समयसार - गाथा 363: Difference between revisions
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<div class="PravachanText">जह परदव्वं सेडदि हु सेडिया अप्पणो | <div class="PravachanText"><p><strong>जह परदव्वं सेडदि हु सेडिया अप्पणो सहावेव।तह परदव्वं विजहइ णायावि सयेण भावेण।।363।।</strong> </p> | ||
<p><strong>परद्रव्य के त्याग का व्यवहार वचन</strong>―जैसे सेटिका अपने स्वभाव से परद्रव्य को सफेद करता है, इस ही प्रकार ज्ञाता भी अपने भाव से परद्रव्य को त्यागता है। यह व्यवहार का भाषित वचन है। जैसे खड़िया जो श्वेत गुणकर भरे स्वभाव वाला है, वह भींतादिक परद्रव्यों के निमित्त से, अपने श्वेतगुण के परिणमन से उत्पन्न हो रही है, खड़िया परद्रव्य के स्वभाव से नहीं परिणमती और न परद्रव्य को खड़िया अपने स्वभाव से परिणमाती, फिर भी इन दोनों का परस्पर में निमित्तनैमित्तिक संबंध है। भींत का आधारभूत निमित्त पाकर यह खड़िया इस तरह से फैल गयी और खड़िया का निमित्त पाकर भींत का यथार्थ स्वरूप तिरोहित हो गया और व्यक्तरूप श्वेत हो गया, ऐसा उनमें परस्पर निमित्तनैमित्तिक संबंध है। इस ही कारण व्यवहार से यह कहा जाता है कि जैसे खड़िया ने भींत को सफेदी की, ऐसे ही इस त्याग परिणाम वाले आत्मा ने त्याग की जाने वाली परवस्तु को त्यागा। <strong>पर में पर के त्याग के संबंध का अनमेल</strong>―अपोहक आत्मा में और अपोह्य परद्रव्य में कोई संबंध नहीं है। यह त्यागी अपने आपमें अपना परिणमन बनाता है। बाह्य वस्तु अपने आप में अपनी परिणति से रहते हैं, इस त्यागी का त्याज्य पदार्थ के साथ कोई संबंध नहीं है, फिर भी परवस्तु का लक्ष्य करके इसने त्याग परिणाम बनाया और त्याग परिणाम बनाने वाले आत्मा के परिणमन को लक्ष्य में लेकर ज्ञानी जीव परवस्तु में त्याज्य शब्द का व्यपदेश करता है। ऐसा परस्पर में निमित्तनैमित्तिक संबंध है। इस कारण व्यवहार में यों कहा जाता है कि ज्ञाता आत्मा ने परद्रव्य का त्याग किया। शब्दानुसार यह इतना बेमेल कथन है कि त्याग की तो बात कह रहे हैं और संबंध जोड़ रहे हैं। जैसे कोई कहते हैं कि मैं अमुक का मित्र हू, अमुक का भाई हूँ, कोई कहते कि मैं अमुक का त्यागी हूँ। तो त्याग की बात कह रहे हैं और संबंध जोड़ रहे हैं। जैसे कोई कहे कि यह मेरा मित्र हैं तो उससे प्यार भरी बात ही तो कही गयी। यह मेरा मित्र है ऐसा कह देने में प्यार भरा है और यह मेरा दुश्मन है यह भी प्यार भरी बात है क्योंकि उसे अपना तो बना लिया। मैं अमुक का त्यागी हूं, यों कहने में किसी परवस्तु का संबंध जोड़ा जा रहा है। <strong>अपोहक व अपोह्य में संबंध व्यपदेश का कारण</strong>―यह आत्मा तो ज्ञान दर्शन गुणकर भरा हुआ और दूसरों से हटे रहने के स्वभाव वाला है। परवस्तु से यह जीव आज तक कभी मिल नहीं सकता, शंकर नहीं हो सकता, निगोद जैसी दशा में भी रहा परंतु जीव ने अपना स्वभाव नहीं तजा। तो दूसरे पदार्थों से हटे रहने का स्वभाव ही है। यह स्वयं पुद्गलादिक परद्रव्यों के स्वभाव से नहीं परिणमता और पुद्गलादिक परद्रव्यों को अपने स्वभाव से नहीं परिणमाता, लेकिन पुद्गलादिक परद्रव्यों के निमित्त से आत्मा आत्मा में ज्ञान दर्शन गुणकर भरे और पर से हटे रहने के स्वभाव से परिणमता है और इस पर से हटे रहने के स्वभाव से वर्त रहे आत्मा के निमित्त से यह बाह्य वस्तु त्याज्य का विपदेश होता है। यों परस्पर निमित्तनैमित्तिक संबंधवश व्यवहार में यह कहा जाता है कि ज्ञाता आत्मा परवस्तुओं का त्याग करता है। परवस्तुओं का यह त्यागी है। </p> | |||
