असंख्यात: Difference between revisions
From जैनकोष
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<li><span class="HindiText" id="3"><strong>शाश्वतासंख्यात</strong> <br /></span> | <li><span class="HindiText" id="3"><strong>शाश्वतासंख्यात</strong> <br /></span> | ||
<span class=" | <span class="PrakritText"><span class="GRef"> धवला पुस्तक 3/1,2,15/124</span> धम्मत्थियं अधम्मत्थियं दव्वपदेसगणण पडुुच्च एगसरूवेण अवट्ठिदमिदि कट्टु सस्सदासं खेज्जं।</span> | ||
<span class="HindiText">= धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय द्रव्यरूप प्रदेशों की गणना के प्रति सर्वदा एक रूप से अवस्थित हैं. इसलिए वे दोनों द्रव्य शाश्वतासंख्यात हैं।</span></li> | <span class="HindiText">= धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय द्रव्यरूप प्रदेशों की गणना के प्रति सर्वदा एक रूप से अवस्थित हैं. इसलिए वे दोनों द्रव्य शाश्वतासंख्यात हैं।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong>अप्रदेशोसंख्यात</strong> <br /></span> | <li><span class="HindiText"><strong>अप्रदेशोसंख्यात</strong> <br /></span> | ||
<span class=" | <span class="PrakritText"><span class="GRef">धवला पुस्तक 3/1,2,15/124/9</span> जं तं अपदेशासंखेज्जयं तं जोगविभागे पलिच्छेदे पडुच्च एगो जीवपदेसो। अधवा सुण्णेयं भंगो, असंखेज्जपज्जायाणमाहारभूद-अप्पएसएगदव्वाभावादो।</span> | ||
<span class="HindiText">= योग विभाग में जो अविभास प्रतिच्छेद बतलाये हैं, उनकी अपेक्षा जीव का एक प्रदेश प्रदेशासंख्यात है अथवा असंख्यात में उसका यह भेद शून्य रूप है. क्योंकि, असंख्यात पर्यायों के आधारभूत अप्रदेशी एक द्रव्य का अभाव है। कुछ आत्मा का एक प्रदेश द्रव्य तो हो नहीं सकता. क्योकि, एक प्रदेश जीव द्रव्य का अवयव है। पर्यायार्थिक नय का अवलंबन करने पर जीव का एक प्रदेश भी द्रव्य है, क्योंकि, अवयवों से भिन्न समुदाय नहीं पाया जाता है।</span></li> | <span class="HindiText">= योग विभाग में जो अविभास प्रतिच्छेद बतलाये हैं, उनकी अपेक्षा जीव का एक प्रदेश प्रदेशासंख्यात है अथवा असंख्यात में उसका यह भेद शून्य रूप है. क्योंकि, असंख्यात पर्यायों के आधारभूत अप्रदेशी एक द्रव्य का अभाव है। कुछ आत्मा का एक प्रदेश द्रव्य तो हो नहीं सकता. क्योकि, एक प्रदेश जीव द्रव्य का अवयव है। पर्यायार्थिक नय का अवलंबन करने पर जीव का एक प्रदेश भी द्रव्य है, क्योंकि, अवयवों से भिन्न समुदाय नहीं पाया जाता है।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong>एकासंख्यात</strong> <br /></span> | <li><span class="HindiText"><strong>एकासंख्यात</strong> <br /></span> | ||
