रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 2: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
Line 13: | Line 13: | ||
[[ वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 3 | अगला पृष्ठ ]] | [[ वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 3 | अगला पृष्ठ ]] | ||
[[वर्णीजी-प्रवचन:क्षु. मनोहर वर्णी - रत्नकरंड श्रावकाचार प्रवचन | अनुक्रमणिका ]] | [[वर्णीजी-प्रवचन:क्षु. मनोहर वर्णी - रत्नकरंड श्रावकाचार प्रवचन अनुक्रमणिका | अनुक्रमणिका ]] | ||
</noinclude> | </noinclude> | ||
[[Category: रत्नकरंड श्रावकाचार]] | [[Category: रत्नकरंड श्रावकाचार]] | ||
[[Category: प्रवचन]] | [[Category: प्रवचन]] |
Revision as of 11:56, 17 May 2021
देशयामि समीचीनं धर्मं कर्म निवर्हणम् ।
संसार दु:खत: सत्त्वान्यो धरत्युत्तमे सुखे ।।2।।
संसारोद्धारक धर्मतत्त्वके उपदेश का प्रतिज्ञापन―मैं कर्म को नष्ट करने वाले इस कर्म को नष्ट करने वाला उत्तम धर्म कहूंगा जो वर्णन किया जायेगा यह अपने आत्मा की बात का ही वर्णन होगा । जैसे कि मानो कोई इतनी ही बात कह रहा हो इसलिये उसके सुनने में आलस्य न लाना,निरुत्साह न होना,जो भी कहा जायगा,जो आपके भीतर की बात कही जायगी और वह भी ऐसी बात कही जायेगी कि जिस उपाय से पहले दु:खों को दूर कर सुख में पहुंच जायेंगे । इसी श्लोक में विशेषण देकर धर्म का स्वरूप बताया गया । जो जीव को संसार के दु:खों से छुटाकर उत्तम सुख में पहुंचा देता है उसे धर्म कहते है । धर्म के अनेक प्रकार से लक्षण कहे गये है वे सब इस लक्षण में आ जाते है । जैसे कहा गया कि क्षमा,मार्दव,आर्जव आदिक दस लक्षण धर्म है तो ये 10 बातें―क्षमा करना,नम्रता रखना,सरल रहना,लोभ न करना ऐसी कोई प्रवृत्ति करे तो वह संसार के दुःखों से छूटकर उत्तम सुख में पहुंच जाता है ना । उनमें भी यह धर्म का लक्षण कहा गया है । वस्तुस्वभावो धर्म:,जो वस्तु का स्वभाव है वह धर्म है । आत्मा का स्वभाव है जानना,देखना,ज्ञाता द्रष्टा रहना । रागद्वेष करना स्वभाव नहीं । जानना स्वभाव है । जाने बिना यह रह ही नहीं सकता । क्योंकि ज्ञानस्वरूप है सो जानन जरूर बनेगा । सो जानन तो होता है अपने स्वभाव से,पर विकार जगता है पर का निमित्त पाकर विकार भाव से,स्वभाव से नहीं । सो आत्मा का धर्म बताया है जानना देखना । स्वभाव ज्ञानस्वरूप चैतन्यभाव । सो जो इस ज्ञानस्वभाव को जानेगा और इस ही स्वभाव में मग्न बनेगा वह दु:ख से छूटकर उत्तम सुख में जायेगा या नहीं? जायेगा । वहाँ भी धर्म का यह लक्षण बना । दया को भी धर्म कहते । और उसका पूर्ण रूप लीजिए―अपने आपकी दया करना और दूसरे जीवों की दया करना । अपने आपकी दया तो इसमें है कि यहाँ रागद्वेष विकार भाव न जगे,पर उस दया धर्म का उपदेश देते है । उनके गुणों की रक्षा करना यह पर दया है । सो दोनों