<p><strong>त्याग के मर्म की अनभिज्ञता में पूर्ववत् ढर्रा</strong>―भैया ! अज्ञानी जीव त्याग करके त्याग के विकल्प को ऐसा चिपटाते हैं कि उनका त्याग हो ही नहीं पाता है और उस त्याग के माने हुए वातावरण में इतनी ममता होती है कि त्याग के रहस्य से दूर हो जाते हैं। किसी वस्तु का त्याग किया अथवा जैसे नहा धोकर शुद्ध होकर परवस्तु को छूने का त्याग किया, अब कदाचित् हम अपनी ओर से अपने त्याग को भंग कर किसी दूसरी चीज को ग्रहण करें तब तो हमारे त्याग में दोष आया और कोई जबरदस्ती किसी चीज का स्पर्श कराये तो त्याग का वहां भंग कहां हुआ ? वह तो शांति की एक परीक्षा हो रही है, लेकिन त्याग के विकल्प को जिसने ग्रहण कर रखा है उसको ऐसे प्रसंग में क्रोध आ जाया करता है। त्याग किसलिए किया था कि मेरे क्रोध, मान, माया, लोभ―ये चारों कषाय न जगे और इन चारों कषायों के जगने का माध्यम त्याग बना लिया तो जैसे पहिले थे वैसे ही अब हैं। </p> | |||
परद्रव्य के त्याग का व्यवहार | <p><strong>त्याग के विकल्प की ममता में त्याग से वंचना</strong>―एक पुरूष बेवकूफ सा था। उसको लो मूरखचंद के नाम से पुकारा करते थे। सो चिढ़कर वह गांव छोड़कर भाग गया कि इस गांव के आदमी बड़े खराब हैं, हमको मूरखचंद कहते हैं। सो गांव के बाहर जाकर एक कुंवा पर बैठ गया, कुंवा में पैर लटका लिया और उसकी पाट पर बैठ गया। इतने में कोई मुसाफिर निकला। मुसाफिर बोला कि अरे मूरखचंद यहां कहां बैठे हो ? तो वह झट उठकर उस मुसाफिर के गले में लग गया। पूछा कि भाई तुमने कैसे जाना कि मेरा नाम मूरखचंद है ? वह मुसाफिर बोला कि मुझे किसी ने नहीं बताया, मुझे तो तेरी करतूत ने बताया। तो जिसको त्याग के रहस्य का पता नहीं है वह त्याग के विकल्पों को अपनाकर त्याग से विमुख रहा करते हैं। </p> | ||
<p><strong>त्यागमय अंत:परिणाम</strong>―भैया ! जितने भी परभाव हैं वे सब औपाधिक हैं, मेरे नहीं है। ऐसे परिणामों की दृढ़ता का नाम त्याग है। और यही त्याग मेरा पुष्ट हो सके, परभावों को अपना न मान सकने के लिए आश्रयभूत बाह्यपदार्थों का त्याग किया जाता है, ऐसे त्याग का भाव करने वाला यह ज्ञानी अपने आत्मा में अपने गुणों से भरपूर, परिपूर्ण है, अपने में स्वतंत्र है, अपने आपका स्वामी है और ये बाह्य पदार्थ अपने-अपने अनुकूल परिणमते हुए सब अपने-अपने में स्वतंत्र है। किसी पदार्थ का कोई दूसरा पदार्थ क्या लगे ? कुछ भी तो नहीं है। लेकिन अज्ञानीजन व्यवहार की बातों को परमार्थ की बात मान लेते हैं किंतु ज्ञानीजीव व्यवहार की बातों को व्यवहारदृष्टि से यथार्थ मानते हैं। किसी मूल आधार से आगे स्वच्छंद