत: सूत्र में 'समनस्का:' यह पद रखा है। (<span class="GRef"> राजवार्तिक 2/24/7/136/17 </span>)।</span></p> | <p> <span class="SanskritText"><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/24/181/8 </span>ननु च संज्ञिन इत्यनेनैव गतार्थत्वात्समनस्का इति विशेषणमनर्थकम् । यतो मनोव्यापारहिताहितप्राप्तिपरिहारपरीक्षा। संज्ञापि सैवेति। नैतद्युक्तम्, संज्ञाशब्दार्थव्यभिचारात् । संज्ञा नामेत्युच्यते। तद्वंत: संज्ञिन इति सर्वेषामतिप्रसंग:। संज्ञा ज्ञानमिति चेत्, सर्वेषां प्राणिनां ज्ञानात्मकत्वादतिप्रसंग:। आहारादिविषयाभिलाष: संज्ञेति चेत् । तुल्यं तस्मात्समनस्का इत्युच्यते।</span> =<span class="HindiText"><strong> प्रश्न</strong> - सूत्र में 'संज्ञिन:' इतना पद देने से ही काम चल जाता है, अत: 'समनस्का:' यह विशेषण देना निष्फल है, क्योंकि हित की प्राप्ति और अहित के त्याग की परीक्षा करने में मन का व्यापार होता है यही संज्ञा है ? <strong>उत्तर</strong> - यह कहना उचित नहीं है, क्योंकि संज्ञा शब्द के अर्थ में व्यभिचार पाया जाता है। संज्ञा का अर्थ नाम है। यदि नाम वाले जीव संज्ञी माने जायें तो सभी जीवों को संज्ञीपने का प्रसंग प्राप्त हो जायेगा। संज्ञा का अर्थ यदि ज्ञान मान लिया जाता है तो भी सभी प्राणी ज्ञान स्वभावी होने से सबको संज्ञीपने का प्रसंग प्राप्त होता है। यदि आहारादि विषयों की अभिलाषा को संज्ञी कहा जाता है तो भी पहले के समान दोष प्राप्त होता है। चूँकि यह दोष प्राप्त न हो अत: सूत्र में 'समनस्का:' यह पद रखा है। (<span class="GRef"> राजवार्तिक 2/24/7/136/17 </span>)।</span></p> |
Revision as of 16:59, 14 November 2020
क्षुद्र प्राणी से लेकर मनुष्य व देव तक सभी संसारी जीवों में आहार, भय, मैथुन व परिग्रह इन चार के प्रति जो तृष्णा पायी जाती है उसे संज्ञा कहते हैं। निचली भूमिकाओं में ये व्यक्त होती है और ऊपर की भूमिकाओं में अव्यक्त।
1. संज्ञा सामान्य का लक्षण
1. नाम के अर्थ में
सर्वार्थसिद्धि/2/24/181/10 संज्ञा नामेत्युच्यते। =संज्ञा का अर्थ नाम है। ( राजवार्तिक/2/24/5/136/13 )।
2. ज्ञान के अर्थ में
देखें मतिज्ञान - 1 मति, स्मृति, संज्ञा, चिंता ये सर्व सम्यग्ज्ञान की संज्ञाएँ हैं।
सर्वार्थसिद्धि/1/13/106/5 संज्ञानं संज्ञा। ='संज्ञान संज्ञा' यह इनकी व्युत्पत्ति है।
गोम्मटसार जीवकांड/660 णो इंदियआवरणखओवसमं तज्जवोहणं सण्णा। =नोइंद्रियावरण कर्म के क्षयोपशम को या तज्जन्य ज्ञान की संज्ञा कहते हैं।
3. इच्छा के अर्थ में
सर्वार्थसिद्धि/2/24/182/1 आहारादिविषयाभिलाष: संज्ञेति। =आहारादि विषयों की अभिलाषा को संज्ञा कहा जाता है। ( राजवार्तिक/2/24/7/136/17 )।
