रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 7: Difference between revisions
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<div class="PravachanText"><p><strong>परमेष्ठी परंजयोनिविरांगो विमल: कृती | |||
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Latest revision as of 16:35, 2 July 2021
परमेष्ठी परंजयोनिविरांगो विमल: कृती ।
सर्वज्ञोऽनादिमध्यांत: सार्व: शास्तोपलाल्यते ।।7।।
अज्ञानी जीव को उद्धार के लिये धर्मोपदेश की प्रारंभिक अनिवार्य आवश्यकता―हम आप सब जीव हैं । जिसमें मैं-मैं का भीतर बोध हो रहा है वह एक चेतन पदार्थ है । किसी भी जड़ पदार्थ में मैं का अनुभव नहीं होता । जिसमें मैं का अनुभव चल रहा वह मैं हूँ, मैं अमुक हूँ आदिक रूप से जिसमें मैं का अनुभव चलता है वह मैं जीव हूँ । यह मैं जीव आज इस हालत में हूँ । कभी मैं किस-किस पर्याय में था उसका परिचय संसार के अन्य जीवों को देखकर मिल जायगा ये जो कीड़ा-मकोड़ा, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी आदिक दिख रहे, ऐसी ही शकल में मैं था जैसे कि और जीव हैं । उन सब भवों में कितना कष्ट है सो सब देख ही रहे हैं । झोंटा, बैल, गधा, खच्चर आदि लदा करते हैं, बूढ़े भी है तो भी जुट रहे है । चल भी रहे हैं तो भी उन पर लाठी चल रही है । कितना बोझ लादते है, पराधीन हैं । जब खाना पीना दे दिया मालिक ने तब ले लिया नहीं तो बंधे पड़े है । प्रत्येक भव में देख लो बड़े कष्ट हैं । ऐसे ही कष्ट वाले भवों में कभी हम भी थे । आज कुछ सुयोग है । उन बुरी गतियों से हटकर मनुष्यभव में आये है । तब यह बात विचारना कि मनुष्य भव में आकर यदि पशुओं जैसे काम में ही जीवन गुजार दिया तो अब मनुष्यभव का लाभ क्या पाया? पशुवों के काम किया । खाना-पीना, निद्रा लेना, डरना, विषयसेवन करना, इतने काम मनुष्य भी कर रहे तो इन मनुष्यों में और पशुवृत्ति में फिर कोई अंतर न रहा । मनुष्य की विशेषता है ज्ञानप्रकाश पा लेना, वह धर्म ज्योति पा लेना जिसके पाने से संसार के संकट दूर होते हैं । तो ज्ञान लाभ कहो धर्मलाभ कहो एक ही बात है । मैं अपने आपके सही स्वरूप को जान लूं फिर संसार में संकट न रहेगा । हम अपने स्वरूप को जानते नहीं और इस बाहरी भेष को, इस शरीर को मानते है कि यह मैं हूँ । इसकी वजह से सारे संकट इस जीव को लद जाते है । तो कर्तव्य क्या है कि मैं अपने वास्तविक स्वरूप को जानूं । वास्तविक स्वरूप का शान हो मुझे इसके लिए । सर्वप्रथम देशना की आवश्यकता होती है, देशना अर्थात् धर्मोपदेश । इस जीव का जब भी उद्धार होता है तो उपदेश सुनने के बाद फिर उद्धार होता है । भले ही कोई मनुष्य आज इतना संस्कारवान हो कि किसी का उपदेश न सुहाये और उसे ज्ञान मिल जाय । सम्यक्त्व हो जाय तो भी समझिये कि आज नहीं तो पहले भव में उसने कोई उपदेश पाया था जिसके बल से ज्ञान बना और आज उस संस्कार से स्वयं ही ज्ञान लाभ लिया । तो धर्मोपदेश का बड़ा महत्त्व है ।
धर्मोपदेश का प्रयोजन दुःखनिदान मोह से छुटकारा―इस श्लोक में यह बात बतायी जा रही है कि वास्तव में धर्मोपदेश का अधिकारी कौन पुरुष है? धर्मोपदेश देने के अधिकारी हैं भगवान सर्वज्ञ, जहाँ कुछ भी भूल नहीं है । उससे पहले जो ज्ञानी पुरुष है वे भी धर्म के अधिकारी हैं, उपदेश देने वाले है पर भगवान की वाणी की परंपरा के अनुसार ही उपदेश देने वाले होते है । उपदेश में क्या बात मुख्य आती है? पदार्थ का सही-सही स्वरूप जान लेना । लोग कहते है कि मोह हटावो । मोह ही दुःख की जड़ है, अब बतलावो वह मोह कैसे हटेगा? कोई उपाय तो बतावो जिससे मोह हटे । जीवन भर कहते आये कि मोह हटावो सब बेकार है, मरने पर सब कुछ छूट जायेगा, सार कुछ नहीं है इस समागम में और जितना मोह करते है उतना ही हम कष्ट पाते है इसलिये मोह को दूर करने के विषय में लोग रोज-रोज कई बार कह लेते अब बताओ वह मोह कैसे दूर होगा? घर छोड़ दिया तो मोह दूर हो गया क्या, कुछ पता है क्या? घर छोड़ने पर भी चित्त में घर बसा रहेगा तो मोह छोड़ना न कहलाया, हां घर छोड़ना कहलाया, प्रभु की भक्ति करते है जैसा