चारित्रपाहुड़ गाथा 3: Difference between revisions
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Latest revision as of 21:26, 6 December 2013
जं जाणइ तं णाणं जं पेच्छइ तं च दंसणं भणियं ।
णाणस्स णिच्छियस्स य समवण्णा होइ चारित्तं ॥३॥
यज्जनाति तत् ज्ञानं यत् पश्यति तच्च दर्शनं भणितम् ।
ज्ञानस्य दर्शनस्य च समापन्नात् भवति चारित्रम् ॥३॥
आगे सम्यग्दर्शनादि तीन भावों का स्वरूप कहते हैं -
अर्थ - जो जानता है वह ज्ञान है । जो देखता है वह दर्शन है - ऐसे कहा है । ज्ञान और दर्शन के समायोग से चारित्र होता है ।
भावार्थ - जाने वह तो ज्ञान और देखे, श्रद्धान हो, वह दर्शन तथा दोनों एकरूप होकर स्थिर होना चारित्र है ॥३॥