नियमसार - गाथा 13: Difference between revisions
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< | <div class="PravachanText"><p>तह दंसणउवओगो ससहावेदरवियप्पदो दुविहो।केवलिमिंदिपरहिपं असहायं तं सहावमिदि भणिदं।।13।।<strong>दर्शनोपयोग के भेदों में स्वभावदर्शनोपयोग</strong>―जीव के स्वरूप वर्णन करने के प्रकरण में दर्शनोपयोग का स्वरूप यहाँ बताया जा रहा है। जैसे ज्ञानोपयोग बहुत प्रकार के भेदों से सहित है, इस ही प्रकार दर्शनोपयोग भी नाना भेद करके सहित है। प्रथम तो दर्शनोपयोग के दो भेद हैं–स्वभावदर्शनोपयोग और विभावदर्शनोपयोग। स्वभावदर्शनोपयोग दो प्रकार का है–कारण स्वभावदर्शनोपयोग और कार्यस्वभाव दर्शनोपयोग। इसे कारण स्वभावदर्शनोपयोग कहिए या कारणदृष्टि कहिए अथवा दर्शनस्वभाव कहिए यही है शुद्ध आत्मा का स्वरूप श्रद्धानमात्र। दर्शन का और सम्यग्दर्शन का निकट संबंध है। वैसे दर्शन का व्यक्तिरूप जो दर्शनोपयोग होता है उसका स्रोतरूप है कारण दर्शन;किंतु उसको जरा शीघ्र समझ पायें इस पद्धति के अनुसार बताया जा रहा है कि जो नित्य निरंजन शुद्ध ज्ञानस्वरूप है उसका स्वरूप श्रद्धानमात्र कारण दर्शन होता है। यहाँ श्रद्धान पर्यायरूप नहीं लेना, किंतु स्वरूप प्रत्यक्षरूप जैसा कारणस्वभाव ज्ञान है तो इस ही प्रकार इसे स्वरूप प्रत्यक्ष कह दिया जाय जिसका स्वरूप श्रद्धान मात्र प्रयोजन है।<strong>स्वभावदर्शन की सहजरूपता</strong>―दर्शन की व्यक्तियों के मूल आधार को बताने का उपाय है सहज आत्मस्वरूप को दिखाना, जो आत्मस्वरूप सदा पावनरूप है, पवित्र है। औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव का अथवा विभाव स्वभावात्मक परभावों का अगोचर है, नैमित्तिक भाव से परे है यह आत्मस्वरूप। जीव के 5 भावों में से पारिणामिक भाव तो स्वरूपमात्र भाव का नाम है और शेष चार भाव नैमित्तिक भाव हैं। कोई कर्मों के उदय का निमित्त पाकर हुआ तो कोई कर्मों के उपशम का निमित्त पाकर हुआ तो कोई कर्मों के क्षयोपशम का निमित्त पाकर हुआ, तो कोई कर्मों के विनाश का निमित्त पाकर हुआ। उन नैमित्तिक पद्धतियों से पृथक् जो सहज पारिणामिक स्वभाव भाव है उसका स्वरूप दर्शन मात्र कारण दर्शन कहलाता है। यह आत्मस्वरूप कारणसमयसर रूप है, निरावरण इसका स्वभाव है। द्रव्य की शक्ति पर आवरण नहीं होता, किंतु शक्ति की व्यक्ति का आवरण होता है। शक्ति तो अपने स्वभाव की सत्ता मात्र है। किसी भी वस्तु का स्वरूप बताया जाय तो कुछ हद तक तो उसका निरूपण चल सकता है, पर पूरी बात आ जाय ऐसा तो कोई वचन ही नहीं है। यह अपने आत्मतत्त्व की बात है।<strong>वस्तु के वास्तविक स्वरूप की अवक्तव्यता</strong>―कोई सी चीज खायी है भैया ! उसका ही स्वरूप नहीं बता सकते। अच्छा बताओ इमरती का स्वरूप कैसा है ? बोलोगे मीठा, कैसा मीठा ? खूब मीठा। अभी तो समझ में नहीं आया तो कैसे समझ में आए ? जिसको समझाना हो उसे खिला दो, उसकी समझ में आ जायेगा। वचनों से तो समझ में न आ पायेगा। बड़ा मीठा। अरे मीठा तो रसगुल्ला भी होता है। तो क्या रसगुल्ला जैसा ? अरे नहीं, उससे भी विलक्षण स्वाद है। बात तो इस तरह से पूरी समझ में नहीं आ सकती। तो फिर कहते हैं कि इमरती तो