निक्षेप 1: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> निक्षेप सामान्य का लक्षण</strong></span> <br><span class="GRef"> राजवार्तिक 1/5/ </span>–/28/12 <span class="SanskritText">न्यसनं न्यस्यत इति वा न्यासो निक्षेप इत्यर्थ:।</span> <span class="HindiText">सौंपना या धरोहर रखना निक्षेप कहलाता है। अर्थात् नामादिकों में वस्तु को रखने का नाम निक्षेप है। </span><br><span class="GRef"> धवला 1/1,1,1/ </span>गा.11/17 <span class="SanskritText">उपायो न्यास उच्यते।11।</span> =<span class="HindiText">नामादि के द्वारा वस्तु में भेद करने के उपाय को न्यास या निक्षेप कहते हैं।</span> (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/1/83 </span>) <span class="GRef"> धवला 4/1,3,1/2/6 </span><span class="SanskritText">संशये विपर्यये अनध्यवसाये वा स्थित तेभ्योऽपसार्य निश्चये क्षिपतीति निक्षेप:। अथवा बाह्यार्थ विकल्पो निक्षेप:। अप्रकृतनिराकरणद्वारेण प्रकृतप्ररूपको वा। </span>= | <li><span class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> निक्षेप सामान्य का लक्षण</strong></span> <br><span class="GRef"> राजवार्तिक 1/5/ </span>–/28/12 <span class="SanskritText">न्यसनं न्यस्यत इति वा न्यासो निक्षेप इत्यर्थ:।</span> <span class="HindiText">सौंपना या धरोहर रखना निक्षेप कहलाता है। अर्थात् नामादिकों में वस्तु को रखने का नाम निक्षेप है। </span><br><span class="GRef"> धवला 1/1,1,1/ </span>गा.11/17 <span class="SanskritText">उपायो न्यास उच्यते।11।</span> =<span class="HindiText">नामादि के द्वारा वस्तु में भेद करने के उपाय को न्यास या निक्षेप कहते हैं।</span> (<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/1/83 </span>) <span class="GRef"> धवला 4/1,3,1/2/6 </span><span class="SanskritText">संशये विपर्यये अनध्यवसाये वा स्थित तेभ्योऽपसार्य निश्चये क्षिपतीति निक्षेप:। अथवा बाह्यार्थ विकल्पो निक्षेप:। अप्रकृतनिराकरणद्वारेण प्रकृतप्ररूपको वा। </span>= | ||
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<li class="HindiText"> संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय में अवस्थित वस्तु को उनसे निकालकर जो निश्चय में क्षेपण करता है उसे निक्षेप कहते हैं। अर्थात् जो अनिर्णीत वस्तु का नामादिक द्वारा निर्णय करावे, उसे निक्षेप कहते हैं। (<span class="GRef"> | <li class="HindiText"> संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय में अवस्थित वस्तु को उनसे निकालकर जो निश्चय में क्षेपण करता है उसे निक्षेप कहते हैं। अर्थात् जो अनिर्णीत वस्तु का नामादिक द्वारा निर्णय करावे, उसे निक्षेप कहते हैं। (<span class="GRef"> कषायपाहुड़ 2/1 2/475/425/7 </span>); (<span class="GRef"> धवला 1/1,1,1/10/4 </span>); (<span class="GRef"> धवला 13/5,3,5/3/11 </span>); (<span class="GRef"> धवला 13/5,5,3/198/4 </span>), (और भी देखें [[ निक्षेप#1.3 | निक्षेप - 1.3]])। </li> | ||
<li class="HindiText"> अथवा बाहरी पदार्थ के विकल्प को निक्षेप कहते हैं। (<span class="GRef"> धवला 13/5,5,3/198/4 </span>)। </li> | <li class="HindiText"> अथवा बाहरी पदार्थ के विकल्प को निक्षेप कहते हैं। (<span class="GRef"> धवला 13/5,5,3/198/4 </span>)। </li> | ||