<span class=" | <span class="PrakritText"><span class="GRef">धवला पुस्तक 3/1,2,15/125/3</span> जं तं एयासंखेज्जयं तं लोयायासस्स एकदिसा। कुदो। सेढिआगारेण लोयस्स एगदिसं पेक्खमाणे पदेसगणणं पडुच्च संखाभावादो।</span> | ||
<span class="HindiText">= लोकाकाश को एक दिशा अर्थात् एक दिशास्थित प्रदेशपंक्ति एकासंख्यात है, क्योंकि, आकाश प्रदेशों की श्रेणी रूप से लोकाकाश की एक दिशा देखने पर प्रदेशों की गणना की अपेक्षा उसकी गणना नहीं हो सकती।</span> | <span class="HindiText">= लोकाकाश को एक दिशा अर्थात् एक दिशास्थित प्रदेशपंक्ति एकासंख्यात है, क्योंकि, आकाश प्रदेशों की श्रेणी रूप से लोकाकाश की एक दिशा देखने पर प्रदेशों की गणना की अपेक्षा उसकी गणना नहीं हो सकती।</span> | ||
<li><span class="HindiText"><strong>उभयासंख्यात</strong> <br /></span> | <li><span class="HindiText"><strong>उभयासंख्यात</strong> <br /></span> | ||
<span class=" | <span class="PrakritText"><span class="GRef">धवला पुस्तक 3/1,2,15/125/4</span> जं तं उभयासंखेज्जयं तं लोयायासस्स उभयदिसाओ, ताओ, पेक्खमाणे पदेसगणणं पडुच्च संखाभावादो।</span> | ||
<span class="HindiText">= लोकाकाश की उभय दिशाओं अर्थात् दो दिशाओ में स्थित प्रदेश पंक्ति उभयासंख्यात् है, क्योंकि, लोकाकाश के दो और देखने पर प्रदेशों की गणना की अपेक्षा वे संख्यातीत हैं।</span></li> | <span class="HindiText">= लोकाकाश की उभय दिशाओं अर्थात् दो दिशाओ में स्थित प्रदेश पंक्ति उभयासंख्यात् है, क्योंकि, लोकाकाश के दो और देखने पर प्रदेशों की गणना की अपेक्षा वे संख्यातीत हैं।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong>विस्तारासंख्यात</strong> <br /></span> | <li><span class="HindiText"><strong>विस्तारासंख्यात</strong> <br /></span> | ||
<span class=" | <span class="PrakritText"><span class="GRef">धवला पुस्तक 3/1,2,15/125/7</span> जं तं वित्थारासंखेज्जं तं लोगागासपदरं, लोगपदरागारपदेसगणणं पडुच्च संखाभावादो।</span> | ||
<span class="HindiText">= प्रतर रूप लोकाकाश विस्तारासंख्यात है, क्योंकि, प्रतररूप लोकाकाश के प्रदेशों की गणना की अपेक्षा वे संख्यातीत हैं।</span></li> | <span class="HindiText">= प्रतर रूप लोकाकाश विस्तारासंख्यात है, क्योंकि, प्रतररूप लोकाकाश के प्रदेशों की गणना की अपेक्षा वे संख्यातीत हैं।</span></li> | ||
<li><span class="HindiText"><strong>सर्वासंख्यात</strong> <br /></span> | <li><span class="HindiText"><strong>सर्वासंख्यात</strong> <br /></span> | ||
<span class=" | <span class="PrakritText">धवला पुस्तक 3/1,2,15/125/6</span> घणागारेण लोगं पेक्खमोण पदेसगणणं पडुच्च संखाभावादो। जं तं सव्वासंखेज्जयं तं घणलोगो।</span> | ||
