नित्य अनित्य समा जाति: Difference between revisions
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<span class="GRef"> न्यायदर्शन सूत्र/ | <span class="GRef"> न्यायदर्शन सूत्र/ मू./5/1/32,35/302</span> <span class="SanskritText">साधर्म्यात्तुल्यधर्मोपपत्ते: सर्वानित्यत्वप्रसंगादनित्यसम:।32। नित्यमनित्यभावादनित्ये नित्यत्वोपपत्तेर्न्नित्यसम:।35। <span class="GRef"> न्यायदर्शन सूत्र/ वृ./5/1/32,35/302 </span> अनित्येन घटेन साधर्म्यादनित्य: शब्द इति ब्रू वतोऽस्ति घटेनानित्येन सर्वभावानां साधर्म्यमिति सर्वस्यानित्यत्वमनिष्टं संपद्यते सोऽयमनित्यत्वेन प्रत्यवस्थानादनित्यसम इति।32। अनित्य: शब्द इति प्रतिज्ञायते तदनित्यत्वं किं शब्दे नित्यमथानित्यं यदि तावत्सर्वदा भवति धर्मस्य सदा भावाद्धर्मिणोऽपि सदाभाव इति। नित्य: शब्द इति। अथ न सर्वदा भवति अनित्यर्त्वस्याभावान्नित्य: शब्द:। एवं नित्यत्वेन प्रत्यवस्थानान्नित्यसम: अस्योत्तरम् ।</span> =<span class="HindiText">साधर्म्यमात्र से तुल्यधर्मसहितपना सिद्ध हो जाने से सभी पदार्थों में अनित्यत्व का प्रसंग उठाना अनित्यसम जाति है। जैसे–घट के साथ कृतकत्व आदि करके साधर्म्य हो जाने से यदि शब्द का अनित्यपना साधा जावेगा, तब तो यों घट के सत्त्व, प्रमेयत्व आदि रूप साधर्म्य संभवने से सब पदार्थों के अनित्यपने का प्रसंग हो जावेगा। इस प्रकार प्रत्यवस्थान देना अनित्यसमा जाति है। अनित्य भी स्वयं नित्य है इस प्रकार अनित्य में भी नित्यत्व का प्रसंग उठाना नित्यसमा जाति है। जैसे–‘शब्द अनित्य है’ इस प्रकार की प्रतिज्ञा करने वाले वादी पर प्रतिवादी प्रश्न उठाता है, कि वह शब्द के आधार पर ठहरने वाला अनित्यधर्म क्या नित्य है अथवा अनित्य। प्रथमपक्ष के अनुसार धर्म को तीनोंकालों तक नित्य ठहरने वाला धर्मी नित्य ही होना चाहिए। द्वितीय विकल्प के अनुसार अनित्यपन धर्म का नाश हो जाने पर शब्द के नित्यपन का सद्भाव हो जाने से शब्द नित्य सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार नित्यत्व का प्रत्यवस्थान उठाना नित्यसमाजाति है।</span><span class="HindiText"> (<span class="GRef"> श्लोकवार्तिक 4/1/33/न्या./श्लो.426-428/53; 437-440/539 </span> में इस पर चर्चा की गयी है)। | ||
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Revision as of 08:22, 16 July 2021
न्यायदर्शन सूत्र/ मू./5/1/32,35/302 साधर्म्यात्तुल्यधर्मोपपत्ते: सर्वानित्यत्वप्रसंगादनित्यसम:।32। नित्यमनित्यभावादनित्ये नित्यत्वोपपत्तेर्न्नित्यसम:।35। न्यायदर्शन सूत्र/ वृ./5/1/32,35/302 अनित्येन घटेन साधर्म्यादनित्य: शब्द इति ब्रू वतोऽस्ति घटेनानित्येन सर्वभावानां साधर्म्यमिति सर्वस्यानित्यत्वमनिष्टं संपद्यते सोऽयमनित्यत्वेन प्रत्यवस्थानादनित्यसम इति।32। अनित्य: शब्द इति प्रतिज्ञायते तदनित्यत्वं किं शब्दे नित्यमथानित्यं यदि तावत्सर्वदा भवति धर्मस्य सदा भावाद्धर्मिणोऽपि सदाभाव इति। नित्य: शब्द इति। अथ न सर्वदा भवति अनित्यर्त्वस्याभावान्नित्य: शब्द:। एवं नित्यत्वेन प्रत्यवस्थानान्नित्यसम: अस्योत्तरम् । =साधर्म्यमात्र से तुल्यधर्मसहितपना सिद्ध हो जाने से सभी पदार्थों में अनित्यत्व का प्रसंग उठाना अनित्यसम जाति है। जैसे–घट के साथ कृतकत्व आदि करके साधर्म्य हो जाने से यदि शब्द का अनित्यपना साधा जावेगा, तब तो यों घट के सत्त्व, प्रमेयत्व आदि रूप साधर्म्य संभवने से सब पदार्थों के अनित्यपने का प्रसंग हो जावेगा। इस प्रकार प्रत्यवस्थान देना अनित्यसमा जाति है। अनित्य भी स्वयं नित्य है इस प्रकार अनित्य में भी नित्यत्व का प्रसंग उठाना नित्यसमा जाति है। जैसे–‘शब्द अनित्य है’ इस प्रकार की प्रतिज्ञा करने वाले वादी पर प्रतिवादी प्रश्न उठाता है, कि वह शब्द के आधार पर ठहरने वाला अनित्यधर्म क्या नित्य है अथवा अनित्य। प्रथमपक्ष के अनुसार धर्म को तीनोंकालों तक नित्य ठहरने वाला धर्मी नित्य ही होना चाहिए। द्वितीय विकल्प के अनुसार अनित्यपन धर्म का नाश हो जाने पर शब्द के नित्यपन का सद्भाव हो जाने से शब्द नित्य सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार नित्यत्व का प्रत्यवस्थान उठाना नित्यसमाजाति है। ( श्लोकवार्तिक 4/1/33/न्या./श्लो.426-428/53; 437-440/539 में इस पर चर्चा की गयी है)।