कि लोग किया करते है, तो उस भक्ति से मोह छूट पाया क्या? उस भक्ति में न जाने क्या-क्या लोगों के ख्याल रहा करते है । कोई सोचता है कि प्रभु हम को धन दिला देंगे या प्रभु की भक्ति के प्रसाद से हम को वैभव मिलेगा । तो बतलावो उसने भक्ति में मोह छोड़ा या बढ़ाया? कोई पुरुष इतना विवेकी हो कि प्रभु भक्ति में केवल यही भाव रखे कि प्रभु मैं भव-भव में आपका भक्त रहूं... इन भावों से भक्ति कर रहा तो भी उसने क्या मोह छोड़ दिया? नहीं छूट सका । व्रत उपवास आदिक भी करे कोई अब अमुक पर्व आया, व्रत करें, उपवास करें, ऐसा करके भी मोह छूट पाता है क्या? यह बात अपने मन से सोचो, करते तो सब थोड़ा-थोड़ा, पर मोह छूटा क्या? मोह इस उपाय से नहीं छूटता । तो मोह छूटने का उपाय क्या है? तत्त्वज्ञान, मोह होता है, बाहरी चीजों से, इन दिखने वाले बाहरी पदार्थों से, तो इनसे मोह छोड़ना है, कैसे मोह छूटेगा कि इनका सही ज्ञान करले तो स्वयं मोह छूट जावेगा । जब तक हम पुत्र के बारे में उल्टा ज्ञान रखते है तब तक मोह बढ़ता है और उसका सही ज्ञान कर लें तो मोह छूट जाता है ।
माया का माया के रूप में परिचय होने की सम्यग्ज्ञानरूपता―वह सही ज्ञान क्या है जिससे मोह छूटता है? वह सही ज्ञान है हम पहले यह जानें कि वास्तव में जो कुछ दिखता है वह सचमुच में पदार्थ है या यह झूठ है और असल में क्या है? तो सुनो―जो भी दिख रहा है वह कोई परमार्थ पदार्थ नहीं है । वह सब माया रूप है । यहाँ सत्य कुछ नहीं दिख रहा । जो दिख रहा है वह कुछ भी सत्य नहीं है । वह माया स्वरूप है । वास्तविक पदार्थ नहीं है, तो वास्तविक पदार्थ क्या है, और माया रूप का है इन दीनों का अंतर जानें । माया का क्या अर्थ है कि अनेक पदार्थ जुड़कर जो बने उसे माया कहते है । यह माया का लक्षण है, और इस कुंजी से ऐसा सब जगह समझते जावो । जो अनेक पदार्थ मिलकर बना हुआ हो वह माया है और जो अकेला ही एक पदार्थ हो, जिसमें दूसरा पदार्थ न जुड़ा हो वह पदार्थ है । वास्तविक है, सही है । ये से बातें खूब ध्यान में रखियेगा । अब घटावो-आपको क्या दिखता है? यह भींट दिख रही है । तो बताओ यह भींट एक चीज है या अनेक चीजें मिलकर बना हुआ रूप है । यह एक चीज नहीं है, यह अनेक चीजों का मिलकर बना हुआ रूप है । यह कितने पदार्थो से मिलकर बना है? ये भींट, चटाई, दरी आदिक जो कुछ भी दिख रहे ये अनंत परमाणुवों से मिलकर बने हैं । यह भी ध्यान रखें कि ये हजार ईटें मिलकर भींट बनी अरे ईट भी खुद-खुद नहीं है । ईंट भी खुद अनंत परमाणुवों का पिंड है । जो दिख रहा उसके टुकड़े बनाते जाइये, आखिरी टुकड़ा जब आप से बन जाये उसमें भी अनगिनते टुकड़े होंगे उन्हें आप न कर पायेंगे, वे स्वयं होंगे । ऐसे टुकड़े बनाते जायें जो अंत में एक अविभागी अंश बनेगा वह है एक पदार्थ । उसे कहते हैं परमाणु । तो जितना जो कुछ दिख रहा है यह सब माया रूप है और इसमें परमार्थरूप चीज क्या है? एक परमाणु, ऐसा परमाणु कि जिसका कोई दूसरा हिस्सा न हो सके वह परमार्थ है । बताओ-कोई परमार्थ से प्रीति करता है क्या? सब माया से प्रेम करते हैं, परमार्थ से प्रेम करने वाले कोई नहीं हैं । जो केवलज्ञानी सिद्ध प्रभु होंगे वे परमार्थ की दृष्टि रखते । और ये संसारी जीव इस माया में दृष्टि रखते हैं ।
प्राणियों की मायारूपता व परमार्थ के परिचय का महत्त्व―अच्छा बताओ जो जहाँ बैठे हुए हैं मनुष्य या जानवर वगैरह जो कुछ दुनिया में हैं, ये वास्तविक है या माया रूप है? ये सब माया है । तो हम आप जितने बैठे है ये सब भी माया है । इसमें वास्तविक कोई नहीं है क्योंकि माया का लक्षण बताया है कि जो अनेक पदार्थ मिलकर बना हो उसको माया कहते हैं । आप बैठे, हम बैठे, ये अनेक पदार्थ मिलकर बने हैं । कितने पदार्थ मिल गये हैं? एक तो जीव है और अनंत शरीर के परमाणु हैं और अनंत ही कर्म के परमाणु हैं, इन सबका मिलकर यह रूप बना है जो हम आम बैठे दिख रहे है । तो यह सब भी माया है । माया से प्रीति करने में हित नहीं है, क्योंकि यह विनश्वर है, जबरदस्ती अपना माना जाता है । क्योंकि किसी का साथी नहीं है, पर जबरदस्ती मानते हैं तो परमार्थ पर दृष्टि दें―केवल एक-एक परमाणु, एक-एक जीव ये सब स्वतंत्र है । एक का दूसरा कुछ नहीं लगता । सबका अपना-अपना अस्तित्व है, सब अपने-अपने स्वरूप में परिणमते हैं । कोई किसी का करने वाला नहीं । भोगने वाला नहीं । सब अपने-अपने परिणाम को करते हैं, अपने-अपने भावों को भोगते हैं । किसी का कोई स्वामी नहीं । परमार्थ दृष्टि करके जब ऐसी स्वतंत्रता का ज्ञान होगा तो मोह टूटेगा और इस स्वतंत्रता का ज्ञान किए बिना मोह टूट नहीं सकता अन्य चाहे कितने ही उपाय, करले । यह तत्त्वज्ञान प्रभु से प्राप्त हुआ है ।
