नियमसार - गाथा 64: Difference between revisions
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< | <div class="PravachanText"><p><strong>पोथइकमंडलाइं गहणविसग्गेसु पयतपरिणामो।</strong></p> | ||
< | <p><strong>आदावणणिक्खेणसमिदी होदिति णिद्दिट्ठा।।64।।</strong></p> | ||
<p | <p> <strong>समिति के अधिकारी उपेक्षासंयमी और अपहृतसंयमी</strong>―व्यवहारचारित्र अधिकार में पंचमहाव्रत और ईर्या, भाषा, ऐषणा इन तीन समितियों का वर्णन करने के पश्चात् अब आदान निक्षेपणसमिति का स्वरूप कहा जा रहा है। पुस्तक कमंडल आदिक ग्रहण करना अथवा रखना इन कार्यों में जो उनके प्रयत्न का परिणाम है उसका नाम आदाननिक्षेपणसमिति है। साधुजन दो प्रकार के होते हैं―एक उपेक्षासंयमी, एक अपहृतसंयमी। उपेक्षासंयमी साधु वे हैं जिनको सर्व पदार्थों में परिपूर्ण उपेक्षा है, जो आत्मतत्त्व के चिंतन ध्यान में रत रहा करते हैं। जिनको विहार आदिक से कोई प्रयोजन नहीं है। शुद्धोपयोग के विलास में यथापद रहा करते हैं, ऐसी परम योग्यता वाले साधु उपेक्षासंयमी कहलाते हैं। अपहृतसंयमी वे हैं जिनका शुद्धोपयोग में टिकाव नहीं हो पाता है, तो अन्य शुभोपयोग संबंधी कार्य जिन्हें करने पड़ते हैं। विहार करना, उपदेश आदिक देना, कमंडल, पिछी और शास्त्र का लेना धरना उठाना किन्हीं भी व्यवहार के कार्यों में जो रहते हैं उन्हें कहते हैं अपहृतसंयमी।</p> | ||
<p | <p> <strong>उपेक्षासंयम का निर्देशन</strong>―उपेक्षासंयम का अर्थ यह है कि जिसका अंतरंग में परम उदासीनता का परिणाम रहता है, परम उपेक्षा रहती है और इस उपेक्षा के कारण अपना उपयोग अपने में संयत रहता है उन्हें कहते हैं उपेक्षासंयमी। उपेक्षासंयमी साधुसंतों को पुस्तक कमंडल आदिक की आवश्यकता नहीं है। बाहुबली स्वामी का नाम किस संयमी में रक्खा जा सकता है? उपेक्षासंयमी में। भरतचक्रवर्ती साधु हुए, उनका नाम उपेक्षासंयमी में रक्खा जा सकता है। जिनको आभ्यंतर उपकरण निज सहजस्वरूप का ज्ञान होता है, बाह्य उपकरण जहां नहीं है वे हैं उपेक्षासंयमी। कैसा है यह सहजबोध का उपकरण? यह निज परमतत्त्व के प्रकाश करने में समर्थ है।</p> | ||
<p | <p> <strong>निर्विकल्पसमाधि का मूल आत्मज्ञानानुभव</strong>―साधु का प्रयोजन है निर्विकल्प समाधि। निर्विकल्प समाधि वास्तविक वहाँ ही होती है जहां आत्मतत्त्व के स्वरूप का अनुभव बन रहा हो। आत्मतत्त्व के अनुभव के बिना जब कभी भी स्थिति किन्हीं हठयोगों के द्वारा निर्विकल्प समाधि जैसी कल्पित बनती हो तो वहाँ भी परमार्थत: निर्विकल्प समाधि नहीं है। वहाँ भी अंतरवृत्ति में कोई विकल्प चल रहा है। जैसे कि एक कथानक है कि एक प्राणायामयोग साधने वाला कोई संन्यासी था। जो 24 घंटे की समाधि लगाया करता था। उसका देह सूनासा हो जाय। साधु को मिट्टी में गाड़ दीजिए, चारों तरफ से छिद्र बंद कर दीजिये, ऐसी स्थिति की समाधि वह संन्यासी लगाया करता था। राजा ने कहा महाराज तुम अपनी 24 घंटे की समाधि लगावो। उसके बाद में तुम जो चाहोगे सो मिलेगा। अब उसने सोच लिया कि हमें राजा से क्या लेना है। उसने समाधि 24 घंटे की लगायी और वह क्या मांगेगा सो अंत में वह एकदम कह देगा। उसने 24 घंटे की समाधि लगायी और समाधि 24 घंटे में भंग होने पर एकाएक बोल उठा लावो काला घोड़ा। उसने काला घोड़ा ही लेने का संकल्प किया था और उस समय चित्तवृत्ति में यह संकल्प ऐसा छुपा हुआ बना रहा कि जिसका वह भी पता नहीं कर सका, पर ऐसा संकल्प रहा आया।</p> | ||
<p | <p><strong> ज्ञानानुभूति बिना केवल चित्तनिरोध से परमार्थ निर्विकल्प समाधि का अभाव</strong>―जिस समय यह अंतरात्मा अपने ज्ञानद्वारा केवल जानन स्वरूप को ही निरखता हुआ, अपने को ज्ञानमात्र ही अनुभव करता है―ऐसी स्थिति में हो तब चूंकि जानने वाला भी ज्ञान है और जानन में जो रहता है वह भी ज्ञान है। सो जब ज्ञाता और ज्ञेय जहां दोनों एक हो जाते हैं परमार्थ से निर्विकल्प समाधि वहाँ है। हठयोग द्वारा भले ही श्वास नाड़ी का अवरोध हो, किंतु वहाँ ज्ञान शून्य तो हो नहीं जाता। ज्ञानमय यह आत्मा ज्ञान से रहित त्रिकाल नहीं हो सकता। कुछ जानता तो है ही। आत्मज्ञान बिना कुछ अट्ट-सट्ट जानता रहता है, तो कोई जब केवल ज्ञानप्रकाश को जान रहा है तब तो वहाँ निर्विकल्प समाधि होती है और ज्ञानप्रकाश का जानन न हो रहा हो तो वहाँ कितनी भी चित्तवृत्ति रुद्ध हो जाय, तथापि वह निर्विकल्प समाधि परमार्थ से नहीं हो सकती है।</p> | ||
<p | <p> <strong>उत्सर्गमार्ग और अपवादमार्ग</strong>―उपेक्षा संयमी जीव परम उत्सर्ग मार्ग का अनुसरण करता है। मार्ग दो प्रकार के हैं―उत्सर्ग मार्ग और अपवाद मार्ग। साधुवों का उत्सर्ग मार्ग तो यह हे कि मन, वचन, काय की चेष्टावों की प्रवृत्ति बंद करें। परम उपेक्षा संयम से बर्तना हो, आहार विहार विलास समस्त क्रियाएं जहां न रहें, केवल आत्मस्वभाव की उपासना चले यह तो है उत्सर्ग मार्ग। साधुजन इस ही मार्ग का पालन करने के लिए निर्ग्रंथ होते हैं, किंतु यह बात बड़ी कठिन है ना, किंतु आरब्ध योग को यह बात कठिन है। सो जब उत्सर्गमार्ग में नहीं रह पाते हैं और उसे आवश्यकता होती है कि वह आहार करे, विहार करे, तो आहार विहार करता है, यह अपवाद मार्ग। यहाँ अपवादमार्ग का अर्थ खोटा मार्ग न लेना, गिरा हुआ ऐसा अर्थ न करना, किंतु सिद्धांत के अनुकूल शुद्ध विधि से जो चर्या की जाय, विहार किया जाय, यह है साधुवों का अपवाद मार्ग।</p> | ||
<p | <p> <strong>सम्यग्दर्शन के अष्टांगों की प्रवृत्ति में उपेक्षासंयम</strong>―साधु जनों से पूछो क्या तुम साधु विधि से आहार विहारादि की चर्या करते रहने के लिए ही साधु हुए हो? तो उनका उत्तर क्या होगा? उनका उत्तर होगा कि करना पड़ रहा है, हम उसके लिए साधु नहीं हुए हैं, हम तो उत्सर्गमार्ग में बढ़ने के लिए यों चल रहे हैं। साधुजन इतनी उपेक्षा के परिणाम वाले होते हैं कि वे सम्यग्दर्शन के 8 अंगों का पालन करते हुए भी; शंका न करना, इच्छा न करना, धार्मिकजनों में ग्लानि न करना, कुपथ में मुग्ध न होना, धार्मिकजनों के दोष को दूर करना, धर्मी पुरुषों से प्रेमभाव बढ़ाना, वात्सल्य करना, धर्म से गिरते हुए अपने आपको अथवा अन्य पुरुषों को धर्म में स्थित करना, ज्ञान की प्रभावना करना―इन 8 अंगों का पालन करते हुए भी साधुजनों की अंतरध्वनि यह है कि हे अष्टांग सम्यग्दर्शन ! मैं तुम्हारा तब तक पालन कर रहा हूं जब तक तुम्हारे प्रसाद से प्रवृत्तिरूप तुम अष्टांगों से मुक्त न हो जाऊं।</p> | ||
<p | <p> <strong>सम्यग्ज्ञान के अष्टांगों की प्रवृत्ति में उपेक्षासंयम</strong>―ज्ञानाचार में साधुजन अष्टांग आचरण करते हैं। शुद्ध शब्द पढ़ना, शुद्ध अर्थ करना, शब्द और अर्थ दोनों की शुद्धि रखना, अपने गुरुजनों का बहुमान करना, अपने को जिससे शिक्षा मिली हो उनका नाम न छिपाना, किसी में ऐब न लगाना आदिक जो 8 प्रकार के ज्ञानाचार हैं उन ज्ञानाचारों का पालन करते हुए भी साधु यह चिंतन कर रहा है कि हे अष्टांग ज्ञानाचार ! मैं तुम्हारा तब तक पालन कर रहा हूं जब तक तुम्हारे प्रसाद से मैं मुक्त न हो जाऊं।</p> | ||