इमरती ही है। क्या बताया जाय, खाकर देखलो। आत्मस्वरूप कैसा है ? उसको बताने का बहुत बहुत प्रयास किया। मामूली प्रयास तो यह है कि पर्यायमुखेन वर्णन किया। संसारी जीव 5 प्रकार के हैं–एकेंद्रिय जीव, दो इंद्रिय जीव, तीन इंद्रिय जीव, चार इंद्रिय जीव और पांचइंद्रिय जीव। और और जीव समास बताया। फिर और अधिक प्रयास किया तो गुणों का वर्णन करने लगे, और अधिक प्रयास किया तो 1 स्वभाव का वर्णन करने लगे। अब इससे भी और अधिक वर्णन करें तो यों कहेंगे कि वह न कषाय सहित है, न कषाय रहित है। वह न वीतराग है, न सराग है। किंतु वह तो ज्ञायकभाव मात्र है। ज्ञायक भाव मात्र ? अभी कुछ ज्यादा समझ में नहीं आया। तो भाई क्या बताएँ वह तो नाथ जैसा है सोई है अनुभव करके देख लो।<strong>स्वभावसत्तामात्र आत्मस्वरूप</strong>―तो स्व स्वभाव की सत्तामात्र यह आत्मस्वरूप है, परम चैतन्य सामान्यस्वरूप है यह आत्मस्वभाव। 24 घंटे में कुछ ध्यान तो लाओ। कहाँ तो उस परम चैतन्यस्वभावमात्र तरंग भी इसका स्वरूप नहीं है। हलन चलन रागद्वेष कुछ भी परिवर्तन इसका स्वरूप नहीं है और मानते फिर रहे हैं जड़ पदार्थों को भी अपनी चीज। कितना हम अपने हित के स्थान से दूर भागे जा रहे हैं ? इस पर दृष्टि न दी, संभाल न की तो बताओ इस ज्ञानस्वभाव के दर्शन का फिर मौका कहाँ आयेगा ? जो अवसर मिला है वहाँ तो चेतते नहीं है और जहाँ इतनी सब मलिनताएँ हैं, दुर्दशायें हैं वहाँ का उत्साह बनाया है। हमारे प्राचीन ज्ञानी संत आचार्यों ने आत्महित के लिए बना बनाया भोजन रख दिया है। अब कुछ सोचने की भी, दिमाग लगाने की भी कोई मेहनत नहीं करनी है। सीधी-सी बात है सामने। अब इतना भी न किया जाय तो फिर और क्या उत्तर दिया जाय यही कि फिर रुलते रहो संसार में।<strong>कर्त्तृत्व के अभिमान का व्यर्थ गौरव</strong>―विषयसुख के लोभी जनों को धार्मिक आनंद की भावना कहाँ जगती है ? उन्हें तो विषय सुख ही सुगम दिखा करते हैं और पा लेवें विषयसुख के साधन, तो मारे गर्व क ऐंठ के जमीन आसमान एक कर डालते हैं। जैसे सांड गाँव के आसपास के घूरे को सींग से उछालकर अपनी ही पीठ पर डाल लिया और यह देखकर कि मैंने कितना बड़ा जबरदस्त काम कर डाला है सो टांगे पसारकर पीठ को लंबी करके पूंछ को हिलाकर गर्व से देखता है कि मैंने बहुत बहुत बड़ा काम कर डाला है। इसी प्रकार यह संसारी जीव कुछ वैभव पा ले या त्री पुरुषों को अपने अधिकार में पा ले या दीन हीन मित्रजनों को अपनी गोष्ठी में देखे तो उनमें अपनी करतूत कर अभिमान रखकर यह अपने स्वरूप को बिलकुल भूल जाता है। इसका फल क्या होगा ? केवल संसारभ्रमण। देखो अपने आत्मस्वरूप को। इसका अकृत्रिम स्वरूप है, बनावटी नहीं है।<strong>बनावटी की अशोभनीयता</strong>―भैया ! बनावटी स्वरूप तो बड़े भद्दे लगते हैं। जैसे कोई पाउडर लगाकर, लाली लगाकर अपनी बनावटी सुंदरता जाहिर करे तो देखने वाले तो उसे भद्दा और बेवकूफी के रूप में देखते हैं। पर न जाने कैसा मन है कि ऊँची एड़ी की जूती पहिनकर, राख से मुँह पोतकर बेचारी ऐंठ के साथ निकलती है ? विचित्र बात देखो कि किसी-किसी आदमी को भी यही शौक हो जाता है–इन बनावटी बातों से ये बिलकुल असुंदर हो जाते हैं। बनावटी धर्म–मन में तो धार्मिक भावना नहीं है। धर्म क मर्म का पता नहीं है, किंतु न जाने किन-किन ख्यालों से यह धर्म का अनुष्ठान किया जाता है, तो उन प्रकरणों में न करने वाले को शांति, न कराने वाले को शांति और प्राय: न देखने वाले को शांति। बनावट से परे है यह आत्मतत्त्व और धर्मपालन, इस बात को नहीं भूलना। यह दिखावट, बनावट, सजावट से बिलकुल परे बात है।