रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 36: Difference between revisions
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Revision as of 11:56, 17 May 2021
ओजस्ते जो विद्यावीर्ययशोवृद्धिविजयविभवसनाथा: ।
महाकुला महार्था मानवतिलका भवंति दर्शनपूता: ।।36।।
सम्यक्त्व से पवित्र जीवों के मानवतिलकता की उद्भूति―जो आत्मा सम्यग्दर्शन से पवित्र हो चुका है वह मनुष्यभव में उत्पन्न हो तो कैसे प्रताप वाला होता है इसका वर्णन इस श्लोक में किया गया है । वह पुरुष मनुष्यों में श्रेष्ठ है । महान पदवी के धारक जितने पुरुष हुए हैं वे सम्यक्त्व के प्रताप से हुए । तीर्थकर,इंद्र,बलभद्र,तीर्थकर आदि ये सब सम्यक्त्व के प्रताप से हुए,और यहाँ तक कि नारायण भी चाहे नारायण के भव में सम्यक्त्व न रहा और मिथ्याभाव के कारण उनपर घटनायें घटी और कुछ घटेगी,लेकिन पूर्वभव में सम्यग्दर्शन था और उस सम्यक्त्व के प्रताप से स्वर्ग में उनका जन्म हुआ था और वे स्वर्ग से आकर नारायण हुए हैं । तीर्थंकर तो नरक से भी आकर तीर्थंकर बन जाये,पर नारायण नरक से आकर नहीं बनता । नारायण,स्वर्ग से आकर ही नारायण बनता है तब ही तो देखो नारायण की कितनी महिमा लोक में गायी जा रही है । वह आत्मा पहले सम्यग्दृष्टि था,पर नारायण के समय राज्य वैभव में मस्त होकर एक भाव ऐसा बनाया कि वे तत्काल निर्वाण को न प्राप्त हुए पर निकटकाल में ही वे निर्वाण को प्राप्त होंगे । तो ऐसी बड़ी-बड़ी पदवियां सम्यक्त्व के प्रताप से मिला करती हैं । ऐसे मनुष्य जिनका पराक्रम अद्भुत हो,जिनका प्रताप अद्भुत हो ऐसे मनुष्यभव में जन्म लेना यह सम्यग्दर्शन से पवित्र पुरुषों का कार्य है । जिन में अतिशय विद्या है,अतिशय सुंदरता है,उज्ज्वल यश है,वैभव आदिक की वृद्धि है,गुणों में वृद्धि है ऐसे बालक जब उत्पन्न होते है वे सब सम्यग्दृष्टि जीव थे पहले और उन्होंने धर्म की आराधना की । उनके साथ शेष रहे राग के कारण जो पुण्यबंध हुआ उसका प्रताप है ।
बड़प्पन का आधार समीचीन भाव―लोग चाहते है कि मैं बहुत बड़ा बनूं,मगर बहुत बड़ा बनना कोई संक्लेश करने से होगा क्या? अधीरता से होगा क्या? बड़ा बनना यह शुभ और शुद्ध भावों के प्रताप से होगा । जीव भाव ही कर सकता है,और कुछ कार्य नहीं कर सकता । बाकी जो कार्य होते हैं वे सब आटोमैटिक याने निमित्त नैमित्तिक योग पूर्वक होते ,हैं परजीव की करतूत है तो केवल अपने भाव करना । जब भाव ही जीव करता है तो अपने आप में सोचिये कि अशुद्ध खोटे भाव करने से क्या लाभ है? उसका फल बुरा है । पाप का बंध है,भविष्य अच्छा नहीं । इसलिए शुभ भाव ही करें । सब जीवों के सुखी होने की भावना रखिये । धर्म के प्रसारण के लिए अपनी उमंग रखिये―तत्त्वज्ञान उत्पन्न हो,ऐसा अपने आपका प्रयत्न करें जगत के जीवों को तत्त्वज्ञान बने,उसका उपाय बनाइये । ऐसे शुभ और शुद्धभाव होते रहें तो