नियमसार - गाथा 45: Difference between revisions
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< | <div class="PravachanText"><p><strong>वण्णरसगंधफासा थीपुंसण ओसयादिपज्जाया।</strong></p> | ||
< | <p><strong>संठाणा सहण्णा सव्वे जीवस्स णो संति।।45।।</strong></p> | ||
<p | <p> <strong>आत्मा में रस का अभाव</strong>―इस परमस्वभावरूप कारणपरमात्मतत्त्व के सभी विकार जो कि पौद्गलिक हैं वे नहीं होते हैं। इस जीव के वर्ण काला, पीला, नीला, लाल, सफेद या इन रंगों के मेल से बने हुए नहीं है कोई रंग क्या इस जीव में किसी ने देखा है? अज्ञानी जन शरीर को ही देखकर जीव का रूप समझा करते हैं, अमुक जीव का रूप अच्छा है, पर केवलज्ञान और आनंदभावस्वरूप इस अंतस्तत्त्व में क्या कोई वर्ण भी रक्खा है? आकाशवत् अमूर्त, निर्लेप, ज्ञानमात्र आत्मा में कोई वर्ण नहीं है। वर्ण होता तो यह जाननहार पदार्थ ही न रहता, पुद्गल ही कहलाता, जड़ और अचेतन हो जाता। इस आत्मतत्त्व में खट्टा, मीठा, कडुवा, चरपरा, कषायला व इन रसों के मेल से बना हुआ कोई भी रस नहीं है। अगर रस होता तो यह आत्मा जाननहार ही न रहता।</p> | ||
<p | <p> <strong>आत्मा में रस के अनुभवन का अभाव</strong>―भैया ! आत्मा में रस होने की बात तो दूर जाने दो, यह जीव तो रस का अनुभव भी नहीं कर सकता। कोई रसीला पदार्थ खाते समय देखो तो जरा कि उसे खा कौन रहा है? आत्मा ने इच्छा की, उससे योग परिस्पंद हुआ। उसका निमित्त पाकर शरीर में वायु का हलन हुआ, और उस प्रकार से मुख चलने लगा। भोजन का संबंध इस पुद्गल शरीर के साथ हो रहा है, एक पुद्गल के द्वारा दूसरा पुद्गल चबाया जा रहा है, पर देखो तो हालत कि उसका निमित्त पाकर इस आत्मा में रसविषयक ज्ञान होने लगता है। यह खट्टा है अथवा मीठा है और उस रसविषयक ज्ञान के साथ चूंकि इष्ट बुद्धि लगी हुई हैं इससे मौज मानने लगते हैं और सोचते हैं कि मैंने खूब रस चखा, खूब अनुभव किया, किंतु इसने रस का अनुभव नहीं किया, रसविषयक ज्ञान का और राग का अनुभव किया। पर पदार्थ का यह अनुभव नहीं कर सकता, पर दृष्टि मोह में ऐसी ही हो जाती जिस कारण परपदार्थ का संचय करने में पर को ही अपनायत करने में तुल जाता है। इस आत्मा में रस नहीं है। </p> | ||
<p | <p> <strong>आत्मा में गंध का अभाव</strong>―गंध दो प्रकार की होती है―सुगंध और दुर्गंध। क्या आत्मा में किसी प्रकार का गंध है? इनका आत्मा सुगंधित है, इनका आत्मा दुर्गंधित है। अरे शरीर में सुगंध दुर्गंध हो सकती है, वह पुद्गल है। मूढ़ जन ही शरीर के गंध को देखकर अमुक जीव में ऐसा बुरा गंध है, अमुक जीव में सुगंध है, ऐसा व्यवहार करता है। किंतु गंध नामक पुद्गल का गुण जीव में त्रिकाल भी नहीं हो सकता। स्पर्श भी इस आत्मतत्त्व में नहीं है। स्पर्श की 8 पर्यायें होती हैं―रूखा, चिकना, ठंडा, गरम, नरम, कठोर, हल्का, भारी। क्या यह अमूर्त ज्ञानानंद स्वभावमात्र आत्मा वजनदार है? वजनदार नहीं है तो हल्का भी नहीं है। हल्का वजनदार अपेक्षा से बोला जाता है। ठंडा, गरम, रूखा, चिकना, कड़ा, नरम कैसा भी यह मैं नहीं हूं। यह तो ज्ञानभावमात्र है और मात्र ज्ञान द्वारा ही इस प्रकार ख्याल में आ सकने वाला है।</p> | ||
<p | <p> <strong>आत्मा में स्पर्श का अभाव इंद्रियों की असमर्थता</strong>―यह आत्मा स्पर्श रहित है। जिन इंद्रियों के द्वारा ये वर्ण, गंध, रस, स्पर्श जाने जाते हैं उन इंद्रियों की कथा भी तो देखो कि वे स्वयं को जान नहीं पाती। आँख आँख की बात नहीं देख सकती कहां कीचड़ लगा है, कहां काजल लगा है, कहा फुंसी हुई, किस जगह रोम अटका है यह सब इस आँख के द्वारा नहीं दिख सकता है। स्पर्शन भी यह अपना स्पर्श नहीं जान सकता। हाथ गरम है तो नहीं जान सकता कि हाथ गरम है। एक ही हाथ के द्वारा दूसरा हाथ छुवा जाय तो कहते हैं कि अरे गरम है। अरे तुम्हारा शरीर ही तो गरम है तो पड़े रहो, टाँग और हाथ पसारे और जान लो कि हम कितने गरम हैं। तो कोई नहीं जान सकता है। शरीर का एक अंग दूसरे अंग को छुवे तो जान सकते हैं कि ठंडा है अथवा गरम है। नाना नाच नचाने वाली यह जीभ की नोक अपने आपके रस का ज्ञान नहीं कर सकती। पुद्गल ही तो है, यह भी तो रस है, पर नहीं समझ सकती। अब रह गये नाक और कान। तो जिस जगह ये इंद्रिय हैं, उस जगह का ज्ञान नहीं कर सकती।</p> | ||
