पंचास्तिकाय संग्रह-सूत्र - गाथा 27 - तात्पर्य-वृत्ति - हिंदी: Difference between revisions
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<p>अब मोक्ष साधकत्व सम्बन्धी प्रभुता गुण के माध्यम से सर्वज्ञ की सिद्धि के लिए, मुक्त अवस्था को प्राप्त आत्मा के केवल-ज्ञानादि रूप निरुपाधि-स्वरूप को दिखाते हैं--</p> | <p>अब मोक्ष साधकत्व सम्बन्धी प्रभुता गुण के माध्यम से सर्वज्ञ की सिद्धि के लिए, मुक्त अवस्था को प्राप्त आत्मा के केवल-ज्ञानादि रूप निरुपाधि-स्वरूप को दिखाते हैं--</p> | ||
<p><span class="AnvayArth">कम्ममलविप्पमुक्को</span> द्रव्यकर्म, भावकर्म से विप्रमुक्त होते हुए। <span class="AnvayArth">उड्ढं लोगस्स अंतमधिगंता</span> ऊर्ध्व-गति स्वभाव होने से लोक के अंत को प्राप्त कर, आगे धर्मास्तिकाय का अभाव होने से वहाँ लोकाग्र में ही स्थित रहते हुए <span class="AnvayArth">सो सव्वणाणदरसी</span> सभी विषय सम्बन्धी ज्ञान-दर्शन, वह सब ज्ञान दर्शन; वे दोनों जिनके विद्यमान हैं, वे सर्व-ज्ञानदर्शी हैं। ऐसे होते हुए वे क्या करते हैं? <span class="AnvayArth">लहइ सुहमणिंदियमणंतं</span> प्राप्त करते हैं / अनुभव करते हैं । किसका अनुभव करते हैं ? सुख का अनुभव करते हैं । वह सुख कैसा है ? अतीन्द्रिय है । और भी वह कैसा है ? अनन्त है । विशेष यह है कि पहले गाथा (२८वीं में) कहे गए जीव तत्त्व आदि नौ अधिकारों में से कर्म-संयुक्तता को छोडकर शुद्ध जीवत्व, शुद्ध-चेतना, शुद्धोपयोग आदि आठ अधिकारों को, आगम के अविरोध पूर्वक यथासम्भव मुक्तावस्था में भी लगा लेना चाहिए -- यह सूत्र का अभिप्राय है ॥२८॥</p> | <p><span class="AnvayArth">[कम्ममलविप्पमुक्को]</span> द्रव्यकर्म, भावकर्म से विप्रमुक्त होते हुए। <span class="AnvayArth">[उड्ढं लोगस्स अंतमधिगंता]</span> ऊर्ध्व-गति स्वभाव होने से लोक के अंत को प्राप्त कर, आगे धर्मास्तिकाय का अभाव होने से वहाँ लोकाग्र में ही स्थित रहते हुए <span class="AnvayArth">[सो सव्वणाणदरसी]</span> सभी विषय सम्बन्धी ज्ञान-दर्शन, वह सब ज्ञान दर्शन; वे दोनों जिनके विद्यमान हैं, वे सर्व-ज्ञानदर्शी हैं। ऐसे होते हुए वे क्या करते हैं? <span class="AnvayArth">[लहइ सुहमणिंदियमणंतं]</span> प्राप्त करते हैं / अनुभव करते हैं । किसका अनुभव करते हैं ? सुख का अनुभव करते हैं । वह सुख कैसा है ? अतीन्द्रिय है । और भी वह कैसा है ? अनन्त है । विशेष यह है कि पहले गाथा (२८वीं में) कहे गए जीव तत्त्व आदि नौ अधिकारों में से कर्म-संयुक्तता को छोडकर शुद्ध जीवत्व, शुद्ध-चेतना, शुद्धोपयोग आदि आठ अधिकारों को, आगम के अविरोध पूर्वक यथासम्भव मुक्तावस्था में भी लगा लेना चाहिए -- यह सूत्र का अभिप्राय है ॥२८॥</p> | ||
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Revision as of 17:06, 24 August 2021
अब मोक्ष साधकत्व सम्बन्धी प्रभुता गुण के माध्यम से सर्वज्ञ की सिद्धि के लिए, मुक्त अवस्था को प्राप्त आत्मा के केवल-ज्ञानादि रूप निरुपाधि-स्वरूप को दिखाते हैं--
[कम्ममलविप्पमुक्को] द्रव्यकर्म, भावकर्म से विप्रमुक्त होते हुए। [उड्ढं लोगस्स अंतमधिगंता] ऊर्ध्व-गति स्वभाव होने से लोक के अंत को प्राप्त कर, आगे धर्मास्तिकाय का अभाव होने से वहाँ लोकाग्र में ही स्थित रहते हुए [सो सव्वणाणदरसी] सभी विषय सम्बन्धी ज्ञान-दर्शन, वह सब ज्ञान दर्शन; वे दोनों जिनके विद्यमान हैं, वे सर्व-ज्ञानदर्शी हैं। ऐसे होते हुए वे क्या करते हैं? [लहइ सुहमणिंदियमणंतं] प्राप्त करते हैं / अनुभव करते हैं । किसका अनुभव करते हैं ? सुख का अनुभव करते हैं । वह सुख कैसा है ? अतीन्द्रिय है । और भी वह कैसा है ? अनन्त है । विशेष यह है कि पहले गाथा (२८वीं में) कहे गए जीव तत्त्व आदि नौ अधिकारों में से कर्म-संयुक्तता को छोडकर शुद्ध जीवत्व, शुद्ध-चेतना, शुद्धोपयोग आदि आठ अधिकारों को, आगम के अविरोध पूर्वक यथासम्भव मुक्तावस्था में भी लगा लेना चाहिए -- यह सूत्र का अभिप्राय है ॥२८॥