बढ़ने में तो विडंबना है। <strong>त्याग के प्रयोजन से चिगने में विडंबना</strong>―एक श्रावक था, सो उसको रात को कोई चीज खाने का त्याग था। केवल दूध रखा था सो रात को दूध रोज पीते थे। तो स्त्री ने दूध जरा ज्यादा गाढ़ा करना शुरू कर दिया। थोड़ा गाढ़ा पीने लगे तो स्त्री ने और गाढ़ा कर दिया। अरे हमारे तो इस चीज का त्याग है। केवल थोड़ा दूध रखा है। अरे तो दूध ही तो है, थोड़ा गाढ़ा हो गया। इसमें दोष नहीं है। फिर रबड़ी बन गयी तो कहा कि चीज तो वही है, जरा और गाढ़ा हो गया। यों चलते चलते खोवा भी बन गया। कोई दूसरी चीज हो तो मत खावो। अरे दूध ही तो जरा सा गाढ़ा हो गया। </p> | |||
<p><strong>त्यागमर्म से अपरिचित पुरूषों की विडंबनावों के कुछ नमूने–</strong>भैया ! त्याग का मतलब तो विकल्प न करना था। अब त्याग करते हैं और उसमें कोई मार्ग ढूँढ़ते हैं। आज नमक का त्यागी है तो आज हलुवा बनना चाहिए। अरे त्याग का तो मतलब था कि विकल्प न उत्पन्न हो और हम अपने आत्मा के अनुभवने के लि मौका पायें। अनुभवने का मौका बनाना तो लक्ष्य में रहा नहीं, यहां तो त्याग का निभाना ही लक्ष्य में है। नमक का त्याग किया तो नमक न आ पावे। आज हमारे दाल का त्याग है तो देखो दाल की कलछुली साग में न लग जाय। अरे अगर सूखी दाल की कलछुली साग में आ गयी तो घबड़ाते क्यों हो और क्रोध क्यों करते हो ? प्रयोजन तो उस वस्तु के रस को न ग्रहण करने का था। तो कितनी ही ऐसी विडंबनाएँ हो जाती हैं कि जिसके पीछे अब रसोईघर में 5 कलछुली और खरीदें क्योंकि घर में एक त्यागी जी हो गए हैं। अरे भैया ! कलछुली को बचावो तो अभक्ष्य से बचावो। भक्ष्य चीज में जिस चीज का त्याग किया जाता है उसका रहस्य है कि इस पदार्थ का रस न मुझे आए। रस का स्वाद लेने का मेरा त्याग है। प्रयोजन का ठीक-ठीक पता नहीं है। थोड़ा विवेक तो रखना चाहिए। कलछुली के प्रयोग अलग अलग हों यह इसलिए तो ठीक है कि फिर रसत्याग का भाव ही मिट जायेगा, अगर कदाचित् किसी समय कोई कलछुली लग भी जाय तो यह ऐसे दोष वाली बात नहीं है कि जिसके पीछे क्रोध नाम का महादोष पैदा कर लिया जाय। </p> | |||
<p><strong>त्याग का प्रयोजन और फल</strong>―भैया ! जिसका परवस्तु के त्याग करने में त्यागमात्र की ही दृष्टि है, त्याग के प्रयोजन की दृष्टि नहीं है उन्हें त्याग का फल मिल नहीं पाता। त्याग का फल है शांति। त्याग का फल है संसार से पार होना। त्याग का फल है संकटों से बचना। घर में कोई चीज आए और चार बच्चों में से एक बच्चे को दे दी, तीन बच्चों को न दी। होते होंगे कोई ऐसे पक्षपाती लोग, सो बाकी 3 लड़के मौका पाकर उसकी मुट्ठी खोलने लगे, कोई हाथ झकझोरने लगे। अब संकट आया। अब उस बच्चे को संकट से बचने का उपाय यह है कि चीज को त्याग दे। फिर काहे कोई थप्पड़ मारे, काहे कोई हाथ झकझोरे ? त्याग करे तो बच्चा संकटों में न आए। लोक में कितनी ही बातें ऐसी हैं कि संकटों से बचने का उपाय वहां त्याग नजर आता है और जहां संकट ही इसी का नाम का है कि परवस्तु को अपना मानना, अपनाना तो वहाँ त्याग बिना गुजारा ही नहीं हो सकता, पर को उपयोग में ग्रहण किए हुए है, उसका बोझ लदा है, चिंता बन गयी है, उसके संकट त्याग से ही मिट सकते हैं।</p> | |||