तत्त्वज्ञान के विरुद्ध चलने में संकटों का भार―तत्त्वज्ञान के विरुद्ध जो चल रहे वे सब जन्म लेते, मरण करते, जन्म और मरण के बीच जितनी आयु मिली है उसमें अनेक संकट सहते है । जीना । जिंदगी में बड़े-बड़े कष्ट सहना । मरना, फिर दूसरा जीवन पाना, जिंदगी में अनेक संकट सहना, मरना, बस इसी धारा में चलते आ रहे हैं सब जीव । अपनी भी बात विचारो । क्या यही करते रहना मंजूर है? अगर जन्म मरण जिंदगी के संकट ये ही मंजूर हैं तो उसका उपाय तो यही है जो करते आ रहे । मोह करते जाये, संकट मिलते जायेंगे । और यदि यह संकट न चाहिए तो मोह को दूर करना है, यह उपाय करना होगा । सब अपनी-अपनी बात विचारो, धर्म मिलजुल कर नहीं होता । धर्म अकेले को मिलेगा, अकेले से होता है, कोई दो आदमी मिलकर धर्म नहीं करते । सबका धर्म अपने-अपने आत्मा में है, अपने-अपने भाव में है । अपने भाव सुधारिये, ज्ञान प्रकाश लीजिए और आनंद प्राप्त करिये, जो ऐसा नहीं करता वे जीव चार प्रकार की विपत्तियों से घिरे हुए हैं । यहाँ भीतरी विपदा बतला रहे हैं कि वे चार पद क्या हैं? कोई माने या न माने, हैं वह विपदा । पहली विपदा है अहंकार । शरीर मैं नहीं, शरीर तो अशुचि पदार्थ का पिंड है मगर इसे निरखकर मानना कि मैं, बस अहंकार बन गया, मूढ़ता है । जहाँ यह मोह है, जहाँ यह मूर्खता लगी है कि मैं हूँ तो एक ज्ञानानंद स्वभाव वाला आत्मा और मान रहा हूँ इस अशुचि पिंड देह को कि यह मैं हूँ, वे मूढ़ हैं और संसार में भटकने वाले हैं । जगह-जगह उसको विपदा है, जो भी यह कार्य करेगा उस ही में आकुलता बढ़ेगी, क्योंकि इसका आधार उल्टा है । शरीर को मानता है कि यह मैं हूँ । ‘देह जीव को एक गिने बहिरातमतत्त्वमुधा है ।’ सबसे पहले यह गलती दूर करना है । इस गलती को दूर किये बिना धर्म रंच भी न होगा, हां पुण्य हो जायेगा । पुण्य तो एक किसी जीव पर दया करने से भी हो जाता है । भगवान की भक्ति, गान, तान, नृत्य उद्यम आदिक करने से भी पुण्य हो सकता है, पर धर्म का मार्ग न मिलेगा । जब तक मिथ्यात्व दूर न हो तब तक धर्म का रास्ता नहीं है ।
अज्ञानी मिथ्यादृष्टि को सर्वत्र मिलने वाली आपदावों में प्रथम आपदा अहंकार―मिथ्यात्व है देह को आपा मानना । यह ही मूढ़ता कहो, मूर्खता कहो । किसी भी शब्द से कहो, यह जीव इन विपत्तियों से घिरा हुआ है । जो इसका सही स्वरूप है वह उसके परिचय में नहीं आ रहा, तब ऐसे मोह वाले को जगह-जगह आपत्ति है । एक छोटा कथानक है कि कोई दो स्त्री पुरुष थे, तो पुरुष का नाम तो था बेवकूफ और स्त्री का नाम था फजीहत । उन दोनों में अकसर करके लड़ाई हो जाया करती थी । एक दिन जरा तेज लड़ाई हो गई सो फजीहत घर छोड़कर भाग गई । तो वह बेवकूफ गाँव के लोगों से पूछता फिरे पड़ोस में कि भाई तुमने हमारी फजीहत देखी? तो सब जानते ही थे कि फजीहत इसकी स्त्री का नाम है, सो सबने कहा भाई हमने तो नहीं देखा । एक बाद किसी अपरिचित व्यक्ति से, मुसाफिर से पूछ बैठा―भाई तुमने हमारी फजीहत देखी? तो वह मुसाफिर उसकी कुछ बात ही न समझ सका उसे क्या पता कि फजीहत उसकी कौन थी? सो पूछ बैठा―भाई आपका नाम क्या है? तो वह बोला―मेरा नाम है बेवकूफ ।... अरे भाई बेवकूफ होकर तुम फजीहत कहां ढूंढ़ते फिरते? बेवकूफ के लिए जगह-जगह फजीहत है । जहाँ ही खोटा बोल दिया बस वहीं से लात, जूते, थप्पड़ हाजिर है । तो जैसे बेवकूफ के लिए जगह-जगह फजीहत हैं ऐसे ही इस माया के रुचिया को, इस देह को आपा मानने वाले को प्रतिक्षण संकट ही संकट है । वह शांति का पात्र नहीं । इसमें