रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 6: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(Imported from text file) |
||
Line 18: | Line 18: | ||
[[ वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 7 | अगला पृष्ठ ]] | [[ वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 7 | अगला पृष्ठ ]] | ||
[[वर्णीजी-प्रवचन:क्षु. मनोहर वर्णी - रत्नकरंड श्रावकाचार प्रवचन | अनुक्रमणिका ]] | [[वर्णीजी-प्रवचन:क्षु. मनोहर वर्णी - रत्नकरंड श्रावकाचार प्रवचन अनुक्रमणिका | अनुक्रमणिका ]] | ||
</noinclude> | </noinclude> | ||
[[Category: रत्नकरंड श्रावकाचार]] | [[Category: रत्नकरंड श्रावकाचार]] | ||
[[Category: प्रवचन]] | [[Category: प्रवचन]] |
Revision as of 11:56, 17 May 2021
क्षुत्पिपासाजरातंकजंमांतकभयस्मया: ।
न रागद्वेषमोहाश्च यस्याप्त: स प्रकीर्त्यते ।।6।।
आप्त की क्षुधादोषरहितता―इससे पूर्व श्लोक में आप्त का लक्षण कहा गया है जो निर्दोष हो,सर्वज्ञ हो,हितोपदेशी हो उसे आप्त कहते है । आप्त के मायने है कि वह परमात्मा जिसकी दिव्यध्वनि से आगम की रचना बनी है । तो वह मूल वक्ता आप्त अरहंत भगवान तीर्थंकर निर्दोष सर्वज्ञ और हितोपदेशी है । जो निर्दोष होगा सो ही सर्वज्ञ बनेगा । जो निर्दोष और सर्वज्ञ होगा वही सच्चा उपदेश कर सकेगा । जो केवल निर्दोष है,सर्वज्ञ नहीं उन निर्दोष के मायने है कि रागद्वेष क्षुधा तृषा आदिक दोष न हों,तो ऐसे तो पुद्गल द्रव्य भी हैं । पुद्गल द्रव्य में भूख प्यास रोग शोकादिक कुछ भी नहीं है तो वे आप्त हो जायेंगे क्या? तो निर्दोष हो और सर्वज्ञ हो तब आप्त बनता है । तो निर्दोष और सर्वज्ञ तो सिद्ध भगवान भी हैं तो क्या वे आप्त कहलाते है? भले हो वे आप्त से बड़े हैं मगर आप्त नहीं है आप्त उन्हें कहते है जिनकी दिव्यध्वनि से आगम की रचना होती है । तो निर्दोष हो,सर्वज्ञ हो हितोपदेशी हो वही आप्त हो सकता है । तो निर्दोष के मायने क्या है? कौन से दोष नहीं हैं इसका विवरण करने के लिए यह श्लोक आया है । जिसमें ये 18 दोष नहीं हैं वह आप्त कहलाता है । (1) पहला दोष बताया है क्षुधा । जिस भगवान को भूख लगती है वह भगवान-भगवान भी कहां है और वह आप्त भी कैसे हो सकता? क्षुधा में विह्वलता होती है । बुद्धि भी हीन हो जाती है । शुक्ति भी घट जाती है । और भूख मेटने के लिए भोजन करना होता है,तो उसमें रागद्वेष इष्ट अनिष्ट बुद्धि बनती है । तो जो भोजन करता हो वह भगवान ही नहीं,फिर आप्त कैसे हो सकता है?
