व्यंतर लोक निर्देश: Difference between revisions
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1">व्यंतर लोक सामान्य परिचय</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.1" id="4.1">व्यंतर लोक सामान्य परिचय</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/6/5 </span><span class="PrakritGatha">रज्जुकदी गुणिदव्वा णवणउदिसहस्स अधियलक्खेणं। तम्मज्झे तिवियप्पा वेंतरदेवाण होंति पुरा।5।</span> = <span class="HindiText">राजु के वर्ग को 199000 से गुणा करने पर जो प्राप्त हो उसके मध्य में तीन प्रकार के पुर होते हैं।5। </span><br /> | <span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/6/5 </span><span class="PrakritGatha">रज्जुकदी गुणिदव्वा णवणउदिसहस्स अधियलक्खेणं। तम्मज्झे तिवियप्पा वेंतरदेवाण होंति पुरा।5।</span> = <span class="HindiText">राजु के वर्ग को 199000 से गुणा करने पर जो प्राप्त हो उसके मध्य में तीन प्रकार के पुर होते हैं।5। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> त्रिलोकसार/295 </span><span class="PrakritGatha">चित्तवइरादु जावय मेरुदयं तिरिय लोयवित्थारं। भोम्मा हवंति भवणे भवणपुरावासगे जोग्गे।296।</span> = <span class="HindiText">चित्रा और वज्रा पृथिवी की मध्यसंधि से लगाकर मेरु पर्वत की ऊँचाई तक, तथा तिर्यक् लोक के विस्तार प्रमाण लंबे | <span class="GRef"> त्रिलोकसार/295 </span><span class="PrakritGatha">चित्तवइरादु जावय मेरुदयं तिरिय लोयवित्थारं। भोम्मा हवंति भवणे भवणपुरावासगे जोग्गे।296।</span> = <span class="HindiText">चित्रा और वज्रा पृथिवी की मध्यसंधि से लगाकर मेरु पर्वत की ऊँचाई तक, तथा तिर्यक् लोक के विस्तार प्रमाण लंबे चौड़े क्षेत्र में व्यंतर देव भवन भवनपुर और आवासों में वास करते हैं।296।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/145 </span><span class="PrakritGatha">खरभाय पंकभाए भावणदेवाण होंति भवणाणि। विंतरदेवाण तहा दुण्हं पि य तिरियलोयम्मि।145।</span> = <span class="HindiText">खरभाग और पंकभाग में भवनवासी देवों के भवन हैं और व्यंतरों के भी निवास हैं। तथा इन दोनों के तिर्यकलोक में भी निवास स्थान हैं।145। (पंकभाग = 84000 यो. ; खरभाग = 16000 यो. ; मेरु की पृथिवी पर ऊँचाई = 99000 यो.। तीनों का योग = 199000 यो.। तिर्यक् लोक का विस्तार 1 राजु2। कुल घनक्षेत्र = 1 राजु2 x199000 यो.)।<br /> | <span class="GRef"> कार्तिकेयानुप्रेक्षा/145 </span><span class="PrakritGatha">खरभाय पंकभाए भावणदेवाण होंति भवणाणि। विंतरदेवाण तहा दुण्हं पि य तिरियलोयम्मि।145।</span> = <span class="HindiText">खरभाग और पंकभाग में भवनवासी देवों के भवन हैं और व्यंतरों के भी निवास हैं। तथा इन दोनों के तिर्यकलोक में भी निवास स्थान हैं।145। (पंकभाग = 84000 यो. ; खरभाग = 16000 यो. ; मेरु की पृथिवी पर ऊँचाई = 99000 यो.। तीनों का योग = 199000 यो.। तिर्यक् लोक का विस्तार 1 राजु2। कुल घनक्षेत्र = 1 राजु2 x199000 यो.)।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2">निवासस्थानों के भेद व लक्षण</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.2" id="4.2">निवासस्थानों के भेद व लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/6/6-7 </span><span class="PrakritText"> भवणं भवणपुराणिं आवासा इय भवंति तिवियप्पा। ...।6। रंयणप्पहपुढवीए भवणाणिं दीउवहिउवरिम्मि। भवणपुराणिं दहगिरि पहुदीणं उवरि आवासा।7।</span> = <span class="HindiText">(व्यंतरों के) भवन, भवनपुर व आवास तीन प्रकार के निवास कहे गये हैं।