प्रकार की दया करना धर्म है । तो लो दया रूप धर्म में भी यह लक्षण गया । धर्म का लक्षण बताया है―सम्यग्दर्शन,सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रत्नत्रयरूप परिणाम । तो भला बतलावो जो अपने आत्मा के स्वरूप का विश्वास करता है । स्वरूप को जानता है और स्वरूप में ही मग्न होता है वह पुरुष संसार के दुखों से छूटकर उत्तम सुख में पहुंचेगा या नहीं? पहुंचेगा । लो रत्न में भी यह धर्म का लक्षण घटित हुआ ।
ज्ञानमार्ग में रुचि करने का कर्त्तव्य―भैया ! धर्म की बात यों मौज से न आयगी कि अपने मन को कुछ समझाना न पड़े और एक विनोद तफरी मौज से हमें धर्म मिल जाय,सो ऐसी आशा न रखें । अगर मौज-मौज का ही काम करना है तो अनादि से करते आये और जो फल पाते आये सो चलने दीजिये । और यदि यह भाव बना है कि मुझे तो संसार के संकटों में छुटकारा पाना है तो चाहे कोई गृहस्थावस्था में हो,आजीविका संबंधी काम काज भी करता हो,अन्य कार्य भी करता हो तो भी वहाँ उसे आत्मा की सुध रहेगी,अन्यथा अज्ञानी जनों जैसा काम,दुष्टों जैसा काम क्यों नहीं बनता ज्ञानीका? उसे अपने आपके आत्मा की सुध है । तो अपने कल्याण के लिए ज्ञान के लिए प्रयत्न अधिक होना चाहिए । स्वाध्याय से,अध्ययन से,चर्चा से मन नहीं लग रहा धर्म कार्यों में तो वहाँ भी कुछ मन लगाना होगा,कुछ अपने पर जबरदस्ती करनी होगी,यों ही मानों कि धर्मकार्य अति दुस्तर है,ज्ञान की बात समझ में आती नहीं है,अब मान लो ज्ञान के मार्ग से हट गये तो फिर जावोगे कहाँ? करोगे क्या? वही विषय और कषाय । तो विषयकषाय में तो प्रेम है पर धर्मवार्ता में प्रेम नहीं है तो उसकी परिणाम तो सैकड़ों आचार्यों ने पहले से ही घोषित कर दिया है कि वे क्या बनेंगे? किस तरह से उनका जीवन जायगा । तो धर्म का विवरण इस ग्रंथ में है और वह भी बड़ी पद्धति से है । क्या-क्या पहले समझना चाहिए,किस तरह से यह जीव समझे वह सब अपने आत्मा की बात लिखी है । उसे ध्यान पूर्वक सुनना है,मनन करना है और उसे रूप अपने आपको ढालना है ।
सुगमलभ्य अंतःस्थ धर्म भाव के कथन का प्रतिज्ञापन―यहाँ समंतभद्राचार्य ग्रंथ के प्रारंभ में अपना उद्देश्य बतला रहे है कि मैं वास्तविक धर्म का प्रतिपादन करूँगा । जो धर्म कर्म और संकटों को दूर करने वाला है । संसार के दु:खों से छुटाकर उत्तम सुख में पहुंचाने वाला है । उस धर्म के विषय में बताया था कि रत्नत्रयधर्म,दस लक्षण धर्म,आत्मस्वभाव धर्म और दयारूप धर्म इन चार रूपों में उस धर्म का दर्शन होता है । सो वह धर्म जो आत्मा के विकासरूप है वह धर्म कहीं बाहर से नहीं मिल सकता,बाजार में खरीदने से नहीं मिल सकता । कोई सोचे कि मैं धनिक हूँ । मैं पैसे के बल से धर्म पा लूंगा तो इस तरह से धर्म नहीं मिलता,बल्कि मंदिर आदिक में भी भींट पत्थर या जो भी दृश्यमान चीजें हैं उनसे धर्म नहीं मिलता । धर्म मिलता अपने आत्मा