<strong>आत्मतत्त्व की अकृत्रिमता</strong>―यह आत्मस्वरूप अकृत्रिम है, अविचल स्थिति करके सहित है। शुद्ध ज्ञानमात्र रहने रूप चारित्र संयुक्त है–ऐसा नित्य, शुद्ध, निरंजन, बोधस्वरूप आत्मतत्त्व का स्वरूपदर्शनमात्र यह कारणदर्शन है। जिसको दर्शन हो जाए तो समस्त पापवैरियों की सेना ध्वस्त हो जाती है–ऐसा यह कारणदर्शन है और स्वभावकार्यदर्शन केवल दर्शन है। दर्शनावरणीय आदिक घातिया कर्मों के क्षय से उत्पन्न होने वाली दृष्टि स्वाभाविक कार्यदृष्टि है। यह प्रभु अरहंत में, सिद्धदेव में केवलज्ञान की तरह यह भी एक साथ लोकालोक में व्यापक है अर्थात् समस्त सत् का ज्ञान होना जैसे केवलज्ञान में था, इसी प्रकार समस्त सत् का दर्शन होना इस केवलदर्शन में है। इस क्षायिक जीव के, इस प्रभु-परमात्मा के जिसने कि समस्त निर्मल केवलज्ञान के द्वारा तीनों लोक को जान लिया है और अपने आत्मा से उत्पन्न हुए वीतराग आनंदरूप सुधासागर में अवगाहन किया है और जैसा आत्मा का सहजस्वरूप है, उसी प्रकार जिसका स्वरूप व्यक्त हुआ है–ऐसा जिसका शुद्ध चारित्र है–ऐसे अरहंतप्रभु के, सिद्धदेव के यह केवलदर्शन एक साथ लोकालोक का दर्शक है।<strong>केवलदर्शन और स्वभावदर्शन</strong>―केवलदर्शन व्यवहारनय का विषय है और दर्शनस्वभाव निश्चयनय का विषय है अर्थात् केवलदर्शन शुद्ध निश्चयनयरूप व्यवहार का विषय है और दर्शनस्वभाव परमशुद्धनिश्चयरूप निश्चय का विषय है। यहाँ क्या प्रकट हुआ ? केवलदर्शन। इसका आदि है, परंतु परमशुद्ध निश्चयनय के विषय की आदि नहीं होती है। हाँ, केवलदर्शन अनिधन अवश्य है। कभी केवलदर्शन नहीं मिटेगा, लेकिन स्वरूप से देखो तो प्रतिसमय मिटता रहता है। प्रतिसमय जैसे नया-नया केवलज्ञान होता है, इसी प्रकार प्रतिसमय नया-नया केवलदर्शन होता है। हालांकि उस दर्शन में जो विषय है, वह एक समान है, रंच भी फर्क नहीं है, मगर परिणमन तो दूसरे समय का है। शक्ति तो बराबर नवीन-नवीन लग रही है।<strong>प्रतिक्षण परिणमन का एक उदाहरण</strong>―जैसे कोई शीर्षासन लगता है और 5 मिनट तक लगाए तो देखने वालों को यों ही लगेगा कि क्या कर रहा है यह। 8 बजे यह औंधा खड़ा हुआ था सिर नीचे करके, 5 मिनट हो गए, अभी वही काम कर रहा है, मगर ऐसा नहीं है, प्रतिक्षण उसकी नवीन-नवीन शक्ति लग रही है। एक काम वह नहीं कर रहा है, प्रतिक्षण वह नवीन-नवीन प्रयत्न कर रहा है। देखने वालों का क्या है ? जो कर रहा है, वह जाने। जैसे देखने में वह एक समान कार्य होने से एक कार्य कहा जाता है, परंतु वहाँ प्रतिक्षण नवीन-नवीन शक्ति द्वारा वह शीर्षासन से खड़ा है, इसी तरह विषयों की समानता के कारण केवलदर्शन सदा रहता है, अनंत है, किंतु वह चूँकि परिणमन है, प्रतिसमय नवीन-नवीन उसमें उत्पाद है और पूर्व-पूर्व दर्शनपर्याय का वहाँ विलय है। इस ही तरह से प्रतिसमय नवीन-नवीन केवलदर्शनरूप से ही यह परिणमता चला जाता है।