<p | <p> <strong>जीभ, आँख, नाक, कान हैं कहां</strong>―ऊपर से यों केवल चार इंद्रियां नजर आ रही हैं ये सब स्पर्शन हैं, चमड़ा हैं। कहां घुसी है रसना जिस जगह से रस लिया करती है यह? क्या बतावोगे? आप जीभ निकालकर बतावोगे लो यह है रसना। तो हम छूकर बता देंगे कि यह तो स्पर्शन है। जो छुवा जाय, जिसमें ठंड गरम महसूस हो वह तो स्पर्शन है। असली कान कहां हैं जहां से आवाज सुनी जाती है। जो दिखते हैं वहाँ तो चमड़ा मिलेगा और त्वचा स्पर्शन इंद्रिय है। नाक कहां है जिससे सूंघा जाता है, देखने वाली आँख कहां है? तो इन इंद्रियों में कुछ ऐसा गुप्त रूप से अणु पुंज है कि जिसके द्वारा यह सुनता है, देखता है, चखता है और सूंघता है।</p> | ||
<p | <p> <strong>परमार्थत: इंद्रियों द्वारा ज्ञान का अभाव:―</strong>वस्तुत: इन इंद्रियों के द्वारा भी यह कुछ ज्ञान नहीं करता है, किंतु वे ज्ञान की उत्पत्ति के द्वार हैं। जैसे कोई मनुष्य कमरे में खड़ा हुआ खिड़कियों से बाहर देखे तो क्या देखने वाली खिड़कियाँ हैं? खिड़की तो एक द्वार है, देखने वाला तो अंतर खड़ा हुआ मनुष्य है। इसी तरह इस देह के चार दीवारी के भीतर स्थित यह आत्मा इन 5 खिड़कियों से जान रहा है। तो क्या जानने वाली ये खिड़कियाँ इंद्रियां है? जाननहार तो आत्मा है, किंतु कमजोर अवस्था में इस आत्मा में इतनी शक्ति नहीं है कि वह अपने सर्वांग प्रदेशों से जैसा कि प्रभु जाना करते हैं, यह जान सके। सो इसके जानने का साधन ये द्रव्येंद्रियां बनी हुई हैं। जब इस वर्ण, गंध, रस, स्पर्श का साधनभूत और इसके परिज्ञान का साधनभूत जब इंद्रियां ही इस आत्मा की नहीं हैं, तब ये रूपादिक तत्त्व इस मुझ आत्मा के कैसे होंगे?</p> | ||
<p | <p><strong> विशद ज्ञान के लिये अनुभवन की आवश्यकता</strong>―भैया !वस्तु का जब तक स्पर्शन नहीं हो जाता, अनुभवन नहीं हो जाता, तब तक उसकी चर्चा कुछ कर ली दी सी, ऊपर फट्टी सी मालूम होती है। जैसे जिस बालक ने दिल्ली नहीं देखी और ऐसे बालक को दिल्ली की बातें बताई जाएं कि ऐसा किला है, ऐसी मस्जिद है, ऐसा फव्वारा है, ऐसा मंदिर है, अमुक ऐसा है तो उसके लिए यह सब कहानी जैसी मालूम होगी और जिसने देखा है उस सुनने वाले को उसके अंतर में नजर आने लगता है। ये सारी आत्मा की बातें समझने के लिए बड़े-बड़े शास्त्रों के ज्ञान का श्रम हम करते हैं, बड़ी-बड़ी भाषाएं और बड़ी-बड़ी क्रियाओं का हम अध्ययन करते हैं और एक बार सत्य का आग्रह करके असत्य का असहयोग करके नहीं जानना है, नहीं माननी है हमें किसी परतत्त्व की बात। एक सत्य का आग्रह करके यहाँ बैठा हूं, स्वयं जो कुछ हो सो हो, पर को जानकर यत्न कर करके मैं किसी भी तत्त्व को नहीं जानना चाहता―ऐसी निर्विकल्प स्थिति बनाकर बैठें तो स्वयं ही इस ज्ञानस्वरूप का दर्शन और अनुभवन होगा। जिस अनुभव के आनंद से छककर यह जीव फिर अन्यत्र कहीं न रमना चाहेगा, फिर सारी चर्चा स्पष्ट यों नजर आएगी कि ठीक है, यह मेरी बात कही जा रही है।</p> | ||
<p | <p> <strong>अनुभूत की प्रतीति</strong>―जैसे कोई पुरुष कुछ अच्छा कार्य कर आया हो और उसका नाम लिए बिना अच्छे कार्यों की प्रशंसा की जाए तो वह जानता रहेगा कि ये मेरे बारे में कह रहे हैं और कोई बुरा काम कर आया हो तथा उसका नाम लिए बिना बुरे कार्य की चर्चा की जाये तो भी वह समझता है कि मेरे बारे में कह रहे हैं। आत्मस्वरूप का जिन्होंने अनुभव किया है, वे शास्त्र सुनते समय, पढ़ते समय, स्वाध्याय करते समय सब जानते रहेंगे कि देखो यह आचार्यदेव हमारी बात कह रहे हैं। इस ज्ञानानंदस्वभावमात्र आत्मतत्त्व में 5 प्रकार के वर्ण, 5 रस, 2 गंध, 8 स्पर्श ये कुछ भी नहीं हैं।</p> | ||
