चारित्रपाहुड - गाथा 21: Difference between revisions
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Latest revision as of 11:55, 17 May 2021
दुविहं संजमचरणं सायारं तह हवे णिरायारं ।
सायारं सग्गथे परिग्गहा रहिय खलु णिरायारं ।।21।।
(69) संयमाचरण के भेद सागारसंयमाचरण व निरागार संयमाचरण―संयमाचरण दो प्रकार का है―(1) सागार (2) निरागार । सागार का अर्थ है―अगार मायने घर सहित, जो घर सहित है, गृहस्थ है उसके आचरण को कहते हैं सागार संयमाचरण अर्थात् संयमासंयम, और जो निरागार है, आगार रहित है, गृह का त्याग है । गृह का त्याग कहने से सबका त्याग, स्त्री, कुटुंब, वैभव सबका त्याग जहाँ हो गया है उनके संयम को निरागार संयमाचरण कहते हैं । संयमाचरण संयमासंयम से शुरू हुआ है । पूर्ण संयमरूप आचरण तो नहीं है, पर एक देश संयमासंयम बनता है । कुछ संयम है कुछ असंयम है ऐसा जो परिणाम है वह कहलाता है सराग संयमाचरण और जहाँ 5 महाव्रत, समिति, गुप्ति आदिक का आचरण है, शरीर मात्र जहाँ परिग्रह रह गया है सो वह भी परिग्रह नहीं । शरीर से विरक्त है, शरीर को पर जान रहे हैं, पर शरीर है और कोई परिग्रह जिसके नहीं है ऐसे निरागार मुनि के आचरण को निरागार संयमाचरण कहते हैं । घर छोड़ना तो वहाँ है ही नियमत: पर
भावों से घर छूटा हो तो वह निरागार कहलाता है । ऐसा नहीं हो सकता कि कोई घर में तो रह रहा हो और कहे कि मेरा तो घर छूटा है परिणाम में, मेरे तो घर का भी त्याग है परिणाम में, तो यह बात नहीं मानी जा सकती । घर छोड़ने पर भी घर छूटा हो और न भी छूटा हो, पर घर में रहते हुए तो घर छूटा हुआ कहलाता ही नहीं है । तो जिन्होंने भावों से घर छोड़ा है और गृह आदिक भावों से अत्यंत विविक्त अविकार चैतन्यस्वरूप जो दृष्टि में है ऐसे पुरुष का जो आचरण है वह निरागार संयमाचरण कहलाता है ।
(70) आत्मा में सम्यक् संयमन―संयम शब्द का अर्थ है सं यम, सं मायने भले प्रकार, और यम कहो यंत्रित हो जाना, मग्न हो जाना, इसका नाम है संयम । कहां मग्न होना ? जो तत्त्व स्थिर हो उसमें मग्न होना । जो तत्त्व अपने में शाश्वत हो, उसमें मग्न होना, स्थिरता बाह्य पदार्थों के उपयोग में कभी हो ही नहीं सकती । जब भी स्थिरता मिलेगी तो अपने आपके स्वरूप में मग्न होने से मिलेगी । पर पदार्थ में मग्न और आसक्त होने से क्यों स्थिरता नहीं होती उसके कई कारण हैं । एक तो वह पर पदार्थ है, मेरे से अत्यंत भिन्न है । अत्यंत भिन्न पदार्थ में हम कब तक रम सकेंगे? फिर वे पदार्थ विनश्वर है, नष्ट हो जाते हैं नष्ट हुए, पर फिर किसमें रमा जायेगा? और फिर मेरे से विपरीत स्वरूप है । मेरा स्वभाव है जानना और इन पदार्थों का स्वभाव है मेरे जानन का अभावरूप । फिर स्थिरता कैसे हो सकेगी? किंतु अपने आत्मतत्त्व को देखें तो अपने में यह शाश्वत प्रकाशमान ईश्वर है इसलिए इसके वियोग की संभावना ही नहीं । उपयोग चाहे अपने स्वरूप को न देखे, अन्य जगह रमें मगर रम्य यह पदार्थ मात्र स्वरूप मेरे में शाश्वत बना हुआ है । तो अपने आप में रमें तो स्थिरता आती है, बाह्य पदार्थों में रमे तो स्थिरता नहीं आती । तो उपयोग की स्थिरता के लिए विवेकी जनों ने घर आदिक समस्त प्रसंगों का त्याग कर दिया और अपने आपके स्वरूप में सतत निवास करने का पौरुष करते हैं, तो यह बात सम्यक्त्वाचरण पर होती है । जो प्रकाश सहित हैं उनमें याने गृहस्थी में यह संयम एक देश रहता है, और जो परिग्रहरहित हैं, मुनि हैं उनमें संयम सर्वदेश रहता है ।