में से । जिसको अपने आत्मा में से धर्म मिलता है उसको धर्म में सहयोग मंदिर प्रतिमा मूर्ति आदिक सब पड़ जाते है और जिसको अपने आत्मा से धर्म नहीं मिलता उसको कहीं से भी न मिलेगा । तो वह धर्म आत्मा का स्वरूप है और अपने आत्मा से ही प्रकट होता है । जैसे कहते हैं ना कि धर्म बिना शांति नहीं है तो वह धर्म क्या चीज है जिसके होने पर शांति हो जाती है? वह धर्म है आत्मा के स्वरूप का परिचय । सो मैं उस धर्म को कहूंगा ऐसी ग्रंथकार यहाँ प्रतिज्ञा कर रहे हैं ।
शुद्धभाव की धर्मरूपता―संक्षेप में आत्मा के चार भाव जानिये―द्वेषपरिणाम,अशुभराग,शुभराग और आत्मा का शुद्धभाव । जैसे राग शुभ और अशुभ होता है ऐसे ही द्वेष भी शुभ और अशुभ हो सो नहीं । यहाँ आप यह सोच सकते है कि किसी शिष्य पर किसी भक्त पर जिसको अनुराग है वह भक्त को,शिष्य को डांटता भी है,कुछ दंड भी देता है,कुछ बलपूर्वक भी बोलता है,यह तो द्वेष हुआ ना? अरे यह शुभ द्वेष है,भले के लिए किया जा रहा है । तो द्वेष शुभ और अशुभ कैसे न हुआ? किंतु उत्तर है कि यह अनुरागवश द्वेष किया जाता है तो वह शुभ राग में आया । द्वेष में उसकी गिनती नहीं की जाती । जैसे यहीं देख लो―कोई माँ छोटे बच्चे को डाटती है तो उसे कोई कहता है क्या कि इस माँ को अपने बच्चे से द्वेष है कोई नहीं कहता । डांटने की तो बात छोड़ो यदि पीट भी दे तो भी कोई नहीं कहता कि माँ को अपने बच्चों से द्वेष है । वह तो किसी रागवश ही किया गया । बच्चा कहीं कुमार्ग में न जाय सन्मार्ग में रहे ऐसा भाव होने से उस बच्चे के प्रति डांटने डपटने अथवा पीटने का भाव हुआ तो ऐसे ही यदि कोई गुरु अपने शिष्य पर भक्त पर नाराज हो किसी बात से तो उसे भी द्वेष नहीं कहा गया । वह शुभ राग में शामिल है क्योंकि प्रेरणा तो शुभ राग से चली । तो द्वेष तो अशुभ ही होता है,उससे तो हटना ही है । अशुभराग याने विषय संबंधी राग,वह भी अशुभ ही होता है । उससे भी हटना । शुभराग जैसे प्रभुभक्ति,पूजा,गुरुजनों की वैयावृत्ति आदि ये सब शुभ राग हैं । सो शुभ राग भी आस्रव है फिर भी मोक्ष मार्ग के रुचिया को शुभ राग करना पड़ता है । सो जितने अंश में वहाँ राग है,उतने अंश में तो धर्म नहीं है और जितने अंश में वीतरागता है उतने अंश में धर्म है । वीतराग अंशकी विशेषता है और राग अंश की गौणता है । जैसे माँ बच्चे को डाटे डपटे तो उसको बच्चे से राग है ना और डाट डपट चल रही सो कुछ रोष भी है,पर प्रधानता किसकी है? राग की । तो ऐसे ही जो धर्मात्माजन अन्य धर्मात्माजनों से कभी किसी समय कुछ प्रतिकूल बोले,डाटकर बोले,धमकाकर बोलें तो भी उसमें द्वेष की प्रधानता न लेना शुभ राग की प्रधानता लेना,पर धर्म की बात उन तीनों में नहीं है । न द्वेष में है,न अशुभ राग में है और न शुभ राग में है । तो वह धर्म किसी बाह्य वस्तु से न मिलेगा किंतु अपने आत्मा के आश्रय से ही मिलेगा ।