<p | <p> <strong>आत्मा में स्त्री पुरुष नपुंसक विभावव्यंजनपर्याय का अभाव―</strong>पर्यायव्यामोह में ऐसा भी देखा जाता हैं कि यह स्त्री है, यह पुरुष है, यह नपुंसक है―ऐसी विजातीय विभावव्यंजनपर्याय नजर आती है। किंतु आत्मा सहजस्वभाव में कैसा है? उस अमूर्त चैतन्यस्वभाव में आत्मतत्त्व का स्वरूप देखते हैं तो वहाँ देह भी नहीं है तो स्त्री, पुरुष, नपुंसक नाम का द्रव्यवेद है और न तज्जातीय परिणाम भी है। यह तो शुद्ध ज्ञायकस्वरूप है। यह सब अंतर की बात निकाली जा रही है। पर्याय में क्या बीत रहा है? इसकी चर्चा यह नहीं है। किसी का सिर दर्द कर रहा हो तो वह दर्द। कुछ ज्ञान कर रहा है यह जीव अथवा पीड़ा मान रहा है यह जीव, इतने पर भी इस जीव के सहजस्वरूप को देखा जाए तो यह बात एक तथ्य की सोचना है कि यह आत्मा देह से रहित है, पीड़ा से रहित है।</p> | ||
<p | <p> <strong>स्वभावदृष्टि में प्रज्ञाबल</strong>―जैसे पानी बहुत तेज गरम है, अछन किया हुआ है, वह पानी कोई पीवे तो क्या जीभ जलेगी नहीं? जलेगी। इतने पर भी जल के सहजस्वरूप को निरखा जाए तो क्या यह तथ्य की बात नहीं है कि जल स्वभावत: शीतल है। यह लोकव्यवहार का दृष्टांत है। वैसे तो जल पुद्गल द्रव्य है, उसका न शीतल स्वभाव है, न गरम स्वभाव है, किंतु स्पर्श स्वभाव है, फिर भी एक लोकदृष्टांत है। ऐसे ही हम और आपमें भी जैसे गुजर रही हो, वह निमित्तनैमित्तिक संबंध का परिणाम है। गुजरता है गुजरने दो। उस गुजरते हुए में भी हम उस गुजरे की दृष्टि न करके अंतस्वभाव की दृष्टि करने के लिए चलें तो ऐसे खुले ज्ञान में पड़े हुए हैं हम आप जो कि एक उत्कृष्ट बात है। हम प्रज्ञाबल से उस ज्ञानस्वभाव की दृष्टि करें।</p> | ||
<p | <p> <strong>श्रम से विराम की आवश्यकता</strong>―देखो कि उस अंतस्तत्त्व में स्त्री, पुरुष, नपुंसक आदिक विजातीय विभावव्यंजनपर्यायें नहीं हैं। यह आत्मतत्त्व केवल ज्ञान परिणाम अथवा उपाधि के सन्निधान में श्रद्धा चारित्र गुणों का विकास कर रहा है। यह न चलता है, न करता है, न दौड़ता है, न भागता है और हो रहे हैं ये सब, किंतु अंतरंग को समझने वाले लोग यह जानते हैं कि यह तो केवल जानन और विकार भाव कर रहा है और कुछ नहीं कर रहा है। कहां इतनी दौड़ धूप मचाई जाय? क्या मैं दौड़ता हूं, जाता हूं, करता हूं―ऐसी श्रद्धा नहीं बनाया, क्या दौड़ना भागना ही पसंद है? तो दौड़ना भागना होता है पैरों द्वारा। तो अभी तो दो ही पैर हैं, यदि ज्यादा पैर मिल जायें तो शायद यह काम और अच्छा बन जायेगा। कल्पना में सोच लो कितने पैर हों तो अच्छा खूब ज्यादा कार्य होगा? किसी के 4 पैर भी होते हैं, 10 भी होते हैं, 16 भी होते हैं, 40 पैर भी होते हैं, 44 पैर भी होते होंगे। कितने चाहिए? तो लोकव्यवहार में ये सब करतूत करनी पड़ती है, लेकिन हृदय में इतना प्रकाश तो अवश्य रहना चाहिए कि यह आत्मा ईश्वर, भगवान् आत्मा अपने आपके प्रदेश में स्थित रहकर केवल इच्छा किया करता है और यह विस्फोट सब स्वयमेव होता रहता है। कैसा निमित्तनैमित्तिक संबंध है कि सारे काम अपने आप चलने लगते हैं।</p> | ||
<p | <p><strong> सकल व्यवसायों का मूल हेतु मात्र इच्छा</strong>―जैसे बड़े यंत्रों में एक जगह बटन दबाया कि सारे पेंच पुर्जे स्वयं चलने लगते हैं। ये चक्कियां चलती है, वस्त्र वाले मील चलते हैं, बस बटन दबा दिया कि सब जगह के पेंच पुर्जे स्वयं चलने लगते हैं। यहाँ भी एक इच्छा भर कर लो फिर चलना, उठना, बैठना, खाना, पीना, लड़ना ये सब काम आटोमैटिक होते रहते हैं। इनमें आत्मा कुछ नहीं करता। आत्मा तो केवल इच्छा करता और साथ ही उस इच्छा का निमित्त पाकर इसके प्रदेशों में परिस्पंद हो जाता है। बस ये दो हरकतें तो आत्मा में हुई, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ बातें होती ही नहीं है। हाथ का चलना या हाथ का निमित्त पाकर अन्य वस्तुवों का हिलना डुलना हो रहा है। आत्मा तो केवल इच्छा और भोग ही करता है। इस आत्मा के जब विभावगुणपर्याय भी नहीं है, फिर यहाँ किसी विभाव व्यंजन पर्याय की कथा ही क्या?</p> | ||
<p | <p> <strong>आत्मतत्त्व में निराकारता</strong>―चैतन्य और आनंदस्वरूप मात्र इस निज शुद्ध अंतस्तत्त्व में केवल चित्प्रकाश है और वह अनाकुलता को लिए हुए है, इसमें किसी प्रकार का आकार नहीं है। शरीर में जो विभिन्न आकार बन गए हैं वे यद्यपि जीवद्रव्य का सन्निधान पाकर बने हैं, फिर भी आकार पुद्गल में ही है, भौतिक तत्त्व में है, आत्मद्रव्य में आकार नहीं है। ये आकार मूलभेद में 6 प्रकार के हैं―समचतुरस्रसंस्थान, व्यग्नोधपरिमंडलसंस्थान, स्वातिसंस्थान, वामनसंस्थान, कुब्जकसंस्थान और हुंडकसंस्थान।</p> | ||
