समयसार - गाथा 340: Difference between revisions
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<div class="PravachanText">एवं संखुवएसं जे उ परूवेंति एरिसं | <div class="PravachanText"><p><strong>एवं संखुवएसं जे उ परूवेंति एरिसं समणा।तेंसि पयडी कुव्वदि अप्पाय अकारगा सव्वे।।340।।</strong> </p> | ||
<p><strong>आत्मा के अपरिणमित्व पर प्रसक्ति</strong>―कर्म ही रागद्वेष आदि सब कुछ करते हैं ऐसी जो सांख्य उपदेश की निरूपणा करते हैं उनके मत में प्रकृति ही सब कुछ करने वाली हुई और आत्मा सब अकारक हो गए। अर्थात् आत्मा में कुछ भी परिणमन नहीं होता है, ऐसा उक्त मंतव्य बन गया किंतु ऐसा तो है ही नहीं कि कोई पदार्थ परिणमन शून्य हो। प्रत्येक पदार्थ निरंतर परिणमन शील होता है, क्योंकि वे सत्स्वरूप हैं, जो परिणमनशील नहीं होता वह सत् स्वरूप भी नहीं होता। जैसे गधे का सींग परिणमनशील है ही नहीं तो वह सत् स्वरूप नहीं है।</p> | |||
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<p><strong>प्रकृतिवादैकांत में अनिष्टापत्ति</strong>―देखो नय की बलिहारी कि गधा के सींग नहीं होते। पर अपने संकल्प से गधे के सींग हो सकते है। विचार में सामने गधा खड़ा करले और उसके सिर पर सींग लगा दें तो क्या कोर्इ रोकता है ? अथवा गाय, बैल, भैंस, बकरी आदि जिनके ऊँचे सींग हो उनके ही सींग विचार में गधे के जोड़ दें तो जीव वह भी था, जीव वह भी था, जिस चाहे संकल्प में घुटाला करके गधे के सींग बना लें पर वस्तु स्वरूप भी देखो तो गधा के सींग नहीं होते क्योंकि वे परिणमन शील ही नहीं है तो प्रकृति ही सब कुछ करती है ऐसा उनका मंतव्य बन गया जैसा कि वे सांख्य खुद ही कहते हैं। प्रकृति से महान् हुआ इंटलीजेन्स कुछ ज्योति, ज्ञान उसके क्षयोपशम से हुई, उससे अहंकार। अहंकार से इंद्रिय, इंद्रिय से तन्मात्रायें, विषय और उन मात्रावों से ये सब दृश्यमान भूत हुए। ऐसा सर्व कुछ जो उत्पन्न हुआ वह सब प्रकृति की देन है, ऐसा मानने पर फिर तो आत्मा अकारक ही हो गया, परिणमन शून्य हो गया। </p> | |||
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Latest revision as of 12:32, 20 September 2021
एवं संखुवएसं जे उ परूवेंति एरिसं समणा।तेंसि पयडी कुव्वदि अप्पाय अकारगा सव्वे।।340।।
आत्मा के अपरिणमित्व पर प्रसक्ति―कर्म ही रागद्वेष आदि सब कुछ करते हैं ऐसी जो सांख्य उपदेश की निरूपणा करते हैं उनके मत में प्रकृति ही सब कुछ करने वाली हुई और आत्मा सब अकारक हो गए। अर्थात् आत्मा में कुछ भी परिणमन नहीं होता है, ऐसा उक्त मंतव्य बन गया किंतु ऐसा तो है ही नहीं कि कोई पदार्थ परिणमन शून्य हो। प्रत्येक पदार्थ निरंतर परिणमन शील होता है, क्योंकि वे सत्स्वरूप हैं, जो परिणमनशील नहीं होता वह सत् स्वरूप भी नहीं होता। जैसे गधे का सींग परिणमनशील है ही नहीं तो वह सत् स्वरूप नहीं है।
प्रकृतिवादैकांत में अनिष्टापत्ति―देखो नय की बलिहारी कि गधा के सींग नहीं होते। पर अपने संकल्प से गधे के सींग हो सकते है। विचार में सामने गधा खड़ा करले और उसके सिर पर सींग लगा दें तो क्या कोर्इ रोकता है ? अथवा गाय, बैल, भैंस, बकरी आदि जिनके ऊँचे सींग हो उनके ही सींग विचार में गधे के जोड़ दें तो जीव वह भी था, जीव वह भी था, जिस चाहे संकल्प में घुटाला करके गधे के सींग बना लें पर वस्तु स्वरूप भी देखो तो गधा के सींग नहीं होते क्योंकि वे परिणमन शील ही नहीं है तो प्रकृति ही सब कुछ करती है ऐसा उनका मंतव्य बन गया जैसा कि वे सांख्य खुद ही कहते हैं। प्रकृति से महान् हुआ इंटलीजेन्स कुछ ज्योति, ज्ञान उसके क्षयोपशम से हुई, उससे अहंकार। अहंकार से इंद्रिय, इंद्रिय से तन्मात्रायें, विषय और उन मात्रावों से ये सब दृश्यमान भूत हुए। ऐसा सर्व कुछ जो उत्पन्न हुआ वह सब प्रकृति की देन है, ऐसा मानने पर फिर तो आत्मा अकारक ही हो गया, परिणमन शून्य हो गया।