समय बहुत गुजर गया जिंदगी का । अब जो कुछ थोड़ा समय है उसमें ऐसा विवेक लायें । ऐसा प्रकाश लायें कि मैं अपने वास्तविक स्वरूप को पहिचान जाऊं । देखिये जब तक चारों चीजें मिली हुई होती हैं और मिलकर उसका रूप बिगड़ भी जाय तो भी जितनी चीजें मिली हुई है अहंकार में उनका वही स्वरूप है । किसी का स्वरूप मिटता नहीं है । तो यहाँ अनंत तो शरीर के परमाणु और अनंत कर्म के परमाणु और एक ही जीव में सबका मिलावट है । इस मिलावट के अंदर भी यदि हम केवल अपने जीव के स्वरूप को पहिचान लें तो इसी के मायने है ज्ञान प्रकाश । उसको फिर संकट नहीं और जो उस सहज आत्मस्वरूप में दृष्टि नहीं कर पाता उसको संसार के संकट नहीं दूर हो सकते । तो पहली विपत्ति है अहंकार । खुद-खुद में सोचिये-करने की बात है और आपके आत्मा की ही बात है । कोई दूसरी बात नहीं कही जा रही।
अज्ञानी जीव पर दूसरी व तीसरी विपत्ति ममकार व कर्तृत्वबुद्धि―दूसरी विपत्ति है ममकार । मायने जो मेरा नहीं है उसे मानना कि यह मेरा है, यह भी बहुत बड़ी भारी विपत्ति है । बोलो घर संपदा आपकी है क्या? यहीं देख लो―यदि घर संपदा आपकी होती तो आपके साथ यहाँ (प्रवचन सभा में) भी आती, पर यहाँ तो कुछ साथ नहीं आया, आप तो अकेले बैठे हैं । और जो आपका है वह आपका एक क्षण भी साथ नहीं छोड़ सकता । आप से अलग है, छूटा हुआ है वह आपका कुछ नहीं है । एक उदय है पुण्य का कि कुछ वैभव पास मिल गया है तो उनको मान रहे कि यह मेरा, यह मेरा पर वास्तव में मेरा कुछ नहीं है । मेरा तो केवल मेरे आत्मा का स्वरूप है । देह भी मेरा नहीं, बाहरी चीज भी मेरी नहीं । केवल मेरा वह स्वरूप है जो इस भव को छोड़कर जाऊंगा तो पूरी का पूरा मेरे साथ जायेगा । वह तो मेरे परिणाम की चीज है, बाकी कुछ भी मेरा नहीं, बाहरी परिकर कुछ भी मेरा नहीं । कोई माने कि यह मेरा है तो यह कहलाता है ममकार । इसके कारण भी जगत के जीव दुःखी हैं । इसे हटावो ।
तीसरी विपत्ति लगी है जीव को कर्तृत्वबुद्धि की । मैं ही करता हूँ, इन बच्चों को मैं ही पालता हूँ, इनकी मैं खबर न रखूं तो ये जिंदा नहीं रह सकते । कितनी ही तरह के भीतर के भाव बनें । अरे जिनका आप इतना ख्याल रखते हैं, इतनी चिंता करते है उनका पुण्य आप से अधिक है जिसके कारण आपको उनकी चिंता करनी पड़ती है । बात तो असल में यह है पर मानता है अज्ञान में जीव ऐसा कि मैं इनको पालता हूँ, इनको पढ़ाता हूँ, इनको सुखी दुःखी करता हूँ... तो उसकी यह कर्तृत्व बुद्धि है, उसके कारण यह जीव निरंतर दु:खी रहता है । इसको वह रास्ता नहीं मिल रहा कि जिस वजह से यह केवल अपने को अकेला अनुभव कर सकें । वस्तुत: कोई किसी का करनहार है नहीं ।
अज्ञानी जीव पर आने वाली तीसरी विपत्ति कर्तृत्वबुद्धि पर एक उदाहरण―एक कोई मांगने वाला जोगी था, सो वह भीख मांग रहा था । उसे भीख मांगते हुए में एक जगह मिला एक संन्यासी । उस संन्यासी ने पूछा―भाई क्या कर रहे हो?... महाराज जी हम भीख माँग रहें हैं ।... भीख मांगकर क्या करोगे? घर ले जायेंगे, बच्चों को खिला पिलाकर उनका पालन पोषण करेंगे ।... तो क्या आप बच्चों को पालते-पोषते हैं?... हां-हां हम नहीं तो और कौन पालता पोषता?... अरे यह तुम्हारा ख्याल गलत है । वे बच्चे सब स्वयं अपने भाग्य से पल पुष रहे, उनका तुम कुछ नहीं करते ।... कैसे कुछ नहीं करते? हमीं तो बच्चों को जिंदा रखते ।... अरे तुम व्यर्थ किसी के कर्ता बने । चलो हमारे साथ कुछ दिन के लिए छोड़ दो सब व्यर्थ के ख्याल । सो वह था कुछ धार्मिक प्रकृति का सो चल दिया उस संन्यासी के साथ । अब प्रतिदिन तो वह दोपहर तक घर पहुंचता था भीख मांगकर तब कहीं खाने पीने का सेजा बनता था उस दिन न पहुंचा तो उसके बच्चे लोग बड़े चिंतित हुए । इसी बीच किसी मसखरे ने ऐसा भी कह दिया कि उसको तो आज बाघ उठा ले गया, खा डाला, वह तो मर गया । उसके सब बाल-बच्चों ने बड़ा रोना धोना मचाना शुरु कर दिया । पास पड़ोस के लोग जुड़े । सबने उस जोगी के मरने की घटना जानकर भारी खेद माना । लोगों ने विचार किया कि अब इसके घर कमाने वाला भी कोई नहीं रहा, घर में खाने-पीने तक का सेजा नहीं