6। इनमें से रत्नप्रभा पृथिवी में अर्थात् खर व पंक भाग में भवन, द्वीप व समुद्रों के ऊपर भवनपुर तथा द्रह एवं पर्वतादि के ऊपर आवास होते हैं।(<span class="GRef"> त्रिलोकसार/294-295 </span>)।</span><br /> | <span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/6/6-7 </span><span class="PrakritText"> भवणं भवणपुराणिं आवासा इय भवंति तिवियप्पा। ...।6। रंयणप्पहपुढवीए भवणाणिं दीउवहिउवरिम्मि। भवणपुराणिं दहगिरि पहुदीणं उवरि आवासा।7।</span> = <span class="HindiText">(व्यंतरों के) भवन, भवनपुर व आवास तीन प्रकार के निवास कहे गये हैं।6। इनमें से रत्नप्रभा पृथिवी में अर्थात् खर व पंक भाग में भवन, द्वीप व समुद्रों के ऊपर भवनपुर तथा द्रह एवं पर्वतादि के ऊपर आवास होते हैं।(<span class="GRef"> त्रिलोकसार/294-295 </span>)।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> महापुराण/31/113 </span><span class="SanskritGatha"> वटस्थानवटस्थांश्च कूटस्थान् कोटरोटजान् । अक्षपाटान् क्षपाटांश्च विद्धि नः सार्व सर्वगान्।113। </span>=<span class="HindiText"> हे सार्व (भरतेश) ! वट के वृक्षों पर, छोटे-छोटे गड्ढों में, | <span class="GRef"> महापुराण/31/113 </span><span class="SanskritGatha"> वटस्थानवटस्थांश्च कूटस्थान् कोटरोटजान् । अक्षपाटान् क्षपाटांश्च विद्धि नः सार्व सर्वगान्।113। </span>=<span class="HindiText"> हे सार्व (भरतेश) ! वट के वृक्षों पर, छोटे-छोटे गड्ढों में, पहाड़ों के शिखरों पर, वृक्षों की खोलों और पत्तों की झोपड़ियों में रहनेवाले तथा दिन रात भ्रमण करने वाले हम लोगों को आप सब जगह जाने वाले समझिए।<br /> | ||
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<li><span class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> व्यंतरों के भवनों व नगरों आदि की संख्या</strong> </span><br /> | <li><span class="HindiText"><strong name="4.3" id="4.3"> व्यंतरों के भवनों व नगरों आदि की संख्या</strong> </span><br /> | ||
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<li><span class="HindiText"> भवनों के बहुमध्य भाग में चार वन और तोरण द्वारों सहित कूट होते हैं।11। जिनके ऊपर जिनमंदिर स्थित हैं।12। इन कूटों के चारों ओर सात आठ मंजिले प्रासाद होते हैं।18। इन प्रासादों का संपूर्ण वर्णन भवनवासी देवों के भवनों के समान है।20। (विशेष देखें [[ भवन#4.5 | भवन - 4.5]]); <span class="GRef"> त्रिलोकसार/299 </span>)। </span></li> | <li><span class="HindiText"> भवनों के बहुमध्य भाग में चार वन और तोरण द्वारों सहित कूट होते हैं।11। जिनके ऊपर जिनमंदिर स्थित हैं।12। इन कूटों के चारों ओर सात आठ मंजिले प्रासाद होते हैं।18। इन प्रासादों का संपूर्ण वर्णन भवनवासी देवों के भवनों के समान है।20। (विशेष देखें [[ भवन#4.5 | भवन - 4.5]]); <span class="GRef"> त्रिलोकसार/299 </span>)। </span></li> | ||
<li><span class="HindiText"> आठों व्यंतरदेवों के नगर क्रम से अंजनक वज्रधातुक, सुवर्ण, मनःशिलक, वज्र, रजत, हिंगुलक और हरिताल इन आठ द्वीपों में स्थित हैं।60। द्वीप की पूर्वादि दिशाओं में पाँच पाँच नगर होते हैं, जो उन देवों के नामों से अंकित हैं। जैसे किन्नरप्रभ, किंनरक्रांत, किन्नरावर्त, किन्नरमध्य।61। जंबूद्वीप के समान इन द्वीपों में दक्षिण इंद्र दक्षिण भाग में और उत्तर इंद्र उत्तर भाग में निवास करते हैं।62। सम चौकोण रूप से स्थित उन पुरों के सुवर्णमय कोट विजय देव के नगर के कोट के (देखें [[ अगला संदर्भ ]]) चतुर्थ भागप्रमाण है।63। उन नगरों के बाहर पूर्वादि चारों दिशाओं में अशोक, सप्तच्छद, चंपक तथा आम्रवृक्षों के वन हैं।