<p | <p> <strong>चारित्राचार में उपेक्षासंयम</strong>―शुद्ध आचरण करके भी साधु चाहता है कि मुझे यह भी आचरण न करना पड़े, और क्या करना पड़े? मैं केवलज्ञानमात्र ज्ञानप्रकाश में स्थिर रहूं। वे चारित्र का बहुत-बहुत आचरण करते हैं। समितियों का पालन करना महाव्रतों का पालन करना, गुप्तियों का धारण करना, उसके प्रति भी साधुवों का यह परिणाम है कि हे नाना विधि चारित्राचार ! मैं तब तक तुम्हारा पालन करता हूं तब तक मैं तुम्हारा सहारा लेता हूं, जब तक तुम्हारे प्रसाद से मैं इनसे मुक्त न हो जाऊं।</p> | ||
<p | <p> <strong>ज्ञानी की प्रवृत्ति निवृत्तिप्रयोजिका</strong>―देखो भैया ! सम्यग्दृष्टि जीव की प्रवृत्ति निवृत्ति के लिए होती है, यह एक नियम बना लो। चाहे वह चतुर्थगुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि हो और चाहे पंचमगुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि हो, प्रवृत्ति तो इन तीनों में ही है ना। सप्तगुणस्थान में तो प्रवृत्ति नहीं है, क्योंकि वहाँ प्रवृत्ति नहीं रही, वह अप्रमत्त विरत साधु है। ये तीनों प्रकार के सम्यग्दृष्टिजन जो कुछ भी प्रवृत्ति करते हैं वह निवृत्ति के लक्ष्य से करते हैं। उनकी प्रवृत्तियां उनके पदों के अनुसार हैं। साधुजन 12 प्रकार के तप भी करते हैं। अनशन, ऊनोदर, व्रत परिसंख्यान, रस परित्याग, बड़े-बड़े काय क्लेश, गरमी में पर्वत के शिखर पर तप करना, शीत काल में नदी के तट पर ध्यान लगाना नाना प्रकार के तप भी करते हैं। अंतरंग तप भी करते हैं, इस पर भी उन साधुवों की यह तप में प्रवृत्ति उन सब प्रवृत्तियों से निवृत्त होने के लिए है। इतना मंत्र जिस साधु ने पाया उस साधु के तो विडंबना ही रहती है।</p> | ||
<p | <p> <strong>तपस्या की प्रवृत्ति में उपेक्षासंयम</strong>―भैया ! अंतस् तत्त्व को टटोलते जाइए। क्या साधु तप के लिए तप कर रहा है? मैं बड़ी गरमी में तपस्या करूं, इसके लिए वे तप कर रहे हैं क्या? इसके लिए तप करें अथवा लोग मुझे तपस्वी जानें इसके लिए तप करें अथवा मैंने साधुपद लिया इसलिए ऐसा तप करना चाहिए―ऐसा भाव रखकर तप करे, तो वह सब उद्देश्य विहीन काम की तरह साधु तपस्या करता है। साधु तप इसलिए करता है कि ऐसे क्रियमाण तप से भी मैं सदा काल के लिए मुक्त हो जाऊं। मुझे कितनी मुक्ति मिली है अभी? मुक्ति मायने छुटकारा। घर से मुक्ति पा ली है। आरंभ परिग्रह से मुक्ति पा ली है, वस्तु आदिक का धरना उठाना सारे दंदफंदों से मुक्ति पा ली है। अब इन तपस्यावों के कार्यों से भी हे नाथ ! इनसे मुझे मुक्ति लेना है। उस शुद्ध शुद्धज्ञायक स्वरूप निज अंतस्तत्त्व में ही विश्रांत होकर अपने शुद्धस्वरूप को बर्ता करूं। ऐसा ही उद्देश्य है साधु पुरुष का।</p> | ||
<p | <p> <strong>श्रावक की प्रवृत्ति में भी उपेक्षा की झलक</strong>―अब जरा और नीचे चलिए। श्रावक, देशसंयत, पंचम गुणस्थान वाले वे भी जितनी प्रवृत्ति रखते हैं वे उस प्रवृत्ति को करने के लिए प्रवृत्ति नहीं रख रहे हैं, किंतु इनसे मैं मुक्त हो जाऊं, इसके लिए करते हैं। जिसे फोड़ा हो जाता है पैर में, हाथ में वह उस फोड़े पर मलहम पट्टी लगाता है। उससे पूछो क्या तुम पट्टी लगाने के लिए पट्टी लगा रहे हो अर्थात् मैं रोज ऐसी ही रोटी न रक्खूं कि सुबह हो, दोपहर हो और में पट्टी लगाया करूं, क्या इस अलसी लगाने के लिए पट्टी लगाने के लिए वह अलसी पट्टी लगा रहा है? नहीं। वह लगाता हुआ यह कह रहा है कि हे अलसी पट्टी ! मैं तुम्हें तब तक सह रहा हूं जब तक तुम्हारे प्रसाद से तुमसे मुक्त न हो जाऊं।</p> | ||
<p | <p><strong> निवृत्ति के लिये प्रवृत्ति</strong>―देख लो अनुभव की बात है। किसी को बुखार आ रहा है, वह कड़वी दवा पी रहा है, क्या वह दवा पीने वाला दवा पीते रहने के लिए दवा पी रहा है? नहीं। उसका अंतर में विचार है कि हे दवा ! में तुम्हें तब तक पी रहा हूं जब तक तुम्हारे प्रसाद से तुम मुझसे छूट न जावो। बड़े पुरुषों की बात स्पष्ट समझ में आती है बड़प्पन में आने पर। फोड़ा फंसी की बात, बुखार की बात ये दृष्टांत जैसे इतना घर कर जाते हैं, ऐसे ही ज्ञानयोग के प्रेमियों के हृदय में यह बात पूरी तरह से उतर जाती है कि साधुजन तप से छूटकारा पाने के लिए तप किया करते हैं।</p> | ||
<p | <p> <strong>मुक्तिविधि के मार्ग में</strong>―कोई कहे कि भाई मलहम पट्टी से छुटकारा पाने के लिए तुम पट्टी लगाते हो तो अभी से मत लगावो, तो क्या यह बात निभ जायेगी? उस मलहम पट्टी के प्रसाद से ही मलहम पट्टी छूटेगी। यों ही कोई कहे कि तपस्या से छुट्टी पाने के लिए ही तपस्या चाहते हो तो अभी से ही छुट्टी कर दो, तो यह बात नहीं बनेगी। उस चारित्र के प्रसाद से ही, तपश्चरण के प्रसाद से ही उस शुभोपयोग की वृत्ति से छुटकारा मिल पायेगा। मैं यों तो शुद्धोपयोग में रहकर अशुद्ध वृत्ति में रहकर बने रहें तो तप तो छूटा ही हुआ है। पर वह मुक्ति की विधि नहीं है, वह तो संसा रमें रुलते रहने का उपाय है। एक शायर ने कहा है―‘‘गिरते है सहसवार जो मैदाने जंग चढ़े। वे तिफ्ल क्या गिरेंगे जो घुटनों के बल चलें।।’’</p> | ||
<p | <p> <strong>साधुपद में उत्सर्ग व अपवाद का योग</strong>―साधुजन परम उपेक्षा संयम में रहते हैं। उनके कमंडल पिछी की जरूरत ही नहीं है। आभ्यंतर उपकरण तो उनके ज्ञान में अंतरंग में ज्ञानवृत्ति का बना रहा करता है। उपेक्षासंयम न रहने पर अपहृतसंयम में लगना पड़ता है। क्या कमंडल से ज्ञान निकलता है? क्या पिछी से ज्ञान निकलता है? नहीं निकलता है। उसमें से कोई सिद्धि है क्या? अरे अचेतन पदार्थ हैं। यह ही चीज दुकान में धरी थी। पंख धरे हों उनको विधि से पिछी बना लो। यह कमंडल दुकान में भी बिकता है। इसमें कोई ज्ञान भरा है क्या कि चारित्र भरा है कि श्रद्धा भरी है? क्या भरा है? इसके लेने की धरने की, उठाने की संभालने की संयमी पुरुष को कोई आवश्यकता नहीं है। वह तो शुद्धोपयोग के अनुभव रूपी सुधारस में मग्न है। लेकिन जो आहार विहार न करें, हिलेडुले नहीं अपने ध्यानमग्न में ही रत रहें उन उपेक्षासंयमियों की बात कही जा रही है। जैसे बाहुबलि का दृष्टांत है। ऐसा बन सके कोई तो क्या जरूरत है पिछी और कमंडल की? किंतु जब साधु उपेक्षासंयम में रह नहीं सकता, जब उसे आहार विहार करना पड़ेगा तो वहाँ आज्ञा नहीं है कि तुम पिछी कमंडल के बिना आहार विहार करो।</p> | ||
<p | <p> <strong>दीक्षाविधि में उपकरण की आवश्यकता</strong>―यदि कोई साधु संयम के उपकरण के बिना आहार विहार करेगा तो वह पाप करता है, धर्म के विरुद्ध चलता है। आदाननिक्षेपणसमिति में परमार्थ से तो आत्मा अपने ज्ञानप्रकाश का आदान कर रहा है और अपने विकारभाव का परिहार कर रहा है, और अपहृतसंयमी साधुजन समितिपूर्वक अपने ज्ञान संयम शौच के उपकरणों के विधि सहित धारण करता है, उठाता है, रखता है, यह है उसकी व्यवहारईर्यासमिति। यह भी बात ध्यान में लेना चाहिए। जब भी कोई पुरुष साधु होता है तो साधु होते समय इन उपकरणों को ग्रहण करता है। कोई पहिले से ही यह सोच ले कि मुझे तो उपेक्षासंयमी बनना है। मैं क्यों पिछी कमंडल लूं, हो जाय निर्ग्रंथ, ऐसा ही बस खड़ा रहूंगा, ऐसी आज्ञा नहीं है। क्या दावा है कि वह उपेक्षासंयमी बना रहेगा? दीक्षा लेते समय इन उपकरणों को ग्रहण करना आवश्यक है। इसके बाद उपेक्षासंयम हो जाय, न रहें ये उपकरण, कोई उठा ले जाय तो फिर आवश्यकता ही नहीं रहेगी।</p> | ||
