चारित्रपाहुड - गाथा 14: Difference between revisions
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Latest revision as of 11:55, 17 May 2021
उच्छाहभावणासं पसंससेवा सुदंसणे सद्धा ।
ण जहदि जिणसम्मत्तं कुव्वंतो णाणमग्गेण ।।14।।
(49) सुदर्शन की प्रशंसा सेवा श्रद्धा से जिनसम्यक्त्व का पोषण―इस गाथा में कहते हैं कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र स्वरूप जो समीचीन मार्ग है उसमें जो उत्साह रखते हैं, शुद्धभावना करते हैं वे रत्नत्रय को ग्रहण करने का उत्साह करते हैं, प्रशंसा करते हैं । इस ही शुद्ध भाव के द्वारा करते हैं । ऐसे पुरुष ज्ञानमार्ग से अपने आपको ले जाते हुए जिन सम्यक्त्व को छोड़ते नहीं हैं । सम्यग्दर्शन अर्थात् आत्मा के सहज अविकार स्वरूप का आत्मारूप से ग्रहण हो जाना कि मैं यह हूँ । सम्यग्ज्ञान―जो पदार्थ जिस तरह अवस्थित हैं उनको उसी प्रकार जानना, सम्यक्चारित्र―अपना निज सहज ज्ञानस्वरूप है उसकी जो सहज वृत्ति है अर्थात् मात्र जानना सो अपनी परिणति मात्र जाननरूप बनाया तो वह है सम्यक्चारित्र यह हितरूप है । उनकी प्रशंसा करे, उनकी उपासना करे, रत्नत्रय के भाव में उत्साह रखे तो वह पुरुष ज्ञानमार्ग में चल रहा है और आत्मा के सहज ज्ञानतत्त्व को प्राप्त कर लेता है । जिन जीवों के अपने आपके प्रति ज्ञानमात्र हूँ ऐसी भावना जगती है और अपने को मात्र ज्ञानपुन्ज के रूप में ही देखता है उस पुरुष का ज्ञान ज्ञान में मग्न होने से उसके ज्ञान में ज्ञान ही ज्ञेय होने से वह ज्ञानमार्ग में ही चलता हुआ रहता है । तो जो अपने को ज्ञानमार्ग से चलाता है रुप वह पुरुष सम्यक्त्व को नहीं तजता ।
(50) जीव का परमवैभव शुद्धभाव―जीव का वैभव है अपने आपके कैवल्यस्वरूप की श्रद्धा करना । इस श्रद्धा में सब झगड़ा समाप्त हो जाता है । मैं केवल हूँ, एक हूँ अपने द्रव्य, क्षेत्र काल, भाव से सत् हूँ, यह में अपने में ही अपना परिणमन करता रहता हूँ इस मेरे में किसी पदार्थ का कोई दखल नहीं है । मेरा भी अपने ज्ञानस्वरूप से बाहर किसी भी पदार्थ में कोई दखल नहीं है । मैं केवल अपने आपके स्वरूप को ही रचता रहता हूँ ऐसी अपने आपके स्वरूप में जो दृढ़ भावना रखता है वह है पवित्र और ऐसा पवित्र जीव ऋद्धिधारी बनता है, जिसकी आत्मा अंत: ऐसी पवित्र है उसका देह भी उसका मलमूत्र भी उसके शरीर से स्पर्श करके आयी हुई हवा भी लोगों के संकट दूर कर देती है । आत्मा जैसे भाव करता है वैसा ही उसको शरीर मिलता है । यह तो निमित्त नैमित्तिक भाव है ही और आत्मा के भावों का ही फल है यह कि कोई एकेंद्रिय बन गया कोई दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय आदिक बन गया, कोई कुछ बन गया । तो ऐसे अटपट अच्छे बुरे शरीरों का मिलना जीव के भावों पर भी तो निर्भर रहा । तो जहाँ इतना बड़ा परिवर्तन देखने में आता, ऐसे-ऐसे विचित्र देह देखने में आते वह सब इस जीव के भावों के निमित्त से हो होता है । तो ऐसा कोई मनुष्य निर्ग्रंथ दिगंबर आत्मधुनिया बनकर केवल आत्मा का ही मनन करे तो उसके शरीर में सुगंध प्रकट हो जाती, रोगनाशक आदिक शक्ति प्रकट हो जाती, ऋद्धियां प्रकट होनी तो इसमें आश्चर्य नहीं है ।
(51) शरीर की सुस्थिति दुःस्थिति के निमित्त कारण पूर्व के भाव―शरीर की सारी बात जो भी बनती है वह आत्मा के भाव का निमित्त पाकर बनती है । हां इतना अंतर है कि आज जो शरीर मिला है सो पूर्व भव में बांधे हुए कर्मों के उदय से मिला है और वे पूर्वबद्ध कर्म उस समय के जीव के भावों के अनुसार बने थे । तो स्थूल रूप से जो शरीर मिला है वह सब पहले के किए गए भावों का फल है और सूक्ष्म रूप से शरीर में यदि अतिशय आ गया तो यह है वर्तमान के भावों का फल । जो ऋद्धियाँ उत्पन्न हुई हैं जिन मुनियों के वह वर्तमान भव में जो सद्भाव बनाया उसका फल है और जिसको जो शरीर मिला है सो यह पहले बाँधे हुए कर्मों के उदय का फल है । तो शरीर का मिलना, बिछुड़ना, शरीरों का कैसा ही होना यह सब उस शरीर में रहने वाले आत्मा के भावों का परिणाम है । सो जो रत्नत्रय की भावना में रहते हैं अविकार निज ज्ञानस्वभाव की दृष्टि बनाये रहते हैं उनको सहज ही अवश होकर ऋद्धि सिद्धि लक्ष्मी प्राप्त होती है । विद्यायें सिद्ध होती हैं । तो उन विद्यावों को अटकी क्या थी कि किसी पुरुष के वश होवे । उसकी आज्ञा में रहें? नहीं अटकी, लेकिन जो मनुष्य शुद्ध स्वरूप की भावना रखते हैं उनके निकट ये ऋद्धियां सिद्धियां पहुंचनी ही पड़ती हैं । तो ऐसे सन्मार्ग में जो प्रशंसा रखे, सेवा करे, श्रद्धा रखे, वह ज्ञान के सही मार्ग से चल रहा है और ऐसा पुरुष जिन सम्यक्त्व को छोड़ता नहीं है याने अपने अविकार सहज स्वरूप की दृष्टि को त्यागता नहीं है ऐसा यह ज्ञानी पुरुष जब सन्मार्ग की ओर चलता है तो यह अलौकिक लाभ पाता है और जब सन्मार्ग से विपरीत होकर खोटे साधुवों में, खोटे देवों में, खोटे भेषों मे अपनी रुचि बनाता है तो यह संसार में रुलता है । ऐसा जानकर अपना सम्यक्त्वाचरण यथार्थ बनाना चाहिए कि विस के प्रसाद से संयमाचरण बने और कर्मों का विनाश हो और हम अपनी पवित्रता प्राप्त कर सके ।