अन्य द्वीप सागर निर्देश: Difference between revisions
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<li class="HindiText"><strong>अन्य द्वीप सागर निर्देश</strong></li> | |||
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<li class="HindiText">[[ #4.1 | लवण सागर निर्देश]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #4.2 | धातकीखंड निर्देश]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #4.3 | कालोद समुद्र निर्देश]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #4.4 | पुष्कर द्वीप]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #4.5 | नंदीश्वर द्वीप]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #4.6 | कुंडलवर द्वीप]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #4.7 | रुचकवर द्वीप]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #4.8 | स्वयंभूरमण समुद्र]]</li> | |||
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<li><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong> अन्य द्वीप सागर निर्देश</strong> <br /> | <li><span class="HindiText" name="4" id="4"><strong> अन्य द्वीप सागर निर्देश</strong> <br /> | ||
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<li class="HindiText"> इसके मध्यतल भाग में चारों ओर 1008 पाताल या विवर हैं। इनमें 4 उत्कृष्ट, 4 मध्यम और 1000 जघन्य विस्तारवाले हैं। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2408,2409 </span>); (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/896 </span>); (<span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/10/12 </span>)। तटों से 95,000 योजन भीतर प्रवेश करने पर चारों दिशाओं में चार ज्येष्ठ पाताल हैं। 99500 योजन प्रवेश करने पर उनके मध्य विदिशा में चार मध्यम पाताल और उनके मध्य प्रत्येक अंतर दिशा में 125,125 करके 100 जघन्य पाताल मुक्तावली रूप से स्थित हैं। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2411 </span>+2414+2428); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/32/4-6/196/13,25,32 </span>); (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/442,451,455 </span>)। 1,00,000 योजन गहरे महापाताल नरक सीमंतक बिल के ऊपर संलग्न हैं। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2413 </span>)। </li> | <li class="HindiText"> इसके मध्यतल भाग में चारों ओर 1008 पाताल या विवर हैं। इनमें 4 उत्कृष्ट, 4 मध्यम और 1000 जघन्य विस्तारवाले हैं। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2408,2409 </span>); (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/896 </span>); (<span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/10/12 </span>)। तटों से 95,000 योजन भीतर प्रवेश करने पर चारों दिशाओं में चार ज्येष्ठ पाताल हैं। 99500 योजन प्रवेश करने पर उनके मध्य विदिशा में चार मध्यम पाताल और उनके मध्य प्रत्येक अंतर दिशा में 125,125 करके 100 जघन्य पाताल मुक्तावली रूप से स्थित हैं। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2411 </span>+2414+2428); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/32/4-6/196/13,25,32 </span>); (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/442,451,455 </span>)। 1,00,000 योजन गहरे महापाताल नरक सीमंतक बिल के ऊपर संलग्न हैं। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2413 </span>)। </li> | ||
<li class="HindiText"> तीनों प्रकार के पातालों की ऊँचाई तीन बराबर भागों में विभक्त है। तहाँ निचले भाग मे वायु, उपरले भाग में जल और मध्य के भाग में यथायोग रूप से जल व वायु दोनों रहते हैं। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2430 </span>); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/32/4-6/196/17,28,32 </span>); (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/446-447 </span>); (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/898 </span>); (<span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/10/6-8 </span>) </li> | <li class="HindiText"> तीनों प्रकार के पातालों की ऊँचाई तीन बराबर भागों में विभक्त है। तहाँ निचले भाग मे वायु, उपरले भाग में जल और मध्य के भाग में यथायोग रूप से जल व वायु दोनों रहते हैं। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2430 </span>); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/32/4-6/196/17,28,32 </span>); (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/446-447 </span>); (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/898 </span>); (<span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/10/6-8 </span>) </li> | ||
<li class="HindiText"> मध्य भाग में जल व वायु की हानि-वृद्धि होती रहती है। शुक्ल पक्ष में प्रतिदिन 2222(2/9) योजन वायु | <li class="HindiText"> मध्य भाग में जल व वायु की हानि-वृद्धि होती रहती है। शुक्ल पक्ष में प्रतिदिन 2222(2/9) योजन वायु बढ़ती है और कृष्ण पक्ष में इतनी ही घटती है। यहाँ तक कि इस पूरे भाग में पूर्णिमा के दिन केवल वायु ही तथा अमावस्या को केवल जल ही रहता है। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2435-2439 </span>); (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/44 </span>) पातालों में जल व वायु की इस वृद्धिका कारण नीचे रहनेवाले भवनवासी देवों का उच्छ्वास निःश्वास है। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/32/4/193/20 </span>)। </li> | ||
<li class="HindiText"> पातालों में होने वाली उपरोक्त वृद्धि हानि से प्रेरित होकर सागर का जल शुक्ल पक्ष में प्रतिदिन 800/3 धनुष ऊपर उठता है, और कृष्ण पक्ष में इतना ही घटता है। यहाँ तक कि पूर्णिमा को 4000 धनुष आकाश में ऊपर उठ जाता है और अमावस्या को पृथिवी तल के समान हो जाता है। (अर्थात् 700 योजन ऊँचा अवस्थित रहता है।) <span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2440, 2443 </span>) लोगायणी के अनुसार सागर 11,000 योजन तो सदा ही पृथिवी तल से ऊपर अवस्थित रहता है। शुक्ल पक्ष में इसके ऊपर प्रतिदिन 700 योजन | <li class="HindiText"> पातालों में होने वाली उपरोक्त वृद्धि हानि से प्रेरित होकर सागर का जल शुक्ल पक्ष में प्रतिदिन 800/3 धनुष ऊपर उठता है, और कृष्ण पक्ष में इतना ही घटता है। यहाँ तक कि पूर्णिमा को 4000 धनुष आकाश में ऊपर उठ जाता है और अमावस्या को पृथिवी तल के समान हो जाता है। (अर्थात् 700 योजन ऊँचा अवस्थित रहता है।) <span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2440, 2443 </span>) लोगायणी के अनुसार सागर 11,000 योजन तो सदा ही पृथिवी तल से ऊपर अवस्थित रहता है। शुक्ल पक्ष में इसके ऊपर प्रतिदिन 700 योजन बढ़ता है और कृष्णपक्ष में इतना ही घटता है। यहाँ तक कि पूर्णिमा के दिन 5000 योजन बढ़कर 16,000 योजन हो जाता है और अमावस्या को इतना ही घटकर वह पुनः 11,000 योजन रह जाता है। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2446 </span>); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/32/3/193/10 </span>); (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/437 </span>); (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/900 </span>); (<span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो 10/18 </span>)।</li> | ||