<p | <p> <strong>उपेक्षासंयमी परमयोगियों का उपकरण</strong>―उपेक्षासंयमी साधुपुरुष पुस्तक कमंडल आदि के परिग्रह से दूर रहते हैं, इसी कारण वे परम जिन मुनि एकांत से निष्पृह हैं, पूर्ण इच्छारहित हैं, इस कारण वे बाह्य उपकरणों से भी दूर हैं। वे बाह्य उपकरणों से निर्मुक्त हैं। उपेक्षासंयमी पुरुष के समीप ये उपकरण रखे हुए हों तो भी वे उनसे निर्मुक्त हैं। यदि न रखे हों तो बाहर से भी निर्मुक्त हैं और अंतर से भी निर्मुक्त हैं। उनके तो परमार्थ उपकरण है। उपाधिरहित सहज चैतन्यस्वरूप का सहजज्ञान। उपेक्षासंयमी परमयोगीश्वर निज के ज्ञानभाव द्वारा अपने ज्ञानस्वभाव में ही सदा संतुष्ट रहा करते हैं। उनके उपकरण हैं अभिन्न। आत्मा से भिन्न और उसमें भी अचेतन, ये बाह्य उपकरण उपेक्षासंयम के उपकरण नहीं हैं। उनके तो एक सहज ज्ञान भाव के अतिरिक्त अन्य कुछ भी उपादेय नहीं हैं।</p> | ||
<p | <p> <strong>अपहृतसंयमी योगियों के उपकरण</strong>―अपहृतसंयम वाले साधुसंतों को आवश्यकता है परमागम के अर्थ का बार-बार प्रत्यभिज्ञान करने की। इस परमागम के अर्थ की बार-बार प्रत्यभिज्ञान करने के लिए उपकरण चाहिए, वह उपकरण है शास्त्र, पुस्तक। शस्त्र को ज्ञान का उपकरण बताया गया है। चूंकि यह जीवन आहार बिना नहीं टिक सकता, अत: आहार करना आवश्यक है, सो वे ऐषणासमिति पूर्वक आहार किया करते हैं। पर आहार करने के परिणाम में तो उन्हें मलमूत्र भी होगा ना, तो मलमूत्र करने की अशुचि को दूर करने के लिए शौच का उपकरण भी रखते हैं। वह शौच का उपकरण हुआ कमंडल, जो शरीर की विशुद्धि का उपकरण है। इन दो उपकरणों के अतिरिक्त तीसरा उपकरण जो अत्यंत आवश्यक है। कदाचित् साधु पुस्तक और कमंडल के बिना भी रह सकता है, चल सकता है, विहार कर सकता है किंतु तृतीय उपकरण जो संयम का उपकरण कहलाता है उस पिछी के बिना विहार नहीं कर सकता। यों तृतीय उपकरण है पिच्छिका। ये तीन बाह्य उपकरण हैं।</p> | ||
<p | <p> <strong>साधु का ज्ञानोपकरण</strong>―साधु संत ज्ञान का उपकरण शास्त्र को रखते तो हैं पास, किंतु शास्त्र में उनकी ममत्त्व बुद्धि नहीं होती है। कदाचित् शास्त्र में ममत्त्व बुद्धि हो जाय, जैसे कि साधारण जनों को गृहस्थ के साधनों के संचय में रखने में ममत्त्व बुद्धि होती है, अथवा एक ही रक्खें और ऐसा ख्याल आये कि यह मेरा ग्रंथ है। न मिले वह ग्रंथ तो कहो विवाद कर डालें, यदि ऐसा परिणाम हो गया तो वह शास्त्र साधु का उपकरण नहीं रहा। साधुवों का शास्त्र उपकरण तब तक है जब तक निर्भयता है। कोई पुरुष यदि किसी साधु के शास्त्र को चाहे कि लेकर पढ़ लें कहे कि महाराज यह तो बड़ी उत्तम चीज है, क्या यह शास्त्र हमें मिल सकता है? तो साधु उसके त्याग करने में देर न करेगा, हाँ हाँ तुम ले जावो और यदि साधु अपने अंतर में ऐसा अनुभव करे कि ओह यह शास्त्र मेरा है, मेरा काम कैसे चलेगा, ऐसा परिणाम आये तो फिर वह शास्त्र उसका उपकरण नहीं रहा। हम आपको तो किसी चीज के जाने में शोक का अनुभव होता है कि हाय मेरी चीज गयी, पर उनको आनंद का अनुभव होता है क्योंकि उनकी दृष्टि शीघ्र ही सहज ज्ञानस्वभाव में लग जाती है जिसको निरखने के लिए स्वाध्याय का श्रम किया गया है, ऐसे साधुसंतों के पास जो ज्ञान का उपकरण है शास्त्र, वह ज्ञान का उपकरण रहता है।</p> | ||
<p | <p> <strong>साधु का शौचोपकरण</strong>―इस ही तरह शौच का उपकरण है कमंडल। कमंडल में ममत्व हो जाय। कमंडल को बड़ा चिकना चमकीला बढ़िया ढंग में रखा जाय, उसको उठाने, धरने, निरखने में बड़ी मौजसी माने तो फिर वह कमंडल उपकरण न रहेगा। अब तो वह ममता का साधन बन गया है। साधुसंतों के पास कदाचित् कमंडल भी न रहे, जंगल में हैं और उनको कमंडल नहीं मिला तो किसी समय टूटा फूटा डबला कोई मिट्टी का कहीं पड़ा हो तो उसे उठाकर भदभदा से पानी गिर रहा हो तो पानी लेकर वे अपनी शौच क्रिया कर सकते हैं। उनको ममत्व नहीं है। कभी न मिले इस तरह का कमंडल तो तूमा भी जंगल में पड़ा हो, जिसका कोई स्वामी नहीं है, वहाँ ही खोखला पड़ा हुआ हैं, ऐसे टूटे फूटे स्वामी रहित मिट्टी के तूमें के बर्तन को भी अस्थायी रूप से उपयोग कर सकते हैं। वस्तु ऐसी निकट न रहनी चाहिए जिस वस्तु को असंयमीजन भी उठाना चाहें याने ख्याल करें कि मुझे मिल जाती तो अच्छा था। असंयमीजन जिस चीज को चाह सकते हैं वह वस्तु उनके एक परिग्रह में शामिल होती है।</p> | ||
<p | <p><strong> शौचोपकरण का उपयोग</strong>―साधुजन इस शौच के उपकरण कमंडल से क्या उपयोग करते हैं कि जब शास्त्र पढ़ने बैठते हैं तो थोड़ा हाथ पैर धो लेते हैं, चर्या के लिए जायें तो घुटने तक हाथ पैर धो लेते हैं और ऊपर मस्तक धो लेते हैं। इतनी शुद्धि करके वे चर्या को निकलते हैं अथवा कोई चांडाल हत्यारा छू जाय तो उस काल में वे खड़े-खड़े कमंडल की टोंटी से एक धार निकालकर स्नान कर लेते हैं और अन्य समयों में किसी और प्रकार का स्नान नहीं बताया गया हैं। साधुवों का शरीर स्वयं पवित्र होता है क्योंकि उसमें रत्नत्रय का उदय, प्रकाश इतना दृढ़ है, गहरा है, चमकीला है कि जिसके कारण शरीर की इस अपवित्रता पर भक्तजनों का ख्याल भी नहीं पहुंचता और भक्त अपवित्र नहीं मानता है। तो रत्नत्रय से पवित्र साधुवों का शरीर साधारण शुचि के लायक रहता है। गृहस्थजनों की तरह नहाने की उन्हें आवश्यकता नहीं होती है। इतनी शुद्धि के प्रयोजन के लिए उनका यह उपकरण होता है।</p> | ||
<p | <p> <strong>साधु का संयमोपकरण</strong>―संयम का उपकरण है पिच्छिका। पिच्छिका मयूर के पंख की होती है। ये पंख इतने कोमल होते हैं कि जिनसे किसी भी जीव को बाधा नहीं पहुंच सकती। कदाचित् किसी की आँख में भी लग जाय तो उससे कोई बाधा नहीं पहुंचती। अब आप बतलावो कि मयूर पंख को छोड़कर इतना कोमल अन्य क्या पदार्थ है प्रथम तो आपको कुछ अन्य विदित न होगा कि मयूर पंख के मुकाबले कोई पदार्थ इतना कोमल और इतना गुणवान् है। कदाचित् मिल भी जाय बनावट करके यह भी साथ देखिये कि इतना सुलभ लब्ध और कुछ नहीं है। साधुजन जंगल में तप किया करते हैं, रहते हैं। उन्हें पंखों की आवश्यकता हुई तो वैसे डेरों मयूरों के छोड़े हुए पंख पड़े रहते हैं। 20, 50 पंखों को उठा लिया, बस उन्हीं से ही पिच्छिका बन जाती है। हजार पाँच सौ पंखों का ढेर करके पिच्छिका बनायी जाय तो उससे तो वज़न के कारण कुंथु जीवों को बाधा संभव है। उसमें फिर कोमलता नहीं रहती है। ऐसे संयमों का उपकरण पिच्छिका है।</p> | ||