आपका यह जीवन भी आनंद में गुजरेगा,पर कर्म का उदय विचित्र है । पापकर्म के उदय से ही तो जीव की दुर्गति होती है,दुःख होता है और जीव उन दुःखों में व्याकुल रहता है । ऐसे व्याकुल हृदय में अच्छी बात समाना यह बहुत बड़े ज्ञान का ही प्रताप हो सकता है । अन्यथा दुर्दशा में उसके दुर्भाव ही हुआ करता है । प्राय: ऐसा ही अनादि से चला आया,पर ज्ञानबल यदि हो तो पूर्व पाप के उदय से चाहे दुर्दशा हो,पर सही भाव आज हो तो आगे दुर्दशा न होगी । जब हम आप केवल भाव कर सकते है तो फिर ये खोटी भावनायें न बनाये,उत्तम भावनायें ही बनाये उसके फल में सारा भविष्य अच्छा जायगा । खुद ही खुद के कर्ता हैं,खुद ही खुद के भोक्ता है । कोई किसी दूसरे का मददगार नहीं । तो अपना भविष्य उज्ज्वल बने इसका उपाय यह है कि हम अपने भाव शुद्ध रखें । सब जीवों के प्रति सुखी होने की भावना रहे । गुणीजनों को देखकर हर्ष जग जावे,विपरीत चेष्टा वालों में माध्यस्थभाव हो,दुःखी जीवों को देखकर दया का भाव उमड़े,ऐसी वृत्ति यदि आपकी है,तो आप अपने पर दया कर रहे है,और यदि अशुभ परिणाम है,क्रूर परिणाम है,धर्म के विपरीत परिणाम चल रहे हैं तो यह अपने आपकी आप हिंसा कर रहे हैं,जिसका फल भविष्य में खोटा ही भोगना पड़ेगा । जो जीव सम्यग्दर्शन से पवित्र है वे सर्वत्र पूज्य हैं । वे वैभव से युक्त होते है,महान् पूज्यविशिष्ट कुल में उनका जन्म होता है । वे चार पुरुषार्थों के स्वामी होते है जिनके सम्यग्दर्शन हुआ है । जब कभी गृहस्थ दसों कामों में एक काम को अधिक लाभदायक समझता है तो बाकी उन 1 कामों को गौणकर लाभदायक काम में ही अपना पूरा समय देता है । अब आप जरा अपने लाभदायक कार्यों में समझो कौनसा कार्य लाभदायक है? क्या परिजनों के पीछे मोही बने रहना लाभदायक है आपके आत्मा के लिए? क्या धन वैभव आदिक में तृष्णा करना लाभदायक है? क्या दुनिया में इसभव के देह की इज्जत बना देना,यश प्रतिष्ठा पा लेना,यह लाभदायक है आत्मा के लिए? अरे ये कोई आत्मा के लिए लाभदायक नहीं,आत्मा के लाभ का साधन केवल अपना सहजस्वरूप है । मैं हूँ । जब मैं हूँ तो स्वयं ही पूरा हूँ । कोई भी है । कोई भी अस्तित्व अधूरा नहीं रहता । मैं हूँ परिपूर्ण हूँ जो मुझ में असाधारण गुण है उन गुणों में तन्मय हूँ । मैं अमर ई मेरा कहीं विनाश नहीं है ।
जगवैभव की भव की अविश्वास्यता अरम्यता―मैं आज यहाँ हूँ,कल को न रहा यहाँ,किसी दूसरें भव में चला गया तो मैं आत्मा तो वही हूँ । इसको तो एक सराय जानें,एक धर्मशाला मानें । यहाँ अपना कुछ नहीं है । एक सन्यासी किसी नगर में एक गली से जा रहा था । रास्ते में उसे एक बड़ी हवेली दिखी । उस हवेली के द्वार पर एक पहरेदार खड़ा था । तो सन्यासीने उस पहरेदार से पूछा भाई मैं यह जानना चाहता हूँ कि यह धर्मशाला किसकी है । तो पहरेदार बोला―महाराज यह धर्मशाला नहीं है,धर्मशाला तो इस गली में थोड़ी दूरी चलकर