पंचसंग्रह / प्राकृत/1/51 इह जाहि बाहिया वि य जीवा पावंति दारुणं दुक्खं। सेवंता वि य उभए...।51। =जिनसे बाधित होकर जीव इस लोक में दारुण दु:ख को पाते हैं, और जिनको सेवन करने से जीव दोनों ही भवों में दारुण दु:ख को प्राप्त करते हैं उन्हें संज्ञा कहते हैं। (पं.स./सं./1/344); ( गोम्मटसार जीवकांड/134 )।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/2/21/10 आगमप्रसिद्धा वांछा संज्ञा अभिलाष इति। = आगम में प्रसिद्ध वांछा संज्ञा अभिलाषा ये एकार्थवाची हैं। ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/134/347/16 )।
2. संज्ञा के भेद
धवला 2/1,1/413/2 सण्णा चउव्विहा आहार-भय-मेहुणपरिग्गहसण्णा चेदि। - खीणसण्णा वि अत्थि (पृ.419/1)। = संज्ञा चार प्रकार की है; आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा। क्षीण संज्ञावाले भी होते हैं। ( धवला 2/1,1/419/1 ); ( नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/66 ); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/134/347 )।
3. आहारादि संज्ञाओं के लक्षण
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/135-138/348-351 आहारे-विशिष्टान्नादौ संज्ञावांछा आहारसंज्ञा (135-348) भयेन उत्पन्ना पलायनेच्छा भयसंज्ञा (136/349) मैथुने-मिथुनकर्मणि सुरतव्यापाररूपे संज्ञा - वांछा मैथुनसंज्ञा (137/350) परिग्रहसंज्ञा - तदर्जनादि वांछा जायते। (138/351) = विशिष्ट अन्नादि में संज्ञा अर्थात् वांछा का होना सो आहारसंज्ञा है। (135/348) अत्यंत भय से उत्पन्न जो भागकर छिप जाने आदि की इच्छा सो भयसंज्ञा है। मैथुनरूप क्रिया में जो वांछा उसको मैथुनसंज्ञा कहते हैं। धन-धान्यादि के अर्जन करने रूप जो वांछा सो परिग्रहसंज्ञा जाननी।
धवला 2/1,1/419/3 एदासिं चउण्हं सण्णाणं अभावो खीणसण्णा णाम। = इन चारों संज्ञाओं के अभाव को क्षीणसंज्ञा कहते हैं।
4. आहारादि संज्ञाओं के कारण
पंचसंग्रह / प्राकृत/1/52-55 आहारदंसणेण य तस्सुवओगेण ऊणकुट्ठेण। सादिदरुदीरणाए होदि हु आहारसण्णा दु।52। अइ भीमदंसणेण य तस्सुवओगेण ऊणसत्तेण। भयकम्मुदीरणाए भयसण्णा जायदे चउहिं।53। पणिदरसभोयणेण य तस्सुवओगेण कुसीलसेवणाए। वेदस्सुदीरणाए मेहुणसण्णा हवदि एवं।54। उवयरणदंसणेण य तस्सुवओगेण मुच्छियाए व। लोहस्सुदीरणाए परिग्गहे जायते सण्णा।55। = बहिरंग में आहार के देखने से, उसके उपयोग से और उदररूप कोष्ठ के खाली होने पर तथा अंतरंग में असाता वेदनीय की उदीरणा होने पर आहारसंज्ञा उत्पन्न होती है।52। बहिरंग अति भीमदर्शन से, उसके उपयोग से, शक्ति की हीनता होने पर, अंतरंग में भयकर्म की उदीरणा होने पर भयसंज्ञा उत्पन्न होती है।53। बहिरंग में गरिष्ठ, स्वादिष्ठ, और रसयुक्त भोजन करने से, पूर्व-भुक्त विषयों का ध्यान करने से, कुशील का सेवन करने से तथा अंतरंग में वेदकर्म की उदीरणा होने पर मैथुनसंज्ञा उत्पन्न होती है।54। बहिरंग में भोगोपभोग के साधनभूत उपकरणों के देखने से, उनका उपयोग करने से, उनमें मूर्छाभाव रखने से तथा अंतरंग में लोभकर्म की उदीरणा होने पर परिग्रहसंज्ञा उत्पन्न होती है।55। ( गोम्मटसार जीवकांड/135-138 ); (पं.सं./सं./1/348-352)।