<p | <p><strong> आदाननिक्षेपणसमिति की श्रेष्ठता</strong>―ये अपहृतसंयम के लिए तीन बाह्य उपकरण बताये गये हैं। इनको ग्रहण करने में और इनके रखते समय में उत्पन्न होने वाला जो सावधानी के प्रयत्न का परिणाम है उसे आदाननिक्षेपणसमिति कहा करते हैं। आदान का अर्थ है ग्रहण करना, निक्षेपण का अर्थ है धरना और उसमें जो सावधानी है उसे कहते हैं आदाननिक्षेपणसमिति। समितियां सब आवश्यक और उत्तम हैं। फिर भी उनमें यत्न करके प्रयोजनवश देखा जाय तो यह आदाननिक्षेपणसमिति उन सब समितियों में श्रेष्ठ है, रानी है, शोभा देने वाली है। इन समितियों के संग से क्षमा और मैत्रीभाव उत्पन्न होता है।</p> | ||
<p | <p> <strong>साधुमुद्रा में निर्भयता व विश्वास का स्थान</strong>―अन्य वेशभूषा के साधुवों को देखकर लोगों को भय हो जाता है, कोई जटा रखाये हो, कोई भभूत रमाये हो, कोई चीमटा लिए हो, किसी के हाथ में डंडा हो, किसी के हाथ में त्रिशूल हो, कोई जगह-जगह सिंदूर लगाये हो, किसी ने मोटी रस्सी कमर में बाँध ली हो, ऐसा रूप देखकर लोगों को भय भी हो सकता है और अविश्वास भी हो सकता है। कहीं लड़ाई न हो जाय तो बाबा जी डंडा मार दें, कहीं लड़ाई हो जाने पर त्रिशूल न भोंक दें, ऐसा अविश्वास हो जाता है। परंतु धन्य है उन साधुसंतों की मुद्रा को कि जिनके समीप बैठने में न भय है और न किसी प्रकार का अविश्वास है। जिनका नग्न स्वरूप है, वे किसी की क्या कोई चीज चुरा सकते हैं। चुरायेंगे तो कहां रक्खेंगे। उनके पास कोई शस्त्र नहीं है, उनसे क्या भय हो सकता है? अरे जो कीड़ा-मकोड़ा आदि प्राणियों की रक्षा के लिए पिछी रखते हैं उनके परिणाम में क्या कभी यह आ सकता है कि हम इन्हें मार पीट दें? यदि वे कभी मारें पीटें और मारें पीटें ही क्या थोड़ा गाली गलौज भी दें, दूसरों को श्राप दें तो वह साधु नहीं हैं।</p> | ||
<p | <p> <strong>अंत:साधुता बिना विडंबना</strong>―एक पौराणिक घटना है कि एक नदी के तीर पर एक साधु एक शिला पर बैठकर रोज ध्यान लगाया करता था। एक बार आहार करने शहर गया, इतने में एक धोबी आया और उस पत्थर पर अपने कपड़े धोने लगा। इतने में आहार करके साधु वापिस आ गया। तो साधु महाराज कहते हैं कि इस पत्थर पर तुम कपड़े धोने क्यों आये? यह तो मेरे ध्यान करने का आसन है। धोबी कहता है―महाराज यह बहुत अच्छा पत्थर है मेरे कपड़े धोने का, कृपा करके थोड़े समय को आप ध्यान और जगह पर कर लीजिए। ऐसा पत्थर आसपास कहीं नहीं है। साधु बोला―हम तो इसी पर ध्यान लगायेंगे। तुम इससे हट जावो। तो धोबी बोला कि हम तो न हटेंगे। इससे सुविधाजनक और पत्थर यहाँ नहीं है। साधु जी थोड़ा गरम हो गये और थोड़ी हाथापाई कर बैठे। धोबी ने भी जरा हिम्मत बनाकर साधु से हाथापाई शुरू कर दी। दोनों में कुश्ती सी हो गयी। धोबी पहने था तहमद, सो उसका तहमद छूट गया, नंगा हो गया। अब दोनों में बड़ी विकट लड़ाई हुई। साधु गुस्से में आकर कहता है―अरे देवतावों ! तुम लोगों को खबर नहीं हैं कि साधु पर कितना बड़ा उपद्रव आ रहा है? तो ऊपर से आवाज आती है कि हम तो खड़े हैं उपद्रव दूर करने के लिए, पर हमें यह नहीं मालूम पड़ रहा है कि तुम दोनों में से साधु कौन है, और धोबी कौन हैं? तुम दोनों की एकसी मुद्रा है, एकसी गाली गलौज, एकसी मारपीट। हम कैसे पहिचानें कि साधु कौन है और धोबी कौन हैं?</p> | ||
<p | <p> <strong>पिच्छिका से अन्य भी अनेक लाभ</strong>―यह पिच्छिका केवल जीवरक्षा के काम में आये, इतना ही नहीं है किंतु यह बहुत सी सावधानियों को याद दिलाने वाली चीज है। जैसे किसी से कहो कि तुम बंबई जा रहे हो तो हमें अमुक चीज ले आना। तो वह कहता है कि हमें खबर न रहेगी। तब कहा जाता है कि तुम अपनी कमीज में गांठ बाँध लो, जब भी उठो बैठोगे तब खबर रहेगी कि अमुक चीज लानी है। यह पिच्छिका तो समस्त संयम व समस्त साधनावों के व्यवहार को याद दिलाने वाली है। और भी देखो―अन्य समितियों का टाइम जुदा-जुदा होता है किंतु आदाननिक्षेपणसमिति का टाइम सदा रहा करता है। सो रहा है तो वहाँ पर भी, यदि करवट बदलता है तो पथरा पर, जमीन पर तो वह पिच्छिका से साफ कर करवट बदलेगा। बैठे ही बैठे कदाचित् आँख पर जीव आये अथवा किसी जगह कोई जीव काट रहा है तो प्रथम तो यह कर्तव्य है कि उस ओर ध्यान ही न जाय। काटता है काटने दो, उसे मत भगावो। नहीं तो पिच्छिका से ही उसके शरीर का सावधानी सहित प्रमार्जन करो। पिच्छिका का उपयोग निरंतर रहा करता है। इस कारण आदाननिक्षेपणसमिति का महत्त्व इन सब समितियों में अधिक है। इस समय इस प्रकरण में श्रेष्ठता बताते हुए कहा जा रहा है कि इस समिति की सर्व समितियों से उत्तम शोभा है।</p> | ||
<p | <p><strong> साधुमुद्रा का श्रेय</strong>―भैया ! साधु की यथार्थ मुद्रा से लोगों को बड़ा विश्वास उत्पन्न होता है। हनुमान जी की माता अंजना जिस समय हनुमान गर्भ में थे तब सामने अंजना को निकाल दिया था यह कहकर कि यह गर्भ कहां से आया, मेरा पुत्र तो तेरी शकल भी नहीं देखना चाहता था, उसे दोष लगाकर निकाल दिया। जब पाप का उदय आता है तब कोई सहाय नहीं होता है। सबसे बड़ा पाप का उदय यह है कि उसे असदाचार का दोष लगाया गया। वह अंजना माता पिता के नगर में पहुंची। माता पिता ने भी उसे सहारा न दिया। अंत में वह स्त्री जंगल में भटकती हुई जा रही थी। बड़े उपद्रव व उपसर्ग सह रही थी। अचानक ही जंगल में एक मुनिराज के दर्शन हुए। उनके दर्शन पाकर अंजना को इतना धैर्य जगा, विश्वास लगा, जैसे मानों मां बाप ही मिल गए हों। साधुसंतों का सत्य सहज विश्वास हो जाया करता है। उन मुनिराज के समीप ही धर्मध्यान पूर्वक रहने लगी। पर मुनिराज वहाँ कहां रहने वाले थे। थोड़े ही समय बाद विहार कर गये। फिर अंजना का उदय अच्छा था, पुण्यात्मा पुरुष गर्भ में था, मोक्षगामी पुरुष अंजना के उदर में था। भले ही संकट खूब आये, पर सब टलते गये। साधुसंतों का इतना विश्वास होता है श्रावक जनों को।</p> | ||
<p | <p> <strong>नग्नमुद्रा में निर्विकारता का दर्शन</strong>―कुछ लोग उनकी नग्नमुद्रा को देखकर अटपट कल्पनाएं करके उनसे लाभ प्राप्त करने से दूर रहा करते हैं। कोई कहते हैं कि यह नग्न है, ऐसा न रहना चाहिए। अरे जरा उनके अंतर के परिणामों को तो देखो―साधु का अंतरंग परिणाम बालकवत् है। जैसे बच्चे को कुछ पता नहीं है काम का, अन्य तरह की विडंबनावों का, जैसे वह बच्चा निर्विकार है ऐसे ही वह साधु पुरुष निष्काम, निर्विकार अत्यंत स्वच्छ है। नग्नता का रूप रख लेना साधारण बात नहीं है, उद्दंड होकर कोई नंगा हो जाय, इसकी बात नहीं कह रहे हैं किंतु नग्न होकर भी रंचमात्र भी विकार न आये और कल्पना तक भी न जगे, ऐसी मुद्रा का प्राप्त होना इस लोक में अति दुर्लभ है और साथ ही अपने ज्ञानभाव द्वारा अपने सहजज्ञानस्वरूप में निरत रह सके, ऐसी स्थिति पाना बहुत ही सुंदर भवितव्य की बात है।</p> | ||