64। वे वन 1,00,000 योजन लंबे और 50,000 योजन | <li><span class="HindiText"> आठों व्यंतरदेवों के नगर क्रम से अंजनक वज्रधातुक, सुवर्ण, मनःशिलक, वज्र, रजत, हिंगुलक और हरिताल इन आठ द्वीपों में स्थित हैं।60। द्वीप की पूर्वादि दिशाओं में पाँच पाँच नगर होते हैं, जो उन देवों के नामों से अंकित हैं। जैसे किन्नरप्रभ, किंनरक्रांत, किन्नरावर्त, किन्नरमध्य।61। जंबूद्वीप के समान इन द्वीपों में दक्षिण इंद्र दक्षिण भाग में और उत्तर इंद्र उत्तर भाग में निवास करते हैं।62। सम चौकोण रूप से स्थित उन पुरों के सुवर्णमय कोट विजय देव के नगर के कोट के (देखें [[ अगला संदर्भ ]]) चतुर्थ भागप्रमाण है।63। उन नगरों के बाहर पूर्वादि चारों दिशाओं में अशोक, सप्तच्छद, चंपक तथा आम्रवृक्षों के वन हैं।64। वे वन 1,00,000 योजन लंबे और 50,000 योजन चौड़े हैं।65। उन नगरों में दिव्य प्रसाद हैं।66। (प्रासादों का वर्णन ऊपर भवन व भवनपुर के वर्णन में किया है।) (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/283-289 </span>)।<br /> | ||
<span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/ </span>श्लोक का भावार्थ – विजयदेव का उपरोक्त नगर 12 योजन | <span class="GRef"> हरिवंशपुराण/5/ </span>श्लोक का भावार्थ – विजयदेव का उपरोक्त नगर 12 योजन चौड़ा है। चारों ओर चार तोरण द्वार हैं। एक कोट से वेष्टित है।397-399। इस कोट की प्रत्येक दिशा में 25-25 गोपुर हैं।400। जिनकी 17-17 मंजिल हैं।402। उनके मध्य देवों की उत्पत्तिका स्थान है जिसके चारों ओर एक वेदिका है।403-404। नगर के मध्य गोपुर के समान एक विशाल भवन है।405। उसकी चारों दिशाओं में अन्य भी अनेक भवन हैं।406। (इस पहले मंडल की भाँति इसके चारों तरफ एक के पश्चात् एक अन्य भी पाँच मंडल हैं)। सभी में प्रथम मंडल की भाँति ही भवनों की रचना है। पहले, तीसरे व पाँचवें मंडलों के भवनों का विस्तार उत्तरोत्तर आधा-आधा है। दूसरे, चौथे व छठे मंडलों के भवनों का विस्तार क्रमश: पहले, तीसरे, व पाँचवें के समान है।407-409। बीच के भवन में विजयदेव का सिंहासन है।411। जिसकी दिशाओं और विदिशाओं में उसके सामानिक आदि देवों के सिंहासन हैं।412-415। भवन के उत्तर में सुधर्मा सभा है।417। उस सभा के उत्तर में एक जिनालय है, पश्चिमोत्तर में उपपार्श्व सभा है। इन दोनों का विस्तार सुधर्मा सभा के समान है। 418-419। विजयदेव के नगर में सब मिलकर 5467 भवन हैं।420। <br /> | ||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/245-2452 </span>का भावार्थ – लवण समुद्र की अभ्यंतर वेदी के ऊपर तथा उसके बहुमध्य भाग में 700 योजन ऊपर जाकर आकाश में क्रम से 42000 व 28000 नगरियाँ हैं। <br /> | <span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/4/245-2452 </span>का भावार्थ – लवण समुद्र की अभ्यंतर वेदी के ऊपर तथा उसके बहुमध्य भाग में 700 योजन ऊपर जाकर आकाश में क्रम से 42000 व 28000 नगरियाँ हैं। <br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong name="4.8.1" id="4.8.1"> सामान्य प्ररूपणा <br> | <li class="HindiText"><strong name="4.8.1" id="4.8.1"> सामान्य प्ररूपणा <br> | ||