<span class="HindiText">= घनलोक सर्वासंख्यात् है, क्योंकि, घनरूप से लोक के देखनेपर प्रदेशों की गणना की अपेक्षा वे संख्यातीत हैं।</span> | <span class="HindiText">= घनलोक सर्वासंख्यात् है, क्योंकि, घनरूप से लोक के देखनेपर प्रदेशों की गणना की अपेक्षा वे संख्यातीत हैं।</span> | ||
Revision as of 08:08, 31 May 2021
- संक्षेपार्थ
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 2/38/192/6 संख्यातीतोऽसंख्येयः। = संख्यातीत को असंख्येय कहते हैं। ( राजवार्तिक अध्याय 2/38/2/147/31)
- संख्यात असंख्यात व अनंतमें अंतर - देखें अनंत - 2।
- असंख्यात के भेद
धवला पुस्तक 3/1,2,15/123-126 संक्षेपार्थ। नाम, स्थापना, द्रव्य, शाश्वत, गणना, अप्रादेशिक, एक, उभय, विस्तार, सर्व और भाव इस प्रकार असंख्यात ग्यारह प्रकार का है। (नाम स्थापना द्रव्य व भाव असंख्यातों के उत्तर भेद निक्षेपों वत् जानना) गणना संख्यात् तीन प्रकार है परीतासंख्यात, युक्तासंख्यात और संख्यातासंख्यात। ये तीनों भी प्रत्येक उत्कृष्ट मध्यम और जघन्य के भेद से तीन तीन प्रकार के हैं। ( तिलोयपण्णत्ति अधिकार 4/310 की व्याख्या) ( राजवार्तिक अध्याय 3/38/5/206/30)
- नाम स्थापना द्रव्य व भाव - देखें निक्षेप
- शाश्वतासंख्यात
धवला पुस्तक 3/1,2,15/124 धम्मत्थियं अधम्मत्थियं दव्वपदेसगणण पडुुच्च एगसरूवेण अवट्ठिदमिदि कट्टु सस्सदासं खेज्जं। = धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय द्रव्यरूप प्रदेशों की गणना के प्रति सर्वदा एक रूप से अवस्थित हैं. इसलिए वे दोनों द्रव्य शाश्वतासंख्यात हैं। - अप्रदेशोसंख्यात
धवला पुस्तक 3/1,2,15/124/9 जं तं अपदेशासंखेज्जयं तं जोगविभागे पलिच्छेदे पडुच्च एगो जीवपदेसो। अधवा सुण्णेयं भंगो, असंखेज्जपज्जायाणमाहारभूद-अप्पएसएगदव्वाभावादो। = योग विभाग में जो अविभास प्रतिच्छेद बतलाये हैं, उनकी अपेक्षा जीव का एक प्रदेश प्रदेशासंख्यात है अथवा असंख्यात में उसका यह भेद शून्य रूप है. क्योंकि, असंख्यात पर्यायों के आधारभूत अप्रदेशी एक द्रव्य का अभाव है। कुछ आत्मा का एक प्रदेश द्रव्य तो हो नहीं सकता. क्योकि, एक प्रदेश जीव द्रव्य का अवयव है। पर्यायार्थिक नय का अवलंबन करने पर जीव का एक प्रदेश भी द्रव्य है, क्योंकि, अवयवों से भिन्न समुदाय नहीं पाया जाता है। - एकासंख्यात
धवला पुस्तक 3/1,2,15/125/3 जं तं एयासंखेज्जयं तं लोयायासस्स एकदिसा। कुदो। सेढिआगारेण लोयस्स एगदिसं पेक्खमाणे पदेसगणणं पडुच्च संखाभावादो। = लोकाकाश को एक दिशा अर्थात् एक दिशास्थित प्रदेशपंक्ति एकासंख्यात है, क्योंकि, आकाश प्रदेशों की श्रेणी रूप से लोकाकाश की एक दिशा देखने पर प्रदेशों की गणना की अपेक्षा उसकी गणना नहीं हो सकती। - उभयासंख्यात