<li><span class="HindiText"> अथवा अप्रकृत का निराकरण करके प्रकृत का निरूपण करने वाला निक्षेप है। (और भी देखें [[ निक्षेप#1.4 | निक्षेप - 1.4]]); (<span class="GRef"> धवला 9/4,1,45/141/1 </span>); (<span class="GRef"> धवला 13/5,5,3/198/4 </span>)।</span><br /> | <li><span class="HindiText"> अथवा अप्रकृत का निराकरण करके प्रकृत का निरूपण करने वाला निक्षेप है। (और भी देखें [[ निक्षेप#1.4 | निक्षेप - 1.4]]); (<span class="GRef"> धवला 9/4,1,45/141/1 </span>); (<span class="GRef"> धवला 13/5,5,3/198/4 </span>)।</span><br /> |
Revision as of 12:32, 1 January 2021
उत्कर्षण अपकर्षण विधान में जघन्य उत्कृष्ट निक्षेप।–देखें वह वह नाम ।
जिसके द्वारा वस्तु का ज्ञान में क्षेपण किया जाय या उपचार से वस्तु का जिन प्रकारों से आक्षेप किया जाय उसे निक्षेप कहते हैं। सो चार प्रकार से किया जाना संभव है–किसी वस्तु के नाम में उस वस्तु का उपचार वा ज्ञान, उस वस्तु की मूर्ति या प्रतिमा में उस वस्तु का उपचार या ज्ञान वस्तु की पूर्वापर पर्यायों में से किसी भी एक पर्याय में संपूर्ण वस्तु का उपचार या ज्ञान, तथा वस्तु के वर्तमान रूप में संपूर्ण वस्तु का उपचार या ज्ञान। इनके भी यथासंभव उत्तरभेद करके वस्तु को जानने व जनाने का व्यवहार प्रचलित है। वास्तव में ये सभी भेद वक्ता का अभिप्राय विशेष होने के कारण किसी न किसी नय में गर्भित हैं। निक्षेप विषय है और नय विषयी यही दोनों में अंतर है।
- निक्षेप सामान्य निर्देश
- निक्षेप सामान्य का लक्षण।
- निक्षेप के 4, 6 या अनेक भेद।
- चारों निक्षेपों के लक्षण व भेद आदि।–देखें निक्षेप - 4-7।
- प्रमाण नय और निक्षेप में अंतर।
- निक्षेप निर्देश का कारण व प्रयोजन।
- नयों से पृथक् निक्षेपों का निर्देश क्यों।
- चारों निक्षेपों का सार्थक्य व विरोध निरास।
- वस्तु सिद्धि में निक्षेप का स्थान।–देखें नय - I.3.7।
- निक्षेपों का द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक में अंतर्भाव
- भाव निक्षेप पर्यायार्थिक है और शेष तीन द्रव्यार्थिक।
- भाव में कथंचित् द्रव्यार्थिक और नाम व द्रव्य में कथंचित् पर्यायार्थिकपना।
- 3-5. नामादि तीन को द्रव्यार्थिक कहने में हेतु।
- 6-7. भाव को पर्यायार्थिक व द्रव्यार्थिक कहने में हेतु।
- निक्षेपों का नैगमादि नयों में अंतर्भाव
- नयों के विषयरूप से निक्षेपों का नाम निर्देश।
- तीनों द्रव्यार्थिक नयों के सभी निक्षेप विषय कैसे ?
- 3-4. ऋजुसूत्र के विषय नाम व द्रव्य कैसे ?
- ऋजुसूत्र में स्थापना निक्षेप क्यों नहीं ?
- शब्दनयों का विषय नाम निक्षेप कैसे ?
- शब्दनयों में द्रव्यनिक्षेप क्यों नहीं ?
- नाम निक्षेप निर्देश।–देखें नाम निक्षेप ।
- स्थापनानिक्षेप निर्देश
- स्थापना निक्षेप सामान्य का लक्षण।
- स्थापना निक्षेप के भेद।
- स्थापना का विषय मूर्तीक द्रव्य है।–देखें नय - 5.3।
- सद्भाव व असद्भाव स्थापना के लक्षण।
- अकृत्रिम प्रतिमाओं में स्थापना व्यवहार कैसे?–देखें निक्षेप - 5.7.6।
- सद्भाव व असद्भाव स्थापना के भेद।
- काष्ठकर्म आदि भेदों के लक्षण।
- नाम व स्थापना में अंतर।
- सद्भाव व असद्भाव स्थापना में अंतर।
- स्थापना व नोकर्म द्रव्य निक्षेप में अंतर।
- द्रव्यनिक्षेप के भेद व लक्षण
- द्रव्यनिक्षेप सामान्य का लक्षण।
- द्रव्यनिक्षेप के भेद-प्रभेद।
- आगम द्रव्यनिक्षेप का लक्षण।
- नो आगम द्रव्यनिक्षेप का लक्षण।
- ज्ञायक शरीर सामान्य व विशेष के लक्षण।
- भावि-नोआगम का लक्षण।
- तद्वयतिरिक्त सामान्य व विशेष के लक्षण। (1. सामान्य, 2. कर्म, 3. नोकर्म, 4-5. लौकिक लोकोत्तर नोकर्म, 6. सचित्तादि नोकर्म तद्वयतिरिक्त)
- स्थित जित आदि भेदों के लक्षण।
- ग्रंथिम आदि भेदों के लक्षण।
- द्रव्यनिक्षेप निर्देश व शंकाएँ
- द्रव्यनिक्षेप के लक्षण संबंधी शंका।
- * द्रव्यनिक्षेप व द्रव्य के लक्षणों का समन्वय।–देखें द्रव्य - 2.2
- आगम द्रव्य निक्षेप विषयक शंकाएँ।
- आगमद्रव्यनिक्षेप में द्रव्य निक्षेपपने की सिद्धि।
- उपयोग रहित की भी आगमसंज्ञा कैसे?