त्याग के मर्म की अनभिज्ञता में पूर्ववत् | <p><strong>त्याग का अभिरूप</strong>―भैया ! त्याग अंतरंग में करना है, बाहर के त्याग का प्रयोजन भी अंतरंग में विभावों का त्याग है। इस कारण इन दोनों का मेल रखते हुए, द्रव्यानुयोग संबंधी त्याग और चरणानुयोग संबंधी त्याग दोनों का मेल रखकर जो त्यागवृत्ति आती है वह कार्यकर होती है। त्याग नाम ज्ञान का है। परमार्थ से व्याख्या की जा रही है, अमुक परपदार्थ मेरा है ऐसा विकल्प करने का नाम तो असंयम है और कोई पर मेरा नहीं है, मैं तो यह ज्ञानमात्र हूँ, इस प्रकार के अमली ज्ञान का नाम संयम है। <strong>त्याग में अंत:स्वरूप का एक दृष्टांत</strong>―जैसे आपने और आपके पड़ोसी ने अपनी-अपनी एक-एक चादर एक ही धोबी के यहां धुलने को दे दी। दो दिन बाद आप धोबी के यहां चले गए और चादर ले आए और उस चादर को तानकर आप सो गए। दो चार घंटे के बाद में पड़ोसी गया अपनी चादर लेने। दे दी चादर धोबी ने, पर उस चादर को देखकर कहता है कि यह मेरी चादर नहीं है। इसमें मेरे चिन्ह नहीं नजर आते हैं। धोबी बोला-अहो वह चादर तो बदल गयी है। तुम्हारे पड़ौस में अमुक रहता है ना, उसके यहां पहुंच गयी है। सो वह उस चादर को न लेकर खाली हाथ चला आया और जो चादर ताने सो रहा था उसे जगाया। चादर का खूँट खींचा। जगने पर कहा कि भार्इ यह चादर मेरी है, तुम्हारी नहीं है, बदल गयी है। तब वह अपनी चादर के निशान देखने लगा। उसकी चादर में जो निशान थे देखा कि उसमें नहीं हैं। इतना ज्ञान होते ही उसके चित्त में समा गया कि यह मेरी चादर नहीं है। तो ज्ञान में त्याग आ गया कि नहीं ? आ गया, पर अभी उतार कर देने में थोड़ा विलंब लगेगा। अंतर में उसके विशुद्ध त्याग हो गया। </p> | ||
<p><strong>दृष्टांत में ज्ञानी का त्याग विषयक अंत:निर्णय</strong>―कदाचित् कुछ लोभवश वह कहेगा कि मेरी चादर मिले तब दूंगा। जैसे कितने ही ईमानदार लोग अपने जूते उतार कर सभा में प्रवचन सुनने आते हैं ना और उनके जूता कोई दूसरा ले जाय और दूसरे के जूता खाली मिल जायें तो वह अपनी गणित लगा लेता है। किसी ने चारी की, वह हमारे लिए ये छोड़ गया है। तो उसको पहिन कर चला जाता है। यह ईमानदारी नहीं है। ईमानदारी तो यह है कि रोनी सी सूरत लेकर घर भाग आयें कि हमारे जूती खो गए हैं। तो कदाचित् वह थोड़ा इस लोभ की वजह से कि हमें मिलेगा चादर दूसरी तो यह देंगे, वह इतना भी कह देता हैं कि बतलावो हमारी चादर कहां है ? ऐसा भी चाहे कहे, पर अंतरंग में उसके यह ज्ञान जग गया है कि यह चादर मेरी नहीं है। इस भीतर के आशय को कौन बदल सकेगा और फिर कितना ही वह लड़े, आखिर देना ही तो है यह निर्णय उसके बराबर है। दूसरा पुरूष जब उसकी चादर लेता है और वह देख लेता है तो तुरंत उस चादर का त्याग कर देता है। त्याग तो उसने तभी कर दिया था जब ज्ञान जगा था कि यह मेरी चादर नहीं है। </p> | |||