धवला पुस्तक 3/1,2,15/125/4 जं तं उभयासंखेज्जयं तं लोयायासस्स उभयदिसाओ, ताओ, पेक्खमाणे पदेसगणणं पडुच्च संखाभावादो। = लोकाकाश की उभय दिशाओं अर्थात् दो दिशाओ में स्थित प्रदेश पंक्ति उभयासंख्यात् है, क्योंकि, लोकाकाश के दो और देखने पर प्रदेशों की गणना की अपेक्षा वे संख्यातीत हैं। - विस्तारासंख्यात
धवला पुस्तक 3/1,2,15/125/7 जं तं वित्थारासंखेज्जं तं लोगागासपदरं, लोगपदरागारपदेसगणणं पडुच्च संखाभावादो। = प्रतर रूप लोकाकाश विस्तारासंख्यात है, क्योंकि, प्रतररूप लोकाकाश के प्रदेशों की गणना की अपेक्षा वे संख्यातीत हैं। - सर्वासंख्यात
धवला पुस्तक 3/1,2,15/125/6 घणागारेण लोगं पेक्खमोण पदेसगणणं पडुच्च संखाभावादो। जं तं सव्वासंखेज्जयं तं घणलोगो। = घनलोक सर्वासंख्यात् है, क्योंकि, घनरूप से लोक के देखनेपर प्रदेशों की गणना की अपेक्षा वे संख्यातीत हैं। - गणनासंख्यात
- जघन्य परीतासंख्यात
राजवार्तिक अध्याय 3/38/5/206/17 संख्येयप्रमाणवगमार्थं जंबूद्वीपपतुल्यायामविष्कंभः योजनासहस्रावगाहः बुद्धया कुशूलाश्चत्वारः कर्तव्याःशकाला-प्रतिशलाका -महाशलाकारख्यास्त्रयोऽवस्थिताः चतुर्थोऽनवस्थितः। अत्र द्वौ सर्ष पौ निक्षिप्तौ जघन्यमेतत्संख्येयप्रमाणम्, तमनवस्थितं सर्षपैः पूर्ण गृहीत्वा कश्चिद्देवः एकैकंसर्षपमेकैकस्मिन् दीपे समुद्रे च प्रक्षिपेत्। तेन विधिना स रिक्तः। रिक्तइतिशालाकाकुशूले एकंसर्षपं प्रक्षिपेत्। यत्र अंत्यसर्षपो निक्षिप्तस्तमवधिंकृत्वा अनवस्थितं कुशूलं परिकल्प्य सर्षपैः पूर्णं कृत्वा ततः परेषु द्वीपसमुद्रेष्वेकैकसर्षपप्रदानेन स रिक्तःकर्तव्यः। रिक्त इति शलाकाकुशूले पुनरेकं प्रक्षिपेत्। अनेन विधिना अनवस्थितकुशूलपरिवर्धनेन शलाकाकुशूले परिपूर्णे पूर्ण इति प्रतिशलाकाकुशूले एकः सर्षपो प्रक्षेप्तव्यः एवं तावत्कर्त्तव्यो यावत्प्रशलाकारकुशूलः परिपूर्णो भवति। परिपूर्णे इति महाशलाकाकुशूले एकः सर्षपः प्रक्षेप्तव्यः। सोऽपि तथैव परिपूर्णः। एवमेतत् चतुर्ष्वपि पूर्णेषु उत्कृष्टसंख्येयमतोत्य जघन्यपरीता संख्येयं गत्वैकं रूपं पतितम्। = संख्येय प्रमाण के ज्ञान के लिए जंबूद्वीप के समान 1 लाख योजन लंबे-चौड़े और एक योजन गहरे शलाका प्रतिशलाका महाशलाका और अनवस्थित नाम के चार कुंड बुद्धिसे कल्पित करने चाहिए। अनवस्थित कुंड में दो सरसों डालने चाहिए। यह जघन्य संख्या का प्रमाण है। उस अनवस्थित कुंड को सरसों से भर देना चाहिए। फिर कोई देव उससे एक-एक सरसों को क्रमशः एक-एक द्वीप सागर में डालता जाय। जब वह कुंड खाली हो जाय तब शलाका कुंड में एक दाना डाला जाय। जहाँ अनवस्थित कुंडका अंतिम सरसों गिरा था उतना बड़ा अनवस्थित कुंड कल्पना किया जाय। उसे सरसों से भरकर फिर उससे आगे के द्वीपो में एक-एक सरसों डालकर उसे खाली किया जाय। जब खाली हो जाय तब