हैं, अपना कोई पड़ोसी संकट में रहे यह कैसे किसी से देखा देख जायगा, सो सभी लोग उस जोगी के बाल बच्चों के मददगार बने । गल्ले की दुकान वालों ने गल्ला दे दिया, कपड़ा वालों ने कपड़ा दे दिया, घी वालों ने घी दे दिया, शक्कर वालों ने शक्कर दे दिया, अब क्या था, उसके घर का सारा रंग ढंग ही बदल गया । सब बड़े मौज में रहने लगे । उधर वह जोगी संन्यासी के पास जंगल में विचार करता है कि मुझे घर से निकले काफी दिन बीत गए, पता नहीं घर में कौन मरा होगा, कौन जीवित बचा होगा । सो वह संन्यासी से बोला―महाराजजी, हम को घर से निकले कई दिन हो गए । आज्ञा दीजिए मुझे घर जाने की । जाकर देखूंगा कि घर में कौन मरा, कौन बचा । सो संन्यासी बोला―ठीक है जावो घर पर एक काम करना कि यों ही सीधे घर में न घुस जाना, छिपकर पीछे से मकान की छत पर से देखना ।... ठीक है महाराज, ऐसा ही करुंगा । सो जब वह जोगी पहुंचा अपने मकान के पास और पीछे से छिपकर, छत पर पहुंचा तो ऊपर से क्या देखा कि घर के अंदर सब बच्चे लोग हंस खेल रहे थे, अच्छे-अच्छे नये कपड़े पहने हुए थे, पूड़ी कचौड़ी पक रही थी, यह सब दृश्य देखकर वह जोगी दंग रह गया और मारे खुशी के घर की आंगन में उछलकर कूद गया और बच्चों को गले से लगाने लगा । उधर बच्चे लोगों को तो पूरा विश्वास हो चुका था कि वह तो मर गया सो यह सोचकर कि यह तो उसी की शकल में भूत आ गया, उसे मारना, भगाना, लूगर आदि से जलाना शुरु किया । बड़ी मुश्किल से प्राण बचाकर वह जोगी घर से बाहर भगा । जंगल पहुंचा संन्यासी के पास और अपना सारा हाल कह सुनाया तो वहाँ संन्यासी बोला―देखो मैं कहता था कि तुम किसी को पालते पोषते नहीं, सब अपने भाग्य से पलते पुसते हैं, तुम व्यर्थ ही करने का अहंकार करते थे । अरे जब वे खुद मजे में हैं तो तुम्हें पूछेंगे क्यों? तो किसी का यह कहना गलत है कि मैं किसी का कुछ करने वाला हूँ ।
अज्ञानी जीव पर चौथी विपत्ति भोक्तृत्वबुद्धि व सर्वविपदावों से छुटकारा का उपाय बताने में सच्ची धर्मप्रभावना―चौथी विपदा जीव में यह लगी है कि वह मानता है कि मैं पर का भोगने वाला हूँ, धन भोगता हूँ, भोजन भोगता हूँ, अमुक चीज भोगता हूँ । लगता है ऐसा कि मैं आम खा रहा हूँ तो आम को भोग रहा पर वास्तविकता यह है कि आम के बारे में जो हमने ज्ञान किया, कल्पनायें किया कि बड़ा अच्छा है, बड़ा मीठा है,... इन कल्पनाओं को भोग रहे, कहीं जड़ पदार्थों को यह आत्मा भोग नहीं सकता, क्योंकि आकाश की तरह अमूर्त आत्मा में किसी चीज का संबंध ही नहीं बन सकता । तो ये जो चार कल्पनायें हैं उनसे यह जीव परेशान है । यह ही परेशानी सबको लगी है । तो इस परेशानी के मेटने का उपाय है तत्त्वज्ञान । सही-सही ज्ञान करना । अब तक लोग धर्म के नाम पर अनेक काम तो करते रहते हैं अनेक विधिविधान समारोह, मगर तत्त्वज्ञान मिले और वास्तविक ज्ञान जगे, इसकी ओर दृष्टि नहीं है । और वास्तव में पूछो तो धर्म के लिए कोई कितनी भी बाहर में प्रभावना करे, समारोह बनाये, अनेक बातें करें पर धर्मप्रभावना उसका नाम नहीं किंतु लोगों में यह ज्ञान बने कि वास्तविकता यह है तो उसे कहते है प्रभावना । ज्ञान की प्रभावना को प्रभावना कहते है, धन की प्रभावना को प्रभावना नहीं कहते । बड़े अच्छे समारोह बन गए यह कोई सच्ची प्रभावना नहीं । सच्ची प्रभावना है यह कि अपना जो आत्मस्वरूप है वह ज्ञान में आये, क्योंकि उससे लोग अपने आत्मा का उद्धार कर लेंगे । सो ज्ञानप्रभावना ही अपनी प्रभावना है । ज्ञान प्रभावना ही धर्मप्रभावना है यह ज्ञान जगे, ऐसा उपाय बनायें तो जीवन सफल हो जायेगा अन्यथा जो चलता आया वैसा चलता रहेगा उसमें अपने को कुछ लाभ नहीं है ।