5. संज्ञा व संज्ञी में अंतर
सर्वार्थसिद्धि/2/24/181/8 ननु च संज्ञिन इत्यनेनैव गतार्थत्वात्समनस्का इति विशेषणमनर्थकम् । यतो मनोव्यापारहिताहितप्राप्तिपरिहारपरीक्षा। संज्ञापि सैवेति। नैतद्युक्तम्, संज्ञाशब्दार्थव्यभिचारात् । संज्ञा नामेत्युच्यते। तद्वंत: संज्ञिन इति सर्वेषामतिप्रसंग:। संज्ञा ज्ञानमिति चेत्, सर्वेषां प्राणिनां ज्ञानात्मकत्वादतिप्रसंग:। आहारादिविषयाभिलाष: संज्ञेति चेत् । तुल्यं तस्मात्समनस्का इत्युच्यते। = प्रश्न - सूत्र में 'संज्ञिन:' इतना पद देने से ही काम चल जाता है, अत: 'समनस्का:' यह विशेषण देना निष्फल है, क्योंकि हित की प्राप्ति और अहित के त्याग की परीक्षा करने में मन का व्यापार होता है यही संज्ञा है ? उत्तर - यह कहना उचित नहीं है, क्योंकि संज्ञा शब्द के अर्थ में व्यभिचार पाया जाता है। संज्ञा का अर्थ नाम है। यदि नाम वाले जीव संज्ञी माने जायें तो सभी जीवों को संज्ञीपने का प्रसंग प्राप्त हो जायेगा। संज्ञा का अर्थ यदि ज्ञान मान लिया जाता है तो भी सभी प्राणी ज्ञान स्वभावी होने से सबको संज्ञीपने का प्रसंग प्राप्त होता है। यदि आहारादि विषयों की अभिलाषा को संज्ञी कहा जाता है तो भी पहले के समान दोष प्राप्त होता है। चूँकि यह दोष प्राप्त न हो अत: सूत्र में 'समनस्का:' यह पद रखा है। ( राजवार्तिक 2/24/7/136/17 )।
6. वेद व मैथुन संज्ञा में अंतर
धवला 2/1,1/413/2 मैथुनसंज्ञा वेदस्यांतर्भवतीति चेन्न, वेदत्रयोदयसामांयनिबंधनमैथुनसंज्ञाया वेदोदयविशेषलक्षणवेदस्य चैकत्वानुपपत्ते:। =प्रश्न - मैथुन संज्ञा का वेद में अंतर्भाव हो जायेगा ? उत्तर - नहीं, क्योंकि तीनों वेदों के उदय सामान्य के निमित्त से उत्पन्न हुई मैथुन संज्ञा और वेद के उदय विशेष स्वरूप वेद, इन दोनों में एकत्व नहीं बन सकता है।
7. लोभ व परिग्रह संज्ञा में अंतर
धवला 2/1,1/413/4 परिग्रहसंज्ञापि न लोभेनैकत्वमास्कंदति; लोभोदयसामान्यस्यालीढबाह्यार्थलोभत: परिग्रहसंज्ञामादधानतो भेदात् । = परिग्रह संज्ञा भी लोभ कषाय के साथ एकत्व को प्राप्त नहीं होती है; क्योंकि बाह्य पदार्थों को विषय करने वाला होने के कारण परिग्रह संज्ञा को धारण करने वाले लोभ से लोभकषाय के उदयरूप सामान्य लोभ का भेद है। (अर्थात् बाह्य पदार्थों के निमित्त से जो लोभ विशेष होता है उसे परिग्रह संज्ञा कहते हैं।) और लोभ कषाय के उदय से उत्पन्न परिणामों को लोभ कहते हैं।