<p><strong>त्याग का स्वरूप और उपाय सम्यग्ज्ञान</strong>―इसी प्रकार ये परवस्तु मेरी कुछ नहीं हैं, ये अपने स्वरूप से प्रवर्त रहे हैं, मैं अपने स्वरूप में रह रहा हूँ, ये बाह्य पदार्थ मेरे कुछ नहीं हैं और इन बाह्य पदार्थों का लक्ष्य करके जो मेरे में भाव बन रहा है यह भाव भी मेरा नहीं है। इस प्रकार का ज्ञान जग जाना सो वास्तव में त्याग है और उस ज्ञान की स्थिरता रह सके उसी का उपाय बाह्य वस्तुओं को हटा देना है और अपने आपको संविक्त बना लेता है। कोई करे तो, यही उसके सही त्याग की दिशा है, इस त्याग के फल में इस आत्मा को मिलता क्या है ? अपने आप में अनाकुलता। </p> | |||
<p>भैया ! त्याग से ही संसार पार किया जा सकता है, ऐसा ही व्याख्यान एक साधु का हो रहा था। बड़े-बड़े सेठ सुनने आते थे। एक दिन वह साधु दूसरे गांव को जाने लगा तो रास्ते में एक नदी पड़ी । जैसे मान लो चंबल नदी पड़ी क्योंकि यहां से पूरब को जाना हो तो चंबल ही पड़ेगी। तो नाविक से कहा कि हमें नदी पार करा दो। तो नाविक ने कहा कि दो आने पैसे देने पड़ेंगे। साधु बोला कि पैसे नहीं हैं। तो नाविक बोला कि ऐसे नहीं पार किया जायेगा। साधु ने सोचा कि अच्छा उस पार न सही इसी पार सही। वह उसी किनारे बैठा रहा। कुछ देर बाद एक सेठ जी आए। सेठ जी ने पूछा कि महाराज आपको कहां जाना है ? तो साधु बोले कि हमें तो नदी के उस पार जाना है। तो सेठ ने दो आने अपने और दो आने साधु के देकर नदी पार किया। पार होकर सेठ साधु से पूछता है कि महाराज आप तो यह कह रहे थे कि त्याग से इस संसार समुद्र को परा कर लिया जाता है पर महाराज आप तो यह छोटी सी नदी भी नहीं पार कर सके। तो साधु बोला कि देखो यह नदी त्याग से ही पार हुए हैं। तुम्हारी चवन्नी यदि अंटी में ही दबी रहती उसका त्याग नहीं करते तो नदी कैसे पार कर सकते थे ? यह नदी त्याग से ही पार की गयी और संसार समुद्र समस्त वस्तुवों के त्याग करने से ही पार किया जा सकता है। <strong>निजग्रहण अपरनाम परपरिहार</strong>―त्याग नाम है पर से विविक्त ज्ञानमात्र आत्मा की ओर रहने का। बाहरी चीजों का कौन त्याग कर सकेगा ? जैसे हरी का त्याग करते हैं ना। जब नाम लेकर हरी का त्याग करें तो कहां तक लाखों हरियों का त्याग किया जाय। तो 10-5 हरी का नाम लिखकर शेष सबका त्याग कहा जाता है, संसार में अनंत पदार्थ हैं, उन सबसे मैं न्यारा ज्ञानमात्र हूँ, ऐसे परिणाम का नाम परमार्थ से त्याग है और यह त्यागी इस त्यागी का ही है परद्रव्य का त्यागी नहीं है। </p> | |||
त्यागमय अंत: | <p>जिस प्रकार यह आत्मा परद्रव्य का ज्ञायक नहीं है, परद्रव्य का दर्शक नहीं है, परद्रव्यों का त्यागी नहीं है इसी प्रकार यह आत्मा परद्रव्यों का श्रद्धानकर्ता भी नहीं है। इस बात का वर्णन अब इस गाथा में करते हैं। </p> | ||
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त्यागमर्म से अपरिचित पुरूषों की विडंबनावों के कुछ | |||
त्याग का प्रयोजन और | |||
त्याग का | |||
