पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 27 - समय-व्याख्या - हिंदी: Difference between revisions
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<p>यहाँ मुक्तावस्था वाले आत्मा का निरुपाधि स्वरूप कहा है ।</p> | <p>यहाँ मुक्तावस्था वाले आत्मा का निरुपाधि स्वरूप कहा है ।</p> | ||
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<p>आत्मा (कर्म-रज के) पर-द्रव्यपने के कारण कर्म-रज से सम्पूर्ण-रूप से जिस क्षण छूटता है (मुक्त होता है), उसी क्षण (अपने) उर्ध्व-गमन-स्वभाव के कारण लोक के अंत को पाकर आगे गति-हेतु का अभाव होने से (वहाँ) स्थिर रहता हुआ, केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन (निज) स्वरूप-भूत होने के कारण उनसे न छूटता हुआ अनन्त अनिन्द्रिय सुख का अनुभव करता है । उस मुक्त आत्मा को, <ol><li>भाव-प्राण-धारण जिसका लक्षण (स्वरूप) है ऐसा | <p>आत्मा (कर्म-रज के) पर-द्रव्यपने के कारण कर्म-रज से सम्पूर्ण-रूप से जिस क्षण छूटता है (मुक्त होता है), उसी क्षण (अपने) उर्ध्व-गमन-स्वभाव के कारण लोक के अंत को पाकर आगे गति-हेतु का अभाव होने से (वहाँ) स्थिर रहता हुआ, केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन (निज) स्वरूप-भूत होने के कारण उनसे न छूटता हुआ अनन्त अनिन्द्रिय सुख का अनुभव करता है । उस मुक्त आत्मा को, <ol><li>भाव-प्राण-धारण जिसका लक्षण (स्वरूप) है ऐसा <span class="DarkFont">जीवत्व</span> होता है; <li>चिद्रूप जिसका लक्षण है ऐसा <span class="DarkFont">चेतयितृत्व</span> होता है; <li>चित्परिणाम जिसका लक्षण है ऐसा <span class="DarkFont">उपयोग</span> होता है;<li>प्राप्त किये हुए समस्त (आत्मिक) अधिकारों की शक्तिमात्र-रूप <span class="DarkFont">प्रभुत्व</span> होता है; <li>समस्त वस्तुओं से असाधारण ऐसे स्वरूप की निष्पत्ति-मात्र-रूप (निज-स्वरूप को रचने-रूप) <span class="DarkFont">कर्तत्व</span> होता है;<li>स्वरूप-भूत स्वातन्त्र्य जिसका लक्षण है ऐसे सुख की उप्लाब्धि-रूप <span class="DarkFont">भोक्तृत्व</span> होता है; <li>अतीत अनन्तर (अन्तिम) शरीर-प्रमाण अवगाह-परिणाम-रूप <span class="DarkFont">देहप्रमाण-पना</span> होता है; और<li>उपाधि के सम्बन्ध से विविक्त ऐसा आत्यन्तिक (सवर्था) <span class="DarkFont">अमूर्त-पना</span> होता है ।</ol>(मुक्त-आत्मा को) <ul><li><span class="DarkFont">कर्म-संयुक्त-पना</span> तो होता ही नहीं, क्योंकि द्रव्य-कर्मों और भाव-कर्मों से विमुक्ति हुई है । द्रव्य-कर्म वे पुद्गल-स्कन्ध है और भाव-कर्म वे चिद-विवर्त हैं । <li>चित्शक्ति अनादि ज्ञानावरणादि-कर्मों के सम्पर्क से (सम्बन्ध से) संकुचित व्यापार-वाली होने के कारण ज्ञेय-भूत विश्व के (समस्त पदार्थों के) एक-एक देश में क्रमश: व्यापार करती हुई विवर्तन को प्राप्त होती है । किन्तु जब ज्ञानावरणादि-कर्मों का सम्पर्क विनष्ट होता है, तब वह ज्ञेय-भूत विश्व के सर्व देशों में युगपद व्यापार करती हुई कथंचित कूटस्थ होकर, अन्य विषय को प्राप्त न होती हुई <span class="DarkFont">विवर्तन नहीं करती</span> । वह यह (चित्शक्ति के विवर्तन का अभाव), वास्तव में निश्चित (नियत, अचल) सर्वज्ञ-पने की सर्वदर्शी-पने की उपलब्धि है । <li>यही, द्रव्य-कर्मों के निमित्तभूत भाव-कर्मों के <span class="DarkFont">कर्तत्व का विनाश</span> है; <li>यही, विकार-पूर्वक अनुभव के अभाव के कारण औपाधिक सुख-दुःख-परिणामों के <span class="DarkFont">भोक्तृत्व का विनाश</span> है; <li>और यही, अनादि विवर्तन के खेद के विनाश से जिसका अनन्त चैतन्य सुस्थित हुआ है ऐसे आत्मा को स्वतन्त्र-स्वरूपानुभूति-लक्षण <span class="DarkFont">सुख का</span> (स्वतंत्र स्वरूप की अनुभूति जिसका लक्षण है ऐसे सुख का) <span class="DarkFont">भोक्तृत्व</span> है ॥२७॥</ul></p> | ||
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Latest revision as of 16:51, 24 August 2021
यहाँ मुक्तावस्था वाले आत्मा का निरुपाधि स्वरूप कहा है ।
आत्मा (कर्म-रज के) पर-द्रव्यपने के कारण कर्म-रज से सम्पूर्ण-रूप से जिस क्षण छूटता है (मुक्त होता है), उसी क्षण (अपने) उर्ध्व-गमन-स्वभाव के कारण लोक के अंत को पाकर आगे गति-हेतु का अभाव होने से (वहाँ) स्थिर रहता हुआ, केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन (निज) स्वरूप-भूत होने के कारण उनसे न छूटता हुआ अनन्त अनिन्द्रिय सुख का अनुभव करता है । उस मुक्त आत्मा को,
- भाव-प्राण-धारण जिसका लक्षण (स्वरूप) है ऐसा जीवत्व होता है;
- चिद्रूप जिसका लक्षण है ऐसा चेतयितृत्व होता है;
- चित्परिणाम जिसका लक्षण है ऐसा उपयोग होता है;
- प्राप्त किये हुए समस्त (आत्मिक) अधिकारों की शक्तिमात्र-रूप प्रभुत्व होता है;
- समस्त वस्तुओं से असाधारण ऐसे स्वरूप की निष्पत्ति-मात्र-रूप (निज-स्वरूप को रचने-रूप) कर्तत्व होता है;
- स्वरूप-भूत स्वातन्त्र्य जिसका लक्षण है ऐसे सुख की उप्लाब्धि-रूप भोक्तृत्व होता है;
- अतीत अनन्तर (अन्तिम) शरीर-प्रमाण अवगाह-परिणाम-रूप देहप्रमाण-पना होता है; और
- उपाधि के सम्बन्ध से विविक्त ऐसा आत्यन्तिक (सवर्था) अमूर्त-पना होता है ।
- कर्म-संयुक्त-पना तो होता ही नहीं, क्योंकि द्रव्य-कर्मों और भाव-कर्मों से विमुक्ति हुई है । द्रव्य-कर्म वे पुद्गल-स्कन्ध है और भाव-कर्म वे चिद-विवर्त हैं ।
- चित्शक्ति अनादि ज्ञानावरणादि-कर्मों के सम्पर्क से (सम्बन्ध से) संकुचित व्यापार-वाली होने के कारण ज्ञेय-भूत विश्व के (समस्त पदार्थों के) एक-एक देश में क्रमश: व्यापार करती हुई विवर्तन को प्राप्त होती है । किन्तु जब ज्ञानावरणादि-कर्मों का सम्पर्क विनष्ट होता है, तब वह ज्ञेय-भूत विश्व के सर्व देशों में युगपद व्यापार करती हुई कथंचित कूटस्थ होकर, अन्य विषय को प्राप्त न होती हुई विवर्तन नहीं करती । वह यह (चित्शक्ति के विवर्तन का अभाव), वास्तव में निश्चित (नियत, अचल) सर्वज्ञ-पने की सर्वदर्शी-पने की उपलब्धि है ।
- यही, द्रव्य-कर्मों के निमित्तभूत भाव-कर्मों के कर्तत्व का विनाश है;
- यही, विकार-पूर्वक अनुभव के अभाव के कारण औपाधिक सुख-दुःख-परिणामों के भोक्तृत्व का विनाश है;
- और यही, अनादि विवर्तन के खेद के विनाश से जिसका अनन्त चैतन्य सुस्थित हुआ है ऐसे आत्मा को स्वतन्त्र-स्वरूपानुभूति-लक्षण सुख का (स्वतंत्र स्वरूप की अनुभूति जिसका लक्षण है ऐसे सुख का) भोक्तृत्व है ॥२७॥