<li class="HindiText"> समुद्र के दोनों किनारों पर व शिखर पर आकाश में 700 योजन जाकर सागर के चारों तरफ कुल 1,42,000 वेलंधर देवों की नगरियाँ हैं। तहाँ बाह्य व अभ्यंतर वेदी के ऊपर क्रम से 72,000 और 42,000 और मध्य में शिखर पर 28,000 है। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2449-2454 </span>); (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/904 </span>); (<span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/10/36-37 </span>) मतांतर से इतनी ही नगरियाँ सागर के दोनों किनारों पर पृथिवी तल पर भी स्थित हैं। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2456 </span>) सग्गायणी के अनुसार सागर की बाह्य व अभ्यंतर वेदी वाले उपर्युक्त नगर दोनों वेदियों से 42,000 योजन भीतर प्रवेश करके आकाश में अवस्थित हैं और मध्यवाले जल के शिखर पर भी। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/32/7/194/1 </span>); (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/466-468 </span>)। </li> | <li class="HindiText"> समुद्र के दोनों किनारों पर व शिखर पर आकाश में 700 योजन जाकर सागर के चारों तरफ कुल 1,42,000 वेलंधर देवों की नगरियाँ हैं। तहाँ बाह्य व अभ्यंतर वेदी के ऊपर क्रम से 72,000 और 42,000 और मध्य में शिखर पर 28,000 है। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2449-2454 </span>); (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/904 </span>); (<span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/10/36-37 </span>) मतांतर से इतनी ही नगरियाँ सागर के दोनों किनारों पर पृथिवी तल पर भी स्थित हैं। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2456 </span>) सग्गायणी के अनुसार सागर की बाह्य व अभ्यंतर वेदी वाले उपर्युक्त नगर दोनों वेदियों से 42,000 योजन भीतर प्रवेश करके आकाश में अवस्थित हैं और मध्यवाले जल के शिखर पर भी। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/32/7/194/1 </span>); (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/466-468 </span>)। </li> | ||
<li class="HindiText"> दोनों किनारों से 42,000 योजन भीतर जाने पर चारों दिशाओं में प्रत्येक ज्येष्ठ पाताल के बाह्य व भीतरी पार्श्व भागों में एक-एक करके कुल आठ पर्वत हैं। जिन पर वेलंधर देव रहते हैं। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2457 </span>); (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/459 </span>); (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/905 </span>); (<span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/10/27 </span>); (विशेष देखें [[ लोक#5.9 | लोक - 5.9 ]]में इनके व देवों के नाम)। </li> | <li class="HindiText"> दोनों किनारों से 42,000 योजन भीतर जाने पर चारों दिशाओं में प्रत्येक ज्येष्ठ पाताल के बाह्य व भीतरी पार्श्व भागों में एक-एक करके कुल आठ पर्वत हैं। जिन पर वेलंधर देव रहते हैं। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2457 </span>); (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/459 </span>); (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/905 </span>); (<span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/10/27 </span>); (विशेष देखें [[ लोक#5.9 | लोक - 5.9 ]]में इनके व देवों के नाम)। </li> | ||
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<li class="HindiText"> लवणोदको वेष्टित करके 4,00,000 योजन विस्तृत ये द्वितीय द्वीप हैं। इसके चारों तरफ भी एक जगती है। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2527-2531 </span>); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/23/5/595/14 </span>); (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/489 </span>); (<span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/112 </span>)। </li> | <li class="HindiText"> लवणोदको वेष्टित करके 4,00,000 योजन विस्तृत ये द्वितीय द्वीप हैं। इसके चारों तरफ भी एक जगती है। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2527-2531 </span>); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/23/5/595/14 </span>); (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/489 </span>); (<span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/112 </span>)। </li> | ||
<li class="HindiText"> इसकी उत्तर व दक्षिण दिशा में उत्तर<strong>-</strong>दक्षिण लंबायमान दो इष्वाकार पर्वत हैं, जिनसे यह द्वीप पूर्व व पश्चिम रूप दो भागों में विभक्त हो जाता है। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2532 </span>); (<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/3/13/227/1 </span>); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/33/6/195/25 </span>); (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/494 </span>); (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/925 </span>); (<span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/3 </span>) प्रत्येक पर्वत पर 4 कूट हैं। प्रथम कूट पर जिनमंदिर है और शेष पर व्यंतर देव रहते हैं। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2539 </span>)। </li> | <li class="HindiText"> इसकी उत्तर व दक्षिण दिशा में उत्तर<strong>-</strong>दक्षिण लंबायमान दो इष्वाकार पर्वत हैं, जिनसे यह द्वीप पूर्व व पश्चिम रूप दो भागों में विभक्त हो जाता है। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2532 </span>); (<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/3/13/227/1 </span>); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/33/6/195/25 </span>); (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/494 </span>); (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/925 </span>); (<span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/3 </span>) प्रत्येक पर्वत पर 4 कूट हैं। प्रथम कूट पर जिनमंदिर है और शेष पर व्यंतर देव रहते हैं। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2539 </span>)। </li> | ||