<strong>स्वभावदर्शन की महनीयता</strong>―यह शुद्ध अवस्था भव्यजनों के द्वारा वंदनीय है। शुद्धअवस्था हितकारी अवस्था है, इस कारण समस्त लोक के भव्यजीवों के द्वारा यह वंदना के योग्य है। सो प्रभु के केवलज्ञान की तरह यह दर्शन की अवस्था भी एक साथ लोकालोक को व्यापने वाली है। इस तरह स्वभावदर्शनोपयोग कार्य और कारण के रूप से दो प्रकार कहा गया है। यह दर्शनोपयोग में स्वभावदर्शनोपयोग की चर्चा है। यह दो प्रकार का है–कारणरूपस्वभावदर्शन और कार्यरूपस्वभावदर्शन। देखने की शक्ति का भी नाम दर्शन है और देखने का नाम भी दर्शन है। यों शक्ति, व्यक्ति के भेद से यह दो प्रकार का है।<strong>आत्मा का शरण</strong>―विभावदर्शनोपयोग, जिसको कि अगले सूत्र में बतायेंगे वह तीन प्रकार का है–चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन। यहाँ शिक्षा लेनी है कि दर्शनज्ञानचारित्रात्मक एक चैतन्य सामान्यस्वरूप निजआत्मतत्त्व ही मुक्ति चाहने वालों का आलंबनरूप है। किसी बच्चे को कोई मारने का डर दिखाये तो उसके लिये शरण उसकी माँ की गोद है। वह भागकर अपनी माँ की गोद में बैठ जायेगा, कुछ बड़ा होगा तो पिता के पास जाकर बैठ जायेगा, वहाँ शरण पायेगा। जरा और बड़ा हुआ तो जिसे अपना मित्र माना है, उसके पास अथवा अपनी त्री के पास जाकर बैठ जायेगा। जब और बड़ा हुआ तो सब तरफ से दु:ख ही दु:ख आने लगे, लड़के भी ठीक नहीं बोलते हैं, त्री भी विपरीत हो गई है, धन पर भी कितने ही लोगों ने छलबल से संकट डाल दिया है तथा और भी सम्मान अपमान आदि अनेक प्रकार के क्लेश हैं, जिनके मिटने का उपाय भी नजर नहीं आता तो किसी साधु के पास जाकर बैठ जायेगा, इसलिए कि कुछ धार्मिक ज्ञान की बातें मिलें तो संकट दूर हो जायेंगे। जिंदगी भर तो लड़कों के लिये कमाया, सब कुछ कर डाला, परंतु कोई सहायक नहीं होता है। अब कहाँ सहाय ढूँढै ? जो विकल्परूप क्लेश है, उसकी जहाँ शांति हो, वहाँ जाये।<strong>आत्मा का परमशरण</strong>―अब शांति का अर्थी यह जीव बार-बार साधुजी के पास बैठता ह, मगर वे विकल्पसंकट हटते ही नहीं है। चोट तो लग गयी है बहुत, रह-रहकर ख्याल तो आता ही है। अब क्या करें ? अब और क्या उपाय रह गया करने को ? स्वाध्याय करें, तिस पर भी बात फिट नहीं बैठती। एक उपाय रह गया है, वे सब विकल्प छोड़ें। जिस का जो होता है, वह हो। केवल अपने ज्ञानज्यातिर्मयरत्नत्रयात्मक इस आत्मतथ्य को देखें, अंत में शरण यही मिलेगा, इसी को परमार्थशरण कहते हैं। इस मार्ग के आलंबन बिना मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि संकट तो सिर्फ विकल्पमात्र है। जैसे संकट छोड़ा तो इसका अर्थ है विकल्प को छोड़ा। अपने आत्मस्वरूप को छोड़कर अन्यत्र हित की आस्था न जगे तो यह मोक्षमार्ग प्राप्त हो सकता है। अब थोड़ी यहाँ आस्था की, थोड़ी वहाँ आस्था की तो इससे ठीक ठिकाना नहीं बन सकता। एक ही आस्था हो कि मेरा आत्मा अमूर्त है, ज्ञानमात्र है, स्वभावत: आनंदमय है, इसमें कोई दोष नहीं है, यह तो केवल अपने स्वरूपमात्र है। झलकता है विभाव झलको, मेरी ओर से यह परिणमन नहीं है। जगत् का जैसा रिवाज है, उसका निमित्तनैमित्तिक संबंध है, वैसा ही हो रहा है सब–ऐसा ज्ञानबल जहाँ जगता है और आत्मस्वभाव में आस्था बनती है, वहाँ संकटों से छूटने का मार्ग मिलता है।</p> | ||