प्रभु के क्षुधा माननेपर दोषों का भार―कुछ लोग भगवान को भोजन करने वाला मानते हैं । सो मोटी दलीलों से भी साबित होता है कि जो अनंत शक्ति वाला आत्मा होगा वह भोजन क्यों करेगा? रही एक यह बात कि भोजन के बिना देह कैसे टिका रहेगा? सो यह सब जीवों की अलग-अलग बात है । देवताओं का भोजन के बिना शरीर टिका रहता है । ये जब मुनि अवस्था में थे और जब क्षपक श्रेणी में चढ़ने लगे तो अप्रमत्त विरत में,अपूर्वकरण में और ऊंचे गुणस्थानों में पाप प्रकृतियाँ बदलकर पुण्य प्रकृतियां हो रही तो पुण्य प्रकृतियों का आधिक्य है । पाप प्रकृति केवल नाम पर चलती है 13 वें गुणस्थान में । उससे वेदना नहीं हो सकती । श्वेतांबर संप्रदाय में केवली भगवान को आहार करने वाला माना है । तब सोचा जाय तो आहार वह करते है मानो तो सबके देखते-देखते करते या लुक छिपकर? अगर देखते-देखते करें तब तो लोगों के चित्त में भगवान के रूप से श्रद्धा न रहेगी,एक केवल साधु जितनी ही श्रद्धा रहेगी । छुपकर करें तो उसमें कपट का दोष है । रोज-रोज आहार करते या दो चार दिन बाद करते? अगर रोज-रोज आहार करते तो इसके मायने है कि रोज-रोज उनका शारीरिक बल घट जाता है । या कुछ दिन बाद करते हैं तो उतने दिन तक शरीर का बल रहा फिर क्षीण हो गया,शक्तिहीन हो गया तब आहार करते । वे आहार करते तो उस आहार का ज्ञान उन्हें केवल ज्ञान के द्वारा होता है या रसनाइंद्रिय द्वारा? अगर कहो कि उसका ज्ञान अनुभव तो केवलज्ञान द्वारा होता है तो केवलज्ञान द्वारा तो बाहर कहीं भी पड़ा रहे अन्न भोजन उसे भी जान जायेंगे । खाने की भी जरूरत क्या रही? अगर कहो कि रसना इंद्रिय द्वारा वे श्वांस लेते,ज्ञान करते तो वह तो मतिज्ञान कहलाने लगा । सर्वज्ञता न रहेगी । उनके घातिया कर्म नष्ट हो जाने से अनंतज्ञान,अनंतदर्शन,अनंत सुख और अनंत शक्ति प्रकट होती है । सुख में फर्क आये तो भोजन आदिक जैसी अनेक बातें करें और वहाँ तो अनंत आनंद है शक्ति भी अनंतवीर्य है । शक्ति क्षीण कभी होती ही नहीं । किसलिए भोजन का प्रसंग है? तो प्रभु जो हो गया उसके क्षुधा का दोष नहीं होता ।
प्रभु की पिपासादोषरहितता―(2) दूसरा दोष बताया है तृषा । प्रभु के तृषा का भी दोष नहीं है । उनका देह स्फटिक मणि की तरह शुद्ध होता है,उस देह में क्षुधा तृषा जैसी वेदना नहीं है । उनका देह देवों से भिन्न हैं । क्षुधा और तृषा ये दोनों बड़ी वेदनायें कहलाती है । जिन में क्षुधा की वेदना के तो दर्जे कहा―तीव्र और मंद । किसी के तीव्र क्षुधा लगी है,किसी के मंद क्षुधा लगी है,और तृषा की वेदना के चार दर्जे कहे हैं―(1) तीव्र (2) तीव्रतर (3) मंद (4) मंदतर याने अत्यंत हल्की प्यास हल्की प्यास,तेज प्यास,बहुत तेज प्यास । इससे मालूम होता कि क्षुधा की असाता से तृषा की असाता और अधिक होती है । थोड़ी सी भूख लगी हो तो भूख का अनुभव नहीं होता ।जबकि जरा सी भी प्यास लगी हो उस प्यास का पता पड़ जाता है कि हम को प्यास लगी है । क्षुधा और तृषा दोनों ही वेदनायें है । आप्त भगवान के ये दोष नहीं होते ।