आगे है । यह तो अमुक सेठकी हवेली है । तो फिर सन्यासी बोला―भाई मैं तो यह पूछता हूँ कि यह धर्मशाला किसकी है । तो पहरेदार उसके मनकों बात ठीक-ठीक न समझ सका सो फिर वही उत्तर दिया । इतने में ऊपर से देखा उस मकान मालिकने,वह सन्यासी को देखकर नीचे आया और पूछा―महाराज आप क्या पूछ रहे हो? तो सन्यासी बोला―मैं यह जानना चाहता हूँ कि यह धर्मशाला किसकी है? तो सेठ बोला―महाराज यह धर्मशाला नहीं है । धर्मशाला आगे है,यह तो आपकी हवेली है । हां यदि आप ठहरना चाहते हों तो इस हवेली में ठहर जाइये । तो सन्यासी बोला―भाई हमें ठहरना नहीं है । हम तो जानना भर चाहते है कि यह धर्मशाला किसकी है । तो सेठने फिर वही बात कही । आखिर सन्यासीने पूछा―बताओ इसको किसने बनवाया था?....मेरे बाबाने ।.... वह इसमें कितने वर्ष तक रहें?....महाराज वह तो पूरी बनवा भी न सके थे तभी मर गए थे ।.... फिर पूरी किसने बनवाया?....हमारे पिताजी ने ।.... वह इसमें कितने वर्ष रहे?....महाराज वह तो कुल 3 वर्ष रहे ।.... और आप इसमें कितने वर्ष रहेंगे? तो वहाँ वह सेठ निरुत्तर रह गया और ज्ञान जग गया कि सचमुच यह धर्मशाला है । सन्यासीजीने ठीक ही बताया । बल्कि धर्मशाला में तो ऐसा भी हो सकता कि यदि कोई 10-5 दिन ठहरना चाहे धर्मशाला में तो मंत्री या अध्यक्ष से मिन्नत करके और भी ठहर सकता है पर यहाँ कोई कितनी ही मिन्नत करे एक दिन भी ठहरने को नहीं मिल सकता । मरण हुए बाद इसमें कोई एक मिनट भी नहीं ठहर सकता । तो यह सारा जगत रमने योग्य नहीं,विश्वास किए जाने योग्य नहीं ।
सहजपरमात्मतत्त्व की विश्वास्यता―भैया ! विश्वास कीजिए अपने आत्मा में बसे हुए परमात्मस्वरूप पर । वह मैं अमर हूँ,अविकार हूँ,वहाँ कोई कष्ट नहीं,मेरा स्वभाव ज्ञानानंद से परिपूर्ण है । मुझे अब जगत में करने को कुछ नहीं रहा । मैं अपने स्वरूप को ही निरखूं और इस ही में यहमैं उस ही की भावना कर करके निर्विकल्प होऊं । बस यह ही एक कर्त्तव्य शेष रह गया,बाकी तो इस अनंत काल में न जाने क्या-क्या उद्दंडतायें बनाया,कितने ही अपने अधिकार बनाया,सब कार्य कर डाला,पर यह ही एक काम शेष रह गया कि मैं अपने आपको जानूं,अपने आपको मानूं और इस ही स्वरूप में मग्न हो जाऊं,सम्यग्दर्शन,सम्यग्ज्ञान,सम्यक्चारित्र का धारण बस यह ही काम नहीं कर पाया जीवने,बाकी तो प्रत्येक प्रदेशपर अनंत बार जन्मले चुके,कितने-कितने परिवर्तन कर चुके जो आज भोगते हैं वे अनेक बार भोगे जा चुके,ये सबके सब जूठे ही भोगे जा रहे हैं। सब काम अनेक बार हुए मगर सम्यग्दर्शन का लाभ इस जीव को नहीं हुआ । तो एक जरा चित्त की स्वच्छ और स्थिर करके एक ही धुन बनालें कि अन्य कार्य जैसे हों सो हों पर मुझ को तो अपने स्वरूप का अनुभव करके ही रहना है । उसके लिए चाहे कितना ही उत्सर्ग करना पड़े पर मैं अपने स्वरूप को जानूंगा और उसी स्वरूप में रमूंगा । यह ही एकमात्र मेरा काम है ।