- नोआगमद्रव्य निक्षेप विषयक शंकाएँ।
- नोआगम में द्रव्यनिक्षेपपने की सिद्धि।
- भावी नोआगम में द्रव्य निक्षेपपने की सिद्धि।
- 3-4. कर्म व नोकर्म में द्रव्य निक्षेपपने की सिद्धि।
- ज्ञायक शरीर विषयक शंकाएँ।
- त्रिकाल ज्ञायकशरीर में द्रव्यनिक्षेपपने की सिद्धि।
- ज्ञायक शरीरों को नोआगम संज्ञा क्यों ?
- भूत व भावी शरीरों को नोआगमपना कैसे ?
- द्रव्य निक्षेप के भेदों में परस्पर अंतर।
- आगम व नोआगम में अंतर।
- भावी ज्ञायकशरीर व भावी नोआगम में अंतर।
- ज्ञायकशरीर और तद्वयतिरिक्त में अंतर।
- भाविनोआगम व तद्वयतिरिक्त में अंतर।
- भाव निक्षेप निर्देश व शंका आदि
- भावनिक्षेप सामान्य का लक्षण।
- भावनिक्षेप के भेद।
- आगम व नोआगम भाव के भेद व उदाहरण।
- आगम व नोआगम भाव के लक्षण।
- भावनिक्षेप के लक्षण की सिद्धि।
- आगमभाव में भावनिक्षेपपने की सिद्धि।
- आगम व नोआगम भाव में अंतर।
- द्रव्य व भाव निक्षेप में अंतर।
- निक्षेप सामान्य निर्देश
- निक्षेप सामान्य का लक्षण
राजवार्तिक 1/5/ –/28/12 न्यसनं न्यस्यत इति वा न्यासो निक्षेप इत्यर्थ:। सौंपना या धरोहर रखना निक्षेप कहलाता है। अर्थात् नामादिकों में वस्तु को रखने का नाम निक्षेप है।
धवला 1/1,1,1/ गा.11/17 उपायो न्यास उच्यते।11। =नामादि के द्वारा वस्तु में भेद करने के उपाय को न्यास या निक्षेप कहते हैं। ( तिलोयपण्णत्ति/1/83 ) धवला 4/1,3,1/2/6 संशये विपर्यये अनध्यवसाये वा स्थित तेभ्योऽपसार्य निश्चये क्षिपतीति निक्षेप:। अथवा बाह्यार्थ विकल्पो निक्षेप:। अप्रकृतनिराकरणद्वारेण प्रकृतप्ररूपको वा। =- संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय में अवस्थित वस्तु को उनसे निकालकर जो निश्चय में क्षेपण करता है उसे निक्षेप कहते हैं। अर्थात् जो अनिर्णीत वस्तु का नामादिक द्वारा निर्णय करावे, उसे निक्षेप कहते हैं। ( कषायपाहुड़ 2/1 2/475/425/7 ); ( धवला 1/1,1,1/10/4 ); ( धवला 13/5,3,5/3/11 ); ( धवला 13/5,5,3/198/4 ), (और भी देखें निक्षेप - 1.3)।
- अथवा बाहरी पदार्थ के विकल्प को निक्षेप कहते हैं। ( धवला 13/5,5,3/198/4 )।
- अथवा अप्रकृत का निराकरण करके प्रकृत का निरूपण करने वाला निक्षेप है। (और भी देखें निक्षेप - 1.4); ( धवला 9/4,1,45/141/1 ); ( धवला 13/5,5,3/198/4 )।
आलापपद्धति/9 प्रमाणनययोर्निक्षेप आरोपणं स नामस्थापनादिभेदचतुर्विधं इति निक्षेपस्य व्युत्पत्ति:। =प्रमाण या नय का आरोपण या निक्षेप नाम स्थापना आदिरूप चार प्रकारों से होता है। यही निक्षेप की व्युत्पत्ति है।
नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/48 वस्तु नामादिषु क्षिपतीति निक्षेप:। =वस्तु का नामादिक में क्षेप करने या धरोहर रखने को निक्षेप कहते हैं।
नयचक्र बृहद्/269 जुत्तीसुजुत्तमग्गे जं चउभेयेण होइ खलु ठवणं। वज्जे सदि णामादिसु तं णिक्खेवं हवे समये।269। =युक्तिमार्ग से प्रयोजनवश जो वस्तु को नाम आदि चार भेदों में क्षेपण करे उसे आगम में निक्षेप कहा जाता है।
- निक्षेप के भेद
- चार भेद