<p | <p> <strong>देह के संस्थान</strong>―समचतुरस्रसंस्थान वह है जिसमें सब अंग जितने लंबे बड़े होने चाहियें उतने ही हों। नाभि से नीचे का धड़ और नाभि से ऊपर का धड़ बराबर परिमाण का हुआ करता है। जिसके परिमाण में कुछ कमी बसी हो उसके समचतुरस्रसंस्थान नहीं है, नाभि पंचेंद्रिय जीव के तो प्राय: होती ही है। घोड़ा, बैल, हाथी, ऊंट, आदमी सबके नाभि होती है और एकेंद्रिय जीव में नाभि होती ही नहीं। दो इंद्रिय आदिक जीवों में तो शायद नाभि होती हो या नहीं। समचतुरस्रसंस्थान में हाथ कितना बड़ा होना, पैर कितना बड़ा होना चाहिये, यह सब एक शिष्ट मात्र है। और इसी माप के आधार पर भगवान् की मूर्ति बनती है। नाभि से ऊपर के अंग बड़े हो जायें तो वह व्यग्नोधपरिमंडल संस्थान है। नाभि से नीचे के अंग बड़े हो जायें तो वह स्वातिसंस्थान है, बौना शरीर हो सो वामनसंस्थान है, कुबड़ निकला हो तो वह कुब्जकसंस्थान है और अट्टसट्ट हो, इन 5 संस्थानों का कोई विविक्त संस्थान न हो तो वह हुंडकसंस्थान है।</p> | ||
<p | <p> <strong>आत्मतत्त्व में संस्थानों का अभाव</strong>―इन संस्थानों के बनने में यद्यपि जीव का परिणाम निमित्त है। जैसा भाव हुआ वैसा बंध हुआ और उसही प्रकार का उदय हुआ। संस्थान बने, फिर भी आत्मद्रव्य तो अमूर्त ज्ञानभाव मात्र है। उसमें संस्थान नहीं है। कैसा विचित्र संस्थान है? वनस्पति के पेड़ के देह देखो कैसी शाखायें फैली हैं, डालियां बनी हैं, पत्ते हैं, पत्तों की कैसी बनावट है? फूल देखो कैसी विचित्र यह सब प्राकृतिकता है, अर्थात् कर्मप्रकृति के उदय से होने वाली बातें हैं। ये सब आत्मद्रव्य में नहीं हैं।</p> | ||
<p | <p> <strong>आत्मतत्त्व में संहननों का अभाव</strong>―संहनन दो इंद्रिय जीव से लेकर पंचेंद्रिय जीव तक होता है। अर्थात् हड्डियों के आधार पर शरीर का ढांचा बनना सो संहनन है, एकेंद्रिय में संहनन नहीं है, देवों में व नारकियों में भी संहनन नहीं है। संहनन 6 होते हैं। बज्रवृषभनाराचसंहनन―जहां बज्र के हाड़ हो, बज्र के पुट्ठे हों, बज्र की कीलियां लगी हों ऐसे शरीर का नाम है बज्रवृषभनाराचसंहनन। हम आप लोगों के तो हाथ नसों से बंधे हैं। इस हाथ में दो-दो हड्डियां हैं एक भुजा पर एक टेहुनी के नीचे और ये दोनों हड्डियां नसों से बंधी है। किंतु जिनके बज्रवृषभनाराचसंहनन होता है उनके दोनों हड्डियों के बीच कीलियां लगी रहती हैं। जो मोक्ष जाने वाले पुरुष हैं उनमें नियम से बज्रवृषभनाराचसंहनन होता है।</p> | ||
<p | <p> <strong>बज्रांग बली</strong>―श्री हनुमान जी जब विमान में बैठे हुए चले जा रहे थे। दो तीन दिन का वह बालक पवनसुत, अंजनापुत्र विमान से खेलते-खेलते पहाड़ पर गिर गया, सब लोग तो विह्वल हो गये। जब नीचे आकर देखा तो जिस पाषाण पर गिरा था उसके तो टुकड़े हो गये और हनुमान जी अंगूठा चूसते हुए खेल रहे थे। सबने जाना कि यह मोक्षगामी जीव है। उसकी तीन परिक्रमा देकर हाथ जोड़कर हनुमान को उठाकर फिर विमान में लेकर चले। हनुमान जी का चरित्र बहुत शिक्षा पूर्ण है। उनके बज्रवृषभनाराचसंहनन था। इसी कारण उन्हें बज्रांगबली कहते है, जिसको अपभ्रंश करके लोग बजरंगबली बोलने लगे। इसका शुद्ध शब्द है बज्रांगबली। बज्रवृषभनाराचसंहनन जिसका शरीर हो, उसे बज्रांग कहते हैं। केवल हनुमानजी ही बज्रांग नहीं थे―राम, नील, सुग्रीव तीर्थंकर जो भी मुक्त गए हैं, वे सब बज्रांग थे, पर किन्हीं पुरुषों की प्रमुख घटनावों के कारण नाम प्रसिद्ध हो जाता है। यदि हनुमानजी उस पत्थर पर नहीं गिरते तो उनका नाम बजरंगबली न प्रसिद्ध होता। बहुत से पुरुष बजरंगबली होते हैं।</p> | ||