देशनालब्धि का महत्त्व―संसार में जिस भी प्राणी का उद्धार हुआ है उसका उद्धार उपदेश सुनने के बाद ही हुआ है । यह नियम है । इसे कहते है देशनालब्धि । सम्यक्त्व की 5 लब्धियाँ होती हैं उनमें तीसरी लब्धि है देशना अर्थात् उपदेश मिलना जिसे सुनकर इसके भाव बढ़ें और सम्यक्त्व उत्पन्न हो । तो धर्मोपदेश अनिवार्य आवश्यक है । उसके बारे में बतला रहे हैं कि मूल धर्मोपदेश देने वाला कैसा होता है । जो अब उपदेश चल रहा है―आचार्यों ने किया मुनियों ने ब्रह्मचारियों ने किया, यह तो आपकी बात है पर किस उपदेश से लेकर यह उपदेश किया जाता है वह मूल उपदेश उसका देने वाला कौन है, यह बात बतलाते हैं । संक्षिप्त उत्तर तो यह है कि जो तीर्थकर हैं या विशिष्ट अरहंतदेव हैं, जिनकी दिव्यध्वनि खिरती है उनकी दिव्यध्वनि से उपदेश की परंपरा चली है इसीलिए मूलवक्ता तीर्थकर महाराज को बताया जाता है ।
तत्त्व के मूल उपदेष्टा का परमेष्ठित्व―जो भी मूल उपदेश देने वाले हैं वै परमेष्ठी हैं । परमपद में स्थित है । सबसे उत्कृष्ट पद कौनसा है? सबसे उत्कृष्ट पद इस लोक में जिनेंद्रदेव का है । जिनेंद्रदेव मनुष्य ही है । जब तक सिद्ध भगवान नहीं बनते तब तक वे मनुष्य कहलाते हैं । अरहंत भगवान मनुष्यगति में हैं मगर पुरुषोत्तम है । याने उन जैसा मनुष्य कोई होता नहीं है । इस लोक में सर्वोत्कृष्ट पद है जिनेंद्रदेव का, अरहंतदेव का वे उस उत्कृष्ट पद में स्थित है । उससे नीचे के पद हैं, आचार्य, उपाध्याय, मुनि के, उनका उपदेश अगर स्वयं कल्पना से किया हुआ हो तो प्रामाणिक नहीं है । जिनेंद्रदेव के उपदेश में से उपदेश किया जाय तो वह प्रामाणिक है कोई अपने मन से कुछ भी उपदेश करे तो वह प्रमाणभूत नहीं है । तो मूल उपदेष्टा कौन है? अरहंत भगवान । कैसे वे उत्कृष्ट पद में है? उत्कृष्ट पद कौन कहलाता? जहाँ ज्ञान तो पूरा प्रकट हो और दोष एक न रहे वही उत्कष्ट कहलाता है । किसी जीव में दोष तो रहा नहीं, पर ज्ञान पूरा नहीं आया तो भी वह उत्कृष्ट नहीं है, और ऐसा हो ही नहीं सकता कि ज्ञान पूरा आ जाय और निर्दोष न हो । जैसे मुनिराज तपस्या के बल से क्षुधा तृषा आदिक 18 दोषों से रहित हो जाते हैं, वे अरहंत बनते है । तो जो सर्वज्ञ है वह निर्दोष तो जरूर है, पर जो निर्दोष आत्मा हो गया वह अभी सर्वज्ञ हो पाया हो न हो पाया हो वहाँ दोनों बातें संभव हैं । जैसे गुणस्थान 14 होते हैं, उन 14 गुणस्थानों में शुरु के तीन गुणस्थान तो अज्ञानी जीव के कहे जाते है चौथा गुणस्थान सम्यग्दृष्टि ज्ञानी का होता है । 5 वाँ गुणस्थान श्रावक का होता है । छठा गुणस्थान मुनि का होता है जो आहार विहार भी करता है, पर ध्यान में लीन हो जाय तो 7 वां गुणस्थान, इसके बाद इस पंचमकाल में गुणस्थान नहीं बढ़ पाते । हां पहले हुआ करते थे तो 7 गुणस्थानों से ऊपर दो श्रेणियाँ होती हैं । अगर कोई मुनि कर्म को दबाकर चढ़े तो उपशम श्रेणी में चढ़ता है, कोई मुनि कर्मो को हटाकर चढ़े तो वह क्षपक श्रेणी में चढ़ता है । उपशम श्रेणी में चढ़ने वाला मुनि 11 वें गुणस्थान से नीचे के गुणस्थानों में गिर जायगा और क्षपक श्रेणी वाला मुनि 11 वें गुणस्थान से चढ़कर 12वें 13वें गुणस्थानों में चढ़ता है । इन गुणस्थानों में रागद्वेष नहीं रहता, निर्दोष हो गया वह जीव मगर सर्वज्ञ नहीं कहलाता । 13 वें गुणस्थान में सर्वज्ञ होता है । जिनकी मूर्ति बनाकर पूजते वे 13 वें गुणस्थानवर्ती अरहंत देव हैं । जो तीर्थंकरदेव, अरहंतदेव 13 वें गुणस्थान वाले भगवान, उनका उपदेश प्रथम होता है । उनकी दिव्यध्वनि को गणधरदेव झेलते हैं और फिर आचार्यदेव उसका प्रचार करते हैं ।
तत्त्वज्ञान के मूल उपदेष्टा परमेष्ठी आज अरहंतदेव की परंज्योतिस्वरूपता―मोक्षमार्ग के इस उपदेश के मूल कर्त्ता करने वाले हैं अरहंत भगवान । उनका आत्मा कैसा है? परमज्योति स्वरूप है । आत्मा का स्वरूप क्या है? केवल ज्योति । अब भी हम आपका जो आत्मा है सो जो ज्ञानज्योति है वह तो आत्मा है और इस ज्ञानज्योतिमात्र रागद्वेषादिक विकारों की छाया पड़ती है । कर्म की छाया वह मैं नहीं हूँ । विकार है, मैं विकाररूप नहीं । मैं तो ज्ञानमात्र हूँ । तो यह आत्मा ज्ञानज्योतिस्वरूप है । कहते हैं ना कि अपने आत्मा का अनुभव करो, सम्यक्त्व हो जायेगा । संसार से तिर जायेंगे, तो आत्मा का अनुभव कैसे करेंगे आप? आत्मा के बारे में बहुतसा कथन है । यह आत्मा देह के बराबर है । यह आत्मा अनंत गुणों का पिंड है । अनेक प्रकार से आत्मा का वर्णन होता है पर जब अनुभव होगा तो आत्मा की लंबाई चौड़ाई के ज्ञान से न होगा, किंतु अपने को कोई ऐसा, माने मनन करे कि मैं ज्ञानमात्र हूँ । ज्ञानज्योतिमात्र हूँ, जो ज्ञान का स्वरूप है वही ज्ञान में रहे । ऐसे ज्ञान को बनाये फिर आत्मा का अनुभव होता है । तो वह क्या चीज है? परमज्योति । तो अरहंत भगवान जिनेंद्रदेव वह परमज्योति स्वरूप है । उनके ज्ञान पर से आवरण हट गया है । 