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
तह दंसणउवओगो ससहावेदरवियप्पदो दुविहो।केवलिमिंदिपरहिपं असहायं तं सहावमिदि भणिदं।।13।।दर्शनोपयोग के भेदों में स्वभावदर्शनोपयोग―जीव के स्वरूप वर्णन करने के प्रकरण में दर्शनोपयोग का स्वरूप यहाँ बताया जा रहा है। जैसे ज्ञानोपयोग बहुत प्रकार के भेदों से सहित है, इस ही प्रकार दर्शनोपयोग भी नाना भेद करके सहित है। प्रथम तो दर्शनोपयोग के दो भेद हैं–स्वभावदर्शनोपयोग और विभावदर्शनोपयोग। स्वभावदर्शनोपयोग दो प्रकार का है–कारण स्वभावदर्शनोपयोग और कार्यस्वभाव दर्शनोपयोग। इसे कारण स्वभावदर्शनोपयोग कहिए या कारणदृष्टि कहिए अथवा दर्शनस्वभाव कहिए यही है शुद्ध आत्मा का स्वरूप श्रद्धानमात्र। दर्शन का और सम्यग्दर्शन का निकट संबंध है। वैसे दर्शन का व्यक्तिरूप जो दर्शनोपयोग होता है उसका स्रोतरूप है कारण दर्शन;किंतु उसको जरा शीघ्र समझ पायें इस पद्धति के अनुसार बताया जा रहा है कि जो नित्य निरंजन शुद्ध ज्ञानस्वरूप है उसका स्वरूप श्रद्धानमात्र कारण दर्शन होता है। यहाँ श्रद्धान पर्यायरूप नहीं लेना, किंतु स्वरूप प्रत्यक्षरूप जैसा कारणस्वभाव ज्ञान है तो इस ही प्रकार इसे स्वरूप प्रत्यक्ष कह दिया जाय जिसका स्वरूप श्रद्धान मात्र प्रयोजन है।स्वभावदर्शन की सहजरूपता―दर्शन की व्यक्तियों के मूल आधार को बताने का उपाय है सहज आत्मस्वरूप को दिखाना, जो आत्मस्वरूप सदा पावनरूप है, पवित्र है। औदयिक, औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव का अथवा विभाव स्वभावात्मक परभावों का अगोचर है, नैमित्तिक भाव से परे है यह आत्मस्वरूप। जीव के 5 भावों में से पारिणामिक भाव तो स्वरूपमात्र भाव का नाम है और शेष चार भाव नैमित्तिक भाव हैं। कोई कर्मों के उदय का निमित्त पाकर हुआ तो कोई कर्मों के उपशम का निमित्त पाकर हुआ तो कोई कर्मों के क्षयोपशम का निमित्त पाकर हुआ, तो कोई कर्मों के विनाश का निमित्त पाकर हुआ। उन नैमित्तिक पद्धतियों से पृथक् जो सहज पारिणामिक स्वभाव भाव है उसका स्वरूप दर्शन मात्र कारण दर्शन कहलाता है। यह आत्मस्वरूप कारणसमयसर रूप है, निरावरण इसका स्वभाव है। द्रव्य की शक्ति पर आवरण नहीं होता, किंतु शक्ति की व्यक्ति का आवरण होता है। शक्ति तो अपने स्वभाव की सत्ता मात्र है। किसी भी वस्तु का स्वरूप बताया जाय तो कुछ हद तक तो उसका निरूपण चल सकता है, पर पूरी बात आ जाय ऐसा तो कोई वचन ही नहीं है। यह अपने आत्मतत्त्व की बात है।वस्तु के वास्तविक स्वरूप की अवक्तव्यता―कोई सी चीज खायी है भैया ! उसका ही स्वरूप नहीं बता सकते। अच्छा बताओ इमरती का स्वरूप कैसा है ? बोलोगे मीठा, कैसा मीठा ? खूब मीठा। अभी तो समझ में नहीं आया तो कैसे समझ में आए ? जिसको समझाना हो उसे खिला दो, उसकी समझ में आ जायेगा। वचनों से तो समझ में न आ पायेगा। बड़ा मीठा। अरे मीठा तो रसगुल्ला भी होता है। तो क्या रसगुल्ला जैसा ? अरे नहीं, उससे भी विलक्षण स्वाद है। बात तो इस तरह से पूरी समझ में नहीं आ सकती। तो फिर कहते