<li class="HindiText"> इस द्वीप में दो रचनाएँ हैं - पूर्व धातकी और पश्चिम धातकी। दोनों में पर्वत, क्षेत्र, नदी, कूट आदि सब जंबूद्वीप के समान हैं। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2541-2545 </span>); (<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/3/33/227/1 </span>); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/33/1/194/31 </span>); (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/165, 496-497 </span>); (<span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/38 </span>) जंबू व शाल्मली वृक्ष को | <li class="HindiText"> इस द्वीप में दो रचनाएँ हैं - पूर्व धातकी और पश्चिम धातकी। दोनों में पर्वत, क्षेत्र, नदी, कूट आदि सब जंबूद्वीप के समान हैं। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2541-2545 </span>); (<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/3/33/227/1 </span>); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/33/1/194/31 </span>); (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/165, 496-497 </span>); (<span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/38 </span>) जंबू व शाल्मली वृक्ष को छोड़कर शेष सबके नाम भी वही हैं। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2550 </span>); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/33/5/195/19 </span>); सभी का कथन जंबूद्वीपवत् है। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2715 </span>)।</li> | ||
<li class="HindiText"> दक्षिण इष्वाकार के दोनों तरफ दो भरत हैं तथा उत्तर इष्वाकार के दोनों तरफ दो ऐरावत हैं। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2552 </span>); (<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/3/33/227/4 </span>)। </li> | <li class="HindiText"> दक्षिण इष्वाकार के दोनों तरफ दो भरत हैं तथा उत्तर इष्वाकार के दोनों तरफ दो ऐरावत हैं। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2552 </span>); (<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/3/33/227/4 </span>)। </li> | ||
<li class="HindiText"> तहाँ सर्व कुल पर्वत तो दोनों सिरों पर समान विस्तार को धरे पहिये के आरोंवत् स्थित हैं और क्षेत्र उनके मध्यवर्ती छिद्रोंवत् हैं जिनेक अभ्यंतर भाग का विस्तार कम व बाह्य भाग का विस्तार अधिक है। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2553 </span>); (<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/3/33/227/6 </span>); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/33/196/4 </span>); (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/498 </span>); (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/927 </span>)। </li> | <li class="HindiText"> तहाँ सर्व कुल पर्वत तो दोनों सिरों पर समान विस्तार को धरे पहिये के आरोंवत् स्थित हैं और क्षेत्र उनके मध्यवर्ती छिद्रोंवत् हैं जिनेक अभ्यंतर भाग का विस्तार कम व बाह्य भाग का विस्तार अधिक है। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2553 </span>); (<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/3/33/227/6 </span>); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/33/196/4 </span>); (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/498 </span>); (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/927 </span>)। </li> | ||
<li class="HindiText"> तहाँ भी सर्व कथन पूर्व व पश्चिम दोनों धातकी खंडों में जंबूद्वीपवत् है। विदेह क्षेत्र के बहु मध्य भाग में पृथक्-पृथक् सुमेरु पर्वत हैं। उनका स्वरूप तथा उन पर स्थित जिन भवन आदि का सर्व कथन जंबूद्वीपवत् है। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2575-2576 </span>); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/33/6/195/28 </span>); (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/494 </span>) (<span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/65 </span>)। इन दोनों पर भी जंबूद्वीप के सुमेरुवत् पांडुक आदि चार वन हैं। विशेषता यह है कि यहाँ भद्रशाल से 500 योजन ऊपर नंदन, उससे 55,500 योजन ऊपर सौमनस वन और उससे 28,000 योजन ऊपर पांडुक वन है। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2584-2588 </span>); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/33/6/195/30 </span>); (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/518-519 </span>); (<span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो 11/22-28 </span>) पृथिवी तल पर विस्तार 9400 योजन है, 500 योजन ऊपर जाकर नंदन वन पर 9350 योजन रहता है। तहाँ चारों तरफ से युगपत् 500 योजन | <li class="HindiText"> तहाँ भी सर्व कथन पूर्व व पश्चिम दोनों धातकी खंडों में जंबूद्वीपवत् है। विदेह क्षेत्र के बहु मध्य भाग में पृथक्-पृथक् सुमेरु पर्वत हैं। उनका स्वरूप तथा उन पर स्थित जिन भवन आदि का सर्व कथन जंबूद्वीपवत् है। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2575-2576 </span>); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/33/6/195/28 </span>); (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/494 </span>) (<span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/65 </span>)। इन दोनों पर भी जंबूद्वीप के सुमेरुवत् पांडुक आदि चार वन हैं। विशेषता यह है कि यहाँ भद्रशाल से 500 योजन ऊपर नंदन, उससे 55,500 योजन ऊपर सौमनस वन और उससे 28,000 योजन ऊपर पांडुक वन है। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2584-2588 </span>); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/33/6/195/30 </span>); (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/518-519 </span>); (<span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो 11/22-28 </span>) पृथिवी तल पर विस्तार 9400 योजन है, 500 योजन ऊपर जाकर नंदन वन पर 9350 योजन रहता है। तहाँ चारों तरफ से युगपत् 500 योजन सुकड़कर 8350 योजन ऊपर तक समान विस्तार से जाता है। तदनंतर 45,500 योजन क्रमिक हानि सहित जाता हुआ सौमनस वनपर 3800 योजन रहता है तहाँ चारों तरफ से युगपत् 500 योजन सुकड़कर 2800 योजन रहता है, ऊपर फिर 10,000 योजन समान विस्तार से जाता है तदनंतर 18,000 योजन क्रमिक हानि सहित जाता हुआ शीष पर 1000 योजन विस्तृत रहता है। (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/520-530 </span>)। </li> | ||
