पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 69 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी: Difference between revisions
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Revision as of 16:51, 24 August 2021
उवसंतखीणमोहो उपशान्त-क्षीणमोह, यहाँ उपशम शब्द से औपशमिक सम्यक्त्व, क्षीण शब्द से क्षायिक सम्यक्त्व और दोनों से क्षायोपशमिक सम्यक्त्व ग्रहण करना चाहिए । मग्गं भेदाभेद-रत्नत्रयात्मक निश्चय-व्यवहार मोक्ष-मार्ग को समुवगदो समुपगत, प्राप्त करता है । किसके द्वारा उसे प्राप्त करता है ? जिणभासिदेय वीतराग सर्वज्ञ के कथन से उसे प्राप्त करता है । णाणं निर्विकार स्व-संवेदन ज्ञान का अथवा अभेद अपेक्षा से उसके आधार-भूत शुद्धात्मा का अणु अनुलक्षणी कर, समाश्रय कर, उस ज्ञान-गुण या आत्मा का आश्रय कर मग्गचारी पूर्वोक्त निश्चय-व्यवहार मोक्ष-मार्गचारी होता है । इन गुणों से विशिष्ट भव्य-वर पुण्डरीक (भव्यों में सर्वोत्कृष्ट) वज्जदि जाता है । कहाँ जाता है ? णिव्वाणपुरं अव्याबाध-सुख आदि अनन्त गुणों के स्थान-भूत, शुद्धात्मा की उपलब्धि है लक्षण जिसका ऐसे निर्वाण-नगर को जाता है / प्राप्त होता है । वह भव्य और किस विशेषता वाला है ? धीरो धीर है, घोर उपसर्ग-परिषह के समय भी पाण्डव आदि के समान निश्चय रत्न-त्रय लक्षण समाधि से च्युत नहीं होता है -- ऐसा भावार्थ है ॥७६॥
इस प्रकार कर्म-रहितत्व के व्याख्यान द्वारा द्वितीय गाथा पूर्ण हुई ।
इस प्रकार ओगाढगाढ... इत्यादि पूर्वोक्त पाठ-क्रम से परिहार-परक सात गाथायें पूर्ण हुईं ।
इस प्रकार जीवास्तिकाय के व्याख्यान-रूप प्रभुत्व आदि नौ अधिकारों में से पाँच अन्तर-स्थलों द्वारा समुदाय-रूप से जीवा अणाइणिहणा... इत्यादि अठारह गाथाओं द्वारा कर्तृत्व, भोक्तृत्व और कर्म-संयुक्तत्व -- इन तीन का यौगपद्य व्याख्यान पूर्ण हुआ ।