<p | <p> <strong>पौद्गालिकता के कारण सब संहननों का आत्मद्रव्य में अभाव</strong>―दूसरा संहनन है बज्रनाराचसंहनन। बज्र की हड्डी होती है, बज्र की कीली होती है, पर पुट्ठा बज्र का नहीं होता। तीसरा संहनन है नाराचसंहनन। बज्र के हाथ हैं, किंतु हड्डियां कीलियों से आरपार खचित हैं। जिनकी ये हड्डियां कीलियों से कीलित हैं, उनके हाथ पैर भटकते नहीं हैं। नसों से यह अस्थिजाल बंधा है, यदि झटका दे दिया जा यतो टूट जाए। चौथा संहनन है अर्द्धनाराचसंहनन। हड्डियों में कीलियां अर्द्धकीलित हैं और कीलितसंहनन में कीलियों का स्पर्श है। छठा है असंप्राप्तासृपटिकासंहनन―याने नसाजालों से बंधा हुआ हाड़ का ढांचा हम आप सबका छठा संहनन है। हाड़ों की रचना इस आत्मतत्त्व में नहीं है, यह पौद्गलिकाय में है। ये पुद्गल कर्मोदय से उत्पन्न होते हैं। पुद्गल में ही विकार हैं। कुछ तो विकार ऐसे होते हैं कि निमित्त तो पुद्गल कम्र के उदय का है, पर जीवों में गुणों का विकार है, किंतु इस श्लोक में जितनी चीजों को मना किया गया हैं। यह सब पुद्गल के उदय से भी हैं और पुद्गल में ही विकार हैं। ये सब परमस्वभाव कारणपरमात्मस्वरूप शुद्ध जीवास्तिकाय के नहीं होते हैं। अब इस प्रकरण में इस निषेधात्मक वर्णन का उपसंहार करते हुए आत्मतत्त्व का असाधारण लक्षण भी बतला रहे हैं।</p> | ||
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Latest revision as of 16:34, 2 July 2021
वण्णरसगंधफासा थीपुंसण ओसयादिपज्जाया।
संठाणा सहण्णा सव्वे जीवस्स णो संति।।45।।
आत्मा में रस का अभाव―इस परमस्वभावरूप कारणपरमात्मतत्त्व के सभी विकार जो कि पौद्गलिक हैं वे नहीं होते हैं। इस जीव के वर्ण काला, पीला, नीला, लाल, सफेद या इन रंगों के मेल से बने हुए नहीं है कोई रंग क्या इस जीव में किसी ने देखा है? अज्ञानी जन शरीर को ही देखकर जीव का रूप समझा करते हैं, अमुक जीव का रूप अच्छा है, पर केवलज्ञान और आनंदभावस्वरूप इस अंतस्तत्त्व में क्या कोई वर्ण भी रक्खा है? आकाशवत् अमूर्त, निर्लेप, ज्ञानमात्र आत्मा में कोई वर्ण नहीं है। वर्ण होता तो यह जाननहार पदार्थ ही न रहता, पुद्गल ही कहलाता, जड़ और अचेतन हो जाता। इस आत्मतत्त्व में खट्टा, मीठा, कडुवा, चरपरा, कषायला व इन रसों के मेल से बना हुआ कोई भी रस नहीं है। अगर रस होता तो यह आत्मा जाननहार ही न रहता।
आत्मा में रस के अनुभवन का अभाव―भैया ! आत्मा में रस होने की बात तो दूर जाने दो, यह जीव तो रस का अनुभव भी नहीं कर सकता। कोई रसीला पदार्थ खाते समय देखो तो जरा कि उसे खा कौन रहा है? आत्मा ने इच्छा की, उससे योग परिस्पंद हुआ। उसका निमित्त पाकर शरीर में वायु का हलन हुआ, और उस प्रकार से मुख चलने लगा। भोजन का संबंध इस पुद्गल शरीर के साथ हो रहा है, एक पुद्गल के द्वारा दूसरा पुद्गल चबाया जा रहा है, पर देखो तो हालत कि उसका निमित्त पाकर इस आत्मा में रसविषयक ज्ञान होने लगता है। यह खट्टा है अथवा मीठा है और उस रसविषयक ज्ञान के साथ चूंकि इष्ट बुद्धि लगी हुई हैं इससे मौज मानने लगते हैं और सोचते हैं कि मैंने खूब रस चखा, खूब अनुभव किया, किंतु इसने रस का अनुभव नहीं किया, रसविषयक ज्ञान का और राग का अनुभव किया। पर पदार्थ का यह अनुभव नहीं कर सकता, पर दृष्टि मोह में ऐसी ही हो जाती जिस कारण परपदार्थ का संचय करने में पर को ही अपनायत करने में तुल जाता है। इस आत्मा में रस नहीं है।
आत्मा में गंध का अभाव―गंध दो प्रकार की होती है―सुगंध और दुर्गंध। क्या आत्मा में किसी प्रकार का गंध है? इनका आत्मा सुगंधित है, इनका आत्मा दुर्गंधित है। अरे शरीर में सुगंध दुर्गंध हो सकती है, वह पुद्गल है। मूढ़ जन ही शरीर के गंध को देखकर अमुक जीव में ऐसा बुरा गंध है, अमुक जीव में सुगंध है, ऐसा व्यवहार करता है। किंतु गंध नामक पुद्गल का गुण जीव में त्रिकाल भी नहीं हो सकता। स्पर्श भी इस आत्मतत्त्व में नहीं है। स्पर्श की 8 पर्यायें होती हैं―रूखा, चिकना, ठंडा, गरम, नरम, कठोर, हल्का, भारी। क्या यह अमूर्त ज्ञानानंद स्वभावमात्र आत्मा वजनदार है? वजनदार नहीं है तो हल्का भी नहीं है। हल्का वजनदार अपेक्षा से बोला जाता है। ठंडा, गरम, रूखा, चिकना, कड़ा, नरम कैसा भी यह मैं नहीं हूं। यह तो ज्ञानभावमात्र है और मात्र ज्ञान द्वारा ही इस प्रकार ख्याल में आ सकने वाला है।