आप्त की जरातंकदोषरहितता―(3) तीसरा दोष है बुढ़ापा । बुढ़ापा बड़ा दोष है। बुढ़ापा स्वयं रोग है । शरीर क्षीण है । इंद्रियां काम करती नहीं । मन भी प्रबल नहीं रहा । तृषा बढ़ जाती है । ऐसी स्थितियों में वृद्धावस्था में बड़ा कष्ट होता है । ज्ञान हो तो ज्ञानबल से वह कष्ट न मानेगा,पर ज्ञान जिसके नहीं है तो वह उसमें बड़ा कष्ट मानता है ।तो बुढ़ापा अरहंत भगवान के नहीं है । आप्त में नहीं है ये सभी दोष अरहंत के,भगवान के नहीं हैं । चाहे वह आप्त हो या नहीं । सभी अरहंत आप्त नहीं कहलाते । कोई उपसर्ग सिद्ध हुए है । उनकी दिव्यध्वनि नहीं खिरी,उनसे आगम की परंपरा बनी ही नहीं,पर ये 18 दोष सभी अरहंतों में नहीं पाये जाते । चौथा दोष है रोग । इस शरीर संबंधी व्याधि । शरीर में करोड़ों रोग बताये गए? अब करोड़ों रोगों का कौन नाम लेता फिरे । इसलिए कुछ मुख्य-मुख्य रोगों के नाम आयुर्वेद में बताये गए । पर रोग शरीर में उतने होते जितने कि शरीर में रोम,और उससे भी कई गुना अधिक समझो । तो अरहंत भगवान के स्फटिक मणि की तरह देह होता है । वहाँ निगोद जीव तो रहते ही नहीं है । कोई भी त्रस जीव वहाँ नहीं पाये जाते । अरहंत भगवान के शरीर में किसी भी प्रकार का रोग नहीं है । किसी मुनि को अगर रोग भी हो पहले और उसे केवलज्ञान हो जाय । अरहंत हो जाय तो वहाँ रोग नहीं रह सकते । इसी तरह कोई अंग खराब हो जाय और उस मुनि के केवलज्ञान हो जाय तो फिर उसका वह अंग सही सुदृढ़ हो जाता है ।
आप्त की जन्ममरण दोषरहितता―(5) 5 वां दोष बताया है जन्म । जन्म होने में इतना कष्ट है कि जिसका जन्म हो रहा वह अबोध जैसा है । उस समय के कष्टों को वह बता नहीं सकता । जब बताने लायक हो जाता है तब जन्म के समय की बातें भूल जाता है । और जन्म के समय में मरण से कम दु:ख नहीं है जन्म वास्तव में तो जिस क्षण जीव उस भव में आया गर्भ में आया उसे कहते हैं और रुढ़ि में गर्भ से निकलने की स्थिति को जन्म कहते है । गर्भ में आया तब भी दुःख था और गर्भ से निकल रहा उस समय की तो बहुत बड़ी वेदना । तो जन्म का दोष अरहंत भगवान के नहीं है अर्थात् अरहंत प्रभु अब जन्म धारण न करेंगे । खोटे जन्म न लेंगे यह तो है ही मगर लोक में जो अच्छे जन्म माने जाते इंद्र होना,चक्री होना आदि थे भी जन्म नहीं होते । उनके आयु कर्म समाप्त होने के बाद कोई कर्म रहते ही नहीं हैं तो जन्म कैसे हो? (6) छठा दोष है अंतक अर्थात् मरण । अरहंत भगवान के आयु का क्षय तो होता है पर उसे मरण नहीं कहते । मरण की रूढ़ि है कि जिसके बाद जन्म होवे ऐसे मरण को मरण कहते है । अरहंत की आयु का विनाश होने के बाद उनका जन्म नहीं होता इसलिए उसे मरण संज्ञा नहीं दी । वैसे शास्त्रों में निर्वाण का नाम पंडित-पंडित मरण कहा है अर्थात् वह भी इस भव की दृष्टि से तो मरण ही कहलाया,पर जन्म नहीं होता इसलिए मरण नहीं कहते । भगवान महावीर स्वामी का निर्वाण हुआ तो कोई यह तो नहीं कहता कि दीवालों को महावीर स्वामी मर गए । उनके मरने का नाम कोई नहीं लेता । भले ही आयु का क्षय हो पर अगला जन्म न होने से मरण नाम नहीं और वह मृतक देह भी पड़ा नहीं रहता इसलिए भी मरण नाम नहीं ।
आप्त की भयस्मय दोषरहितता―(7) अरहंत भगवान के 7 वां दोष भय नाम का भी नहीं है । डरे कौन जो निर्बल हो,ऐश्वर्यहीन हो । भगवान तो अनंत वीर्य के धारी है । अनंत ज्ञान,अनंत दर्शन,अनंत शक्ति और अनंत आनंद है । जिसमें कभी बाधा ही नहीं आ सकती । बाधा किसी पर पदार्थ से किसी की नहीं हुआ करती,मगर मानते है इसलिए बाधा है । बाह्य पदार्थ जहाँ पड़े है पड़े रहने दो,आना हो आये,जाना हो जायें । उनसे कोई वास्ता ही नहीं इस जीव का । यहाँ तक कि यहाँ के संसारी जीवों को शरीर में