तत्त्वार्थसूत्र/1/5 नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तंत्र्यास:। =नाम, स्थापना, द्रव्य और भावरूप से उनका अर्थात् सम्यग्दर्शनादि का और जीव आदि का न्यास अर्थात् निक्षेप होता है। ( षट्खंडागम 13/5,5/ सु.4/198); ( धवला 1/1,1,1/83/1 ); ( धवला 4/1,3,1/ गा.2/3); ( आलापपद्धति/9 ); ( नयचक्र बृहद्/271 ); ( नयचक्र / श्रुतभवन दीपक/48 ); ( गोम्मटसार कर्मकांड 52/52 ); ( पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/741 )।
- छह भेद
षट्खंडागम 14/5,6/ सूत्र 71/51 वग्गण्णणिक्खेवे त्ति छव्विहे वग्गणणिक्खेवेणामवग्गणा ठंवणवग्गणा दव्वग्गणा खेत्तवग्गणा कालवग्गणा भाववगगणा चेदि। =वर्गणानिक्षेप का प्रकरण है। वर्गणा निक्षेप छह प्रकार का है–नामवर्गणा, स्थापनावर्गणा, द्रव्यवर्गणा, क्षेत्रवर्गणा, कालवर्गणा और भाववर्गणा। ( धवला 1/1,1,1/10/4 )।
नोट―षट्खंडागम व धवला में सर्वत्र प्राय: इन छह निक्षेपों के आश्रय से ही प्रत्येक प्रकरण की व्याख्या की गयी है।
- अनंत भेद
श्लोकवार्तिक/2/1/5/ श्लो.71/282 नंवनंत: पदार्थानां निक्षेपो वाच्य इत्यसन् । नामादिष्वेव तस्यांतर्भावात्संक्षेपरूपत:।71। =प्रश्न–पदार्थों के निक्षेप अनंत कहने चाहिए ? उत्तर–उन अनंत निक्षेपों का संक्षेपरूप से चार में ही अंतर्भाव हो जाता है। अर्थात् संक्षेप से निक्षेप चार हैं और विस्तार से अनंत। ( धवला 14/5,6,71/51/14 )
- निक्षेप भेद प्रभेदों की तालिका
चार्ट
- चार भेद
- प्रमाण नय व निक्षेप में अंतर
तिलोयपण्णत्ति/1/83 णाणं होदि पमाणं णओ वि णादुस्स हिदियभावत्थो। णिक्खेओ वि उवाओ जुत्तीए अत्थपडिगहणं।83। =सम्यग्ज्ञान को प्रमाण और ज्ञाता के हृदय के अभिप्राय को नय कहते हैं। निक्षेप उपायस्वरूप है। अर्थात् नामादि के द्वारा वस्तु के भेद करने के उपाय को निक्षेप कहते हैं। युक्ति से अर्थात् नय व निक्षेप से अर्थ का प्रतिग्रहण करना चाहिए।83। ( धवला 1/1,1,1/ गा.11/17);
नयचक्र बृहद्/172 वत्थू पमाणविसयं णयविसयं हवइ वत्थुएयंसं। जं दोहि णिण्णयट्ठं तं णिक्खेवे हवे विसयं।=संपूर्ण वस्तु प्रमाण का विषय है और उसका एक अंश नय का विषय है। इन दोनों से निर्णय किया गया पदार्थ निक्षेप में विषय होता है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध/739-740 ननु निक्षेपो न नयो न च प्रमाणं न चांशकं तस्य। पृथगुद्देश्यत्वादपि पृथगिव लक्ष्यं स्वलक्षणादिति चेत् ।739। सत्यं गुणसापेक्षो सविपक्ष: स च नय: स्वयं क्षिपति। य इह गुणाक्षेप: स्यादुपचरित: केवलं स निक्षेप:।740। =प्रश्न–निक्षेप न तो नय है और न प्रमाण है तथा न प्रमाण व नय का अंश है, किंतु अपने लक्षण से वह पृथक् ही लक्षित होता है, क्योंकि उसका उद्देश पृथक् है ? उत्तर–ठीक है, किंतु गुणों की अपेक्षा से उत्पन्न होने वाला और विपक्ष की अपेक्षा रखने वाला जो नय है, वह स्वयं जिसका आक्षेप करता है, ऐसा केवल उपचरित गुणाक्षेप ही निक्षेप कहलाता है। (नय और निक्षेप में विषय-विषयी भाव है। नाम, स्थापना, द्रव्य और भावरूप से जो नयों के द्वारा पदार्थों में एक प्रकार का आरोप किया जाता है, उसे निक्षेप कहते हैं। जैसे–शब्द नय से ‘घट’ शब्द ही मानो घट पदार्थ है।)