<li class="HindiText"> जंबूद्वीप के शाल्मली वृक्षवत् यहाँ दोनों कुरुओं में दो-दो करके कुल चार धातकी (आँवले के) वृक्ष स्थित हैं। प्रत्येक वृक्ष का परिवार जंबूद्वीपवत् 1,40,120 है। चारों वृक्षों का कुल परिवार 5,60,480 है। (विशेष देखें [[ लोक#3.13 | लोक - 3.13]]) इन वृक्षों पर इस द्वीप के रक्षक प्रभास व प्रियदर्शन नामक देव रहते हैं। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2601-2603 </span>); (<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/3/33/227/7 </span>); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/33/196/3 </span>); (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/934 </span>)। </li> | <li class="HindiText"> जंबूद्वीप के शाल्मली वृक्षवत् यहाँ दोनों कुरुओं में दो-दो करके कुल चार धातकी (आँवले के) वृक्ष स्थित हैं। प्रत्येक वृक्ष का परिवार जंबूद्वीपवत् 1,40,120 है। चारों वृक्षों का कुल परिवार 5,60,480 है। (विशेष देखें [[ लोक#3.13 | लोक - 3.13]]) इन वृक्षों पर इस द्वीप के रक्षक प्रभास व प्रियदर्शन नामक देव रहते हैं। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/2601-2603 </span>); (<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/3/33/227/7 </span>); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/33/196/3 </span>); (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/934 </span>)। </li> | ||
<li class="HindiText"> इस द्वीप में पर्वतों आदि का प्रमाण निम्न प्रकार है। - मेरु 2, इष्वाकार 2, कुल गिरि 12; विजयार्ध 68, नाभिगिरि 8; गजदंत 8; यमक 8; काँचन शैल 400; दिग्गजेंद्र पर्वत 16; वक्षार पर्वत 32; वृषभगिरि 68; क्षेत्र या विजय 68 (ज.प्र./11/81) कर्मभूमि 6; भोगभूमि 12; (<span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/76 </span>) महानदियाँ 28; विदेह क्षेत्र की नदियाँ 128; विभंगा नदियाँ 24। द्रह 32; महानदियों व क्षेत्र नदियों के कुंड 156; विभंगा के कुंड 24; धातकी वृक्ष 2; शाल्मली वृक्ष 2 हैं। (<span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/29-38 </span>)। (<span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/75-81 </span>) में पुष्करार्ध की अपेक्षा इसी प्रकार कथन किया है।)<br /> | <li class="HindiText"> इस द्वीप में पर्वतों आदि का प्रमाण निम्न प्रकार है। - मेरु 2, इष्वाकार 2, कुल गिरि 12; विजयार्ध 68, नाभिगिरि 8; गजदंत 8; यमक 8; काँचन शैल 400; दिग्गजेंद्र पर्वत 16; वक्षार पर्वत 32; वृषभगिरि 68; क्षेत्र या विजय 68 (ज.प्र./11/81) कर्मभूमि 6; भोगभूमि 12; (<span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/76 </span>) महानदियाँ 28; विदेह क्षेत्र की नदियाँ 128; विभंगा नदियाँ 24। द्रह 32; महानदियों व क्षेत्र नदियों के कुंड 156; विभंगा के कुंड 24; धातकी वृक्ष 2; शाल्मली वृक्ष 2 हैं। (<span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/29-38 </span>)। (<span class="GRef"> जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/75-81 </span>) में पुष्करार्ध की अपेक्षा इसी प्रकार कथन किया है।)<br /> | ||
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<li class="HindiText"> अष्टम द्वीप नंदीश्वर द्वीप है। (देखें [[ चित्र सं#38 | चित्र सं - 38]], पृ. 465)। उसका कुल विस्तार 1,63,84,00,000 योजन प्रमाण है। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/5/52-53 </span>); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/35/198/4 </span>); (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/647 </span>); (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/966 </span>)। </li> | <li class="HindiText"> अष्टम द्वीप नंदीश्वर द्वीप है। (देखें [[ चित्र सं#38 | चित्र सं - 38]], पृ. 465)। उसका कुल विस्तार 1,63,84,00,000 योजन प्रमाण है। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/5/52-53 </span>); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/35/198/4 </span>); (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/647 </span>); (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/966 </span>)। </li> | ||
<li class="HindiText"> इसके बहुमध्य भाग में पूर्व दिशा की ओर काले रंग का एक-एक अंजनगिरि पर्वत है। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/5/57 </span>); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3-/198/7 </span>), (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/-5/652 </span>)। (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/967 </span>)। </li> | <li class="HindiText"> इसके बहुमध्य भाग में पूर्व दिशा की ओर काले रंग का एक-एक अंजनगिरि पर्वत है। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/5/57 </span>); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3-/198/7 </span>), (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/-5/652 </span>)। (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/967 </span>)। </li> | ||
<li class="HindiText"> उस अंजनगिरि के चारों तरफ 1,00,000 योजन | <li class="HindiText"> उस अंजनगिरि के चारों तरफ 1,00,000 योजन छोड़कर 4 वापियाँ हैं। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/5/60 </span>), (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/35/-/198/9 </span>), (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/655 </span>), (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/970 </span>)। चारों वापियों का भीतरी अंतराल 65,045 योजन है और बाह्य अंतर 2,23,661 योजन है (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/666-668 </span>)। </li> | ||
<li class="HindiText"> प्रत्येक वापी की चारों दिशाओं में अशोक, सप्तच्छद, चंपक और आम्र नाम के चार वन हैं। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/5/630 </span>), (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/35/-/198/27 </span>), (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/671,672 </span>), (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/971 </span>)। इस प्रकार द्वीप की एक दिशा में 16 और चारों दिशाओं में 64 वन हैं। इन सब पर अवतंस आदि 64 देव रहते हैं। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/35/-/199/3 </span>), <span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/681 </span>)। </li> | <li class="HindiText"> प्रत्येक वापी की चारों दिशाओं में अशोक, सप्तच्छद, चंपक और आम्र नाम के चार वन हैं। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/5/630 </span>), (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/35/-/198/27 </span>), (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/671,672 </span>), (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/971 </span>)। इस प्रकार द्वीप की एक दिशा में 16 और चारों दिशाओं में 64 वन हैं। इन सब पर अवतंस आदि 64 देव रहते हैं। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/35/-/199/3 </span>), <span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/681 </span>)। </li> | ||