भैया ! त्याग से ही संसार पार किया जा सकता है, ऐसा ही व्याख्यान एक साधु का हो रहा था। बड़े-बड़े सेठ सुनने आते थे। एक दिन वह साधु दूसरे गांव को जाने लगा तो रास्ते में एक नदी पड़ी । जैसे मान लो चंबल नदी पड़ी क्योंकि यहां से पूरब को जाना हो तो चंबल ही पड़ेगी। तो नाविक से कहा कि हमें नदी पार करा दो। तो नाविक ने कहा कि दो आने पैसे देने पड़ेंगे। साधु बोला कि पैसे नहीं हैं। तो नाविक बोला कि ऐसे नहीं पार किया जायेगा। साधु ने सोचा कि अच्छा उस पार न सही इसी पार सही। वह उसी किनारे बैठा रहा। कुछ देर बाद एक सेठ जी आए। सेठ जी ने पूछा कि महाराज आपको कहां जाना है ? तो साधु बोले कि हमें तो नदी के उस पार जाना है। तो सेठ ने दो आने अपने और दो आने साधु के देकर नदी पार किया। पार होकर सेठ साधु से पूछता है कि महाराज आप तो यह कह रहे थे कि त्याग से इस संसार समुद्र को परा कर लिया जाता है पर महाराज आप तो यह छोटी सी नदी भी नहीं पार कर सके। तो साधु बोला कि देखो यह नदी त्याग से ही पार हुए हैं। तुम्हारी चवन्नी यदि अंटी में ही दबी रहती उसका त्याग नहीं करते तो नदी कैसे पार कर सकते थे ? यह नदी त्याग से ही पार की गयी और संसार समुद्र समस्त वस्तुवों के त्याग करने से ही पार किया जा सकता है। | |||
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Latest revision as of 12:32, 20 September 2021
जह परदव्वं सेडदि हु सेडिया अप्पणो सहावेव।तह परदव्वं विजहइ णायावि सयेण भावेण।।363।।
परद्रव्य के त्याग का व्यवहार वचन―जैसे सेटिका अपने स्वभाव से परद्रव्य को सफेद करता है, इस ही प्रकार ज्ञाता भी अपने भाव से परद्रव्य को त्यागता है। यह व्यवहार का भाषित वचन है। जैसे खड़िया जो श्वेत गुणकर भरे स्वभाव वाला है, वह भींतादिक परद्रव्यों के निमित्त से, अपने श्वेतगुण के परिणमन से उत्पन्न हो रही है, खड़िया परद्रव्य के स्वभाव से नहीं परिणमती और न परद्रव्य को खड़िया अपने स्वभाव से परिणमाती, फिर भी इन दोनों का परस्पर में निमित्तनैमित्तिक संबंध है। भींत का आधारभूत निमित्त पाकर यह खड़िया इस तरह से फैल गयी और खड़िया का निमित्त पाकर भींत का यथार्थ स्वरूप तिरोहित हो गया और व्यक्तरूप श्वेत हो गया, ऐसा उनमें परस्पर निमित्तनैमित्तिक संबंध है। इस ही कारण व्यवहार से यह कहा जाता है कि जैसे खड़िया ने भींत को सफेदी की, ऐसे ही इस त्याग परिणाम वाले आत्मा ने त्याग की जाने वाली परवस्तु को त्यागा। पर में पर के त्याग के संबंध का अनमेल―अपोहक आत्मा में और अपोह्य परद्रव्य में कोई संबंध नहीं है। यह त्यागी अपने आपमें अपना परिणमन बनाता है। बाह्य वस्तु अपने आप में अपनी परिणति से रहते हैं, इस त्यागी का त्याज्य पदार्थ के साथ कोई संबंध नहीं है, फिर भी परवस्तु का लक्ष्य करके इसने त्याग परिणाम बनाया और त्याग परिणाम बनाने वाले आत्मा के परिणमन को लक्ष्य में लेकर ज्ञानी जीव परवस्तु में त्याज्य शब्द का व्यपदेश करता है। ऐसा परस्पर में निमित्तनैमित्तिक संबंध है। इस कारण व्यवहार में यों कहा जाता है कि ज्ञाता आत्मा ने परद्रव्य का त्याग किया। शब्दानुसार यह इतना बेमेल कथन है कि त्याग की तो बात कह रहे हैं और संबंध जोड़ रहे हैं। जैसे कोई कहते हैं कि मैं अमुक का मित्र हू, अमुक का भाई हूँ, कोई कहते कि मैं अमुक का