हैं कि इमरती तो इमरती ही है। क्या बताया जाय, खाकर देखलो। आत्मस्वरूप कैसा है ? उसको बताने का बहुत बहुत प्रयास किया। मामूली प्रयास तो यह है कि पर्यायमुखेन वर्णन किया। संसारी जीव 5 प्रकार के हैं–एकेंद्रिय जीव, दो इंद्रिय जीव, तीन इंद्रिय जीव, चार इंद्रिय जीव और पांचइंद्रिय जीव। और और जीव समास बताया। फिर और अधिक प्रयास किया तो गुणों का वर्णन करने लगे, और अधिक प्रयास किया तो 1 स्वभाव का वर्णन करने लगे। अब इससे भी और अधिक वर्णन करें तो यों कहेंगे कि वह न कषाय सहित है, न कषाय रहित है। वह न वीतराग है, न सराग है। किंतु वह तो ज्ञायकभाव मात्र है। ज्ञायक भाव मात्र ? अभी कुछ ज्यादा समझ में नहीं आया। तो भाई क्या बताएँ वह तो नाथ जैसा है सोई है अनुभव करके देख लो।स्वभावसत्तामात्र आत्मस्वरूप―तो स्व स्वभाव की सत्तामात्र यह आत्मस्वरूप है, परम चैतन्य सामान्यस्वरूप है यह आत्मस्वभाव। 24 घंटे में कुछ ध्यान तो लाओ। कहाँ तो उस परम चैतन्यस्वभावमात्र तरंग भी इसका स्वरूप नहीं है। हलन चलन रागद्वेष कुछ भी परिवर्तन इसका स्वरूप नहीं है और मानते फिर रहे हैं जड़ पदार्थों को भी अपनी चीज। कितना हम अपने हित के स्थान से दूर भागे जा रहे हैं ? इस पर दृष्टि न दी, संभाल न की तो बताओ इस ज्ञानस्वभाव के दर्शन का फिर मौका कहाँ आयेगा ? जो अवसर मिला है वहाँ तो चेतते नहीं है और जहाँ इतनी सब मलिनताएँ हैं, दुर्दशायें हैं वहाँ का उत्साह बनाया है। हमारे प्राचीन ज्ञानी संत आचार्यों ने आत्महित के लिए बना बनाया भोजन रख दिया है। अब कुछ सोचने की भी, दिमाग लगाने की भी कोई मेहनत नहीं करनी है। सीधी-सी बात है सामने। अब इतना भी न किया जाय तो फिर और क्या उत्तर दिया जाय यही कि फिर रुलते रहो संसार में।कर्त्तृत्व के अभिमान का व्यर्थ गौरव―विषयसुख के लोभी जनों को धार्मिक आनंद की भावना कहाँ जगती है ? उन्हें तो विषय सुख ही सुगम दिखा करते हैं और पा लेवें विषयसुख के साधन, तो मारे गर्व क ऐंठ के जमीन आसमान एक कर डालते हैं। जैसे सांड गाँव के आसपास के घूरे को सींग से उछालकर अपनी ही पीठ पर डाल लिया और यह देखकर कि मैंने कितना बड़ा जबरदस्त काम कर डाला है सो टांगे पसारकर पीठ को लंबी करके पूंछ को हिलाकर गर्व से देखता है कि मैंने बहुत बहुत बड़ा काम कर डाला है। इसी प्रकार यह संसारी जीव कुछ वैभव पा ले या त्री पुरुषों को अपने अधिकार में पा ले या दीन हीन मित्रजनों को अपनी गोष्ठी में देखे तो उनमें अपनी करतूत कर अभिमान रखकर यह अपने स्वरूप को बिलकुल भूल जाता है। इसका फल क्या होगा ? केवल संसारभ्रमण। देखो अपने आत्मस्वरूप को। इसका अकृत्रिम स्वरूप है, बनावटी नहीं है।बनावटी की अशोभनीयता―भैया ! बनावटी स्वरूप तो बड़े भद्दे लगते हैं। जैसे कोई पाउडर लगाकर, लाली लगाकर अपनी बनावटी सुंदरता जाहिर करे तो देखने वाले तो उसे भद्दा और बेवकूफी के रूप में देखते हैं। पर न जाने कैसा मन है कि ऊँची एड़ी की जूती पहिनकर, राख से मुँह पोतकर बेचारी ऐंठ के साथ निकलती है ? विचित्र बात देखो कि किसी-किसी आदमी को भी यही शौक हो जाता है–इन बनावटी बातों से ये बिलकुल असुंदर हो जाते हैं। बनावटी धर्म–मन में तो धार्मिक भावना नहीं है। धर्म क मर्म का पता नहीं है, किंतु न जाने किन-किन ख्यालों से यह धर्म का अनुष्ठान किया जाता है, तो उन प्रकरणों में न करने वाले को शांति, न कराने वाले को शांति और प्राय: न देखने वाले को शांति। बनावट से परे है यह आत्मतत्त्व और धर्मपालन, इस बात को नहीं भूलना। यह दिखावट, बनावट, सजावट से बिलकुल परे बात है।