<li class="HindiText"> प्रत्येक वापी में सफेद रंग का एक-एक दधिमुख पर्वत है। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/5/65 </span>); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/35/-/198/25 </span>); (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/669 </span>);(<span class="GRef"> त्रिलोकसार/967 </span>)। </li> | <li class="HindiText"> प्रत्येक वापी में सफेद रंग का एक-एक दधिमुख पर्वत है। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/5/65 </span>); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/35/-/198/25 </span>); (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/669 </span>);(<span class="GRef"> त्रिलोकसार/967 </span>)। </li> | ||
<li class="HindiText"> प्रत्येक वापी के बाह्य दोनों कोनों पर-लाल रंग के दो रतिकर पर्वत हैं। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/5/67 </span>); (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/967 </span>)। लोक विनिश्चय की अपेक्षा प्रत्येक द्रह के चारों कोनों पर चार रतिकर हैं। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/5/69 </span>), (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/35/-/198/31 </span>), (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण /5/673 </span>)। जिनमंदिर केवल बाहर वाले दो रतिकरों पर ही होते हैं, अभ्यंतर रतिकरों पर देव | <li class="HindiText"> प्रत्येक वापी के बाह्य दोनों कोनों पर-लाल रंग के दो रतिकर पर्वत हैं। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/5/67 </span>); (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/967 </span>)। लोक विनिश्चय की अपेक्षा प्रत्येक द्रह के चारों कोनों पर चार रतिकर हैं। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/5/69 </span>), (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/35/-/198/31 </span>), (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण /5/673 </span>)। जिनमंदिर केवल बाहर वाले दो रतिकरों पर ही होते हैं, अभ्यंतर रतिकरों पर देव क्रीड़ा करते हैं। (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/35/-/198/33 </span>)। </li> | ||
<li class="HindiText"> इस प्रकार एक दिशा में एक अंजनगिरि, चार दधिमुख, आठ रतिकर ये सब मिलकर 13 पर्वत हैं। इनके ऊपर 13 जिनमंदिर स्थित हैं। इसी प्रकार शेष तीन दिशाओं में भी पर्वत द्रह, वन व जिन मंदिर जानना। (कुल मिलकर 52 पर्वत, 52 मंदिर, 16 वापियाँ और 64 वन हैं। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/5/70-75 </span>); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/35/-/199/1 </span>); (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/676 </span>)(<span class="GRef"> नियमसार/973 </span>)। </li> | <li class="HindiText"> इस प्रकार एक दिशा में एक अंजनगिरि, चार दधिमुख, आठ रतिकर ये सब मिलकर 13 पर्वत हैं। इनके ऊपर 13 जिनमंदिर स्थित हैं। इसी प्रकार शेष तीन दिशाओं में भी पर्वत द्रह, वन व जिन मंदिर जानना। (कुल मिलकर 52 पर्वत, 52 मंदिर, 16 वापियाँ और 64 वन हैं। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/5/70-75 </span>); (<span class="GRef"> राजवार्तिक/3/35/-/199/1 </span>); (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/676 </span>)(<span class="GRef"> नियमसार/973 </span>)। </li> | ||
<li class="HindiText"> अष्टाह्निक पर्व में सौधर्म आदि इंद्र व देवगण | <li class="HindiText"> अष्टाह्निक पर्व में सौधर्म आदि इंद्र व देवगण बड़ी भक्ति से इन मंदिरों की पूजा करते हैं। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/5/83,102 </span>); (<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/680 </span>); (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/975-976 </span>)। तहाँ पूर्व दिशा में कल्पवासी, दक्षिण में भवनवासी, पश्चिम में व्यंतर और उत्तर में देव पूजा करते हैं। (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/5/100-101 </span>)।<br /> | ||
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Revision as of 22:35, 23 December 2020
- अन्य द्वीप सागर निर्देश
- लवण सागर निर्देश
- धातकीखंड निर्देश
- कालोद समुद्र निर्देश
- पुष्कर द्वीप
- नंदीश्वर द्वीप
- कुंडलवर द्वीप
- रुचकवर द्वीप
- स्वयंभूरमण समुद्र
- अन्य द्वीप सागर निर्देश
- लवण सागर निर्देश
- जंबूद्वीप को घेरकर 2,00,000 योजन विस्तृत वलयाकार यह प्रथम सागर स्थित है, जो एक नावपर दसरी नाव मुंधी रखने से उत्पन्न हुए आकारवाला है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2398-2399 ); ( राजवार्तिक/3/32/3/193/8 ); ( हरिवंशपुराण/5/430-441 ); ( त्रिलोकसार/901 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/10/2-4 ) तथा गोल है। ( त्रिलोकसार/897 )।
- इसके मध्यतल भाग में चारों ओर 1008 पाताल या विवर हैं। इनमें 4 उत्कृष्ट, 4 मध्यम और 1000 जघन्य विस्तारवाले हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2408,2409 ); ( त्रिलोकसार/896 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/10/12 )। तटों से 95,000 योजन भीतर प्रवेश करने पर चारों दिशाओं में चार ज्येष्ठ पाताल हैं। 99500 योजन प्रवेश करने पर उनके मध्य विदिशा में चार मध्यम पाताल और उनके मध्य प्रत्येक अंतर दिशा में 125,125 करके 100 जघन्य पाताल मुक्तावली रूप से स्थित हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2411 +2414+2428); ( राजवार्तिक/3/32/4-6/196/13,25,32 ); ( हरिवंशपुराण/5/442,451,455 )। 1,00,000 योजन गहरे महापाताल नरक सीमंतक बिल के ऊपर संलग्न हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2413 )।
- तीनों प्रकार के पातालों की ऊँचाई तीन बराबर भागों में विभक्त है। तहाँ निचले भाग मे वायु, उपरले भाग में जल और मध्य के भाग में यथायोग रूप से जल व वायु दोनों रहते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2430 ); ( राजवार्तिक/3/32/4-6/196/17,28,32 ); ( हरिवंशपुराण/5/446-447 ); ( त्रिलोकसार/898 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/10/6-8 )
- मध्य भाग में जल व वायु की हानि-वृद्धि होती रहती है। शुक्ल पक्ष में प्रतिदिन 2222(2/9) योजन वायु बढ़ती है और कृष्ण पक्ष में इतनी ही घटती है। यहाँ तक कि इस पूरे भाग में पूर्णिमा के दिन केवल वायु ही तथा अमावस्या को केवल जल ही रहता है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2435-2439 ); ( हरिवंशपुराण/5/44 ) पातालों में जल व वायु की इस वृद्धिका कारण नीचे रहनेवाले भवनवासी देवों का उच्छ्वास निःश्वास है। ( राजवार्तिक/3/32/4/193/20 )।