</strong><span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/6/ </span>गा. का भावार्थ – 1. उत्कृष्ट भवनों का विस्तार और बाहल्य क्रम से 12000 व 300 योजन है। जघन्य भवनों का 25 व 1 योजन अथवा 1 कोश है।8-10। उत्कृष्ट भवनपुरों का 1000,00 योजन और जघन्य का 1 योजन है।21। (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/300 </span>में उत्कृष्ट भवनपुर का विस्तार 100,000 योजन बताया है।) उत्कृष्ट आवास 12200 योजन और जघन्य 3 कोश प्रमाण विस्तार वाले हैं। (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/298-300 </span>)। (नोट – ऊँचाई सर्वत्र लंबाई व | </strong><span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/6/ </span>गा. का भावार्थ – 1. उत्कृष्ट भवनों का विस्तार और बाहल्य क्रम से 12000 व 300 योजन है। जघन्य भवनों का 25 व 1 योजन अथवा 1 कोश है।8-10। उत्कृष्ट भवनपुरों का 1000,00 योजन और जघन्य का 1 योजन है।21। (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/300 </span>में उत्कृष्ट भवनपुर का विस्तार 100,000 योजन बताया है।) उत्कृष्ट आवास 12200 योजन और जघन्य 3 कोश प्रमाण विस्तार वाले हैं। (<span class="GRef"> त्रिलोकसार/298-300 </span>)। (नोट – ऊँचाई सर्वत्र लंबाई व चौड़ाई के मध्यवर्ती जानना, जैसे 100 यो. लंबा और 50 यो. चौड़ा हो तो ऊँचा 75 यो. होगा। कूटाकार प्रासादों का विस्तार मूल में 3, मध्य में 2 और ऊपर 1 होता है। ऊँचाई मध्य विस्तार के समान होती है।</li> | ||
<li class="HindiText"><strong name="4.8.2" id="4.8.2"> विशेष प्ररूपणा</strong> </li> | <li class="HindiText"><strong name="4.8.2" id="4.8.2"> विशेष प्ररूपणा</strong> </li> | ||
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Revision as of 12:33, 1 January 2021
- व्यंतर लोक निर्देश
- व्यंतर लोक सामान्य परिचय
तिलोयपण्णत्ति/6/5 रज्जुकदी गुणिदव्वा णवणउदिसहस्स अधियलक्खेणं। तम्मज्झे तिवियप्पा वेंतरदेवाण होंति पुरा।5। = राजु के वर्ग को 199000 से गुणा करने पर जो प्राप्त हो उसके मध्य में तीन प्रकार के पुर होते हैं।5।
त्रिलोकसार/295 चित्तवइरादु जावय मेरुदयं तिरिय लोयवित्थारं। भोम्मा हवंति भवणे भवणपुरावासगे जोग्गे।296। = चित्रा और वज्रा पृथिवी की मध्यसंधि से लगाकर मेरु पर्वत की ऊँचाई तक, तथा तिर्यक् लोक के विस्तार प्रमाण लंबे चौड़े क्षेत्र में व्यंतर देव भवन भवनपुर और आवासों में वास करते हैं।296।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/145 खरभाय पंकभाए भावणदेवाण होंति भवणाणि। विंतरदेवाण तहा दुण्हं पि य तिरियलोयम्मि।145। = खरभाग और पंकभाग में भवनवासी देवों के भवन हैं और व्यंतरों के भी निवास हैं। तथा इन दोनों के तिर्यकलोक में भी निवास स्थान हैं।145। (पंकभाग = 84000 यो. ; खरभाग = 16000 यो. ; मेरु की पृथिवी पर ऊँचाई = 99000 यो.। तीनों का योग = 199000 यो.। तिर्यक् लोक का विस्तार 1 राजु2। कुल घनक्षेत्र = 1 राजु2 x199000 यो.)।
- निवासस्थानों के भेद व लक्षण
तिलोयपण्णत्ति/6/6-7 भवणं भवणपुराणिं आवासा इय भवंति तिवियप्पा। ...।6। रंयणप्पहपुढवीए भवणाणिं दीउवहिउवरिम्मि। भवणपुराणिं दहगिरि पहुदीणं उवरि आवासा।7। = (व्यंतरों के) भवन, भवनपुर व आवास तीन प्रकार के निवास कहे गये हैं।6। इनमें से रत्नप्रभा पृथिवी में अर्थात् खर व पंक भाग में भवन, द्वीप व समुद्रों के ऊपर भवनपुर तथा द्रह एवं पर्वतादि के ऊपर आवास होते हैं।( त्रिलोकसार/294-295 )।
महापुराण/31/113 वटस्थानवटस्थांश्च कूटस्थान् कोटरोटजान् । अक्षपाटान् क्षपाटांश्च विद्धि नः सार्व सर्वगान्।113। = हे सार्व (भरतेश) ! वट के वृक्षों पर, छोटे-छोटे गड्ढों में, पहाड़ों के शिखरों पर, वृक्षों की खोलों और पत्तों की झोपड़ियों में रहनेवाले तथा दिन रात भ्रमण करने वाले हम लोगों को आप सब जगह जाने वाले समझिए।
- व्यंतरों के भवनों व नगरों आदि की संख्या