<p | <p> <strong>साधुवों की उपासनीयता</strong>―शांत निर्ग्रंथ दिगंबर मुद्राधारी मात्र पिछी और कमंडल ही जिनके हाथ में शोभित हो रहा है ऐसे साधु संतों को देखकर न कोई बालक डरता है, न कोई जवान डर सकता है, न कोई स्त्री भी डर सकती है, न कोई वृद्ध डर सकता है, न कोई अपरिचित पुरुष ही भय खायेगा। हाँ कदाचित् कोई पुरुष भय खा जाय, समझ लो जैसे बालक डर जाते हैं तो समझा कि अन्य भेषी साधुवों का पहिले डर खाया हुआ है, इसलिए उनको देखकर डर लगता है। ऐसे परम विश्वास्य साधु संतों के गुणों को हे भव्य जीव ! अपने हृदय रूप कमल में धारण करो, उन साधुवों के सर्व गुणों में प्रीति रखने से मुक्ति लक्ष्मी प्राप्त होगी, ज्ञान का साम्राज्य मिलेगा। इसलिए सर्व प्रकार के यत्न करके तुम अपने आपको देव, शास्त्र, गुरु को उपासना में लगावो। अन्य किसी से अपना हित मत मानों। ये मुनिराज आदाननिक्षेपणसमिति का निश्चयरूप से और व्यवहाररूप से पालन किया करते हैं। निश्चय से तो सहजज्ञान का उपकरण रखकर समिति का पालन करते हैं और व्यवहार में ये तीन उपकरण रखकर इनके धरने उठाने की समिति का पालन करते हैं।</p> | ||
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पोथइकमंडलाइं गहणविसग्गेसु पयतपरिणामो।
आदावणणिक्खेणसमिदी होदिति णिद्दिट्ठा।।64।।
समिति के अधिकारी उपेक्षासंयमी और अपहृतसंयमी―व्यवहारचारित्र अधिकार में पंचमहाव्रत और ईर्या, भाषा, ऐषणा इन तीन समितियों का वर्णन करने के पश्चात् अब आदान निक्षेपणसमिति का स्वरूप कहा जा रहा है। पुस्तक कमंडल आदिक ग्रहण करना अथवा रखना इन कार्यों में जो उनके प्रयत्न का परिणाम है उसका नाम आदाननिक्षेपणसमिति है। साधुजन दो प्रकार के होते हैं―एक उपेक्षासंयमी, एक अपहृतसंयमी। उपेक्षासंयमी साधु वे हैं जिनको सर्व पदार्थों में परिपूर्ण उपेक्षा है, जो आत्मतत्त्व के चिंतन ध्यान में रत रहा करते हैं। जिनको विहार आदिक से कोई प्रयोजन नहीं है। शुद्धोपयोग के विलास में यथापद रहा करते हैं, ऐसी परम योग्यता वाले साधु उपेक्षासंयमी कहलाते हैं। अपहृतसंयमी वे हैं जिनका शुद्धोपयोग में टिकाव नहीं हो पाता है, तो अन्य शुभोपयोग संबंधी कार्य जिन्हें करने पड़ते हैं। विहार करना, उपदेश आदिक देना, कमंडल, पिछी और शास्त्र का लेना धरना उठाना किन्हीं भी व्यवहार के कार्यों में जो रहते हैं उन्हें कहते हैं अपहृतसंयमी।
उपेक्षासंयम का निर्देशन―उपेक्षासंयम का अर्थ यह है कि जिसका अंतरंग में परम उदासीनता का परिणाम रहता है, परम उपेक्षा रहती है और इस उपेक्षा के कारण अपना उपयोग अपने में संयत रहता है उन्हें कहते हैं उपेक्षासंयमी। उपेक्षासंयमी साधुसंतों को पुस्तक कमंडल आदिक की आवश्यकता नहीं है। बाहुबली स्वामी का नाम किस संयमी में रक्खा जा सकता है? उपेक्षासंयमी में। भरतचक्रवर्ती साधु हुए, उनका नाम उपेक्षासंयमी में रक्खा जा सकता है। जिनको आभ्यंतर उपकरण निज सहजस्वरूप का ज्ञान होता है, बाह्य उपकरण जहां नहीं है वे हैं उपेक्षासंयमी। कैसा है यह सहजबोध का उपकरण? यह निज परमतत्त्व के प्रकाश करने में समर्थ है।
निर्विकल्पसमाधि का मूल आत्मज्ञानानुभव―साधु का प्रयोजन है निर्विकल्प समाधि। निर्विकल्प समाधि वास्तविक वहाँ ही होती है जहां आत्मतत्त्व के स्वरूप का अनुभव बन रहा हो। आत्मतत्त्व के अनुभव के बिना जब कभी भी स्थिति किन्हीं हठयोगों के द्वारा निर्विकल्प समाधि जैसी कल्पित बनती हो तो वहाँ भी परमार्थत: निर्विकल्प समाधि नहीं है। वहाँ भी अंतरवृत्ति में कोई विकल्प चल रहा है। जैसे कि एक कथानक है कि एक प्राणायामयोग साधने वाला कोई संन्यासी था। जो 24 घंटे की समाधि लगाया करता था। उसका देह सूनासा हो जाय। साधु को मिट्टी में गाड़ दीजिए, चारों तरफ से छिद्र बंद कर दीजिये, ऐसी स्थिति की समाधि वह संन्यासी लगाया करता था। राजा ने कहा महाराज तुम अपनी 24 घंटे की समाधि लगावो। उसके बाद में तुम जो चाहोगे सो मिलेगा। अब उसने सोच लिया कि हमें राजा से क्या लेना है। उसने समाधि 24 घंटे की लगायी और वह क्या मांगेगा सो अंत में वह एकदम कह देगा। उसने 24 घंटे की समाधि लगायी और समाधि 24 घंटे में भंग होने पर एकाएक बोल उठा लावो काला घोड़ा। उसने काला घोड़ा ही लेने का संकल्प किया था और उस समय चित्तवृत्ति में यह संकल्प ऐसा छुपा हुआ बना रहा कि जिसका वह भी पता नहीं कर सका, पर ऐसा संकल्प रहा आया।
ज्ञानानुभूति बिना केवल चित्तनिरोध से परमार्थ निर्विकल्प समाधि का अभाव―जिस समय यह अंतरात्मा अपने ज्ञानद्वारा केवल जानन स्वरूप को ही निरखता हुआ, अपने को ज्ञानमात्र ही अनुभव करता है―ऐसी स्थिति में हो तब चूंकि जानने वाला भी ज्ञान है और जानन में जो रहता है वह भी ज्ञान है। सो जब ज्ञाता और ज्ञेय जहां दोनों एक हो जाते हैं परमार्थ से निर्विकल्प समाधि वहाँ है। हठयोग द्वारा भले ही श्वास नाड़ी का अवरोध हो, किंतु वहाँ ज्ञान शून्य तो हो नहीं जाता। ज्ञानमय यह आत्मा ज्ञान से रहित त्रिकाल नहीं हो सकता। कुछ जानता तो है ही। आत्मज्ञान बिना कुछ अट्ट-सट्ट जानता रहता है, तो कोई जब केवल ज्ञानप्रकाश को जान रहा है तब तो वहाँ निर्विकल्प समाधि होती है और ज्ञानप्रकाश का जानन न हो रहा हो तो वहाँ कितनी भी चित्तवृत्ति रुद्ध हो जाय, तथापि वह निर्विकल्प समाधि परमार्थ से नहीं हो सकती है।
उत्सर्गमार्ग और अपवादमार्ग―उपेक्षा संयमी जीव परम उत्सर्ग मार्ग का अनुसरण करता है। मार्ग दो प्रकार के हैं―उत्सर्ग मार्ग और अपवाद मार्ग। साधुवों का उत्सर्ग मार्ग तो यह हे कि मन, वचन, काय की चेष्टावों की प्रवृत्ति बंद करें। परम उपेक्षा संयम से बर्तना हो, आहार विहार विलास समस्त क्रियाएं जहां न रहें, केवल आत्मस्वभाव की उपासना चले यह तो है उत्सर्ग मार्ग। साधुजन इस ही मार्ग का पालन करने के लिए निर्ग्रंथ होते हैं, किंतु यह बात बड़ी कठिन है ना, किंतु आरब्ध योग को यह बात कठिन है। सो जब उत्सर्गमार्ग में नहीं रह पाते हैं और उसे आवश्यकता होती है कि वह आहार करे, विहार करे, तो आहार विहार करता है, यह अपवाद मार्ग। यहाँ अपवादमार्ग का अर्थ खोटा मार्ग न लेना, गिरा हुआ ऐसा अर्थ न करना, किंतु सिद्धांत के अनुकूल शुद्ध विधि से जो चर्या की जाय, विहार किया जाय, यह है साधुवों का अपवाद मार्ग।
सम्यग्दर्शन के अष्टांगों की प्रवृत्ति में उपेक्षासंयम―साधु जनों से पूछो क्या तुम साधु विधि से आहार विहारादि की चर्या करते रहने के लिए ही साधु हुए हो? तो उनका उत्तर क्या होगा? उनका उत्तर होगा कि करना पड़ रहा है, हम उसके लिए साधु नहीं हुए हैं, हम तो उत्सर्गमार्ग में बढ़ने के लिए यों चल रहे हैं। साधुजन इतनी उपेक्षा के परिणाम वाले होते हैं कि वे सम्यग्दर्शन के 8 अंगों का पालन करते हुए भी; शंका न करना, इच्छा न करना, धार्मिकजनों में ग्लानि न करना, कुपथ में मुग्ध न होना, धार्मिकजनों के दोष को दूर करना, धर्मी पुरुषों से प्रेमभाव बढ़ाना, वात्सल्य करना, धर्म से गिरते हुए अपने आपको अथवा अन्य पुरुषों को धर्म में स्थित करना, ज्ञान की प्रभावना करना―इन 8 अंगों का पालन करते हुए भी साधुजनों की अंतरध्वनि यह है कि हे अष्टांग सम्यग्दर्शन ! मैं तुम्हारा तब तक पालन कर रहा हूं जब तक तुम्हारे प्रसाद से प्रवृत्तिरूप तुम अष्टांगों से मुक्त न हो जाऊं।
सम्यग्ज्ञान के अष्टांगों की प्रवृत्ति में उपेक्षासंयम―ज्ञानाचार में साधुजन अष्टांग आचरण करते हैं। शुद्ध शब्द पढ़ना, शुद्ध अर्थ करना, शब्द और अर्थ दोनों की शुद्धि रखना, अपने गुरुजनों का बहुमान करना, अपने को जिससे शिक्षा मिली हो उनका नाम न छिपाना, किसी में ऐब न लगाना आदिक जो 8 प्रकार के ज्ञानाचार हैं उन ज्ञानाचारों का पालन करते हुए भी साधु यह चिंतन कर रहा है कि हे अष्टांग ज्ञानाचार ! मैं तुम्हारा तब तक पालन कर रहा हूं जब तक तुम्हारे प्रसाद से मैं मुक्त न हो जाऊं।