आत्मतत्त्व की अकृत्रिमता―यह आत्मस्वरूप अकृत्रिम है, अविचल स्थिति करके सहित है। शुद्ध ज्ञानमात्र रहने रूप चारित्र संयुक्त है–ऐसा नित्य, शुद्ध, निरंजन, बोधस्वरूप आत्मतत्त्व का स्वरूपदर्शनमात्र यह कारणदर्शन है। जिसको दर्शन हो जाए तो समस्त पापवैरियों की सेना ध्वस्त हो जाती है–ऐसा यह कारणदर्शन है और स्वभावकार्यदर्शन केवल दर्शन है। दर्शनावरणीय आदिक घातिया कर्मों के क्षय से उत्पन्न होने वाली दृष्टि स्वाभाविक कार्यदृष्टि है। यह प्रभु अरहंत में, सिद्धदेव में केवलज्ञान की तरह यह भी एक साथ लोकालोक में व्यापक है अर्थात् समस्त सत् का ज्ञान होना जैसे केवलज्ञान में था, इसी प्रकार समस्त सत् का दर्शन होना इस केवलदर्शन में है। इस क्षायिक जीव के, इस प्रभु-परमात्मा के जिसने कि समस्त निर्मल केवलज्ञान के द्वारा तीनों लोक को जान लिया है और अपने आत्मा से उत्पन्न हुए वीतराग आनंदरूप सुधासागर में अवगाहन किया है और जैसा आत्मा का सहजस्वरूप है, उसी प्रकार जिसका स्वरूप व्यक्त हुआ है–ऐसा जिसका शुद्ध चारित्र है–ऐसे अरहंतप्रभु के, सिद्धदेव के यह केवलदर्शन एक साथ लोकालोक का दर्शक है।केवलदर्शन और स्वभावदर्शन―केवलदर्शन व्यवहारनय का विषय है और दर्शनस्वभाव निश्चयनय का विषय है अर्थात् केवलदर्शन शुद्ध निश्चयनयरूप व्यवहार का विषय है और दर्शनस्वभाव परमशुद्धनिश्चयरूप निश्चय का विषय है। यहाँ क्या प्रकट हुआ ? केवलदर्शन। इसका आदि है, परंतु परमशुद्ध निश्चयनय के विषय की आदि नहीं होती है। हाँ, केवलदर्शन अनिधन अवश्य है। कभी केवलदर्शन नहीं मिटेगा, लेकिन स्वरूप से देखो तो प्रतिसमय मिटता रहता है। प्रतिसमय जैसे नया-नया केवलज्ञान होता है, इसी प्रकार प्रतिसमय नया-नया केवलदर्शन होता है। हालांकि उस दर्शन में जो विषय है, वह एक समान है, रंच भी फर्क नहीं है, मगर परिणमन तो दूसरे समय का है। शक्ति तो बराबर नवीन-नवीन लग रही है।प्रतिक्षण परिणमन का एक उदाहरण―जैसे कोई शीर्षासन लगता है और 5 मिनट तक लगाए तो देखने वालों को यों ही लगेगा कि क्या कर रहा है यह। 8 बजे यह औंधा खड़ा हुआ था सिर नीचे करके, 5 मिनट हो गए, अभी वही काम कर रहा है, मगर ऐसा नहीं है, प्रतिक्षण उसकी नवीन-नवीन शक्ति लग रही है। एक काम वह नहीं कर रहा है, प्रतिक्षण वह नवीन-नवीन प्रयत्न कर रहा है। देखने वालों का क्या है ? जो कर रहा है, वह जाने। जैसे देखने में वह एक समान कार्य होने से एक कार्य कहा जाता है, परंतु वहाँ प्रतिक्षण नवीन-नवीन शक्ति द्वारा वह शीर्षासन से खड़ा है, इसी तरह विषयों की समानता के कारण केवलदर्शन सदा रहता है, अनंत है, किंतु वह चूँकि परिणमन है, प्रतिसमय नवीन-नवीन उसमें उत्पाद है और पूर्व-पूर्व दर्शनपर्याय का वहाँ विलय है। इस ही तरह से प्रतिसमय नवीन-नवीन केवलदर्शनरूप से ही यह परिणमता चला जाता है।