- निक्षेप निर्देश का कारण व प्रयोजन
तिलोयपण्णत्ति/1/82 जो ण पमाणणयेहिं णिक्खेवेणं णिरक्खदे अत्थं। तस्साजुत्तं जुत्तं जुत्तमजुत्तं च पडिहादि।82। =जो प्रमाण तथा निक्षेप से अर्थ का निरीक्षण नहीं करता है उसको अयुक्त पदार्थ युक्त और युक्त पदार्थ अयुक्त ही प्रतीत होता है।82। ( धवला 1/1,1,1/ गा.10/16) ( धवला 3/1,2,15/ गा.61/126)।
धवला 1/1,1,1/ गा.15/31 अवगयणिवारणट्ठं पयदस्स परूवणा णिमित्तं च। संसयविणासणट्ठं तच्चत्त्थवधारणट्ठं च।15।
धवला 1/1,1,1/ गा.30-31 त्रिविधा: श्रोतार:, अब्युत्पन्न: अवगताशेषविवक्षितपदार्थ: एकदेशतोऽवगतविवक्षितपदार्थ इति। ...तत्र यद्यव्युत्पन्न: पर्यायार्थिको भवेन्निक्षेप: क्रियते अव्युत्पादनमुखेन अप्रकृतनिराकरणाय। अथ द्रव्यार्थिक: तद्द्वारेण प्रकृतप्ररूपणायाशेषनिक्षेप। उच्यंते। ...द्वितीयतृतीययो: संशयितयो: संशयविनाशायाशेषनिक्षेपकथनम् । तयोरेव विपर्यस्यतो: प्रकृतार्थावधारणार्थ निक्षेप: क्रियते। =अप्रकृत विषय के निवारण करने के लिए प्रकृत विषय के प्ररूपण के लिए संशय का विनाश करने के लिए और तत्त्वार्थ का निश्चय करने के लिए निक्षेपों का कथन करना चाहिए। ( धवला 3/1,2,2/ गा.12/17); ( धवला 4/1,3,1/ गा.1/2); ( धवला 14/5,6,71/ गा.1/51) ( सर्वार्थसिद्धि/1/5/8/11 ) (इसका खुलासा इस प्रकार है कि–) श्रोता तीन प्रकार के होते हैं–अव्युत्पन्न श्रोता, संपूर्ण विवक्षित पदार्थ को जानने वाला श्रोता, एकदेश विवक्षित पदार्थ को जानने वाला श्रोता (विशेष देखें श्रोता )। तहाँ अव्युत्पन्न श्रोता यदि पर्याय (विशेष) का अर्थी है तो उसे प्रकृत विषय की व्युत्पत्ति के द्वारा अप्रकृत विषय के निराकरण करने के लिए निक्षेप का कथन करना चाहिए। यदि वह श्रोता द्रव्य(सामान्य) का अर्थी है तो भी प्रकृत पदार्थ के प्ररूपण के लिए संपूर्ण निक्षेप कहे जाते हैं। दूसरी व तीसरी जाति के श्रोताओं को यदि संदेह हो तो उनके संदेह को दूर करने के लिए अथवा यदि उन्हें विपर्यय ज्ञान हो तो प्रकृत वस्तु के निर्णय के लिए संपूर्ण निक्षेपों का कथन किया जाता है। (और भी देखें आगे निक्षेप - 1.5)।
सर्वार्थसिद्धि/1/5/19/1 निक्षेपविधिना शब्दार्थ: प्रस्तीर्यते। =किस शब्द का क्या अर्थ है, यह निक्षेपविधि के द्वारा विस्तार से बताया जाता है।
राजवार्तिक/1/5/20/30/21 लोके हि सर्वैर्नामादिभिर्दृष्ट: संव्यवहार:।=एक ही वस्तु में लोक व्यवहार में नामादि चारों व्यवहार देखे जाते हैं। (जैसे–‘इंद्र’ शब्द को भी इंद्र कहते हैं; इंद्र की मूर्ति को भी इंद्र कहते हैं, इंद्रपद से च्युत होकर मनुष्य होने वाले को भी इंद्र कहते हैं और शचीपति को भी इंद्र कहते हैं) (विशेष देखें आगे शीर्षक नं - 6)
धवला 1/1,1,1/31/9 निक्षेपविस्पृष्ट: सिद्धांतो वर्ण्यमानो वक्तु: श्रोतुश्चोत्त्थानं कुर्यादिति वा।=अथवा निक्षेपों को छोड़कर वर्णन किया गया सिद्धांत संभव है, कि वक्ता और श्रोता दोनों को कुमार्ग में ले जावे, इसलिए भी निक्षेपों का कथन करना चाहिए। ( धवला 3/1,2,15/126/6 )।