तिलोयपण्णत्ति/6/ गा. एवंविहरुवाणिं तींस सहस्साणि भवणाणिं।20। चोद्दससहस्समेत्ता भवणा भूदाण रक्खसाणं पि। सोलससहस्ससंखा सेसाणं णत्थि भवणाणिं।26। जोयणसदत्तियकदीभजिदे पदरस्स संखभागम्मि । जं लद्धं तं माणं वेंतरलोए जिणपुराणं। =- इस प्रकार के रूपवाले ये प्रासाद तीस हजार प्रमाण हैं।20। तहाँ (खरभाग में) भूतों के 14000 प्रमाण और (पंकभाग में) राक्षसों के 16000 प्रमाण भवन हैं।26। ( हरिवंशपुराण/4/62 ); ( त्रिलोकसार/290 )= (जं.प. /11/136)।
- जगत्प्रतर के संख्यातभाग में 300 योजन के वर्ग का भाग देने पर जो लब्ध आवे उतना व्यंतरलोक में जिनपुरों का प्रमाण है।102।
- भवनों व नगरों आदि का स्वरूप
तिलोयपण्णत्ति/6/ गा. का भावार्थ।- भवनों के बहुमध्य भाग में चार वन और तोरण द्वारों सहित कूट होते हैं।11। जिनके ऊपर जिनमंदिर स्थित हैं।12। इन कूटों के चारों ओर सात आठ मंजिले प्रासाद होते हैं।18। इन प्रासादों का संपूर्ण वर्णन भवनवासी देवों के भवनों के समान है।20। (विशेष देखें भवन - 4.5); त्रिलोकसार/299 )।
- आठों व्यंतरदेवों के नगर क्रम से अंजनक वज्रधातुक, सुवर्ण, मनःशिलक, वज्र, रजत, हिंगुलक और हरिताल इन आठ द्वीपों में स्थित हैं।60। द्वीप की पूर्वादि दिशाओं में पाँच पाँच नगर होते हैं, जो उन देवों के नामों से अंकित हैं। जैसे किन्नरप्रभ, किंनरक्रांत, किन्नरावर्त, किन्नरमध्य।61। जंबूद्वीप के समान इन द्वीपों में दक्षिण इंद्र दक्षिण भाग में और उत्तर इंद्र उत्तर भाग में निवास करते हैं।62। सम चौकोण रूप से स्थित उन पुरों के सुवर्णमय कोट विजय देव के नगर के कोट के (देखें अगला संदर्भ ) चतुर्थ भागप्रमाण है।63। उन नगरों के बाहर पूर्वादि चारों दिशाओं में अशोक, सप्तच्छद, चंपक तथा आम्रवृक्षों के वन हैं।64। वे वन 1,00,000 योजन लंबे और 50,000 योजन चौड़े हैं।65। उन नगरों में दिव्य प्रसाद हैं।66। (प्रासादों का वर्णन ऊपर भवन व भवनपुर के वर्णन में किया है।) ( त्रिलोकसार/283-289 )।
हरिवंशपुराण/5/ श्लोक का भावार्थ – विजयदेव का उपरोक्त नगर 12 योजन चौड़ा है। चारों ओर चार तोरण द्वार हैं। एक कोट से वेष्टित है।397-399। इस कोट की प्रत्येक दिशा में 25-25 गोपुर हैं।400। जिनकी 17-17 मंजिल हैं।402। उनके मध्य देवों की उत्पत्तिका स्थान है जिसके चारों ओर एक वेदिका है।403-404। नगर के मध्य गोपुर के समान एक विशाल भवन है।405। उसकी चारों दिशाओं में अन्य भी अनेक भवन हैं।406। (इस पहले मंडल की भाँति इसके चारों तरफ एक के पश्चात् एक अन्य भी पाँच मंडल हैं)। सभी में प्रथम मंडल की भाँति ही भवनों की रचना है। पहले, तीसरे व पाँचवें मंडलों के भवनों का विस्तार उत्तरोत्तर आधा-आधा है। दूसरे, चौथे व छठे मंडलों के भवनों का विस्तार क्रमश: पहले, तीसरे, व पाँचवें के समान है।407-409। बीच के भवन में विजयदेव का सिंहासन है।411। जिसकी दिशाओं और विदिशाओं में उसके सामानिक आदि देवों के सिंहासन हैं।412-415। भवन के उत्तर में सुधर्मा सभा है।417। उस सभा के उत्तर में एक जिनालय है, पश्चिमोत्तर में उपपार्श्व सभा है। इन दोनों का विस्तार सुधर्मा सभा के समान है। 418-419। विजयदेव के नगर में सब मिलकर 5467 भवन हैं।420।
तिलोयपण्णत्ति/4/245-2452 का भावार्थ – लवण समुद्र की अभ्यंतर वेदी के ऊपर तथा उसके बहुमध्य भाग में 700 योजन ऊपर जाकर आकाश में क्रम से 42000 व 28000 नगरियाँ हैं।
- मध्य लोक में व्यंतरों व भवनवासियों के निवास
तिलोयपण्णत्ति/4/ गा.नं.
- व्यंतर लोक सामान्य परिचय
तिलोयपण्णत्ति/4/ गा. |
स्थान |
देव |
भवनादि |
25 |
जंबूद्वीप की जगती का अभ्यंतर भाग |
महोरग |
भवन |
77 |
उपरोक्त जगती का विजय द्वार के ऊपर आकाश में |
विजय |
नगर |
86 |
उपरोक्त ही अन्य द्वारों पर |
अन्य देव |
नगर |
140 |
विजयार्ध के दोनों पार्श्व |
आभियोग्य |
श्रेणी |
143 |
उपरोक्त श्रेणी का दक्षिणोत्तर भाग |