कुछ हो गया तो उससे कहीं आत्मा को बाधा नहीं आती । पर शरीर मेरा है,मैं शरीर हूँ ऐसा शरीर के साथ जो एकत्व बुद्धि लगी है उसके कारण यहँ बाधा मानता है और दुःखी होता है । प्रभु के बाधा न होना बिल्कुल स्पष्ट है । प्रभु के भय का नाम नहीं । यदि प्रभु के भय होता तो वे बढ़िया से बढ़िया हथियार भी रख सकते थे । जैसे कि अनेकलोगों ने अपने प्रभु को हथियार धारी माना,धनुष लेना,बर्छी रखना,त्रिशूल रखना,फरसा रखना ऐसी बातें की है । भले ही जो भगवान होते अरहंत होते उन्हीं ने गृहस्थावस्था में शस्त्र धारण किया,वे क्षत्रिय थे,लड़ाई में जाते थे,शस्त्रों का प्रयोग किया था,मगर साधु होने पर शस्त्रों का भी त्याग हो जाता । यदि कोई साधु शास्त्र रखे तो उसके रागद्वेष स्पष्ट है । साधु तो अपने आत्मा की साधना के लिए हुआ है । आत्मसाधना में किसी बाहरी चीज की जरूरत ही नहीं । कमंडल और पिछी तो संयम के लिए रखते हैं,शुद्धि के लिए रखते हैं और न ही पिछी कमंडल तो भी मुनिपना मिटा नहीं । वह मुनि कहलायगा,पर गमनागमन नहीं कर सकता । बैठे हैं ध्यान करें,आहार चर्या आदिक न करेंगे,पर मुनिपना नहीं मिटता । यदि कमंडल पिछी न हों तो वह कहीं मुनिपना नहीं खतम हो जाता,वे सब तो है चर्या,गमन शुद्धि के लिए । इतने काम रुक जायेंगे इसलिए रखते हैं,पर साधु को तो एक अणु मात्र भी कुछ रखने का प्रयोजन नहीं है वह अपने आप में आत्मदृष्टि करके प्रसन्न रहा करता है । वह तो भगवान के स्मरण के लिए उसने सब कुछ त्यागा है । तो जब वहाँ ही शस्त्र नहीं है तो फिर प्रभु होने पर शस्त्रों का लगाव बन ही कैसे सकता है? प्रभु निर्भय हैं इस कारण उनके पास शस्त्र नहीं हैं । और अनंत शक्तियों के धारी हैं । वहाँ भय का क्या काम? (8) एक दोष है स्मय । स्मय मद करने को कहते है। किसी भी बात पर मद किसे होता ?जिसके ज्ञान न हो । कोई भी घटना,थोड़े ज्ञान आदि की घट गई,अब उस घटना को निरखकर मद किसे होगा? जिसको पहले कुछ भी ज्ञान आदि नहीं है । और अचानक कुछ दिखा तो उसे मद होगा । भगवान को तीन लोक तीन काल का सब कुछ ज्ञान है । अब उसे मद का अवकाश ही कहां रहेगा? प्रभु के मद नहीं होता।
आप्त की रागरहितता―प्रभु के राग नहीं । राग होता है तुच्छ प्राणियों के,अल्पज्ञ प्राणियों के । किसी भी जीव या जीव के प्रति राग करने,प्रीति करने के परिणाम रखना यह तो उसकी अनुदारता का सूचक है । प्रभु के राग नहीं होता । लोग कहते है कि प्रभु भक्तों की सम्हाल करते हैं या भक्तों को मनोवांछित फल देते है । यह सब बात सही नहीं है । तब फिर लोग भक्ति करते ही क्यों हैं । भक्ति करने का कारण यह है कि जो विवेकी जीव है वे तो मुक्ति चाहते है और मुक्ति के मार्ग के लिए चाहिए अविकार स्वभाव ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व की उपासना और प्रभु प्रकट अविकार हैं ज्ञानमात्र और ज्ञान से परिपूर्ण है । तो उनके स्वरूप को निरखकर अपने आत्मा के स्वभाव को दृष्टि दृढ़ करना इस प्रयोजन के लिए विवेकी जन भगवान की भक्ति करते है और जिनके विवेक नहीं और कदाचित् थोड़ी बहुत सांसारिक भावना भी है तो प्रभु की भक्ति करने से अपने आप अपने अनेक भवों के पाप बदल जाते हैं । पुण्यरूप हो जाते हैं । नवीन बंध पुण्य का बंधता है,सो अब पुण्य का उदय आने पर उन्हें इष्ट सामग्री मिलती है । तो चूंकि शुभ भावों के आश्रयभूत भगवान है सो लोग यों