चारित्रपाहुड - गाथा 39: Difference between revisions
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Latest revision as of 11:55, 17 May 2021
जीवाजीवविभत्ती जो जाणइ सो हवेइ सण्णाणो ।
रायादिदोसरहिओ जिणसासण मोक्खमग्गुत्ति ।।39।।
जो पुरुष जीव और अजीव की विभक्ति को जानता है वह सम्यग्ज्ञानी है । विभक्ति कहते हैं भेद को । विशेष भेद का नाम विभक्ति है । विभाग, विभक्ति, भेद ये सब एकार्थवाचक शब्द हैं । जीव और अजीव का भेद वही समझ सकता है जिसने जीव और अजीव का सही स्वरूप जाना । जिसका जो स्वरूप है वहो उसके संबंध में ज्ञात रहे तो भेद जाना जा सकता है । जैसे चावल शोधना है तो चावल और अचावल इनका स्वरूप जाना हो तब ही शोधा जा सकता है, चावल तो यह है बाकी सब अचावल है । कूड़ा हो छिलका हो दूसरे दाने हों वे सब अचावल हैं । यह ज्ञान रहता है तब ही तो वह चावल अचावल से अलग करना, ऐसे ही आत्मा का लक्षण है चैतन्य, उपयोग प्रतिभास, जाननमात्र और अनात्मा का चिन्ह है रूप, रस, गंध, स्पर्श आदिक और जीव का स्वरूप है शुद्ध चैतन्य, सो उसके अतिरिक्त कोई जीव मे भी भाव प्रतिफलित हुआ वह औपाधिक है, परभाव है, वह भी जीव नहीं कहा गया । तो समस्त परद्रव्यों से और समस्त औपाधिक भावों से जो अपने को भिन्न निरखता है वह पुरुष जीव और अजीव की विभक्ति को जानता है और इस भेदभाव को जानकर जब अपने अभेद जीवस्वरूप का अनुभव करता है तो उसे सभ्य-ज्ञानी कहते हैं । वस्तुत: ज्ञान उस ही का नाम है कि जिसके स्वरूप का अनुभव बन चुका है, उसको कहने सुनने से या अन्य प्रकार से जानने का नाम सम्यग्ज्ञान नहीं है । सो यह ज्ञानी पुरुष जो मोक्षमार्ग में लग हा है वह जीव अजीव की विभक्ति को जानता है ।
जब कोई यह पहिचान ले कि यह मैं चैतन्यमात्र आत्मा हूँ । इसके अतिरिक्त समस्त परभाव मेरे से भिन्न हैं । ये अनात्मा हैं तो अब वह जिस किसी को भी लोक में जानेगा, जानकर भी सम्यग्ज्ञानी कहलायेगा और जिसने जीव अजीव का भेद नहीं समझा, अपने अविकार सहज चैतन्यस्वरूप को नहीं अपना पाया वह जिस किसी भी चीज को जानता है―घर वालो । मकान, नगर, कायदे-कानून सब कुछ जानकर भी वह मिथ्या ज्ञानी है, क्योंकि जिस-जिसको भी वह जानता है अज्ञानी तो उनमें एक पदार्थ को दूसरे पदार्थ में मिलाकर जानता है, एक का दूसरा है, एक ने दूसरे को अमुक रीति से परिणमा दिया है । सारी बात यों संयोग रूप से समझता है, और जो एक का धर्म दूसरे में मिलान करके श्रद्धा करे वह मिथ्याज्ञानी है । तो जो जीव का स्वरूप जीव में, अजीव का स्वरूप अजीव में निरखता है वह सम्यग्ज्ञानी है । अब सम्यग्ज्ञानी होता हुआ वह क्या करता है? रागादिक दोषों से रहित होता है । जिसने चावल और अचावल को सही जान लिया, अब वह क्या करता है कि जितने अचावल है उन सबको दूर कर देता है । उसका उद्देश्य है चावल को ग्रहण करना, पकाना, खाना । तो वह अचावल को अलग हटाता है, तो ऐसे ही जिसने जीव और अजीव के यथार्थ स्वरूप को जाना है तो वह अजीव को दूर करता है । दूर कहां करेगा, कही लोक में बाहर भगा देगा क्या? जहाँ है सो पड़ा रहे अजीव । उपयोग उसे स्वीकार न करे और उससे उपयोग को विमुख रखे यह ही उसका दूर करना कहलाता है । तो जो रागादिक को दूर करता है ऐसी स्थिति में रहता है या इस स्थिति का पौरुष करता है सो यही तो जैनशासन में मोक्षमार्ग बताया है । श्रद्धान, ज्ञान और आचरण ये तीनों ही ज्ञानमात्र बने रहने में आ जाया करते हें । रागादिक दोषों को दूर किया तो क्या रहा? यह ज्ञान ज्ञानस्वरूप रहा । इसमें रागादिक का संपर्क चल रहा था, वह संपर्क समाप्त हो गया, तो ज्ञान का ज्ञानस्वरूप रहना यह है विधि रूप बात, और रागादिक दोषों का दूर देना यह है निषेध मुखेन बात । अर्थात् जीव अजीव को यथार्थ जानकर अजीव को दूर कर देना और जीव में ही मग्न होना यह कहलाता है मोक्षमार्ग ।