समयसार - गाथा 341: Difference between revisions
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<div class="PravachanText">अहवा भण्णसि मज्झं अप्पा अप्पाणमप्पणो | <div class="PravachanText"><p><strong>अहवा भण्णसि मज्झं अप्पा अप्पाणमप्पणो कुणदि।एसो मिच्छसहावो तुम्हं एयं मुणंतस्स।।341।। </strong></p> | ||
<p><strong>शंकाकार द्वारा आत्मकर्तत्व के समर्थन का बलप्रयोग</strong>―अथवा इस दूषण के भय से यह मान लिया जाय कि भाई मेरे मत में तो आत्मा अकारक नहीं है, आत्मा अपने आपको करता है। जैसे किसी सेन्स में कुछ जैन भी ऐसा मानने लगे हैं कि आत्मा तो ज्ञान परिणमन को परिणमने वाला है और रागादिक को परिणमाने वाले कर्म है आत्मा नहीं है। जैसे उनकी दृष्टि में परिणमना न परिणमना बराबर सा बन गया तो हमारे मत में भी आत्मा ज्ञान से भी नहीं परिणमता, किंतु आत्मा चैतन्यस्वरूप अपने को करता है। <strong>वृत्ति बिना स्वरूप का अभाव</strong>―आप कहेंगे कि इसका तो कुछ अर्थ ही नहीं निकला, ज्ञानरूप भी नहीं परिणमता और चैतन्यस्वरूप अपने को किए रहता है इसका मतलब क्या है ? जैसे एक कहावत है कि―जाट रे जाट तेरे सिर पर खाट। तेली रे तेली तेरे सिर पर कोल्हू। भाई तुक तो नहीं बनी। तो भार तो लद गया। आत्मा रागरूप भी नहीं परिणमता और ज्ञानरूप भी नहीं परिणमता। सो जब कहा कि आत्मा अकारक हो जायेगा तो बात बनाते हो कि वह अपने को चैतन्यरूप कर रहा है जानन का स्वरूप नहीं, दर्शन का स्वरूप नहीं, राग रूप, विभाव रूप, परिणमन का मतलब नहीं तब फिर चैतन्यस्वरूप क्या ? तो तुम यह कहोगे कि मेरे मत में तो आत्मा आत्मा को करता है, तो ऐसा मानने वाले तुम्हारे मत में मिथ्या भाव प्रकट ही सिद्ध है। यह कहना मिथ्या क्यों ? तो युक्ति देते है।</p> | |||
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Latest revision as of 12:32, 20 September 2021
अहवा भण्णसि मज्झं अप्पा अप्पाणमप्पणो कुणदि।एसो मिच्छसहावो तुम्हं एयं मुणंतस्स।।341।।
शंकाकार द्वारा आत्मकर्तत्व के समर्थन का बलप्रयोग―अथवा इस दूषण के भय से यह मान लिया जाय कि भाई मेरे मत में तो आत्मा अकारक नहीं है, आत्मा अपने आपको करता है। जैसे किसी सेन्स में कुछ जैन भी ऐसा मानने लगे हैं कि आत्मा तो ज्ञान परिणमन को परिणमने वाला है और रागादिक को परिणमाने वाले कर्म है आत्मा नहीं है। जैसे उनकी दृष्टि में परिणमना न परिणमना बराबर सा बन गया तो हमारे मत में भी आत्मा ज्ञान से भी नहीं परिणमता, किंतु आत्मा चैतन्यस्वरूप अपने को करता है। वृत्ति बिना स्वरूप का अभाव―आप कहेंगे कि इसका तो कुछ अर्थ ही नहीं निकला, ज्ञानरूप भी नहीं परिणमता और चैतन्यस्वरूप अपने को किए रहता है इसका मतलब क्या है ? जैसे एक कहावत है कि―जाट रे जाट तेरे सिर पर खाट। तेली रे तेली तेरे सिर पर कोल्हू। भाई तुक तो नहीं बनी। तो भार तो लद गया। आत्मा रागरूप भी नहीं परिणमता और ज्ञानरूप भी नहीं परिणमता। सो जब कहा कि आत्मा अकारक हो जायेगा तो बात बनाते हो कि वह अपने को चैतन्यरूप कर रहा है जानन का स्वरूप नहीं, दर्शन का स्वरूप नहीं, राग रूप, विभाव रूप, परिणमन का मतलब नहीं तब फिर चैतन्यस्वरूप क्या ? तो तुम यह कहोगे कि मेरे मत में तो आत्मा आत्मा को करता है, तो ऐसा मानने वाले तुम्हारे मत में मिथ्या भाव प्रकट ही सिद्ध है। यह कहना मिथ्या क्यों ? तो युक्ति देते है।