समयसार - गाथा 350: Difference between revisions
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<div class="PravachanText">जह सिप्पिओ उ करणेहिं कुव्वदि ण य सो उ तम्मओ | <div class="PravachanText"><p><strong>जह सिप्पिओ उ करणेहिं कुव्वदि ण य सो उ तम्मओ होइ।तह जीवो करणेहिं कुव्वइ ण य तम्मओ होइ।।350</strong></p> | ||
<p> जैसे स्वर्णकार किसी साधन के द्वारा जो कुछ भी कर रहा है व्यवहारदृष्टि में, वहां देखो तो वह साधन में तन्मय नहीं हो रहा है। वह कलाकार केवल अपने में ही तन्मय है, अपने ही साधन में तन्मय है, अपने ही कर्म में तन्मय है, सर्वत्र भिन्न है। अपने-अपने में अपना काम हो रहा है। यदि कोई ऐसी गोली खा ले कि शरीर न दिखे, जैसे पुराणों में आया कि ऐसा अंजन लगा लिया कि उसका शरीर ही नहीं दिखता था और वह पुरूष हथौड़ा लेकर घर पीटे तो दुनिया को ऐसा दिखेगा कि हथौड़ा कैसा ऊपर से नीचे को गिर रहा है ? जो जैसे वहां दिखता है कि हथौड़ा ही अपना काम कर रहा है वैसी ही बात ज्ञानीपुरूष को सर्वत्र दिखती है कि भाई निमित्त तो यह पुरूष है पर सर्वद्रव्यों की क्रियाएँ केवल उनमें ही अपने आपमें तन्मय होकर होती हैं। तो जैसे शिल्पी साधन के द्वारा कुछ कार्य करते हैं पर उन साधनों में तन्मय नहीं होते, इसी प्रकार जीव मन, वचन, काय के साधनों द्वारा कार्य करते हैं, पर वे उन करणों में तन्मय नहीं होते हैं, यहां यह बतला रहे है कि प्रत्येक द्रव्य केवल अपने आपका ही कर्ता भोक्ता है, कोई द्रव्य किसी दूसरे का कर्ता और भोक्ता नहीं है। फिर कोई शंका करे कि खैर साधन द्वारा भी कुछ नहीं किया इस स्वर्णकार ने, किंतु अपने साधन को ग्रहण तो किए हुए है, हाथ में हथौड़ा वह स्वर्णकार ही तो लिए हुए है। उसके उत्तर में कहते हैं--</p> | |||
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Latest revision as of 12:32, 20 September 2021
जह सिप्पिओ उ करणेहिं कुव्वदि ण य सो उ तम्मओ होइ।तह जीवो करणेहिं कुव्वइ ण य तम्मओ होइ।।350
जैसे स्वर्णकार किसी साधन के द्वारा जो कुछ भी कर रहा है व्यवहारदृष्टि में, वहां देखो तो वह साधन में तन्मय नहीं हो रहा है। वह कलाकार केवल अपने में ही तन्मय है, अपने ही साधन में तन्मय है, अपने ही कर्म में तन्मय है, सर्वत्र भिन्न है। अपने-अपने में अपना काम हो रहा है। यदि कोई ऐसी गोली खा ले कि शरीर न दिखे, जैसे पुराणों में आया कि ऐसा अंजन लगा लिया कि उसका शरीर ही नहीं दिखता था और वह पुरूष हथौड़ा लेकर घर पीटे तो दुनिया को ऐसा दिखेगा कि हथौड़ा कैसा ऊपर से नीचे को गिर रहा है ? जो जैसे वहां दिखता है कि हथौड़ा ही अपना काम कर रहा है वैसी ही बात ज्ञानीपुरूष को सर्वत्र दिखती है कि भाई निमित्त तो यह पुरूष है पर सर्वद्रव्यों की क्रियाएँ केवल उनमें ही अपने आपमें तन्मय होकर होती हैं। तो जैसे शिल्पी साधन के द्वारा कुछ कार्य करते हैं पर उन साधनों में तन्मय नहीं होते, इसी प्रकार जीव मन, वचन, काय के साधनों द्वारा कार्य करते हैं, पर वे उन करणों में तन्मय नहीं होते हैं, यहां यह बतला रहे है कि प्रत्येक द्रव्य केवल अपने आपका ही कर्ता भोक्ता है, कोई द्रव्य किसी दूसरे का कर्ता और भोक्ता नहीं है। फिर कोई शंका करे कि खैर साधन द्वारा भी कुछ नहीं किया इस स्वर्णकार ने, किंतु अपने साधन को ग्रहण तो किए हुए है, हाथ में हथौड़ा वह स्वर्णकार ही तो लिए हुए है। उसके उत्तर में कहते हैं--