सौधर्मेंद के वाहन |
श्रेणी |
164 |
विजयार्ध के 8 कूट |
व्यंतर |
भवन |
275 |
वृषभगिरि के ऊपर |
वृषभ |
भवन |
1654 |
हिमवान् पर्वत के 10 कूट |
सौधर्मेंद्र के परिवार |
नगर |
1663 |
पद्म ह्रद के कूट |
व्यंतर |
नगर |
1365 |
पद्म ह्रद के जल में स्थित कूट |
व्यंतर |
नगर |
1672-1688 |
पद्म द्रह के कमल |
सपरिवार श्री देवी |
भवन |
1712 |
हैमवत क्षेत्र का शब्दवान् पर्वत |
शाली |
भवन |
1726 |
महाहिमवान् पर्वत के 7 कूट |
कूटों के नाम वाले |
नगर |
1733 |
महापद्म द्रह के बाह्य 5 कूट |
व्यंतर |
नगर |
1745 |
हरि क्षेत्र में विजयवान् नाभिगिरि |
चारण |
भवन |
1760 |
निषध पर्वत के आठ कूट |
कूटों के नामवाले |
नगर |
1768 |
निषध पर्वत के तिगिंछ ह्रद के बाह्य 5 कूट |
व्यंतर |
नगर |
1836-1839 |
सुमेरु पर्वत का पांडुक वन की पूर्व दिशा में |
लोकपाल सोम |
भवन |
1843 |
उपरोक्त वन की दक्षिण दिशा |
यम |
भवन |
1847 |
उपरोक्त वन की पश्चिम दिशा |
वरुण |
भवन |
1851 |
उपरोक्त वन की उत्तर दिशा |
कुबेर |
भवन |
1917 |
उपरोक्त वन की वापियों के चहुँ ओर |
देव |
भवन |
1943-1945 |
सुमेरु पर्वत के सौमनस वन की चारों दिशाओं में |
उपरोक्त 4 लोकपाल |
पुर |
1984 |
उपरोक्त वन का बलभद्र कूट |
बलभद्र |
पुर |
1994 |
सुमेरु पर्वत के नंदन वन की चारों दिशाओं में |
उपरोक्त 4 लोकपाल |
भवन |
1998 |
उपरोक्त वन का बलभद्र कूट |
बलभद्र |
भवन |
2042-2044 |
सौमनस गजदंत के 6 कूट |
कूटों के नामवाले देव |
भवन |
2053 |
विद्युत्प्रभ गजदंत के 6 कूट |
कूटों के नामवाले देव |
भवन |
2058 |
गंधमादन गजदंत के 6 कूट |
कूटों के नामवाले देव |
भवन |
2061 |
माल्यवान गजदंत के 8 कूट |
कूटों के नामवाले देव |
भवन |
2084 |
देवकुरु के 2 यमक पर्वत |
पर्वत के नाम |
भवन |
2092 |
देवकुरु के 10 द्रहों के कमल |
द्रहों के नामवाले |
भवन |
2099 |
देवकुरु के कांचन पर्वत |
कांचन |
भवन |
2105-2108 |
देवकुरु के दिग्गज पर्वत |
यम (वाहन देव) |
भवन |
2113 |
देवकुरु के दिग्गज पर्वत |
वरुण (वाहनदेव) |
भवन |
2124 |
उत्तर कुरु के 2 यमक पर्वत |
पर्वत के नाम वाले देव |
भवन |
2131-2135 |
उत्तरकुरु के दिग्गजेंद्र पर्वत |
वाहनदेव |
भवन |
2158-2190 |
देवकुरु में शाल्मली वृक्ष व उसका परिवार |
सपरिवार वेणु युगल |
भवन |
2197 |
उत्तरकुरु में सपरिवार जंबू वृक्ष |
सपरिवार आदर-अनादर |
भवन |
2261 |
विदेह के कच्छा देश के विजयार्ध के 8 कूट |
वाहनदेव |
भवन |
2295-2303 |
(इसी प्रकार शेष 31 विजयार्ध) |
वाहनदेव |
भवन |
2309-2311 |
विदेह के आठ वक्षारों के तीन-तीन कूट |
व्यंतर |
नगर |
2315-2324 |
पूर्व व अपर विदेह के मध्य व पूर्व पश्चिम में स्थित देवारण्यक |
सौधर्मेंद्र का परिवार |
भवन |
2326 |
व भूतारण्यक वन |
सौधर्मेंद्र का परिवार |
भवन |
2330 |
नील पर्वत के आठ कूट |
कूटों के नामवाले |
भवन |
2336 |
रम्यक क्षेत्र का नाभिगिरि |
कूटों के नामवाले |
भवन |
2343 |
रुक्मि पर्वत के 7 कूट |
कूटों के नामवाले |
भवन |
2351 |
हैरण्यवत क्षेत्र का नाभिगिरि |
प्रभास |
भवन |
2359 |
शिखरी पर्वत के 10 कूट |
कूटों के नामवाले |
भवन |
2365 |
ऐरावत क्षेत्र के विजयार्ध, वृषभगिरि आदि पर |
( भरत क्षेत्रवत् ) |
भवन |
2449-2454 |
लवण समुद्र के ऊपर आकाश में स्थित 42000 व 28000 नगर |
वेलंधर व भुजग |
नगर |
2456 |
उपरोक्त ही अन्य नगर |
देव |
नगर |
2463 |
लवणसमुद्र में स्थित आठ पर्वत |
वेलंधर |
नगर |
2473-2476 |
लवणसमुद्र में स्थित मागध व प्रभास द्वीप |
मागध |
भवन |
2539 |
धातकी खंड के 2 इष्वाकार पर्वतों के तीन-तीन कूट |
व्यंतर |
भवन |
2716 |
जंबूद्वीपवत् सर्व पर्वत आदि |
व्यंतर |
भवन |
2775 |