- पातालों में होने वाली उपरोक्त वृद्धि हानि से प्रेरित होकर सागर का जल शुक्ल पक्ष में प्रतिदिन 800/3 धनुष ऊपर उठता है, और कृष्ण पक्ष में इतना ही घटता है। यहाँ तक कि पूर्णिमा को 4000 धनुष आकाश में ऊपर उठ जाता है और अमावस्या को पृथिवी तल के समान हो जाता है। (अर्थात् 700 योजन ऊँचा अवस्थित रहता है।) तिलोयपण्णत्ति/4/2440, 2443 ) लोगायणी के अनुसार सागर 11,000 योजन तो सदा ही पृथिवी तल से ऊपर अवस्थित रहता है। शुक्ल पक्ष में इसके ऊपर प्रतिदिन 700 योजन बढ़ता है और कृष्णपक्ष में इतना ही घटता है। यहाँ तक कि पूर्णिमा के दिन 5000 योजन बढ़कर 16,000 योजन हो जाता है और अमावस्या को इतना ही घटकर वह पुनः 11,000 योजन रह जाता है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2446 ); ( राजवार्तिक/3/32/3/193/10 ); ( हरिवंशपुराण/5/437 ); ( त्रिलोकसार/900 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो 10/18 )।
- समुद्र के दोनों किनारों पर व शिखर पर आकाश में 700 योजन जाकर सागर के चारों तरफ कुल 1,42,000 वेलंधर देवों की नगरियाँ हैं। तहाँ बाह्य व अभ्यंतर वेदी के ऊपर क्रम से 72,000 और 42,000 और मध्य में शिखर पर 28,000 है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2449-2454 ); ( त्रिलोकसार/904 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/10/36-37 ) मतांतर से इतनी ही नगरियाँ सागर के दोनों किनारों पर पृथिवी तल पर भी स्थित हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2456 ) सग्गायणी के अनुसार सागर की बाह्य व अभ्यंतर वेदी वाले उपर्युक्त नगर दोनों वेदियों से 42,000 योजन भीतर प्रवेश करके आकाश में अवस्थित हैं और मध्यवाले जल के शिखर पर भी। ( राजवार्तिक/3/32/7/194/1 ); ( हरिवंशपुराण/5/466-468 )।
- दोनों किनारों से 42,000 योजन भीतर जाने पर चारों दिशाओं में प्रत्येक ज्येष्ठ पाताल के बाह्य व भीतरी पार्श्व भागों में एक-एक करके कुल आठ पर्वत हैं। जिन पर वेलंधर देव रहते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2457 ); ( हरिवंशपुराण/5/459 ); ( त्रिलोकसार/905 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/10/27 ); (विशेष देखें लोक - 5.9 में इनके व देवों के नाम)।
- इस प्रकार अभ्यंतर वेदी से 42,000 भीतर जाने पर उपर्युक्त भीतरी 4 पर्वतों के दोनों पार्श्व भागों में (विदिशाओं में) प्रत्येक में दो-दो करके कुल आठ सूर्यद्वीप हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2471-2472 ); ( त्रिलोकसार/909 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/10/38 ) सागर के भीतर, रक्तोदा नदी के सम्मुख मागध द्वीप, जगती के अपराजित नामक उत्तर द्वार के सम्मुख वरतनु और रक्ता नदी के सम्मुख प्रभास द्वीप हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2473-2475 ); ( त्रिलोकसार/911-912 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/10/40 )। इसी प्रकार ये तीनों द्वीप जंबूद्वीप के दक्षिण भाग में भी गंगा सिंधु नदी व वैजयंत नामक दक्षिण द्वार के प्रणिधि भाग में स्थित हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1311, 1316 +1318) अभ्यंतर वेदी से 12,000 योजन सागर के भीतर जाने पर सागर की वायव्य दिशा में मागध नामका द्वीप है। ( राजवार्तिक/3/33/8/194/8 ); ( हरिवंशपुराण/5/469 ) इसी प्रकार लवण समुद्र के बाह्य भाग में भी ये द्वीप जानना। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2477 ) मतांतर की अपेक्षा भाग में भी ये द्वीप जानना। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2477 ) मतांतर की अपेक्षा दोनों तटों से 42,000 योजन भीतर जाने पर 42,000योजन विस्तार वाले 24,24 द्वीप हैं। तिन में 8 तो चारों दिशाओं व विदिशाओं के दोनों पार्श्वभागों में हैं और 16 आठों अंतर दिशाओं के दोनों पार्श्व भागों में। विदिशावालों का नाम सूर्यद्वीप और अंतर दिशावालों का नाम चंद्रद्वीप है ( त्रिलोकसार/909 )।
- इनके अतिरिक्त 48 कुमानुष द्वीप हैं। 24 अभ्यंतर भाग में और 24 बाह्य भाग में। तहाँ चारों दिशाओं में चार, चारों विदिशाओं में 4, अंतर दिशाओं में 8 तथा हिमवान्, शिखरी व दोनों विजयार्ध पर्वतों के प्रणिधि भाग में 8 हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2478-2479 +2487-2488); ( हरिवंशपुराण/5/471-476 +781);( त्रिलोकसार/193 ) दिशा, विदिशा व अंतर दिशा तथा पर्वत के पासवाले, ये चारों प्रकार के द्वीप क्रम से जगती से 500,500, 550 व 600 योजन अंतराल पर अवस्थित हैं और 100, 55, 50 व 25 योजन विस्तार युक्त हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2480-2482 ); ( हरिवंशपुराण/5/477-478 );( त्रिलोकसार/914 ); ( हरिवंशपुराण की अपेक्षा इनका विस्तार क्रम से 100, 50, 50 व 25 योजन है ) लोक विभाग के अनुसार क्रम से जगती से 500, 550, 500, 600 योजन अंतराल पर स्थित हैं तथा 100, 50, 100, 25 योजन विस्तार युक्त हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/24-91-2494 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/10/49-51 ) इन कुमानुष द्वीपों में एक जाँघवाला, शशकर्ण, बंदरमुख आदि रूप आकृतियों के धारक मनुष्य बसते हैं। (देखें म्लेच्छ - 3)। धातकीखंड द्वीप की दिशाओं में भी इस सागर में इतने ही अर्थात् 24 अंतर्द्वीप हैं जिनमें रहनेवाले कुमानुष भी वैसे ही होते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2490 )।
- धातकीखंड निर्देश
- लवणोदको वेष्टित करके 4,00,000 योजन विस्तृत ये द्वितीय द्वीप हैं। इसके चारों तरफ भी एक जगती है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2527-2531 ); ( राजवार्तिक/3/23/5/595/14 ); ( हरिवंशपुराण/489 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/112 )।
- इसकी उत्तर व दक्षिण दिशा में उत्तर-दक्षिण लंबायमान दो इष्वाकार पर्वत हैं, जिनसे यह द्वीप पूर्व व पश्चिम रूप दो भागों में विभक्त हो जाता है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2532 ); ( सर्वार्थसिद्धि/3/13/227/1 ); ( राजवार्तिक/3/33/6/195/25 ); ( हरिवंशपुराण/5/494 ); ( त्रिलोकसार/925 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/3 ) प्रत्येक पर्वत पर 4 कूट हैं। प्रथम कूट पर जिनमंदिर है और शेष पर व्यंतर देव रहते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2539 )।
- इस द्वीप में दो रचनाएँ हैं - पूर्व धातकी और पश्चिम धातकी। दोनों में पर्वत, क्षेत्र, नदी, कूट आदि सब जंबूद्वीप के समान हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2541-2545 ); ( सर्वार्थसिद्धि/3/33/227/1 ); ( राजवार्तिक/3/33/1/194/31 ); ( हरिवंशपुराण/5/165, 496-497 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/38 ) जंबू व शाल्मली वृक्ष को छोड़कर शेष सबके नाम भी वही हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2550 ); ( राजवार्तिक/3/33/5/195/19 ); सभी का कथन जंबूद्वीपवत् है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2715 )।
- दक्षिण इष्वाकार के दोनों तरफ दो भरत हैं तथा उत्तर इष्वाकार के दोनों तरफ दो ऐरावत हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2552 ); ( सर्वार्थसिद्धि/3/33/227/4 )।