चारित्राचार में उपेक्षासंयम―शुद्ध आचरण करके भी साधु चाहता है कि मुझे यह भी आचरण न करना पड़े, और क्या करना पड़े? मैं केवलज्ञानमात्र ज्ञानप्रकाश में स्थिर रहूं। वे चारित्र का बहुत-बहुत आचरण करते हैं। समितियों का पालन करना महाव्रतों का पालन करना, गुप्तियों का धारण करना, उसके प्रति भी साधुवों का यह परिणाम है कि हे नाना विधि चारित्राचार ! मैं तब तक तुम्हारा पालन करता हूं तब तक मैं तुम्हारा सहारा लेता हूं, जब तक तुम्हारे प्रसाद से मैं इनसे मुक्त न हो जाऊं।
ज्ञानी की प्रवृत्ति निवृत्तिप्रयोजिका―देखो भैया ! सम्यग्दृष्टि जीव की प्रवृत्ति निवृत्ति के लिए होती है, यह एक नियम बना लो। चाहे वह चतुर्थगुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि हो और चाहे पंचमगुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि हो, प्रवृत्ति तो इन तीनों में ही है ना। सप्तगुणस्थान में तो प्रवृत्ति नहीं है, क्योंकि वहाँ प्रवृत्ति नहीं रही, वह अप्रमत्त विरत साधु है। ये तीनों प्रकार के सम्यग्दृष्टिजन जो कुछ भी प्रवृत्ति करते हैं वह निवृत्ति के लक्ष्य से करते हैं। उनकी प्रवृत्तियां उनके पदों के अनुसार हैं। साधुजन 12 प्रकार के तप भी करते हैं। अनशन, ऊनोदर, व्रत परिसंख्यान, रस परित्याग, बड़े-बड़े काय क्लेश, गरमी में पर्वत के शिखर पर तप करना, शीत काल में नदी के तट पर ध्यान लगाना नाना प्रकार के तप भी करते हैं। अंतरंग तप भी करते हैं, इस पर भी उन साधुवों की यह तप में प्रवृत्ति उन सब प्रवृत्तियों से निवृत्त होने के लिए है। इतना मंत्र जिस साधु ने पाया उस साधु के तो विडंबना ही रहती है।
तपस्या की प्रवृत्ति में उपेक्षासंयम―भैया ! अंतस् तत्त्व को टटोलते जाइए। क्या साधु तप के लिए तप कर रहा है? मैं बड़ी गरमी में तपस्या करूं, इसके लिए वे तप कर रहे हैं क्या? इसके लिए तप करें अथवा लोग मुझे तपस्वी जानें इसके लिए तप करें अथवा मैंने साधुपद लिया इसलिए ऐसा तप करना चाहिए―ऐसा भाव रखकर तप करे, तो वह सब उद्देश्य विहीन काम की तरह साधु तपस्या करता है। साधु तप इसलिए करता है कि ऐसे क्रियमाण तप से भी मैं सदा काल के लिए मुक्त हो जाऊं। मुझे कितनी मुक्ति मिली है अभी? मुक्ति मायने छुटकारा। घर से मुक्ति पा ली है। आरंभ परिग्रह से मुक्ति पा ली है, वस्तु आदिक का धरना उठाना सारे दंदफंदों से मुक्ति पा ली है। अब इन तपस्यावों के कार्यों से भी हे नाथ ! इनसे मुझे मुक्ति लेना है। उस शुद्ध शुद्धज्ञायक स्वरूप निज अंतस्तत्त्व में ही विश्रांत होकर अपने शुद्धस्वरूप को बर्ता करूं। ऐसा ही उद्देश्य है साधु पुरुष का।
श्रावक की प्रवृत्ति में भी उपेक्षा की झलक―अब जरा और नीचे चलिए। श्रावक, देशसंयत, पंचम गुणस्थान वाले वे भी जितनी प्रवृत्ति रखते हैं वे उस प्रवृत्ति को करने के लिए प्रवृत्ति नहीं रख रहे हैं, किंतु इनसे मैं मुक्त हो जाऊं, इसके लिए करते हैं। जिसे फोड़ा हो जाता है पैर में, हाथ में वह उस फोड़े पर मलहम पट्टी लगाता है। उससे पूछो क्या तुम पट्टी लगाने के लिए पट्टी लगा रहे हो अर्थात् मैं रोज ऐसी ही रोटी न रक्खूं कि सुबह हो, दोपहर हो और में पट्टी लगाया करूं, क्या इस अलसी लगाने के लिए पट्टी लगाने के लिए वह अलसी पट्टी लगा रहा है? नहीं। वह लगाता हुआ यह कह रहा है कि हे अलसी पट्टी ! मैं तुम्हें तब तक सह रहा हूं जब तक तुम्हारे प्रसाद से तुमसे मुक्त न हो जाऊं।
निवृत्ति के लिये प्रवृत्ति―देख लो अनुभव की बात है। किसी को बुखार आ रहा है, वह कड़वी दवा पी रहा है, क्या वह दवा पीने वाला दवा पीते रहने के लिए दवा पी रहा है? नहीं। उसका अंतर में विचार है कि हे दवा ! में तुम्हें तब तक पी रहा हूं जब तक तुम्हारे प्रसाद से तुम मुझसे छूट न जावो। बड़े पुरुषों की बात स्पष्ट समझ में आती है बड़प्पन में आने पर। फोड़ा फंसी की बात, बुखार की बात ये दृष्टांत जैसे इतना घर कर जाते हैं, ऐसे ही ज्ञानयोग के प्रेमियों के हृदय में यह बात पूरी तरह से उतर जाती है कि साधुजन तप से छूटकारा पाने के लिए तप किया करते हैं।
मुक्तिविधि के मार्ग में―कोई कहे कि भाई मलहम पट्टी से छुटकारा पाने के लिए तुम पट्टी लगाते हो तो अभी से मत लगावो, तो क्या यह बात निभ जायेगी? उस मलहम पट्टी के प्रसाद से ही मलहम पट्टी छूटेगी। यों ही कोई कहे कि तपस्या से छुट्टी पाने के लिए ही तपस्या चाहते हो तो अभी से ही छुट्टी कर दो, तो यह बात नहीं बनेगी। उस चारित्र के प्रसाद से ही, तपश्चरण के प्रसाद से ही उस शुभोपयोग की वृत्ति से छुटकारा मिल पायेगा। मैं यों तो शुद्धोपयोग में रहकर अशुद्ध वृत्ति में रहकर बने रहें तो तप तो छूटा ही हुआ है। पर वह मुक्ति की विधि नहीं है, वह तो संसा रमें रुलते रहने का उपाय है। एक शायर ने कहा है―‘‘गिरते है सहसवार जो मैदाने जंग चढ़े। वे तिफ्ल क्या गिरेंगे जो घुटनों के बल चलें।।’’
साधुपद में उत्सर्ग व अपवाद का योग―साधुजन परम उपेक्षा संयम में रहते हैं। उनके कमंडल पिछी की जरूरत ही नहीं है। आभ्यंतर उपकरण तो उनके ज्ञान में अंतरंग में ज्ञानवृत्ति का बना रहा करता है। उपेक्षासंयम न रहने पर अपहृतसंयम में लगना पड़ता है। क्या कमंडल से ज्ञान निकलता है? क्या पिछी से ज्ञान निकलता है? नहीं निकलता है। उसमें से कोई सिद्धि है क्या? अरे अचेतन पदार्थ हैं। यह ही चीज दुकान में धरी थी। पंख धरे हों उनको विधि से पिछी बना लो। यह कमंडल दुकान में भी बिकता है। इसमें कोई ज्ञान भरा है क्या कि चारित्र भरा है कि श्रद्धा भरी है? क्या भरा है? इसके लेने की धरने की, उठाने की संभालने की संयमी पुरुष को कोई आवश्यकता नहीं है। वह तो शुद्धोपयोग के अनुभव रूपी सुधारस में मग्न है। लेकिन जो आहार विहार न करें, हिलेडुले नहीं अपने ध्यानमग्न में ही रत रहें उन उपेक्षासंयमियों की बात कही जा रही है। जैसे बाहुबलि का दृष्टांत है। ऐसा बन सके कोई तो क्या जरूरत है पिछी और कमंडल की? किंतु जब साधु उपेक्षासंयम में रह नहीं सकता, जब उसे आहार विहार करना पड़ेगा तो वहाँ आज्ञा नहीं है कि तुम पिछी कमंडल के बिना आहार विहार करो।
दीक्षाविधि में उपकरण की आवश्यकता―यदि कोई साधु संयम के उपकरण के बिना आहार विहार करेगा तो वह पाप करता है, धर्म के विरुद्ध चलता है। आदाननिक्षेपणसमिति में परमार्थ से तो आत्मा अपने ज्ञानप्रकाश का आदान कर रहा है और अपने विकारभाव का परिहार कर रहा है, और अपहृतसंयमी साधुजन समितिपूर्वक अपने ज्ञान संयम शौच के उपकरणों के विधि सहित धारण करता है, उठाता है, रखता है, यह है उसकी व्यवहारईर्यासमिति। यह भी बात ध्यान में लेना चाहिए। जब भी कोई पुरुष साधु होता है तो साधु होते समय इन उपकरणों को ग्रहण करता है। कोई पहिले से ही यह सोच ले कि मुझे तो उपेक्षासंयमी बनना है। मैं क्यों पिछी कमंडल लूं, हो जाय निर्ग्रंथ, ऐसा ही बस खड़ा रहूंगा, ऐसी आज्ञा नहीं है। क्या दावा है कि वह उपेक्षासंयमी बना रहेगा? दीक्षा लेते समय इन उपकरणों को ग्रहण करना आवश्यक है। इसके बाद उपेक्षासंयम हो जाय, न रहें ये उपकरण, कोई उठा ले जाय तो फिर आवश्यकता ही नहीं रहेगी।