आत्मा में स्पर्श का अभाव इंद्रियों की असमर्थता―यह आत्मा स्पर्श रहित है। जिन इंद्रियों के द्वारा ये वर्ण, गंध, रस, स्पर्श जाने जाते हैं उन इंद्रियों की कथा भी तो देखो कि वे स्वयं को जान नहीं पाती। आँख आँख की बात नहीं देख सकती कहां कीचड़ लगा है, कहां काजल लगा है, कहा फुंसी हुई, किस जगह रोम अटका है यह सब इस आँख के द्वारा नहीं दिख सकता है। स्पर्शन भी यह अपना स्पर्श नहीं जान सकता। हाथ गरम है तो नहीं जान सकता कि हाथ गरम है। एक ही हाथ के द्वारा दूसरा हाथ छुवा जाय तो कहते हैं कि अरे गरम है। अरे तुम्हारा शरीर ही तो गरम है तो पड़े रहो, टाँग और हाथ पसारे और जान लो कि हम कितने गरम हैं। तो कोई नहीं जान सकता है। शरीर का एक अंग दूसरे अंग को छुवे तो जान सकते हैं कि ठंडा है अथवा गरम है। नाना नाच नचाने वाली यह जीभ की नोक अपने आपके रस का ज्ञान नहीं कर सकती। पुद्गल ही तो है, यह भी तो रस है, पर नहीं समझ सकती। अब रह गये नाक और कान। तो जिस जगह ये इंद्रिय हैं, उस जगह का ज्ञान नहीं कर सकती।
जीभ, आँख, नाक, कान हैं कहां―ऊपर से यों केवल चार इंद्रियां नजर आ रही हैं ये सब स्पर्शन हैं, चमड़ा हैं। कहां घुसी है रसना जिस जगह से रस लिया करती है यह? क्या बतावोगे? आप जीभ निकालकर बतावोगे लो यह है रसना। तो हम छूकर बता देंगे कि यह तो स्पर्शन है। जो छुवा जाय, जिसमें ठंड गरम महसूस हो वह तो स्पर्शन है। असली कान कहां हैं जहां से आवाज सुनी जाती है। जो दिखते हैं वहाँ तो चमड़ा मिलेगा और त्वचा स्पर्शन इंद्रिय है। नाक कहां है जिससे सूंघा जाता है, देखने वाली आँख कहां है? तो इन इंद्रियों में कुछ ऐसा गुप्त रूप से अणु पुंज है कि जिसके द्वारा यह सुनता है, देखता है, चखता है और सूंघता है।
परमार्थत: इंद्रियों द्वारा ज्ञान का अभाव:―वस्तुत: इन इंद्रियों के द्वारा भी यह कुछ ज्ञान नहीं करता है, किंतु वे ज्ञान की उत्पत्ति के द्वार हैं। जैसे कोई मनुष्य कमरे में खड़ा हुआ खिड़कियों से बाहर देखे तो क्या देखने वाली खिड़कियाँ हैं? खिड़की तो एक द्वार है, देखने वाला तो अंतर खड़ा हुआ मनुष्य है। इसी तरह इस देह के चार दीवारी के भीतर स्थित यह आत्मा इन 5 खिड़कियों से जान रहा है। तो क्या जानने वाली ये खिड़कियाँ इंद्रियां है? जाननहार तो आत्मा है, किंतु कमजोर अवस्था में इस आत्मा में इतनी शक्ति नहीं है कि वह अपने सर्वांग प्रदेशों से जैसा कि प्रभु जाना करते हैं, यह जान सके। सो इसके जानने का साधन ये द्रव्येंद्रियां बनी हुई हैं। जब इस वर्ण, गंध, रस, स्पर्श का साधनभूत और इसके परिज्ञान का साधनभूत जब इंद्रियां ही इस आत्मा की नहीं हैं, तब ये रूपादिक तत्त्व इस मुझ आत्मा के कैसे होंगे?
विशद ज्ञान के लिये अनुभवन की आवश्यकता―भैया !वस्तु का जब तक स्पर्शन नहीं हो जाता, अनुभवन नहीं हो जाता, तब तक उसकी चर्चा कुछ कर ली दी सी, ऊपर फट्टी सी मालूम होती है। जैसे जिस बालक ने दिल्ली नहीं देखी और ऐसे बालक को दिल्ली की बातें बताई जाएं कि ऐसा किला है, ऐसी मस्जिद है, ऐसा फव्वारा है, ऐसा मंदिर है, अमुक ऐसा है तो उसके लिए यह सब कहानी जैसी मालूम होगी और जिसने देखा है उस सुनने वाले को उसके अंतर में नजर आने लगता है। ये सारी आत्मा की बातें समझने के लिए बड़े-बड़े शास्त्रों के ज्ञान का श्रम हम करते हैं, बड़ी-बड़ी भाषाएं और बड़ी-बड़ी क्रियाओं का हम अध्ययन करते हैं और एक बार सत्य का आग्रह करके असत्य का असहयोग करके नहीं जानना है, नहीं माननी है हमें किसी परतत्त्व की बात। एक सत्य का आग्रह करके यहाँ बैठा हूं, स्वयं जो कुछ हो सो हो, पर को जानकर यत्न कर करके मैं किसी भी तत्त्व को नहीं जानना चाहता―ऐसी निर्विकल्प स्थिति बनाकर बैठें तो स्वयं ही इस ज्ञानस्वरूप का दर्शन और अनुभवन होगा। जिस अनुभव के आनंद से छककर यह जीव फिर अन्यत्र कहीं न रमना चाहेगा, फिर सारी चर्चा स्पष्ट यों नजर आएगी कि ठीक है, यह मेरी बात कही जा रही है।
अनुभूत की प्रतीति―जैसे कोई पुरुष कुछ अच्छा कार्य कर आया हो और उसका नाम लिए बिना अच्छे कार्यों की प्रशंसा की जाए तो वह जानता रहेगा कि ये मेरे बारे में कह रहे हैं और कोई बुरा काम कर आया हो तथा उसका नाम लिए बिना बुरे कार्य की चर्चा की जाये तो भी वह समझता है कि मेरे बारे में कह रहे हैं। आत्मस्वरूप का जिन्होंने अनुभव किया है, वे शास्त्र सुनते समय, पढ़ते समय, स्वाध्याय करते समय सब जानते रहेंगे कि देखो यह आचार्यदेव हमारी बात कह रहे हैं। इस ज्ञानानंदस्वभावमात्र आत्मतत्त्व में 5 प्रकार के वर्ण, 5 रस, 2 गंध, 8 स्पर्श ये कुछ भी नहीं हैं।