शलाका कुंड में दूसरा सरसों डाले। इस प्रकार अनवस्थित कुंड को तब तक बढ़ाता जाय जब तक शलाका कुंड सरसों से न भर जाय। जब शलाकाकुंड भर जाय तब एक सरसो प्रतिशलाका कुंड में डाले इस तरह उसे भी भरे। जब प्रतिशलाका कुंड भर जाय तब एक सरसों महाशलाका कुंड में डाले। उक्त विधि से जब वह भी परिपूर्ण हो जाय तब जो प्रमाण आता है, वह उत्कृष्ट संख्यात से एक अधिक जघन्य परीतासंख्यात है।
रा.वा हिं/फुट नोट - कुल सरसों का प्रमाण आठ सरसों = 1. यव; आठ यव = 1 अंगुल; 24 अंगुल = 1 हाथ; 4 हाथ = 1 धनुष; 2000 धनुष = 1 कोष; 4 कोस = 1 व्यवहार योजन; 500 व्यवहार योजन = 1 बड़ा योजन। अब 100,000 योजन विष्कंभ के 1000 योजन गहरे कुंड का घन प्रमाण = (50,000)2 X 22/7 X 10 13 यो.। 1 घन योजन में सरसों का प्रमाण = (8 X 8 X 24 X 4 X 2000 X 4 X 500)3 X 75 X 10\13 = 19791209299968 X 10\31। कुंडके ऊपर शिखामें सरसों = 1799200844551636 - 36 36 36 33 36 36 36 36 36 36 36 36 36 4\11। प्रथम कुंडमें कुल सरसों = 1997112938451316 - 36 36 36 36 36 36 36 36 36 36 36 36 36 36 3.4\11 (45 अक्षर)। अंतिम कुंड में सरसों का प्रमाण 45 अक्षर X असंख्यात्। - उत्कृष्ट परीतासंख्यात
राजवार्तिक अध्याय 3/38/5/207/2 जघन्ययुक्तासंख्येयं गत्वा पतितम्। अत एकरूपेऽनीते उत्कृष्टपरीतासंख्येयं भवति। = जघन्य युक्तसंख्यात् होता है। (देखें आगे सं.4) उसमें एक कम करने पर उत्कृष्ट परीतासंख्यात होता है। - मध्यम परीतासंख्यात
राजवार्तिक अध्याय 3/38/5/207/3 मध्यमजघन्योत्कृष्टपरीतासंख्येयम्। = बीच के विकल्प अजघन्योत्कृष्ट परीतासंख्येय है। (तीनों भेदों का कथन तिलोयपण्णत्ति अधिकार 4/ 309/प.179 व्याख्या)( त्रिलोकसार गाथा 14-36)
- जघन्य युक्तासंख्यात
राजवार्तिक अध्याय 3/38/5/206/33 यज्जघन्यपरीतासंख्येयं तद्विरलीकृत्य मुक्तावलीकृता अत्रैकैकस्यां मुक्तायां जघन्यपरीतासंख्येयं देयम्। एव मेतद्वर्गितम् प्राथमिकीं मुक्तीवलीमपनीय योन्येकैकस्यां सुक्तायां जघन्यपरीतासंख्येयानि दत्तानि तानि संपिंड्य मुक्तावली कार्या। ततो यो जघन्यपरीतासंख्येयसंपिंडान्निष्पन्नो राशिः स देयः एकैकस्या मुक्तायाम्। एवमेतत्संवर्गितम् उत्कृष्टपरीतासंख्येयमतीत्य जघन्ययुक्तासंख्येयं गत्वा पतितम्। = जघन्य परीतासंख्येय को फैलाकर मोती के समान जुदे-जुदे रखना चाहिए। प्रत्येक पर एक-एक जघन्य परीतासंख्येय को फैलाना चाहिए। इनका परस्पर वर्ग करे। जो जघन्य परीतासंख्येय को फैलाना चाहिए। इनका परस्पर वर्ग करे। जो जघन्य परीतासंख्येय मुक्तवली पर दिये गये थे उनका गुणाकार रूप एक राशि बनावे। उसे विरलन कर उस पर उस वर्गित राशि को दे। उसका परस्पर वर्ग कर जो राशि आती है वह उकृष्ट परीतासंख्येय से एक अधिक जघन्य युक्तासंख्यात् होती है।