8 कर्मो में ज्ञानावरण कर्म आ गया सो घातियाकर्म दूर हुए वहाँ ज्ञानावरण भी दूर होता है । अब ज्ञान का कोई आवरण न रहा, पर्दा न रहा तो ज्ञान पूरा प्रकट हुआ, वही परमज्योति हैं । किसकी बात कही जा रही है कि जितने शास्त्र बने हैं, जितने आगम हैं उनका मूल कर्त्ता कौन है, यह प्रवाह कहां से चला? जो आज तक शास्त्रों में मिलता है । वह प्रवाह चला है तीर्थंकर देव से, अरहंत देव से । उनकी तारीफ की जा रही है कि वे परमेष्ठी है परम ज्योतिरूप हैं ।
आगम के मूल स्त्रोत आप्तदेव की वीतरागता―परमेष्ठी पंरज्योतिर्मय मूल उपदेष्टा आप्त भगवान वीतराग हैं । वहाँ राग नहीं रहा । देखो राग करना आत्मा का स्वभाव नहीं है । राग ज्ञानी के भी होता, अज्ञानी के भी होता है । अज्ञानी तो उसे आवश्यक समझता, अपना स्वरूप समझता, पर ज्ञानी सम्यग्दृष्टि जीव जानकर घर में रहना पड़े तो परिस्थिति के कारण राग करना पड़ता है । उसका राग करने का भाव नहीं है । जैसे कोई रईस बीमार हो गया बड़ा तेज बुखार आ रहा तो उसका साधन बनाया जाता, अच्छे पलंग पर सोना, डाक्टरों का आना जाना दवाई देना, कई-कई नौकर सेवा में हाजिर रहना, मिलने बाले अनेक लोगों द्वारा बड़ी पूछताछ, दवा समय पर देना यों, बड़ी-बड़ी व्यवस्थायें की जाती पर बताओ उन सब साधनों में उस रईस को मोह है क्या? नहीं है मोह । मोह तो तब कहलाये जबकि वह रईस यह चाहे कि मुझे ये साधन जिंदगीभर मिलें । अरे वह चाहता कि मुझे कब दवाई पीना छूटे । कब यह रोग मिटे, कब ये सब बातें खतम हों और मैं प्रतिदिन मील दो मील टहलने जाऊं । देखो चाहता तो यह है मगर परिस्थिति ऐसी है कि उसे औषधि पीनी पड़ती है । अगर औषधि समय पर न मिले तो वह झुंझला भी जाता है इतना प्रेम है उसे दवा से पर उस दवा से उसे मोह नहीं है । मोह न होकर भी दवा से राग कर रहा । तो ऐसे ही ज्ञानी जीव जिसे सम्यग्दर्शन हो गया वह राग को जरा भी नही चाहता मगर घर में रहना पड़ रहा तो राग किए बिना घर में नहीं रह सकता इसलिए प्रीति करता है । मुनिराज को भी प्रमत्त अवस्था में छठे गुणस्थान में किसी परिस्थिति में राग करना पड़ता है । पर बुद्धिपूर्वक वह राग नहीं है । इससे ऊपर जिनेंद्रदेव के तो राग का अंश भी नहीं है । जिसके रागद्वेष न हो और पूरा ज्ञान हो ऐसे गुणागम के मूल वक्ता तीर्थंकर देव के वचन प्रामाणिक है ।
तत्त्वज्ञान के मूल उपदेष्टा आप्त जिनेंद्रदेव की विमलता―प्रभु जिनेंद्र आप्त परमेष्ठी है परंज्योति हैं, वीतराग हैं, वह विमल हैं, याने कि निर्मल हैं, किसी भी प्रकार का दोष उनके नहीं रहा, क्षुधा, तृषा, जन्ममरण, रति, अरति, शोक आदि किसी प्रकार के दोष उनके नहीं रहे । देखो जिनेंद्रदेव के दोष उनके नहीं रहे । देखो जिनेंद्र देव के दर्शन करने आते हैं तो वहाँ क्या भाव रखना चाहिए कि हे प्रभो तुम्हारी स्थिति सर्वोत्कृष्ट है । मैं पामर आज संसार में जन्म मरण कर भटक रहा हूँ, आप इस भटकन से अलग हो गए, पर हे प्रभो आत्मा जैसा आपका है वैसा ही हमारा है । जाति एक है, पर फर्क यह हो गया किं मैं राग करता हूँ और संसार में रुलता हूँ । आपके राग नहीं हैं और आप उत्कृष्ट पद में आनंदमग्न हो । हे प्रभो मेरी स्थिति बने, मैं और कुछ नहीं चाहता । जो लोग प्रभु के दर्शन करते हुए कुछ चाहते हैं―मुझे धन मिले, मेरी मुकदमें में जीत हो, मेरे को संतान की प्राप्ति हो... तो वह उनकी भूल है । कैसे भूल है कि प्रथम तो जिनेंद्रदेव की भक्ति में आये तो ऐसा ध्यान रखना चाहिए कि जगत में सर्वोत्कृष्ट पद हैं तो यह पद है जिसके हम दर्शन कर रहे हैं, सो मुझे यह पद मिले, मैं और कुछ नहीं चाहता । यह भाव रहना चाहिए । क्योंकि जगत के ये सब समागम मुझ से अत्यंत भिन्न है । यह जीव मोहवश अपना मानता है, कल्पनायें करता है मगर इसका कुछ नहीं है । तो चाहें तो भगवान जिनेंद्रदेव जैसा पद चाहें कि मेरे को ऐसी स्थिति मिले कि जहाँ दोष रंच न हो और ज्ञान पूरा प्रकट हो । दूसरी बात यह है कि जिनेंद्रदेव से कुछ भी चीज मांगे कोई, तो जिनेंद्रदेव देते नहीं, वे तो वीतराग हैं, ज्ञानानंद में मग्न हैं, वे कुछ नहीं देते इसलिए उनसे कुछ मांगना व्यर्थ है । जब वे कुछ दे नहीं सकते तो मांगना व्यर्थ है―पहली बात दूसरी बात यह है कि जो कुछ मिलता है सो पुण्योदय से मिलता है और पुण्यबंध भक्ति करने से होता है । अगर पहले ही हम कोई चाह रखकर भगवान की भक्ति करें तो पुण्य भी नहीं बंधता मगर विषयों की चाह रखकर धन संपत्ति की चाह रखकर भगवान की भक्ति करें तो वह सच बात नहीं है और न वहाँ पुण्य का बंध है । जिसको ऐसा ज्ञानप्रकाश नहीं मिला कि मेरे को जगत में कुछ भी न चाहिए जो भी स्थिति मिली है मैं उसी में गुजारा करुंगा । पर मेरे को आत्मा का ज्ञान रहे, परमात्मा का ध्यान रहे, बाकी तो जो भी स्थिति हो उसी में गुजारा करेंगे यह मनुष्य, आज मनुष्यभव में है मगर कभी कुत्ता, गधा, सूअर आदिक भी तो था । वहाँ कितने-कितने कष्ट सहे । आज कितनी भली स्थिति में हैं । ऐसी स्थिति को पाकर अच्छे कर्म करें । अच्छे भाव रखें जिससे संसार का बंधन छूटे और मुक्ति प्राप्त हो । यही अपना भाव रखें क्योंकि थोड़े दिनों का यह जीवन है । मरना नियम से होगा । यहाँ का सब ठाठ यहीं पड़ा रह जायगा यहाँ का कुछ भी साथ नहीं देता क्योंकि वह मेरा कुछ है ही नहीं । मेरा क्या है? ज्ञान, दर्शन, आनंद, यह मेरा स्वरूप है, सो मरने पर यह साथ जाता हे । यही तो आत्मतत्त्व है और जो मेरा नहीं है वह कभी मेरे साथ जा ही नहीं सकता । शरीर मेरा नहीं, धन मेरा नहीं, ये कुछ भी नहीं जा सकते । तो अपने को ऐसा प्रकाश लेना चाहिए कि हे प्रभो मैं ज्ञानमात्र हूँ । ज्ञान सिवाय मेरा कोई स्वरूप नहीं है । इस ज्ञानमात्र मुझ का दुनिया में कुछ भी पदार्थ नहीं । मुझे कुछ न चाहिए । मुझे ऐसा स्वरूप दर्शन चाहिए कि अपने आत्मा के स्वरूप को लखता रहूं । केवल वही चाहिए ।
आगम के मूल स्त्रोत आप्त जिनेंद्रदेव की कृतकृत्यता, सर्वज्ञता, अनादिमध्यांतता व सर्वहितकारिता―आगम का मूल उपदेष्टा कैसा होता है?... कृतकृत्य, याने जिसको दुनिया में कुछ करने लायक नहीं रहा, उसी का ज्ञान स्थिर होगा, उसी का उपदेश प्रामाणिक होगा । जो कृतकृत्य नहीं है जिसके चित्त में अनेक काम करने को पड़े हैं उसके चित्त में व्यग्रता रहेगी । वह मूल उपदेष्टा नहीं हो सकता । तो प्रभु अरहंतदेव कृतकृत्य हैं । उनका ही उपदेश प्रामाणिक है । प्रभु सर्वज्ञ हैं । तीन लोक तीन काल के सर्व पदार्थों के जाननहार हैं, तब ही उनकी दिव्यध्वनि पूर्ण प्रामाणिक होती है, जो सबको नहीं जानता कुछ ही जान पाता उसका उपदेश मूल प्रामाणिक नहीं है । जो आजकल कम जानने वाले लोग भी उपदेश करते हैं वह प्रमाणिक है, तो वह उस उपदेश से मिला हुआ है तो प्रामाणिक है और यदि स्वतंत्र उपदेश है तो वह प्रामाणिक नहीं । तो प्रभु जो उपदेष्टा हैं आप्त हैं वे सर्वज्ञ हैं और अनादि मध्या: मायने अनादिकाल से चले आये हैं । कभी न थे, अब नये भये ऐसा नहीं । जिनेंद्र भगवान की परंपरा अनादि से चली आयी है । ऐसे ये प्रभु जो आदि, मध्य अंत से रहित हैं वे उपदेष्टा होते हैं । और अंतिम विशेषण सार्व है याने सबका हितकारी है । भगवान का उपदेश सब जीवों का हित करता है । जैसे बताया गया कि छह काय के जीवों की रक्षा करें मुनि, तो मुनिजन तो जीव रक्षा करके अपना भी उपकार करते हैं और दूसरों का भी । पर जीवों की रक्षा करने का भाव होने से उनकी खुद की भी रक्षा हो गई । और कोई श्रावकजन हैं तो उनको राग है, उनको उपदेश है कि तुम अणुव्रत पालन करो । कोई महाव्रती हैं तो उनके लायक उनको उपदेश है कि महाव्रत धारण करो । तो सबके लिए उनका हितोपदेश है । ऐसे जो परम जिनेंद्र तीर्थंकर देव हैं वे उपदेष्टा कहलाते हैं । तो जो अभी सम्यग्दर्शन के विषय में बताया था―आप्त, आगम, मुनि, इनका सच्चा श्रद्धान हो, उनमें यह आप्त की बात कही । आप्त, उपदेष्टा अरहंतदेव होते हैं जिनकी दिव्यध्वनि खिरती है ।