मानुषोत्तर पर्वत के 18 कूट |
व्यंतर |
भवन |
तिलोयपण्णत्ति/5/ गा. |
|
|
|
79-81 |
नंदीश्वर द्वीप के 64 वनों में से प्रत्येक में एक-एक भवन |
व्यंतर |
भवन |
125 |
कुंडलगिरि के 16 कूट |
कूटों के नामवाले |
नगर |
138 |
कुंडलगिरि की चारों दिशाओं में 4 कूट |
कुंडलद्वीप के अधिपति |
नगर |
170 |
रुचकवर पर्वत की चारों दिशाओं में चार कूट |
चार दिग्गजेंद्र |
आवास |
180 |
असंख्यात द्वीप समुद्र जाकर द्वितीय जंबूद्वीप |
विजय आदि देव |
नगर |
209 |
पूर्वदिशा के नगर के प्रासाद |
विजय |
भवन |
236 |
पूर्वदिशा के नगर के प्रासाद |
अशोक |
भवन |
237 |
दक्षिणादि दिशाओं में |
वैजयंतादि |
नगर |
तिलोयपण्णत्ति/5/50 |
सब द्वीप समुद्रों के उपरिम भाग |
उन उनके स्वामी |
नगर |
- मध्यलोक में व्यंतर देवियों का निवास
तिलोयपण्णत्ति/4/ गा. |
स्थान |
देवी |
भवनादि |
204 |
गंगा नदी के निर्गमन स्थान की समभूमि |
दिक्कुमारियाँ |
भवन |
209 |
गंगा नदी में स्थित कमलाकार कूट |
वला |
भवन |
251 |
जंबूद्वीप की जगती में गंगा नदी के बिलद्वार पर |
दिक्कुमारी |
भवन |
258 |
सिंधु नदी के मध्य कमलाकार कूट |
अवना या लवणा |
भवन |
262 |
हिमवान् के मूल में सिंधुकूट |
सिंधु |
भवन |
1651 |
हिमवान् पर्वत के 11 में से 6 कूट |
कूट के नामवाली |
भवन |
1672 |
पद्म ह्रद के मध्य कमल पर |
श्री |
भवन |
1728 |
महा पद्म ह्रद के मध्य कमल पर |
ह्री |
भवन |
1762 |
तिगिंछ ह्रद के मध्य कमल पर |
धृति |
भवन |
1976 |
सुमेरु पर्वत के सौमनस वन की चारों दिशाओं में 8 कूट |
मेघंकरा आदि 8 |
निवास |
2043 |
सौमनस गजदंत का कांचन कूट |
सुवत्सा |
निवास |
2043 |
सौमनस गजदंत विमलकूट |
श्रीवत्समित्रा |
निवास |
2054 |
विद्युत्प्रभ गजदंत का स्वस्तिक कूट |
वला |
निवास |
2054 |
विद्युत्प्रभ गजदंत का कनककूट |
वारिषेणा |
निवास |
2059 |
गंधमादन गजदंत पर लोहितकूट |
भोगवती |
निवास |
2059 |
गंधमादन गजदंत पर स्फटिक कूट |
भोगंकृति |
निवास |
2062 |
माल्यवान् गजदंत पर सागरकूट |
भोगवती |
निवास |
2062 |
माल्यवान् गजदंत पर रजतकूट |
भोगमालिनी |
निवास |
2173 |
शाल्मलीवृक्ष स्थल की चौथी भूमि के चार तोरण द्वार |
वेणु युगल की देवियाँ |
निवास |
2196 |
जंबूवृक्ष स्थल की भी चौथी भूमि के चार तोरण द्वार |
|
निवास |
जं.पं./6/31-43 |
देवकुरु व उत्तरकुरु के 20 द्रहों के कमलों पर |
सपरिवार नीलकुमारी आदि |
भवन |
तिलोयपण्णत्ति/5/ 144-172 |
रुचकवर पर्वत के 44 कूट |
दिक्कन्याएँ |
भवन |
- द्वीप समुदों के अधिपति देव
( तिलोयपण्णत्ति/5/38-49 ); ( हरिवंशपुराण/5/637-646 ); ( त्रिलोकसार/961-965 )
संकेत—द्वी=द्वीप; सा=सागर; ß=जो नाम इस ओर लिखा है वही यहाँ भी है।
द्वीप या समुद्र |
तिलोयपण्णत्ति/5/38-49 |
हरिवंशपुराण/5/637-646 |
त्रिलोकसार/961-965 |
|||
|
दक्षिण |
उत्तर |
दक्षिण |
उत्तर |
दक्षिण |
उत्तर |
जंबू द्वीप |
आदर |
अनादर |
अनावृत |
ß |
||
लवण सागर |
प्रभास |
प्रियदर्शन |
सुस्थित |
ß |
||
धातकी |
प्रिय |
दर्शन |
प्रभास |
प्रियदर्शन |
ß |
ß |
कालोद |
काल |
महाकाल |
ß |
ß |
ß |
ß |
पुष्करार्ध |
पद्म |
पुंडरीक |
ß |
ß |
पद्म |
पुंडरीक |
मानुषोत्तर |
चक्षु |
सुचक्षु |
ß |
ß |
ß |
ß |
पुष्करार्ध |
× |
× |
× |
× |
चक्षुष्मान् |
सुचक्षु |
पुष्कर सागर |
श्रीप्रभु |
श्रीधर |
ß |
ß |
ß |
ß |
वारुणीवर द्वीप |
वरुण |
वरुणप्रभ |
ß |
ß |
ß |
ß |
वारुणवर सागर |
मध्य |
मध्यम |
ß |
ß |
ß |
ß |
क्षीरनर द्वीप |
पांडुर |
पुष्पदंत |
ß |
ß |
ß |
ß |
क्षीरनर सागर |
विमल प्रभ |
विमल |
विमल |
विमलप्रभ |
ß |
ß |
घृतवर द्वीप |
सुप्रभ |
घृतवर |
सुप्रभ |
महाप्रभ |
ß |
ß |
घृतवर सागर |