- तहाँ सर्व कुल पर्वत तो दोनों सिरों पर समान विस्तार को धरे पहिये के आरोंवत् स्थित हैं और क्षेत्र उनके मध्यवर्ती छिद्रोंवत् हैं जिनेक अभ्यंतर भाग का विस्तार कम व बाह्य भाग का विस्तार अधिक है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2553 ); ( सर्वार्थसिद्धि/3/33/227/6 ); ( राजवार्तिक/3/33/196/4 ); ( हरिवंशपुराण/5/498 ); ( त्रिलोकसार/927 )।
- तहाँ भी सर्व कथन पूर्व व पश्चिम दोनों धातकी खंडों में जंबूद्वीपवत् है। विदेह क्षेत्र के बहु मध्य भाग में पृथक्-पृथक् सुमेरु पर्वत हैं। उनका स्वरूप तथा उन पर स्थित जिन भवन आदि का सर्व कथन जंबूद्वीपवत् है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2575-2576 ); ( राजवार्तिक/3/33/6/195/28 ); ( हरिवंशपुराण/5/494 ) ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/65 )। इन दोनों पर भी जंबूद्वीप के सुमेरुवत् पांडुक आदि चार वन हैं। विशेषता यह है कि यहाँ भद्रशाल से 500 योजन ऊपर नंदन, उससे 55,500 योजन ऊपर सौमनस वन और उससे 28,000 योजन ऊपर पांडुक वन है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2584-2588 ); ( राजवार्तिक/3/33/6/195/30 ); ( हरिवंशपुराण/5/518-519 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो 11/22-28 ) पृथिवी तल पर विस्तार 9400 योजन है, 500 योजन ऊपर जाकर नंदन वन पर 9350 योजन रहता है। तहाँ चारों तरफ से युगपत् 500 योजन सुकड़कर 8350 योजन ऊपर तक समान विस्तार से जाता है। तदनंतर 45,500 योजन क्रमिक हानि सहित जाता हुआ सौमनस वनपर 3800 योजन रहता है तहाँ चारों तरफ से युगपत् 500 योजन सुकड़कर 2800 योजन रहता है, ऊपर फिर 10,000 योजन समान विस्तार से जाता है तदनंतर 18,000 योजन क्रमिक हानि सहित जाता हुआ शीष पर 1000 योजन विस्तृत रहता है। ( हरिवंशपुराण/5/520-530 )।
- जंबूद्वीप के शाल्मली वृक्षवत् यहाँ दोनों कुरुओं में दो-दो करके कुल चार धातकी (आँवले के) वृक्ष स्थित हैं। प्रत्येक वृक्ष का परिवार जंबूद्वीपवत् 1,40,120 है। चारों वृक्षों का कुल परिवार 5,60,480 है। (विशेष देखें लोक - 3.13) इन वृक्षों पर इस द्वीप के रक्षक प्रभास व प्रियदर्शन नामक देव रहते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2601-2603 ); ( सर्वार्थसिद्धि/3/33/227/7 ); ( राजवार्तिक/3/33/196/3 ); ( त्रिलोकसार/934 )।
- इस द्वीप में पर्वतों आदि का प्रमाण निम्न प्रकार है। - मेरु 2, इष्वाकार 2, कुल गिरि 12; विजयार्ध 68, नाभिगिरि 8; गजदंत 8; यमक 8; काँचन शैल 400; दिग्गजेंद्र पर्वत 16; वक्षार पर्वत 32; वृषभगिरि 68; क्षेत्र या विजय 68 (ज.प्र./11/81) कर्मभूमि 6; भोगभूमि 12; ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/76 ) महानदियाँ 28; विदेह क्षेत्र की नदियाँ 128; विभंगा नदियाँ 24। द्रह 32; महानदियों व क्षेत्र नदियों के कुंड 156; विभंगा के कुंड 24; धातकी वृक्ष 2; शाल्मली वृक्ष 2 हैं। ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/29-38 )। ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/75-81 ) में पुष्करार्ध की अपेक्षा इसी प्रकार कथन किया है।)
- कालोद समुद्र निर्देश
- धातकी खंड को घेरकर, 8,00,000 योजन विस्तृत वलयाकार कालोद समुद्र स्थित है। जो सर्वत्र 1000 योजन गहरा है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2718-2719 ); ( राजवार्तिक/3/33/6/196/5 ); ( हरिवंशपुराण/5/562 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/43 )।
- इस समुद्र में पाताल नहीं है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1719 ); ( राजवार्तिक/3/32/8/194/13 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/44 )।
- इसके अभ्यंतर व बाह्य भाग में लवणोदवत् दिशा, विदिशा, अंतरदिशा व पर्वतों के प्रणिधि भाग में 24,24 अंतर्द्वीप स्थित हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/1720 ); ( हरिवंशपुराण/5/567-572 +575); ( त्रिलोकसार/913 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/49 ) वे दिशा विदिशा आदि वाले द्वीप क्रम से तट से 500, 650, 550 व 650 योजन के अंतर से स्थित हैं तथा 200, 100, 50,50 योजन है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2722-2725 ) मतांतर से इनका अंतराल क्रम से 500, 550, 600 व 650 है तथा विस्तार लवणोद वालों की अपेक्षा दूना अर्थात् 200, 1000 व 50 योजन है। ( हरिवंशपुराण/5/574 )।
- पुष्कर द्वीप
- कालोद समुद्र को घेरकर 16,00,000 योजन के विस्तार युक्त पुष्कर द्वीप स्थित है। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2744 ); ( राजवार्तिक/3/33/6/196/8 ); ( हरिवंशपुराण/576 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो 11/57 )।
- इसके बीचों-बीच स्थित कुंडलाकार मानुषोत्तर पर्वत के कारण इस द्वीप के दो अर्ध भाग हो गये हैं, एक अभ्यंतर और दूसरा बाह्य। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2748 ); ( राजवार्तिक/3/34/6/197/7 ); ( हरिवंशपुराण/5/577 ); ( त्रिलोकसार/937 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/58 )। अभ्यंतर भाग में मनुष्यों की स्थिति है पर मानुषोत्तर पर्वत को उल्लंघकर बाह्य भाग में जाने की उनकी सामर्थ्य नहीं है (देखें मनुष्य - 4.1)। (देखें चित्र सं - 36, पृ. 464)।
- अभ्यंतर पुष्करार्ध में धातकी खंडवत् ही दो इष्वाकार पर्वत हैं जिनके कारण यह पूर्व व पश्चिम के दो भागों में विभक्त हो जाता है। दोनों भागों में धातकी खंडवत् रचना है। ( तत्त्वार्थसूत्र/3/34 ); ( तिलोयपण्णत्ति/4/2784-2785 ); ( हरिवंशपुराण/5/578 )। धातकी खंड के समान यहाँ ये सब कुलगिरि तो पहिये के आरोंवत् समान विस्तार वाले और क्षेत्र उनके मध्य छिद्रों में हीनाधिक विस्तारवाले हैं। दक्षिण इष्वाकार के दोनों तरफ दो भरत क्षेत्र और इष्वाकार के दोनों तरफ दो ऐरावत क्षेत्र हैं। क्षेत्रों, पर्वतों आदि के नाम जंबूद्वीपवत् हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2794-2796 ); ( हरिवंशपुराण/5/579 )।
- दोनों मेरुओं का वर्णन धातकी मेरुओंवत् हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2812 ); ( त्रिलोकसार/609 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/4/64 )।
- मानुषोत्तर पर्वत का अभ्यंतर भाग दीवार की भाँति सीधा है, और बाह्य भाग में नीचे से ऊपर तक क्रम से घटता गया है। भरतादि क्षेत्रों की 14 नदियों के गुजरने के लिए इसके मूल में 14 गुफाएँ हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2751-2752 ); ( हरिवंशपुराण/5/595-596 ); ( त्रिलोकसार/937 )।
- इन पर्वत के ऊपर 22 कूट हैं। - तहाँ पूर्वादि प्रत्येक दिशा में तीन-तीन कूट हैं। पूर्वी विदिशाओं में दो-दो और पश्चिमी विदिशाओं में एक -एक कूट हैं। इन कूटों की अग्रभूमि में अर्थात् मनुष्य लोक की तरफ चारों दिशाओं में 4 सिद्धायतन कूट हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2765-2770 ); ( राजवार्तिक/3/34/6/197/12 ); ( हरिवंशपुराण/5/598-601 )। सिद्धायतन कूट पर जिनभवन है और शेष पर सपरिवार व्यंतर देव रहते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2775 )। मतांतर की अपेक्षा नैर्ऋत्य व वायव्य दिशावाले एक-एक कूट नहीं हैं। इस प्रकार कुल 20 कूट हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/4/2783 ); ( त्रिलोकसार/940 ) (देखें चित्र - 36 पृष्ठ सं. 464)।