आत्मा में स्त्री पुरुष नपुंसक विभावव्यंजनपर्याय का अभाव―पर्यायव्यामोह में ऐसा भी देखा जाता हैं कि यह स्त्री है, यह पुरुष है, यह नपुंसक है―ऐसी विजातीय विभावव्यंजनपर्याय नजर आती है। किंतु आत्मा सहजस्वभाव में कैसा है? उस अमूर्त चैतन्यस्वभाव में आत्मतत्त्व का स्वरूप देखते हैं तो वहाँ देह भी नहीं है तो स्त्री, पुरुष, नपुंसक नाम का द्रव्यवेद है और न तज्जातीय परिणाम भी है। यह तो शुद्ध ज्ञायकस्वरूप है। यह सब अंतर की बात निकाली जा रही है। पर्याय में क्या बीत रहा है? इसकी चर्चा यह नहीं है। किसी का सिर दर्द कर रहा हो तो वह दर्द। कुछ ज्ञान कर रहा है यह जीव अथवा पीड़ा मान रहा है यह जीव, इतने पर भी इस जीव के सहजस्वरूप को देखा जाए तो यह बात एक तथ्य की सोचना है कि यह आत्मा देह से रहित है, पीड़ा से रहित है।
स्वभावदृष्टि में प्रज्ञाबल―जैसे पानी बहुत तेज गरम है, अछन किया हुआ है, वह पानी कोई पीवे तो क्या जीभ जलेगी नहीं? जलेगी। इतने पर भी जल के सहजस्वरूप को निरखा जाए तो क्या यह तथ्य की बात नहीं है कि जल स्वभावत: शीतल है। यह लोकव्यवहार का दृष्टांत है। वैसे तो जल पुद्गल द्रव्य है, उसका न शीतल स्वभाव है, न गरम स्वभाव है, किंतु स्पर्श स्वभाव है, फिर भी एक लोकदृष्टांत है। ऐसे ही हम और आपमें भी जैसे गुजर रही हो, वह निमित्तनैमित्तिक संबंध का परिणाम है। गुजरता है गुजरने दो। उस गुजरते हुए में भी हम उस गुजरे की दृष्टि न करके अंतस्वभाव की दृष्टि करने के लिए चलें तो ऐसे खुले ज्ञान में पड़े हुए हैं हम आप जो कि एक उत्कृष्ट बात है। हम प्रज्ञाबल से उस ज्ञानस्वभाव की दृष्टि करें।
श्रम से विराम की आवश्यकता―देखो कि उस अंतस्तत्त्व में स्त्री, पुरुष, नपुंसक आदिक विजातीय विभावव्यंजनपर्यायें नहीं हैं। यह आत्मतत्त्व केवल ज्ञान परिणाम अथवा उपाधि के सन्निधान में श्रद्धा चारित्र गुणों का विकास कर रहा है। यह न चलता है, न करता है, न दौड़ता है, न भागता है और हो रहे हैं ये सब, किंतु अंतरंग को समझने वाले लोग यह जानते हैं कि यह तो केवल जानन और विकार भाव कर रहा है और कुछ नहीं कर रहा है। कहां इतनी दौड़ धूप मचाई जाय? क्या मैं दौड़ता हूं, जाता हूं, करता हूं―ऐसी श्रद्धा नहीं बनाया, क्या दौड़ना भागना ही पसंद है? तो दौड़ना भागना होता है पैरों द्वारा। तो अभी तो दो ही पैर हैं, यदि ज्यादा पैर मिल जायें तो शायद यह काम और अच्छा बन जायेगा। कल्पना में सोच लो कितने पैर हों तो अच्छा खूब ज्यादा कार्य होगा? किसी के 4 पैर भी होते हैं, 10 भी होते हैं, 16 भी होते हैं, 40 पैर भी होते हैं, 44 पैर भी होते होंगे। कितने चाहिए? तो लोकव्यवहार में ये सब करतूत करनी पड़ती है, लेकिन हृदय में इतना प्रकाश तो अवश्य रहना चाहिए कि यह आत्मा ईश्वर, भगवान् आत्मा अपने आपके प्रदेश में स्थित रहकर केवल इच्छा किया करता है और यह विस्फोट सब स्वयमेव होता रहता है। कैसा निमित्तनैमित्तिक संबंध है कि सारे काम अपने आप चलने लगते हैं।
सकल व्यवसायों का मूल हेतु मात्र इच्छा―जैसे बड़े यंत्रों में एक जगह बटन दबाया कि सारे पेंच पुर्जे स्वयं चलने लगते हैं। ये चक्कियां चलती है, वस्त्र वाले मील चलते हैं, बस बटन दबा दिया कि सब जगह के पेंच पुर्जे स्वयं चलने लगते हैं। यहाँ भी एक इच्छा भर कर लो फिर चलना, उठना, बैठना, खाना, पीना, लड़ना ये सब काम आटोमैटिक होते रहते हैं। इनमें आत्मा कुछ नहीं करता। आत्मा तो केवल इच्छा करता और साथ ही उस इच्छा का निमित्त पाकर इसके प्रदेशों में परिस्पंद हो जाता है। बस ये दो हरकतें तो आत्मा में हुई, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ बातें होती ही नहीं है। हाथ का चलना या हाथ का निमित्त पाकर अन्य वस्तुवों का हिलना डुलना हो रहा है। आत्मा तो केवल इच्छा और भोग ही करता है। इस आत्मा के जब विभावगुणपर्याय भी नहीं है, फिर यहाँ किसी विभाव व्यंजन पर्याय की कथा ही क्या?