नयचक्र बृहद्/270,281,282 दव्वं विविहसहावं जेण सहावेण होइ तं ज्झेयं। तस्स णिमित्तं कीरइ एक्कं पिय दव्वं चउभेयं।270। णिक्खेवणयपमाणं णादूणं भावयंत्ति जे तच्चं। ते तत्थतच्चमग्गे लहंति लग्गा हु तत्थयं तच्च।281। गुणपंजयाण लक्खण सहाव णिक्खेवणयपमाणं वा। जाणदि जदि सवियप्पं दव्वसहावं खु बुज्झेदि।282। =द्रव्य विविध स्वभाववाला है। उनमें से जिस जिस स्वभावरूप से वह ध्येय होता है, उस उसके निमित्त ही एक द्रव्य को नामादि चार भेद रूप कर दिया जाता है।270। जो निक्षेप नय व प्रमाण को जानकर तत्त्व को भाते हैं वे तथ्यतत्त्वमार्ग में संलग्न होकर तथ्य तत्त्व को प्राप्त करते हैं।281। जो व्यक्ति गुण व पर्यायों के लक्षण, उनके स्वभाव, निक्षेप, नय व प्रमाण को जानता है वही सर्व विशेषों से युक्त द्रव्यस्वभाव को जानता है।282।
- नयों से पृथक् निक्षेपों का निर्देश क्यों
राजवार्तिक/1/5/32-33/32/10 द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकांतर्भावांनामादीनां तयोश्च नयशब्दाभिधेयत्वात् पौनुरुक्त्यप्रसंग:।32। न वा एष दोष:। ...ये सुमेधसो विनेयास्तेषां द्वाभ्यामेव द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकाभ्यां सर्वनयवक्तव्यार्थ प्रतिपत्ति: तदंतर्भावात् । ये त्वतो मंदमेधस: तेषां व्यादिनयविकल्पनिरूपणम् । अतो विशेषोपपत्तेर्नामादीनामपुनरुक्तत्वम् ।=प्रश्न–द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नयों में अंतर्भाव हो जाने के कारण–देखें निक्षेप - 2, और उन नयों को पृथक् से कथन किया जाने के कारण, इन नामादि निक्षेपों का पृथक् कथन करने से पुनरुक्ति होती है। उत्तर–यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जो विद्वान् शिष्य हैं वे दो नयों के द्वारा ही सभी नयों के वक्तव्य प्रतिपाद्य अर्थों को जान लेते हैं, पर जो मंदबुद्धि शिष्य हैं, उनके लिए पृथक् नय और निक्षेप का कथन करना ही चाहिए। अत: विशेष ज्ञान कराने के कारण नामादि निक्षेपों का कथन पुनरुक्त नहीं है।
- चारों निक्षेपों का सार्थक्य व विरोध का निरास
राजवार्तिक/1/5/19-30/30/16 अत्राह नामादिचतुष्टयस्याभाव:। कुत:। विरोधात् । एकस्य शबदार्थस्य नामादिचतुष्टयं विरुध्यते। यथा नामैकं नामैव न स्थापना। अथ नाम स्थापना इष्यते न नामेदं नाम। स्थापना तर्हि; न चेयं स्थापना, नामेदम् । अतो नामार्थ एको विरोधान्न स्थापना। तथैकस्य जीवादेरर्थस्य सम्यग्दर्शनादेर्वा विरोधान्नामाद्यभाव इति।19। न वैष दोष:। किं कारणम् । सर्वेषां संव्यवहारं प्रत्यविरोधान् । लोके हि सर्वैर्नामादिभिर्दृष्ट: संव्यवहार:। इंद्रो देवदत्त: इति नाम। प्रतिमादिषु चेंद्र इति स्थापना। इंद्रार्थे च काष्ठे द्रव्ये इंद्रसंव्यवहार: ‘इंद्र आनीत:’ इति वचनात् । अनागतपरिणामे चार्थे द्रव्यसंव्यवहारो लोके दृष्ट:–द्रव्यमयं माणवक:, आचार्य: श्रेष्ठी वैयाकरणो राजा वा भविष्यतीति व्यवहारदर्शनात् । शचीपतौ च भावे इंद्र इति। न च विरोध:। किंच।