उपेक्षासंयमी परमयोगियों का उपकरण―उपेक्षासंयमी साधुपुरुष पुस्तक कमंडल आदि के परिग्रह से दूर रहते हैं, इसी कारण वे परम जिन मुनि एकांत से निष्पृह हैं, पूर्ण इच्छारहित हैं, इस कारण वे बाह्य उपकरणों से भी दूर हैं। वे बाह्य उपकरणों से निर्मुक्त हैं। उपेक्षासंयमी पुरुष के समीप ये उपकरण रखे हुए हों तो भी वे उनसे निर्मुक्त हैं। यदि न रखे हों तो बाहर से भी निर्मुक्त हैं और अंतर से भी निर्मुक्त हैं। उनके तो परमार्थ उपकरण है। उपाधिरहित सहज चैतन्यस्वरूप का सहजज्ञान। उपेक्षासंयमी परमयोगीश्वर निज के ज्ञानभाव द्वारा अपने ज्ञानस्वभाव में ही सदा संतुष्ट रहा करते हैं। उनके उपकरण हैं अभिन्न। आत्मा से भिन्न और उसमें भी अचेतन, ये बाह्य उपकरण उपेक्षासंयम के उपकरण नहीं हैं। उनके तो एक सहज ज्ञान भाव के अतिरिक्त अन्य कुछ भी उपादेय नहीं हैं।
अपहृतसंयमी योगियों के उपकरण―अपहृतसंयम वाले साधुसंतों को आवश्यकता है परमागम के अर्थ का बार-बार प्रत्यभिज्ञान करने की। इस परमागम के अर्थ की बार-बार प्रत्यभिज्ञान करने के लिए उपकरण चाहिए, वह उपकरण है शास्त्र, पुस्तक। शस्त्र को ज्ञान का उपकरण बताया गया है। चूंकि यह जीवन आहार बिना नहीं टिक सकता, अत: आहार करना आवश्यक है, सो वे ऐषणासमिति पूर्वक आहार किया करते हैं। पर आहार करने के परिणाम में तो उन्हें मलमूत्र भी होगा ना, तो मलमूत्र करने की अशुचि को दूर करने के लिए शौच का उपकरण भी रखते हैं। वह शौच का उपकरण हुआ कमंडल, जो शरीर की विशुद्धि का उपकरण है। इन दो उपकरणों के अतिरिक्त तीसरा उपकरण जो अत्यंत आवश्यक है। कदाचित् साधु पुस्तक और कमंडल के बिना भी रह सकता है, चल सकता है, विहार कर सकता है किंतु तृतीय उपकरण जो संयम का उपकरण कहलाता है उस पिछी के बिना विहार नहीं कर सकता। यों तृतीय उपकरण है पिच्छिका। ये तीन बाह्य उपकरण हैं।
साधु का ज्ञानोपकरण―साधु संत ज्ञान का उपकरण शास्त्र को रखते तो हैं पास, किंतु शास्त्र में उनकी ममत्त्व बुद्धि नहीं होती है। कदाचित् शास्त्र में ममत्त्व बुद्धि हो जाय, जैसे कि साधारण जनों को गृहस्थ के साधनों के संचय में रखने में ममत्त्व बुद्धि होती है, अथवा एक ही रक्खें और ऐसा ख्याल आये कि यह मेरा ग्रंथ है। न मिले वह ग्रंथ तो कहो विवाद कर डालें, यदि ऐसा परिणाम हो गया तो वह शास्त्र साधु का उपकरण नहीं रहा। साधुवों का शास्त्र उपकरण तब तक है जब तक निर्भयता है। कोई पुरुष यदि किसी साधु के शास्त्र को चाहे कि लेकर पढ़ लें कहे कि महाराज यह तो बड़ी उत्तम चीज है, क्या यह शास्त्र हमें मिल सकता है? तो साधु उसके त्याग करने में देर न करेगा, हाँ हाँ तुम ले जावो और यदि साधु अपने अंतर में ऐसा अनुभव करे कि ओह यह शास्त्र मेरा है, मेरा काम कैसे चलेगा, ऐसा परिणाम आये तो फिर वह शास्त्र उसका उपकरण नहीं रहा। हम आपको तो किसी चीज के जाने में शोक का अनुभव होता है कि हाय मेरी चीज गयी, पर उनको आनंद का अनुभव होता है क्योंकि उनकी दृष्टि शीघ्र ही सहज ज्ञानस्वभाव में लग जाती है जिसको निरखने के लिए स्वाध्याय का श्रम किया गया है, ऐसे साधुसंतों के पास जो ज्ञान का उपकरण है शास्त्र, वह ज्ञान का उपकरण रहता है।
साधु का शौचोपकरण―इस ही तरह शौच का उपकरण है कमंडल। कमंडल में ममत्व हो जाय। कमंडल को बड़ा चिकना चमकीला बढ़िया ढंग में रखा जाय, उसको उठाने, धरने, निरखने में बड़ी मौजसी माने तो फिर वह कमंडल उपकरण न रहेगा। अब तो वह ममता का साधन बन गया है। साधुसंतों के पास कदाचित् कमंडल भी न रहे, जंगल में हैं और उनको कमंडल नहीं मिला तो किसी समय टूटा फूटा डबला कोई मिट्टी का कहीं पड़ा हो तो उसे उठाकर भदभदा से पानी गिर रहा हो तो पानी लेकर वे अपनी शौच क्रिया कर सकते हैं। उनको ममत्व नहीं है। कभी न मिले इस तरह का कमंडल तो तूमा भी जंगल में पड़ा हो, जिसका कोई स्वामी नहीं है, वहाँ ही खोखला पड़ा हुआ हैं, ऐसे टूटे फूटे स्वामी रहित मिट्टी के तूमें के बर्तन को भी अस्थायी रूप से उपयोग कर सकते हैं। वस्तु ऐसी निकट न रहनी चाहिए जिस वस्तु को असंयमीजन भी उठाना चाहें याने ख्याल करें कि मुझे मिल जाती तो अच्छा था। असंयमीजन जिस चीज को चाह सकते हैं वह वस्तु उनके एक परिग्रह में शामिल होती है।
शौचोपकरण का उपयोग―साधुजन इस शौच के उपकरण कमंडल से क्या उपयोग करते हैं कि जब शास्त्र पढ़ने बैठते हैं तो थोड़ा हाथ पैर धो लेते हैं, चर्या के लिए जायें तो घुटने तक हाथ पैर धो लेते हैं और ऊपर मस्तक धो लेते हैं। इतनी शुद्धि करके वे चर्या को निकलते हैं अथवा कोई चांडाल हत्यारा छू जाय तो उस काल में वे खड़े-खड़े कमंडल की टोंटी से एक धार निकालकर स्नान कर लेते हैं और अन्य समयों में किसी और प्रकार का स्नान नहीं बताया गया हैं। साधुवों का शरीर स्वयं पवित्र होता है क्योंकि उसमें रत्नत्रय का उदय, प्रकाश इतना दृढ़ है, गहरा है, चमकीला है कि जिसके कारण शरीर की इस अपवित्रता पर भक्तजनों का ख्याल भी नहीं पहुंचता और भक्त अपवित्र नहीं मानता है। तो रत्नत्रय से पवित्र साधुवों का शरीर साधारण शुचि के लायक रहता है। गृहस्थजनों की तरह नहाने की उन्हें आवश्यकता नहीं होती है। इतनी शुद्धि के प्रयोजन के लिए उनका यह उपकरण होता है।
साधु का संयमोपकरण―संयम का उपकरण है पिच्छिका। पिच्छिका मयूर के पंख की होती है। ये पंख इतने कोमल होते हैं कि जिनसे किसी भी जीव को बाधा नहीं पहुंच सकती। कदाचित् किसी की आँख में भी लग जाय तो उससे कोई बाधा नहीं पहुंचती। अब आप बतलावो कि मयूर पंख को छोड़कर इतना कोमल अन्य क्या पदार्थ है प्रथम तो आपको कुछ अन्य विदित न होगा कि मयूर पंख के मुकाबले कोई पदार्थ इतना कोमल और इतना गुणवान् है। कदाचित् मिल भी जाय बनावट करके यह भी साथ देखिये कि इतना सुलभ लब्ध और कुछ नहीं है। साधुजन जंगल में तप किया करते हैं, रहते हैं। उन्हें पंखों की आवश्यकता हुई तो वैसे डेरों मयूरों के छोड़े हुए पंख पड़े रहते हैं। 20, 50 पंखों को उठा लिया, बस उन्हीं से ही पिच्छिका बन जाती है। हजार पाँच सौ पंखों का ढेर करके पिच्छिका बनायी जाय तो उससे तो वज़न के कारण कुंथु जीवों को बाधा संभव है। उसमें फिर कोमलता नहीं रहती है। ऐसे संयमों का उपकरण पिच्छिका है।
आदाननिक्षेपणसमिति की श्रेष्ठता―ये अपहृतसंयम के लिए तीन बाह्य उपकरण बताये गये हैं। इनको ग्रहण करने में और इनके रखते समय में उत्पन्न होने वाला जो सावधानी के प्रयत्न का परिणाम है उसे आदाननिक्षेपणसमिति कहा करते हैं। आदान का अर्थ है ग्रहण करना, निक्षेपण का अर्थ है धरना और उसमें जो सावधानी है उसे कहते हैं आदाननिक्षेपणसमिति। समितियां सब आवश्यक और उत्तम हैं। फिर भी उनमें यत्न करके प्रयोजनवश देखा जाय तो यह आदाननिक्षेपणसमिति उन सब समितियों में श्रेष्ठ है, रानी है, शोभा देने वाली है। इन समितियों के संग से क्षमा और मैत्रीभाव उत्पन्न होता है।
