चारित्रपाहुड - गाथा 16: Difference between revisions
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Latest revision as of 11:55, 17 May 2021
पब्वज्ज संगचाए पयट्ट सुतवे सुसंजमे भावे ।
होइ सुविसुद्ध जाणं णिम्मोहे वीयरायत्ते ।।16।।
(57) निष्परिग्रह प्रवज्या में प्रवर्तन का उपदेश―इस गाथा में वीतराग भाव पाने के लिए कर्तव्य की शिक्षा दी है । कि हे भव्य तू वीतराग आनंद को लेना चाहता है तो परिग्रह का त्याग जिसमें है ऐसी दीक्षा को ग्रहण कर । जिनदीक्षा, निर्ग्रंथ निष्परिग्रह, भीतर निष्परिग्रह, बाहर निष्परिग्रह । अब बाहर से कोई बने निष्परिग्रही और भीतर में वासना रहे तो वह निष्परिग्रह नहीं है, कर्मबंध होता है तो बाहरी चीजों को देखकर नहीं होता कि इसके शरीर पर क्या लिपटा है, यह किस जगह रह रहा है, यह देख करके कर्मबंध नहीं होता, किंतु परिणाम किस ओर है, बेहोशी में है या होश में है । यदि बेहोशी में है तो उसे कर्मचोर सताते हैं और यदि होश में है तो उसे कर्मचोर सता नहीं सकते । होश होने पर भी कुछ परिस्थिति कभी ऐसी होती है कि कर्म चोर आते हैं और तंग करते हैं, मगर होश होने पर इसका माल नहीं लुट सकता तो ऐसे ही जब अपना ज्ञानस्वरूप अपने उपयोग में बसा हो तो कर्म उदय में आ रहे मगर आकर अव्यक्त होकर निकल जाते हैं और उसका व्यक्त रूप नहीं आ पाता । तो अंतरंग से निष्परिग्रह बने, बाह्य से निष्परिग्रह तो होना ही है । कोई पुरुष परिग्रह तो रखे बर्ताव तो करें और कहे कि मेरे पास परिग्रह नहीं है तो एक तो उसके कपट का दोष है, संयम वहाँ है ही नहीं ।
(58) आत्मसंयमन की कार्यकारिता―मुक्ति के इच्छुक निर्ग्रंथ दीक्षा धारण करें और संयमस्वरूपभाव बनावें । अपने आत्मा को अपने आत्मा को नियंत्रित करें निकटकाल में मोक्ष पावेगा । जो कर लेगा वह उसका लाभ उठायगा । जो न करेगा, बल्कि गप्प ही करेगा उसको इसका लाभ नहीं मिलने का । गप्प भी कुछ ठोक है, मगर आत्मा की चर्चा चल रही और नहीं भी वह उतरी है चित्त में, तो चर्चा तो है, कभी उतर भी जाती, मगर लाभ मिलता है आत्मा के अविकार स्वरूप ज्ञान में बसे तब । और यह ही संयमभाव है, भले प्रकार अपने आत्मा में नियंत्रित हो जाना, ज्ञान ज्ञानरूप रहे, ज्ञान से ज्ञान में ज्ञान ही हो यह स्थिति बने तो इस संयमभाव का आदर करें और सम्यक् प्रकार के तप में प्रवृत्ति करें क्योंकि तप की अभी आवश्यकता है । अशुभोपयोग के साधनभूत कर्म का उदय चल रहा है, उन कर्मों के उदय को निरर्थक करने के लिए याने वे व्यक्त न हो सकें इसके लिए शुभोपयोग की आवश्यकता हुई । तपश्चरण आदिक सब शुभोपयोग हैं । सो तप आदिक में प्रवृत्ति करें जिसमे कि निर्मोह वीतरागपना होने पर निर्मल शुक्लध्यान उत्पन्न होवे । रागरहित ध्यान को शुक्लध्यान कहते हैं । ज्ञान है तो वह अपना परिणमन तो करता ही रहेगा याने जानता ही रहेगा अब किस तरह का जानन बने जो यह जीव पवित्र हो जाये? निर्ग्रंथ होकर, दीक्षा लेकर संयमभाव रखना, तप की प्रवृत्ति करना, संसार का मोह दूर होना, वीतराग दशा होना, निर्मल धर्मध्यान होना, शुक्लध्यान होना, और उसके बल से केवलज्ञान होना, बस यह स्थिति जब मिलती है तो उसे कहते हैं अरहंत भगवान । जब आयु पूर्ण होती है तो ये ही प्रभु सिद्ध हो जाते हैं । तो ऐसा कल्याण का पद पाने के लिए मूल में तो सम्यक्त्वाचरण हुआ, फिर संयमाचरण हुआ । उसके प्रताप से प्रभुता का पद प्राप्त हुआ ।