20। यथा नामैकं नामैवेष्यते न स्थापना इत्याचक्षाणेन त्वया अभिहितानवबोध: प्रकटीक्रियते। यतो नैवमाचक्ष्महे–‘नामैव स्थापना’ इति, किंतु एकस्यार्थस्य नामस्थापनाद्रव्यभावैर्न्यांस: इत्याचक्ष्महे।21। नैतदेकांतेन प्रतिजानीमहेनामैव स्थापना भवतीति न वा, स्थापना वा नाम भवति नेति च।22। ...यत एव नामादिचतुष्टयस्य विरोधं भवानाचष्टे अतएव नाभाव:। कथम् । इह योऽयं सहानवस्थानलक्षणो विरोधो बध्यघातकवत्, स सतामर्थानां भवति नासतां काकोलूकछायातपवत्, न काकदंतखरविषाणयोर्विरोधोऽसत्त्वात् । किंच।24।...अथ अर्थांतरभावैऽपि विरोधकत्वमिष्यते; सर्वेषां पदार्थानां परस्परतो नित्यं विरोध: स्यात् । न चासावस्तीति। अतो विरोधाभाव:।25। स्यादेतत् ताद्गुण्याद् भाव एव प्रमाणं न नामादि:।...तन्न; किं कारणम् ।...एवं हि सति नामाद्याश्रयो व्यवहारो निवर्तेत। स चास्तीति। अतो न भावस्यैव प्रामाण्यम् ।26। ...यद्यपि भावस्यैव प्रामाण्यं तथापि नामादिव्यवहारो न निवर्तते। कुत:। उपचारात् ।...तत्र, किं कारणम् । तद्गुणाभावात् । युज्यते माणवके सिंहशब्दव्यवहार: क्रौर्यशौर्यादिगुणैकदेशयोगात्, इह तु नामादिषु जीवनादिगुणैकदेशो न कश्चिदप्यस्तीत्युपचाराभावाद् व्यवहारनिवृत्ति: स्यादेव।27। ...यद्युपचारान्नामादिव्यवहार: स्यात् ‘गौणमुख्ययोर्मुख्ये संप्रत्यय:’ इति मुख्यस्यैव संप्रत्यय: स्यान्न नामादीनाम् । यतस्त्वर्थप्रकरणादिविशेषलिंगाभावे सर्वत्र संप्रत्यय: अविशिष्ट: कृतसंगतेर्भवति, अतो न नामादिषूपचाराद् व्यवहार:।28। ...स्यादेतत्–कृत्रिमाकृत्रिमयो: कृत्रिमे संप्रत्ययो भवतीति लोके। तन्न; किं कारणम् । उभयगतिदर्शनात् । लोके ह्यर्थात् प्रकरणाद्वा कृत्रिमे संप्रत्यय: स्यात् अर्थो वास्यैवंसंज्ञकेन भवति।29। ...नामसामान्यापेक्षया स्यादकृत्रिमं विशेषापेक्षया कृत्रिमम् । एवं स्थापनादयश्चेति।30। =प्रश्न–विरोध होने के कारण एक जीवादि अर्थ के नामादि चार निक्षेप नही हो सकते। जैसे–नाम नाम ही है, स्थापना नहीं। यदि उसे स्थापना माना जाता है तो उसे नाम नही कह सकते; यदि नाम कहते हैं तो स्थापना नहीं कह सकते, क्योंकि उनमें विरोध है?।19। उत्तर–- एक ही वस्तु के लोकव्यवहार में नामादि चारों व्यवहार देखे जाते हैं, अत: उनमें कोई विरोध नहीं है। उदाहरणार्थ इंद्र नाम का व्यक्ति है (नाम निक्षेप) मूर्ति में इंद्र की स्थापना होती है। इंद्र के लिए लाये गये काष्ठ को भी लोग इंद्र कह देते हैं (सद्भाव व असद्भाव स्थापना)। आगे की पर्याय की योग्यता से भी इंद्र, राजा, सेठ आदि व्यवहार होते हैं (द्रव्य निक्षेप)। तथा शचीपति को इंद्र कहना प्रसिद्ध ही है (भाव निक्षेप)।20। ( श्लोकवार्तिक 2/1/5/ श्लो.79-82/288)
- ‘नाम नाम ही है स्थापना नहीं’ यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, यहाँ यह नहीं कहा जा रहा है कि नाम स्थापना है, किंतु नाम स्थापना द्रव्य और भाव से एक वस्तु में चार प्रकार से व्यवहार करने की बात है।21।