उत्तर |
महाप्रभ |
कनक |
कनकाभ |
कनक |
कनकप्रभ |
क्षौद्रवर द्वीप |
कनक |
कनकाभ |
पूर्ण |
पूर्णप्रभ |
पुण्य |
पुण्यप्रभ |
क्षौद्रवर सागर |
पूर्ण |
पूर्णप्रभ |
गंध |
महागंध |
ß |
ß |
नंदीश्वर द्वीप |
गंध |
महागंध |
नंदि |
नंदिप्रभ |
ß |
ß |
नंदीश्वर सागर |
नंदि |
नंदिप्रभु |
भद्र |
सुभद्र |
ß |
ß |
अरुणवर द्वीप |
चंद्र |
सुभद्र |
अरुण |
अरुणप्रभ |
ß |
ß |
अरुणवर सागर |
अरुण |
अरुणप्रभ |
सुगंध |
सर्वगंध |
ß |
ß |
अरुणाभास द्वीप |
सुगंध |
सर्वगंध |
× |
× |
× |
× |
अन्य— |
ß कथन नष्ट है à |
- भवनों आदि का विस्तार
- सामान्य प्ररूपणा
तिलोयपण्णत्ति/6/ गा. का भावार्थ – 1. उत्कृष्ट भवनों का विस्तार और बाहल्य क्रम से 12000 व 300 योजन है। जघन्य भवनों का 25 व 1 योजन अथवा 1 कोश है।8-10। उत्कृष्ट भवनपुरों का 1000,00 योजन और जघन्य का 1 योजन है।21। ( त्रिलोकसार/300 में उत्कृष्ट भवनपुर का विस्तार 100,000 योजन बताया है।) उत्कृष्ट आवास 12200 योजन और जघन्य 3 कोश प्रमाण विस्तार वाले हैं। ( त्रिलोकसार/298-300 )। (नोट – ऊँचाई सर्वत्र लंबाई व चौड़ाई के मध्यवर्ती जानना, जैसे 100 यो. लंबा और 50 यो. चौड़ा हो तो ऊँचा 75 यो. होगा। कूटाकार प्रासादों का विस्तार मूल में 3, मध्य में 2 और ऊपर 1 होता है। ऊँचाई मध्य विस्तार के समान होती है। - विशेष प्ररूपणा
- सामान्य प्ररूपणा
तिलोयपण्णत्ति/4/ गा. |
स्थान |
भवनादि |
ज.उ.म. |
आकार |
लंबाई |
चौड़ाई |
ऊँचाई |
25-28 |
जंबूद्वीप की जगती पर |
भवन |
ज. |
चौकोर |
100 ध. |
50 ध. |
75 ध. |
30 |
जगती पर |
भवन |
उ. |
चौकोर |
300 ध. |
150 ध. |
225 ध. |
32 |
|
भवन |
म. |
चौकोर |
200 ध. |
100 ध. |
150 ध. |
74 |
विजय द्वार |
पुर |
|
चौकोर |
× |
2 यो. |
4 यो. |
77 |
|
नगर |
|
चौकोर |
12000 यो. |
6000 यो. |
|
166 |
विजयार्ध |
प्रासाद |
|
चौकोर |
1 को. |
1/2 को. |
3/4 को. |
225 |
गंगाकुंड |
प्रासाद |
|
कूटाकार |
× |
3000 ध. |
2000 ध. |
1653 |
हिमवान् |
भवन |
|
चौकोर |
× |
||
1671 |
पद्म ह्रद |
भवन |
|
चौकोर |
1 को. |
1/2 को. |
3/4 को. |
1729 |
अन्य ह्रद |
भवन |
|
चौकोर |
ß पद्म ह्रद से उत्तरोत्तर दूना à |
||
1759 |
महाहिमवान आदि |
भवन |
|
चौकोर |
ß हिमवान से उत्तरोत्तर दूना à |
||
1836-37 |
पांडुकवन |
प्रासाद |
|
चौकोर |
30 को. |
15 को. |
1 को. |
1944 |
सौमनस |
पुर |
|
चौकोर |
ß पांडुकवन वाले से दुगुने à |
||
1995 |
नंदन |
भवन |
|
चौकोर |
ß सौमनस वाले से दुगुने à |
||
2080 |
यमकगिरि |
प्रासाद |
|
चौकोर |
× |
125 को. |
250 को. |
2107 |
दिग्गजेंद्र |
प्रासाद |
|
चौकोर |
125 को. |
||
2162 |
शाल्मली वृक्ष |
प्रासाद |
|
चौकोर |
1 को. |
1/2 को. |
3/4 को. |
2185 |
शाल्मली स्थल |
प्रासाद |
|
चौकोर |
1 को. |
1/2 को. |
3/4 को. |
2540 |
इष्वाकार |
भवन |
|
चौकोर |
ß निषध पर्वतवत् à |
||
80 |
नंदीश्वर के वनों में |
प्रासाद |
|
चौकोर |
31 यो. |
31 यो. |
62 यो. |
147 |
रुचकवर द्वीप |
प्रासाद |
|
चौकोर |
ß गौतमदेव के भवन के समान à |
||
181 |
द्वि. जंबूद्वीप विजयादि के |
नगर |
|
चौकोर |
12000 यो. |
6000 यो. |
× |
185 |
उपरोक्त नगर के |
भवन |
|
चौकोर |
62 यो. |
31 यो. |
|
189 |
उपरोक्त नगर के मध्य में |
प्रासाद |
|
चौकोर |
× |
125 यो. |
250 यो. |
195 |
उपरोक्त नगर के प्रथम दो मंडल |
प्रासाद |
|
चौकोर |
ß मध्य प्रासादवत् à |
||
195 |
तृ. चतु. मंडल |
प्रासाद |
|
चौकोर |
ß मध्य प्रासाद से आधा à |
||
232-233 |
चैत्य वृक्ष के बाहर |
प्रासाद |
|
चौकोर |
× |
||
तिलोयपण्णत्ति/6/ गा. 79 |
व्यंतरों की गणिकाओं के |
नगर |
|
चौकोर |
84000 यो. |
84000 यो. |
× |