स्वभावदर्शन की महनीयता―यह शुद्ध अवस्था भव्यजनों के द्वारा वंदनीय है। शुद्धअवस्था हितकारी अवस्था है, इस कारण समस्त लोक के भव्यजीवों के द्वारा यह वंदना के योग्य है। सो प्रभु के केवलज्ञान की तरह यह दर्शन की अवस्था भी एक साथ लोकालोक को व्यापने वाली है। इस तरह स्वभावदर्शनोपयोग कार्य और कारण के रूप से दो प्रकार कहा गया है। यह दर्शनोपयोग में स्वभावदर्शनोपयोग की चर्चा है। यह दो प्रकार का है–कारणरूपस्वभावदर्शन और कार्यरूपस्वभावदर्शन। देखने की शक्ति का भी नाम दर्शन है और देखने का नाम भी दर्शन है। यों शक्ति, व्यक्ति के भेद से यह दो प्रकार का है।आत्मा का शरण―विभावदर्शनोपयोग, जिसको कि अगले सूत्र में बतायेंगे वह तीन प्रकार का है–चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन। यहाँ शिक्षा लेनी है कि दर्शनज्ञानचारित्रात्मक एक चैतन्य सामान्यस्वरूप निजआत्मतत्त्व ही मुक्ति चाहने वालों का आलंबनरूप है। किसी बच्चे को कोई मारने का डर दिखाये तो उसके लिये शरण उसकी माँ की गोद है। वह भागकर अपनी माँ की गोद में बैठ जायेगा, कुछ बड़ा होगा तो पिता के पास जाकर बैठ जायेगा, वहाँ शरण पायेगा। जरा और बड़ा हुआ तो जिसे अपना मित्र माना है, उसके पास अथवा अपनी त्री के पास जाकर बैठ जायेगा। जब और बड़ा हुआ तो सब तरफ से दु:ख ही दु:ख आने लगे, लड़के भी ठीक नहीं बोलते हैं, त्री भी विपरीत हो गई है, धन पर भी कितने ही लोगों ने छलबल से संकट डाल दिया है तथा और भी सम्मान अपमान आदि अनेक प्रकार के क्लेश हैं, जिनके मिटने का उपाय भी नजर नहीं आता तो किसी साधु के पास जाकर बैठ जायेगा, इसलिए कि कुछ धार्मिक ज्ञान की बातें मिलें तो संकट दूर हो जायेंगे। जिंदगी भर तो लड़कों के लिये कमाया, सब कुछ कर डाला, परंतु कोई सहायक नहीं होता है। अब कहाँ सहाय ढूँढै ? जो विकल्परूप क्लेश है, उसकी जहाँ शांति हो, वहाँ जाये।आत्मा का परमशरण―अब शांति का अर्थी यह जीव बार-बार साधुजी के पास बैठता ह, मगर वे विकल्पसंकट हटते ही नहीं है। चोट तो लग गयी है बहुत, रह-रहकर ख्याल तो आता ही है। अब क्या करें ? अब और क्या उपाय रह गया करने को ? स्वाध्याय करें, तिस पर भी बात फिट नहीं बैठती। एक उपाय रह गया है, वे सब विकल्प छोड़ें। जिस का जो होता है, वह हो। केवल अपने ज्ञानज्यातिर्मयरत्नत्रयात्मक इस आत्मतथ्य को देखें, अंत में शरण यही मिलेगा, इसी को परमार्थशरण कहते हैं। इस मार्ग के आलंबन बिना मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि संकट तो सिर्फ विकल्पमात्र है। जैसे संकट छोड़ा तो इसका अर्थ है विकल्प को छोड़ा। अपने आत्मस्वरूप को छोड़कर अन्यत्र हित की आस्था न जगे तो यह मोक्षमार्ग प्राप्त हो सकता है। अब थोड़ी यहाँ आस्था की, थोड़ी वहाँ आस्था की तो इससे ठीक ठिकाना नहीं बन सकता। एक ही आस्था हो कि मेरा आत्मा अमूर्त है, ज्ञानमात्र है, स्वभावत: आनंदमय है, इसमें कोई दोष नहीं है, यह तो केवल अपने स्वरूपमात्र है। झलकता है विभाव झलको, मेरी ओर से यह परिणमन नहीं है। जगत् का जैसा रिवाज है, उसका निमित्तनैमित्तिक संबंध है, वैसा ही हो रहा है सब–ऐसा ज्ञानबल जहाँ जगता है और आत्मस्वभाव में आस्था बनती है, वहाँ संकटों से छूटने का मार्ग मिलता है।