8. संज्ञाओं का स्वामित्व
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/702/1136/9 मिथ्यादृष्टयादिप्रमत्तांत...आहारादि चतस्र: संज्ञा भवंति। षष्ठगुणस्थाने आहारसंज्ञा व्युच्छिन्ना। शेषास्तिस्र: अप्रमत्तादिषु...अपूर्वकरणा - तत्र भयसंज्ञा व्युच्छिन्ना। अनिवृत्तिकरणप्रथमसवेदभागांतं...मैथुनपरिग्रहसंज्ञे स्त:। तत्र मैथुनसंज्ञा व्युच्छिन्ना। सूक्ष्मसांपराये परिग्रहसंज्ञा व्युच्छिन्ना। उपरि उपशांतादिषु कार्यरहिता अपि संज्ञा न संति कारणाभावे कार्यस्याप्यभावात् । = मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर प्रमत्त पर्यंत चारों संज्ञाएँ होती हैं। षष्ठ गुणस्थान में आहार संज्ञा का व्युच्छेद हो जाता है। अपूर्वकरण पर्यंत शेष तीन संज्ञा हैं तहाँ भय संज्ञा का विच्छेद हो जाता है। अनिवृत्तिकरण के सवेद भाग पर्यंत मैथुन और परिग्रह दो संज्ञाएँ हैं। तहाँ मैथुन का विच्छेद हो गया। तब सूक्ष्म सांपराय में एक परिग्रहसंज्ञा रह जाती है, उसका भी वहाँ विच्छेद हो गया। तब ऊपर के उपशांत आदि गुणस्थान में कारण के अभाव में कार्य का अभाव होता है, अत: वह कार्य रहित भी संज्ञा नहीं है।
9. अप्रमत्तादि गुणस्थानों में संज्ञा उपचार है
धवला 2/1,1/413,433/6,3 यदि चतस्रोऽपि संज्ञा आलीढबाह्यार्था:, अप्रमत्तानां संज्ञाभाव: स्यादिति चेन्न, तत्रोपचारतस्तत्सत्त्वाभ्युपगमात् ।413/6। (कारणभूद-कम्मोदय-संभवादो उवयारेण भयमेहुणपरिग्गहसण्णा अत्थि (433/3)। =प्रश्न - यदि ये चारों ही संज्ञाएँ बाह्य पदार्थों के संसर्ग से उत्पन्न होती हैं तो अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती जीवों के संज्ञाओं का अभाव हो जाना चाहिए ? उत्तर - नहीं, क्योंकि अप्रमत्तों में उपचार से उन संज्ञाओं का सद्भाव स्वीकार किया गया है। भय आदि संज्ञाओं के कारणभूत कर्मों का उदय संभव है इसलिए उपचार से भय और मैथुन संज्ञाएँ हैं।
गोम्मटसार जीवकांड/702 छट्ठोत्ति पढमसण्णा सकज्ज सेसा य कारणावेक्खा। =मिथ्यात्व से लेकर अप्रमत्त पर्यंत चारों ही संज्ञाएँ कार्यरूप होती हैं। किंतु ऊपर के गुणस्थानों में तीन आदिक संज्ञाएँ कारणरूप होती हैं। ( गोम्मटसार कर्मकांड/139 )।
10. संज्ञा कर्म के उदय से नहीं उदीरणा से होती है
धवला 2/1,1/433/2 आसादावेदणीयस्स उदीरणाभावादो आहारसण्णा अप्पमत्तसंजदस्स णत्थि। =असाता वेदनीय कर्म की उदीरणा का अभाव होने से अप्रमत्त संयत के आहार संज्ञा नहीं है।
देखें संज्ञा - 4 चारों संज्ञाओं के स्वस्व कर्म की उदीरणा होने पर वह वह संज्ञा उत्पन्न होती है।
* संज्ञा के स्वामित्व संबंधी गुणस्थान आदि 20 प्ररूपणाएँ। - देखें सत् ।
* संज्ञा प्ररूपणा का कषाय मार्गणा में अंतर्भाव। - देखें मार्गणा ।