आत्मतत्त्व में निराकारता―चैतन्य और आनंदस्वरूप मात्र इस निज शुद्ध अंतस्तत्त्व में केवल चित्प्रकाश है और वह अनाकुलता को लिए हुए है, इसमें किसी प्रकार का आकार नहीं है। शरीर में जो विभिन्न आकार बन गए हैं वे यद्यपि जीवद्रव्य का सन्निधान पाकर बने हैं, फिर भी आकार पुद्गल में ही है, भौतिक तत्त्व में है, आत्मद्रव्य में आकार नहीं है। ये आकार मूलभेद में 6 प्रकार के हैं―समचतुरस्रसंस्थान, व्यग्नोधपरिमंडलसंस्थान, स्वातिसंस्थान, वामनसंस्थान, कुब्जकसंस्थान और हुंडकसंस्थान।
देह के संस्थान―समचतुरस्रसंस्थान वह है जिसमें सब अंग जितने लंबे बड़े होने चाहियें उतने ही हों। नाभि से नीचे का धड़ और नाभि से ऊपर का धड़ बराबर परिमाण का हुआ करता है। जिसके परिमाण में कुछ कमी बसी हो उसके समचतुरस्रसंस्थान नहीं है, नाभि पंचेंद्रिय जीव के तो प्राय: होती ही है। घोड़ा, बैल, हाथी, ऊंट, आदमी सबके नाभि होती है और एकेंद्रिय जीव में नाभि होती ही नहीं। दो इंद्रिय आदिक जीवों में तो शायद नाभि होती हो या नहीं। समचतुरस्रसंस्थान में हाथ कितना बड़ा होना, पैर कितना बड़ा होना चाहिये, यह सब एक शिष्ट मात्र है। और इसी माप के आधार पर भगवान् की मूर्ति बनती है। नाभि से ऊपर के अंग बड़े हो जायें तो वह व्यग्नोधपरिमंडल संस्थान है। नाभि से नीचे के अंग बड़े हो जायें तो वह स्वातिसंस्थान है, बौना शरीर हो सो वामनसंस्थान है, कुबड़ निकला हो तो वह कुब्जकसंस्थान है और अट्टसट्ट हो, इन 5 संस्थानों का कोई विविक्त संस्थान न हो तो वह हुंडकसंस्थान है।
आत्मतत्त्व में संस्थानों का अभाव―इन संस्थानों के बनने में यद्यपि जीव का परिणाम निमित्त है। जैसा भाव हुआ वैसा बंध हुआ और उसही प्रकार का उदय हुआ। संस्थान बने, फिर भी आत्मद्रव्य तो अमूर्त ज्ञानभाव मात्र है। उसमें संस्थान नहीं है। कैसा विचित्र संस्थान है? वनस्पति के पेड़ के देह देखो कैसी शाखायें फैली हैं, डालियां बनी हैं, पत्ते हैं, पत्तों की कैसी बनावट है? फूल देखो कैसी विचित्र यह सब प्राकृतिकता है, अर्थात् कर्मप्रकृति के उदय से होने वाली बातें हैं। ये सब आत्मद्रव्य में नहीं हैं।
आत्मतत्त्व में संहननों का अभाव―संहनन दो इंद्रिय जीव से लेकर पंचेंद्रिय जीव तक होता है। अर्थात् हड्डियों के आधार पर शरीर का ढांचा बनना सो संहनन है, एकेंद्रिय में संहनन नहीं है, देवों में व नारकियों में भी संहनन नहीं है। संहनन 6 होते हैं। बज्रवृषभनाराचसंहनन―जहां बज्र के हाड़ हो, बज्र के पुट्ठे हों, बज्र की कीलियां लगी हों ऐसे शरीर का नाम है बज्रवृषभनाराचसंहनन। हम आप लोगों के तो हाथ नसों से बंधे हैं। इस हाथ में दो-दो हड्डियां हैं एक भुजा पर एक टेहुनी के नीचे और ये दोनों हड्डियां नसों से बंधी है। किंतु जिनके बज्रवृषभनाराचसंहनन होता है उनके दोनों हड्डियों के बीच कीलियां लगी रहती हैं। जो मोक्ष जाने वाले पुरुष हैं उनमें नियम से बज्रवृषभनाराचसंहनन होता है।
बज्रांग बली―श्री हनुमान जी जब विमान में बैठे हुए चले जा रहे थे। दो तीन दिन का वह बालक पवनसुत, अंजनापुत्र विमान से खेलते-खेलते पहाड़ पर गिर गया, सब लोग तो विह्वल हो गये। जब नीचे आकर देखा तो जिस पाषाण पर गिरा था उसके तो टुकड़े हो गये और हनुमान जी अंगूठा चूसते हुए खेल रहे थे। सबने जाना कि यह मोक्षगामी जीव है। उसकी तीन परिक्रमा देकर हाथ जोड़कर हनुमान को उठाकर फिर विमान में लेकर चले। हनुमान जी का चरित्र बहुत शिक्षा पूर्ण है। उनके बज्रवृषभनाराचसंहनन था। इसी कारण उन्हें बज्रांगबली कहते है, जिसको अपभ्रंश करके लोग बजरंगबली बोलने लगे। इसका शुद्ध शब्द है बज्रांगबली। बज्रवृषभनाराचसंहनन जिसका शरीर हो, उसे बज्रांग कहते हैं। केवल हनुमानजी ही बज्रांग नहीं थे―राम, नील, सुग्रीव तीर्थंकर जो भी मुक्त गए हैं, वे सब बज्रांग थे, पर किन्हीं पुरुषों की प्रमुख घटनावों के कारण नाम प्रसिद्ध हो जाता है। यदि हनुमानजी उस पत्थर पर नहीं गिरते तो उनका नाम बजरंगबली न प्रसिद्ध होता। बहुत से पुरुष बजरंगबली होते हैं।
पौद्गालिकता के कारण सब संहननों का आत्मद्रव्य में अभाव―दूसरा संहनन है बज्रनाराचसंहनन। बज्र की हड्डी होती है, बज्र की कीली होती है, पर पुट्ठा बज्र का नहीं होता। तीसरा संहनन है नाराचसंहनन। बज्र के हाथ हैं, किंतु हड्डियां कीलियों से आरपार खचित हैं। जिनकी ये हड्डियां कीलियों से कीलित हैं, उनके हाथ पैर भटकते नहीं हैं। नसों से यह अस्थिजाल बंधा है, यदि झटका दे दिया जा यतो टूट जाए। चौथा संहनन है अर्द्धनाराचसंहनन। हड्डियों में कीलियां अर्द्धकीलित हैं और कीलितसंहनन में कीलियों का स्पर्श है। छठा है असंप्राप्तासृपटिकासंहनन―याने नसाजालों से बंधा हुआ हाड़ का ढांचा हम आप सबका छठा संहनन है। हाड़ों की रचना इस आत्मतत्त्व में नहीं है, यह पौद्गलिकाय में है। ये पुद्गल कर्मोदय से उत्पन्न होते हैं। पुद्गल में ही विकार हैं। कुछ तो विकार ऐसे होते हैं कि निमित्त तो पुद्गल कम्र के उदय का है, पर जीवों में गुणों का विकार है, किंतु इस श्लोक में जितनी चीजों को मना किया गया हैं। यह सब पुद्गल के उदय से भी हैं और पुद्गल में ही विकार हैं। ये सब परमस्वभाव कारणपरमात्मस्वरूप शुद्ध जीवास्तिकाय के नहीं होते हैं। अब इस प्रकरण में इस निषेधात्मक वर्णन का उपसंहार करते हुए आत्मतत्त्व का असाधारण लक्षण भी बतला रहे हैं।