कहने लगे कि भगवानने सब कुछ सुविधा दी । अरे भगवान तो अपने अनंत ज्ञान अनंत शक्ति में लवलीन रहते हैं । उनको क्या प्रयोजन है कि बाहर कोई रागद्वेष करे । जो लोग भगवान को ऐसा मानते है कि भगवान सुख देता है,स्वर्ग नरक भेजता है,फैसला करता है वह कर्ता बना हुआ है तो ऐसा मानने वालों को भगवान में भक्ति जगेगी ही नहीं । तो फिर करते हैं सो क्या बात है? वे डर के मारे करते हैं कि भगवान नरक न भेज दे या आस्था की वजह से करते हैं कि भगवान सब कुछ देने वाले है सो भगवान की भक्ति करें तो आशा से या भय से कोई उपासना करे,सेवा करे तो वह भक्ति नहीं कहलाती । भक्ति तो गुणों के अनुराग होने का नाम है । वहाँ गुणानुराग है नहीं । भय और आशा लगी हुई है । तो भगवान का स्वरूप नहीं है ऐसा कि वह राग किया करे । प्रभु राग नाम के दोष से रहित है ।
आप्त की द्वेषमोहरहितता―(10) प्रभु में द्वेष का भी दोष नहीं है । वैसे राग और द्वेष दोनों ही एक दर्जे के है । मलिनतायें हैं,कलंक हैं,पर लोगों का ऐसा ख्याल है कि द्वेष तो राग से भी अधिक बुरी चीज है । प्रभु किसी से द्वेष करें,यह संभव नहीं । भगवान के द्वेष नामक दोष भी नहीं है । (11) प्रभु के मोह नहीं है । मोह कहलाता है अज्ञानभाव । परपदार्थ के प्रति लगाव का परिणाम । प्रभु तो अनंत आनंद का अनुभव करते हैं,वे क्यों किसी वस्तु का लगाव रखेंगे? उनका ज्ञान तो पूर्ण निर्मल है,वे क्यों खोटा ज्ञान बसायेंगे? तो प्रभु के मोह नहीं है । इतने दोषों के नाम इस श्लोक में कहे गए हैं,किंतु ये सब हैं केवल 11 नाम । 7 नाम और शेष रहे । तो इस श्लोक में च शब्द लिखा है । मायने और और भी हैं,तो शेष दोषों के नाम,इस च शब्द से ग्रहण किए गए है । वे क्या है? सो आगे सुनिये ।
आप्त की चिंतारतिनिद्राविस्मयषिदस्वेदखेदरहितता―(12) चिंता―किसी भी बात की चिंताकरना । न भक्त की चिंता न किसी की खराबी करने की चिंता,चिंता नाम की कोई बात ही नहीं है ।शुद्ध आत्मा हैं । अनंत ज्ञान अनंत आनंदमय आत्मा है । वहाँ चिंता की बात ही नहीं । वे तो ऐसाशुद्ध परिणम रहे हैं कि जैसे धर्मादिक द्रव्य अपने में शुद्ध परिणमते है । वहाँ अशुद्धता की गुंजाइश भीनहीं । तो ऐसे जिनके कोई उपाधि न रही उनकी चिंता आदिक जैसे विकारों की गुंजाइश ही नहीं ।(13) तेरहवां दोष है रति, प्रीति करना, किसी बात का इन्ट्रेस्ट (दिलचस्पी) लेना, यह रति नामक दोषअरहंत भगवान के नहीं होता । (14) चौदहवां दोष है निद्रा । नींद आना । नींद में मनुष्य अचेत हो जाता,नींद तब आती है जब कोई थक जाता सो प्रभु का जो काम है केवल जानना ही जानना वह जोस्वभाव की क्रिया हो रही है, उससे थकते नहीं हैं और कुछ कार्य वे करते नहीं, फिर निद्रा का कारणक्या? निद्रा आने का निमित्तभूत दर्शनावरण कर्म उनके रहा ही नहीं है तो प्रभु के निद्रा नाम का दोषनहीं होता । (15) पंद्रहवां दोष है विषाद । शोक रज ये प्रभु के नहीं होते । धर्मास्तिकाय पदार्थो की तरहवे शुद्ध परिणम रहे हैं उनको विषाद का प्रसंग ही क्या है? (17) सत्रहवां दोष है पसेव । प्रभु के शरीर में पसीना नहीं आता । स्फटिक मणि की तरह स्वच्छ शरीर होता । (18) अठारवां दोष है खेद, व्याकुलता ।यह भी दोष प्रभु में नहीं होता, प्रभु के चार घातिया कर्मों का विनाश हो गया है । जिसके ये सभी दोषनहीं होते वह आप्त कहलाता है, सभी अरहंतों के ये 18 दोष नहीं होते ।