- (पदार्थ व उसके नामादि में सर्वथा अभेद या भेद हो ऐसा भी नहीं है क्योंकि अनेकांतवादियों के हाँ संज्ञा लक्षण प्रयोजन आदि तथा पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा कथंचित् भेद और द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा कथंचित् अभेद स्वीकार किया जाता है। ( श्लोकवार्तिक 2/1/5/73-87/284-313 );
- ‘नाम स्थापना ही है या स्थापना नहीं है’ ऐसा एकांत नहीं है; क्योंकि स्थापना में नाम अवश्य होता है पर नाम में स्थापना हो या न भी हो (देखें निक्षेप - 4/6) इसी प्रकार द्रव्य में भाव अवश्य होता है, पर भाव निक्षेप में द्रव्य विवक्षित हो अथवा न भी हों। (देखें निक्षेप - 7.8)।22।
- छाया और प्रकाश तथा कौआ और उल्लू में पाया जाने वाला सहानवस्थान और बध्यघातक विरोध विद्यमान ही पदार्थों में होता है, अविद्यमान खरविषाण आदि में नहीं। अत: विरोध की संभावना से ही नामादि चतुष्टय का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है।24।
- यदि अर्थांतररूप होने के कारण इनमें विरोध मानते हो, तब तो सभी पदार्थ परस्पर एक दूसरे के विरोधक हो जायेंगे।25।
- प्रश्न–भावनिक्षेप में वे गुण आदि पाये जाते हैं अत: इसे ही सत्य कहा जा सकता है नामादिक को नहीं? उत्तर–ऐसा मानने पर तो नाम स्थापना और द्रव्य से होने वाले यावत् लोक व्यवहारों का लोप हो जायेगा। लोक व्यवहार में बहुभाग तो नामादि तीन का ही है।26।
- यदि कहो कि व्यवहार तो उपचार से हैं, अत: उनका लोप नहीं होता है, तो यह भी ठीक नहीं है; क्योंकि बच्चे में क्रूरता शूरता आदि गुणों का एकदेश देखकर, उपचार से सिंह-व्यवहार तो उचित है, पर नामादि में तो उन गुणों का एकदेश भी नहीं पाया जाता अत: नामाद्याश्रित व्यवहार औपचारिक भी नहीं कहे जा सकते।27। यदि फिर भी उसे औपचारिक ही मानते हो तो ‘गौण और मुख्य में मुख्य का ही ज्ञान होता है इस नियम के अनुसार मुख्यरूप ‘भाव’ का ही संप्रत्यय होगा नामादिका मुख्य प्रत्यय भी देखा जाता है।28।
- ‘कृत्रिम और अकृत्रिम पदार्थों में कृत्रिम का ही बोध होता है’ यह नियम भी सर्वथा एक रूप नहीं है। क्योंकि इस नियम की उभयरूप से प्रवृत्ति देखी जाती है। लोक में अर्थ और प्रकरण से कृत्रिम में प्रत्यय होता है, परंतु अर्थ व प्रकरण से अनभिज्ञ व्यक्ति में तो कृत्रिम व अकृत्रिम दोनों का ज्ञान हो जाता है जैसे किसी गँवार व्यक्ति को ‘गोपाल को लाओ’ कहने पर वह गोपाल नामक व्यक्ति तथा ग्वाला दोनों को ला सकता है।29। फिर सामान्य दृष्टि से नामादि भी तो अकृत्रिम ही हैं। अत: इनमें कृत्रिमत्व और अकृत्रिमत्व का अनेकांत है।30। श्लोकवार्तिक 2/1/5/87/312/24 कांचिदप्यर्थंक्रियां न नामादय: कुर्वंतीत्ययुक्तं तेषामवस्तुत्वप्रसंगात् । न चैतदुपपन्नं भाववन्नामादीनामबाधितप्रतीत्या वस्तुत्वसिद्धे:।
- ये चारों कोई भी अर्थक्रिया नहीं करते, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, ऐसा मानने से उनमें अवस्तुपने का प्रसंग आता है। परंतु भाववत् नाम आदिक में भी वस्तुत्व सिद्ध है। जैसे–नाम निक्षेप संज्ञा-संज्ञेय व्यवहार को कराता है, इत्यादि।
- निक्षेप सामान्य का लक्षण