- इसके 4 कुरुओं के मध्य जंबू वृक्षवत् सपरिवार 4 पुष्कर वृक्ष हैं। जिन पर संपूर्ण कथन जंबूद्वीप के जंबू व शाल्मली वृक्षवत् हैं। ( सर्वार्थसिद्धि/3/34/228/4 ); ( राजवार्तिक/3/34/5/197/4 ); ( त्रिलोकसार/934 )।
- पुष्करार्ध द्वीप में पर्वत-क्षेत्रादि का प्रमाण बिलकुल धातकी खंडवत् जानना (देखें लोक - 4.2)।
- नंदीश्वर द्वीप
- अष्टम द्वीप नंदीश्वर द्वीप है। (देखें चित्र सं - 38, पृ. 465)। उसका कुल विस्तार 1,63,84,00,000 योजन प्रमाण है। ( तिलोयपण्णत्ति/5/52-53 ); ( राजवार्तिक/3/35/198/4 ); ( हरिवंशपुराण/5/647 ); ( त्रिलोकसार/966 )।
- इसके बहुमध्य भाग में पूर्व दिशा की ओर काले रंग का एक-एक अंजनगिरि पर्वत है। ( तिलोयपण्णत्ति/5/57 ); ( राजवार्तिक/3-/198/7 ), ( हरिवंशपुराण/-5/652 )। ( त्रिलोकसार/967 )।
- उस अंजनगिरि के चारों तरफ 1,00,000 योजन छोड़कर 4 वापियाँ हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/5/60 ), ( राजवार्तिक/3/35/-/198/9 ), ( हरिवंशपुराण/5/655 ), ( त्रिलोकसार/970 )। चारों वापियों का भीतरी अंतराल 65,045 योजन है और बाह्य अंतर 2,23,661 योजन है ( हरिवंशपुराण/5/666-668 )।
- प्रत्येक वापी की चारों दिशाओं में अशोक, सप्तच्छद, चंपक और आम्र नाम के चार वन हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/5/630 ), ( राजवार्तिक/3/35/-/198/27 ), ( हरिवंशपुराण/5/671,672 ), ( त्रिलोकसार/971 )। इस प्रकार द्वीप की एक दिशा में 16 और चारों दिशाओं में 64 वन हैं। इन सब पर अवतंस आदि 64 देव रहते हैं। ( राजवार्तिक/3/35/-/199/3 ), हरिवंशपुराण/5/681 )।
- प्रत्येक वापी में सफेद रंग का एक-एक दधिमुख पर्वत है। ( तिलोयपण्णत्ति/5/65 ); ( राजवार्तिक/3/35/-/198/25 ); ( हरिवंशपुराण/5/669 );( त्रिलोकसार/967 )।
- प्रत्येक वापी के बाह्य दोनों कोनों पर-लाल रंग के दो रतिकर पर्वत हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/5/67 ); ( त्रिलोकसार/967 )। लोक विनिश्चय की अपेक्षा प्रत्येक द्रह के चारों कोनों पर चार रतिकर हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/5/69 ), ( राजवार्तिक/3/35/-/198/31 ), ( हरिवंशपुराण /5/673 )। जिनमंदिर केवल बाहर वाले दो रतिकरों पर ही होते हैं, अभ्यंतर रतिकरों पर देव क्रीड़ा करते हैं। ( राजवार्तिक/3/35/-/198/33 )।
- इस प्रकार एक दिशा में एक अंजनगिरि, चार दधिमुख, आठ रतिकर ये सब मिलकर 13 पर्वत हैं। इनके ऊपर 13 जिनमंदिर स्थित हैं। इसी प्रकार शेष तीन दिशाओं में भी पर्वत द्रह, वन व जिन मंदिर जानना। (कुल मिलकर 52 पर्वत, 52 मंदिर, 16 वापियाँ और 64 वन हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/5/70-75 ); ( राजवार्तिक/3/35/-/199/1 ); ( हरिवंशपुराण/5/676 )( नियमसार/973 )।
- अष्टाह्निक पर्व में सौधर्म आदि इंद्र व देवगण बड़ी भक्ति से इन मंदिरों की पूजा करते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/5/83,102 ); ( हरिवंशपुराण/5/680 ); ( त्रिलोकसार/975-976 )। तहाँ पूर्व दिशा में कल्पवासी, दक्षिण में भवनवासी, पश्चिम में व्यंतर और उत्तर में देव पूजा करते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/5/100-101 )।
- कुंडलवर द्वीप
- ग्यारहवाँ द्वीप कुंडलवर नाम का है, जिसके बहुमध्य भाग में मानुषोत्तरवत् एक कुंडलाकर पर्वत है। ( तिलोयपण्णत्ति/5/117 ); ( हरिवंशपुराण/686 )।
- तहाँ पूर्वादि प्रत्येक दिशा में चार- चार कूट हैं। उनके अभ्यंतर भाग में अर्थात् मनुष्यलोक की तरफ एक-एक सिद्धवर कूट हैं। इस प्रकार इस पर्वत पर कुल 20 कूट हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/5/120-121 ); ( राजवार्तिक/3/35/-/199/12 +19); ( त्रिलोकसार/944 )। जिनकूटों के अतिरिक्त प्रत्येक पर अपने-अपने कूटों के नामवाले देव रहते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/5/125 ) मतांतर की अपेक्षा आठों दिशाओं में एक-एक जिनकूट हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/5/128 )।
- लोक विनिश्चय की अपेक्षा इस पर्वत की पूर्वादि दिशाओं में से प्रत्येक में चार-चार कूट हैं। पूर्व व पश्चिम दिशावाले कूटों की अग्रभूमि में द्वीप के अधिपति देवों के दो कूट हैं। इन दोनों कूटों के अभ्यंतर भागों में चारों दिशाओं में एक-एक जिनकूट हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/5/130-139 ); ( राजवार्तिक/3/35/-/199/7 ); ( हरिवंशपुराण/5/689-698 )। मतांतर की अपेक्षा उनके उत्तर व दक्षिण भागों में एक-एक जिनकूट हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/5/140 )। (देखें सामनेवाल चित्र )।
- रुचकवर द्वीप
- तेरहवाँ द्वीप रुचकवर नाम का है। उसमें बीचों बीच रुचकवर नाम का कुंडलाकार पर्वत है। ( तिलोयपण्णत्ति/5/141 ); ( राजवार्तिक/3/35/-/199/22 ); ( हरिवंशपुराण/5/699 )।
- इस पर्वत पर कुल 44 कूट हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/5/144 )। पूर्वादि प्रत्येक दिशा में आठ-आठ कूट हैं जिन पर दिक्कुमारियाँ देवियाँ रहती हैं, जो भगवान् के जन्म कल्याण के अवसर पर माता की सेवा में उपस्थित रहती हैं। पूर्वादि दिशाओं वाली आठ-आठ देवियाँ क्रम से झारी, दर्पण, छत्र व चँवर धारण करती हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/5/145, 148-156 ), ( त्रिलोकसार/947 +955-956) इन कूटों के अभ्यंतर भाग में चारों दिशाओं में चार महाकूट हैं तथा इनकी भी अभ्यंतर दिशाओं में चार अन्य कूट हैं। जिन पर दिशाएँ स्वच्छ करने वाली तथा भगवान् का जातकर्म करने वाली देवियाँ रहती हैं। इनके अभ्यंतर भाग में चार सिद्धकूट हैं। (देखें चित्र सं - 40, पृ. 468)। किन्हीं आचार्यों के अनुसार विदिशाओं में भी चार सिद्धकूट हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/5/162-166 ); ( त्रिलोकसार/947,958-959 )।
- लोक विनिश्चय के अनुसार पूर्वादि चार दिशाओं में एक-एक करके चार कूट हैं जिन पर दिग्गजेंद्र रहते हैं। इन चारों के अभ्यंतर भाग में चार दिशाओं में आठ-आठ कूट हैं जिन पर उपर्युक्त माता की सेवा करनेवाली 32 दिक्कुमारियाँ रहती हैं। उनके बीच की दिशाओं में दो-दो करके आठ कूट हैं, जिनपर भगवान् का जातकर्म करने वाली आठ महत्तरियाँ रहती हैं। इनके अभ्यंतर भाग में पुनः पूर्वादि दिशाओं में चार कूट हैं जिन पर दिशाएँ निर्मल करने वाली देवियाँ रहती हैं। इनके अभ्यंतर भाग में चार सिद्धकूट हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/5/167-178 ); ( राजवार्तिक/3/35/199/24 ); ( हरिवंशपुराण/5/704-721 )। (देखें चित्र सं - 41, पृ. 469)।
- स्वयंभूरमण समुद्र
अंतिम द्वीप स्वयंभूरमण है। इसके मध्य में कुंडलाकार स्वयंप्रभ पर्वत है। ( तिलोयपण्णत्ति/5/238 ); ( हरिवंशपुराण/5/730 )। इस पर्वत के अभ्यंतर भाग तक तिर्यंच नहीं होते, पर उसके परभाग से लेकर अंतिम स्वयंभूरमण सागर के अंतिम किनारे तक सब प्रकार के तिर्यंच पायेजाते हैं। (देखें तिर्यंच - 3.4-6)। (देखें चित्र सं - 12 पृ. 443)।
- लवण सागर निर्देश