(यदि क = (ज.परी.असं.) ज.परी.असं तो क क = (ज.यु.असं)। - उत्कृष्टयुक्तासंख्यात
राजवार्तिक अध्याय 3/38/5/207/6 तत् एकरूपेऽपनीते उत्कृष्टं युक्तासंख्येयं भवति। = उस (जघन्य असंख्येयासंख्येय) में से एक कम कर लेने पर उत्कृष्ट युक्तासंख्येय होती है। - मध्यमयुक्तासंख्यात
राजवार्तिक अध्याय 3/38/5/207/6 मध्यमजघन्योत्कृष्टयुक्तासंख्येयं भवति। = बीच के विकल्प मध्यम युक्तासंख्येय होते हैं। (तीनों भेदोंका कथन तिलोयपण्णत्ति अधिकार 4/310/पृ.180 व्याख्या)( त्रिलोकसार गाथा 36-37) - जघन्य असंख्येयासंख्यात
राजवार्तिक अध्याय 3/38/5/207/4 यज्जघन्ययुक्तासंख्येयं तद्विरलीकृत्य मुक्तावली रचिता। तत्रैकैकयुक्तायां जघन्ययुक्तासंख्येयानि देयानि। एवमेतत् सकृद्धर्गितमुत्कृष्टयुक्तासंख्येयमतीत्य जघन्यासंख्येयासंख्येयं गत्वा पतितम्। = जघन्ययुक्तासंख्येय को विरलन कर प्रत्येक पर जघन्ययुक्तासंख्येय को स्थापित करे। उनका वर्ग करने पर जो राशि आती है वह जघन्य असंख्यासंख्य है।
(ज.यु.असं) ज.यु.असं। - उत्कृष्ट असंख्येयासंख्यात
राजवार्तिक अध्याय 3/38/5/207/7 यज्जघन्यासंख्येसंख्येयं तद्विरलीकृत्य पूर्वविधिना त्रान्वारान् वर्गितसंवर्गित उत्कृष्टासंख्येयासंख्येयं न प्राप्नोति। ततो धर्माधर्मैकजीवलोकाकाशपत्येकशरीरजीवबादरनिगोतशरीराणि षड्प्येतान्यसंख्येयानि स्थितिबंधाध्यवसायस्थानांयनुभागबंधाध्यवसायस्थानानि योगाविभागपरिच्छेदरूपाणि चासंख्येयलोकप्रदेशप्रमाणन्युत्सपर्पिण्यवसर्पिणोसमयांश्च कृत्वा उत्कृष्टसंख्येयासख्येयमतीत्य जघंयपरीतांतं गत्वा पतितम्। तत् एकरूपेऽपनीते उत्कृष्टासंख्येयासंख्येयं तद्भवति। = जघन्य असंख्येयासंख्येय का विरलन कर पूर्वोक्त विधि से तीन बार वर्गित करने पर भी उत्कृष्ट असख्येयासंख्येय नहीं होता यदि (क = ज.असं.अ) ज.असं असं तो ख' = क क और ग = ख ख = उत्कृष्ट असंख्येयासंख्येय से कुछ कम। इसमें धर्म, अधर्म, एक जीव, लोकाकाश, प्रत्येक शरीर जीव बादरनिगोत शरीर ये छहों असंख्येय स्थितिबंधाव्यवसाय, योगके अविभागप्रतिच्छेद, उत्सर्पिणी व अवसर्पिणा काल के समय; इस सबों को जोड़ने पर फिर तीन बार वर्गित संवर्गित करने पर उत्कृष्ट संख्येयासंख्येय से एक अधिक जघन्य परीतानंत होता है। इसमें-से एक कम करनेपर उत्कृष्ट असंख्येयासंख्येय होता है। अर्थात् = (ग+6 राशि+4 राशि) (ग+6 राशि+4 राशि)
= `प' फ = प प, ब = फ फ = ज.पर.अन./(देखें अनंत ) उत्कृष्ट असंख्येयोसंख्येय = ब-1। - मध्यम असंख्येयासंख्यात
राजवार्तिक अध्याय 3/38/5/207/12 मध्यममजघन्योत्कृष्टा संख्येयासंख्येयं भवति। = मध्य के विकल्प अजघन्योत्कृष्ट असंख्येयासंख्येय हैं।
(तीनों भेदों के लक्षण तिलोयपण्णत्ति अधिकार 4/310/181-182); ( त्रिलोकसार गाथा 37-45)।
- आगम में `असंख्यात' की यथास्थान प्रयोग विधि - देखें गणित - I.1.6
- जघन्य परीतासंख्यात