साधुमुद्रा में निर्भयता व विश्वास का स्थान―अन्य वेशभूषा के साधुवों को देखकर लोगों को भय हो जाता है, कोई जटा रखाये हो, कोई भभूत रमाये हो, कोई चीमटा लिए हो, किसी के हाथ में डंडा हो, किसी के हाथ में त्रिशूल हो, कोई जगह-जगह सिंदूर लगाये हो, किसी ने मोटी रस्सी कमर में बाँध ली हो, ऐसा रूप देखकर लोगों को भय भी हो सकता है और अविश्वास भी हो सकता है। कहीं लड़ाई न हो जाय तो बाबा जी डंडा मार दें, कहीं लड़ाई हो जाने पर त्रिशूल न भोंक दें, ऐसा अविश्वास हो जाता है। परंतु धन्य है उन साधुसंतों की मुद्रा को कि जिनके समीप बैठने में न भय है और न किसी प्रकार का अविश्वास है। जिनका नग्न स्वरूप है, वे किसी की क्या कोई चीज चुरा सकते हैं। चुरायेंगे तो कहां रक्खेंगे। उनके पास कोई शस्त्र नहीं है, उनसे क्या भय हो सकता है? अरे जो कीड़ा-मकोड़ा आदि प्राणियों की रक्षा के लिए पिछी रखते हैं उनके परिणाम में क्या कभी यह आ सकता है कि हम इन्हें मार पीट दें? यदि वे कभी मारें पीटें और मारें पीटें ही क्या थोड़ा गाली गलौज भी दें, दूसरों को श्राप दें तो वह साधु नहीं हैं।
अंत:साधुता बिना विडंबना―एक पौराणिक घटना है कि एक नदी के तीर पर एक साधु एक शिला पर बैठकर रोज ध्यान लगाया करता था। एक बार आहार करने शहर गया, इतने में एक धोबी आया और उस पत्थर पर अपने कपड़े धोने लगा। इतने में आहार करके साधु वापिस आ गया। तो साधु महाराज कहते हैं कि इस पत्थर पर तुम कपड़े धोने क्यों आये? यह तो मेरे ध्यान करने का आसन है। धोबी कहता है―महाराज यह बहुत अच्छा पत्थर है मेरे कपड़े धोने का, कृपा करके थोड़े समय को आप ध्यान और जगह पर कर लीजिए। ऐसा पत्थर आसपास कहीं नहीं है। साधु बोला―हम तो इसी पर ध्यान लगायेंगे। तुम इससे हट जावो। तो धोबी बोला कि हम तो न हटेंगे। इससे सुविधाजनक और पत्थर यहाँ नहीं है। साधु जी थोड़ा गरम हो गये और थोड़ी हाथापाई कर बैठे। धोबी ने भी जरा हिम्मत बनाकर साधु से हाथापाई शुरू कर दी। दोनों में कुश्ती सी हो गयी। धोबी पहने था तहमद, सो उसका तहमद छूट गया, नंगा हो गया। अब दोनों में बड़ी विकट लड़ाई हुई। साधु गुस्से में आकर कहता है―अरे देवतावों ! तुम लोगों को खबर नहीं हैं कि साधु पर कितना बड़ा उपद्रव आ रहा है? तो ऊपर से आवाज आती है कि हम तो खड़े हैं उपद्रव दूर करने के लिए, पर हमें यह नहीं मालूम पड़ रहा है कि तुम दोनों में से साधु कौन है, और धोबी कौन हैं? तुम दोनों की एकसी मुद्रा है, एकसी गाली गलौज, एकसी मारपीट। हम कैसे पहिचानें कि साधु कौन है और धोबी कौन हैं?
पिच्छिका से अन्य भी अनेक लाभ―यह पिच्छिका केवल जीवरक्षा के काम में आये, इतना ही नहीं है किंतु यह बहुत सी सावधानियों को याद दिलाने वाली चीज है। जैसे किसी से कहो कि तुम बंबई जा रहे हो तो हमें अमुक चीज ले आना। तो वह कहता है कि हमें खबर न रहेगी। तब कहा जाता है कि तुम अपनी कमीज में गांठ बाँध लो, जब भी उठो बैठोगे तब खबर रहेगी कि अमुक चीज लानी है। यह पिच्छिका तो समस्त संयम व समस्त साधनावों के व्यवहार को याद दिलाने वाली है। और भी देखो―अन्य समितियों का टाइम जुदा-जुदा होता है किंतु आदाननिक्षेपणसमिति का टाइम सदा रहा करता है। सो रहा है तो वहाँ पर भी, यदि करवट बदलता है तो पथरा पर, जमीन पर तो वह पिच्छिका से साफ कर करवट बदलेगा। बैठे ही बैठे कदाचित् आँख पर जीव आये अथवा किसी जगह कोई जीव काट रहा है तो प्रथम तो यह कर्तव्य है कि उस ओर ध्यान ही न जाय। काटता है काटने दो, उसे मत भगावो। नहीं तो पिच्छिका से ही उसके शरीर का सावधानी सहित प्रमार्जन करो। पिच्छिका का उपयोग निरंतर रहा करता है। इस कारण आदाननिक्षेपणसमिति का महत्त्व इन सब समितियों में अधिक है। इस समय इस प्रकरण में श्रेष्ठता बताते हुए कहा जा रहा है कि इस समिति की सर्व समितियों से उत्तम शोभा है।
साधुमुद्रा का श्रेय―भैया ! साधु की यथार्थ मुद्रा से लोगों को बड़ा विश्वास उत्पन्न होता है। हनुमान जी की माता अंजना जिस समय हनुमान गर्भ में थे तब सामने अंजना को निकाल दिया था यह कहकर कि यह गर्भ कहां से आया, मेरा पुत्र तो तेरी शकल भी नहीं देखना चाहता था, उसे दोष लगाकर निकाल दिया। जब पाप का उदय आता है तब कोई सहाय नहीं होता है। सबसे बड़ा पाप का उदय यह है कि उसे असदाचार का दोष लगाया गया। वह अंजना माता पिता के नगर में पहुंची। माता पिता ने भी उसे सहारा न दिया। अंत में वह स्त्री जंगल में भटकती हुई जा रही थी। बड़े उपद्रव व उपसर्ग सह रही थी। अचानक ही जंगल में एक मुनिराज के दर्शन हुए। उनके दर्शन पाकर अंजना को इतना धैर्य जगा, विश्वास लगा, जैसे मानों मां बाप ही मिल गए हों। साधुसंतों का सत्य सहज विश्वास हो जाया करता है। उन मुनिराज के समीप ही धर्मध्यान पूर्वक रहने लगी। पर मुनिराज वहाँ कहां रहने वाले थे। थोड़े ही समय बाद विहार कर गये। फिर अंजना का उदय अच्छा था, पुण्यात्मा पुरुष गर्भ में था, मोक्षगामी पुरुष अंजना के उदर में था। भले ही संकट खूब आये, पर सब टलते गये। साधुसंतों का इतना विश्वास होता है श्रावक जनों को।
नग्नमुद्रा में निर्विकारता का दर्शन―कुछ लोग उनकी नग्नमुद्रा को देखकर अटपट कल्पनाएं करके उनसे लाभ प्राप्त करने से दूर रहा करते हैं। कोई कहते हैं कि यह नग्न है, ऐसा न रहना चाहिए। अरे जरा उनके अंतर के परिणामों को तो देखो―साधु का अंतरंग परिणाम बालकवत् है। जैसे बच्चे को कुछ पता नहीं है काम का, अन्य तरह की विडंबनावों का, जैसे वह बच्चा निर्विकार है ऐसे ही वह साधु पुरुष निष्काम, निर्विकार अत्यंत स्वच्छ है। नग्नता का रूप रख लेना साधारण बात नहीं है, उद्दंड होकर कोई नंगा हो जाय, इसकी बात नहीं कह रहे हैं किंतु नग्न होकर भी रंचमात्र भी विकार न आये और कल्पना तक भी न जगे, ऐसी मुद्रा का प्राप्त होना इस लोक में अति दुर्लभ है और साथ ही अपने ज्ञानभाव द्वारा अपने सहजज्ञानस्वरूप में निरत रह सके, ऐसी स्थिति पाना बहुत ही सुंदर भवितव्य की बात है।
साधुवों की उपासनीयता―शांत निर्ग्रंथ दिगंबर मुद्राधारी मात्र पिछी और कमंडल ही जिनके हाथ में शोभित हो रहा है ऐसे साधु संतों को देखकर न कोई बालक डरता है, न कोई जवान डर सकता है, न कोई स्त्री भी डर सकती है, न कोई वृद्ध डर सकता है, न कोई अपरिचित पुरुष ही भय खायेगा। हाँ कदाचित् कोई पुरुष भय खा जाय, समझ लो जैसे बालक डर जाते हैं तो समझा कि अन्य भेषी साधुवों का पहिले डर खाया हुआ है, इसलिए उनको देखकर डर लगता है। ऐसे परम विश्वास्य साधु संतों के गुणों को हे भव्य जीव ! अपने हृदय रूप कमल में धारण करो, उन साधुवों के सर्व गुणों में प्रीति रखने से मुक्ति लक्ष्मी प्राप्त होगी, ज्ञान का साम्राज्य मिलेगा। इसलिए सर्व प्रकार के यत्न करके तुम अपने आपको देव, शास्त्र, गुरु को उपासना में लगावो। अन्य किसी से अपना हित मत मानों। ये मुनिराज आदाननिक्षेपणसमिति का निश्चयरूप से और व्यवहाररूप से पालन किया करते हैं। निश्चय से तो सहजज्ञान का उपकरण रखकर समिति का पालन करते हैं और व्यवहार में ये तीन उपकरण रखकर इनके धरने उठाने की समिति का पालन करते हैं।