त्यागी हूँ। तो त्याग की बात कह रहे हैं और संबंध जोड़ रहे हैं। जैसे कोई कहे कि यह मेरा मित्र हैं तो उससे प्यार भरी बात ही तो कही गयी। यह मेरा मित्र है ऐसा कह देने में प्यार भरा है और यह मेरा दुश्मन है यह भी प्यार भरी बात है क्योंकि उसे अपना तो बना लिया। मैं अमुक का त्यागी हूं, यों कहने में किसी परवस्तु का संबंध जोड़ा जा रहा है। अपोहक व अपोह्य में संबंध व्यपदेश का कारण―यह आत्मा तो ज्ञान दर्शन गुणकर भरा हुआ और दूसरों से हटे रहने के स्वभाव वाला है। परवस्तु से यह जीव आज तक कभी मिल नहीं सकता, शंकर नहीं हो सकता, निगोद जैसी दशा में भी रहा परंतु जीव ने अपना स्वभाव नहीं तजा। तो दूसरे पदार्थों से हटे रहने का स्वभाव ही है। यह स्वयं पुद्गलादिक परद्रव्यों के स्वभाव से नहीं परिणमता और पुद्गलादिक परद्रव्यों को अपने स्वभाव से नहीं परिणमाता, लेकिन पुद्गलादिक परद्रव्यों के निमित्त से आत्मा आत्मा में ज्ञान दर्शन गुणकर भरे और पर से हटे रहने के स्वभाव से परिणमता है और इस पर से हटे रहने के स्वभाव से वर्त रहे आत्मा के निमित्त से यह बाह्य वस्तु त्याज्य का विपदेश होता है। यों परस्पर निमित्तनैमित्तिक संबंधवश व्यवहार में यह कहा जाता है कि ज्ञाता आत्मा परवस्तुओं का त्याग करता है। परवस्तुओं का यह त्यागी है।
त्याग के मर्म की अनभिज्ञता में पूर्ववत् ढर्रा―भैया ! अज्ञानी जीव त्याग करके त्याग के विकल्प को ऐसा चिपटाते हैं कि उनका त्याग हो ही नहीं पाता है और उस त्याग के माने हुए वातावरण में इतनी ममता होती है कि त्याग के रहस्य से दूर हो जाते हैं। किसी वस्तु का त्याग किया अथवा जैसे नहा धोकर शुद्ध होकर परवस्तु को छूने का त्याग किया, अब कदाचित् हम अपनी ओर से अपने त्याग को भंग कर किसी दूसरी चीज को ग्रहण करें तब तो हमारे त्याग में दोष आया और कोई जबरदस्ती किसी चीज का स्पर्श कराये तो त्याग का वहां भंग कहां हुआ ? वह तो शांति की एक परीक्षा हो रही है, लेकिन त्याग के विकल्प को जिसने ग्रहण कर रखा है उसको ऐसे प्रसंग में क्रोध आ जाया करता है। त्याग किसलिए किया था कि मेरे क्रोध, मान, माया, लोभ―ये चारों कषाय न जगे और इन चारों कषायों के जगने का माध्यम त्याग बना लिया तो जैसे पहिले थे वैसे ही अब हैं।
त्याग के विकल्प की ममता में त्याग से वंचना―एक पुरूष बेवकूफ सा था। उसको लो मूरखचंद के नाम से पुकारा करते थे। सो चिढ़कर वह गांव छोड़कर भाग गया कि इस गांव के आदमी बड़े खराब हैं, हमको मूरखचंद कहते हैं। सो गांव के बाहर जाकर एक कुंवा पर बैठ गया, कुंवा में पैर लटका लिया और उसकी पाट पर बैठ गया। इतने में कोई मुसाफिर निकला। मुसाफिर बोला कि अरे मूरखचंद यहां कहां बैठे हो ? तो वह झट उठकर उस मुसाफिर के गले में लग गया। पूछा कि भाई तुमने कैसे जाना कि मेरा नाम मूरखचंद है ? वह मुसाफिर बोला कि मुझे किसी ने नहीं बताया, मुझे तो तेरी करतूत ने बताया। तो जिसको त्याग के रहस्य का पता नहीं है वह त्याग के विकल्पों को अपनाकर त्याग से विमुख रहा करते हैं।
त्यागमय अंत:परिणाम―भैया ! जितने भी परभाव हैं वे सब औपाधिक हैं, मेरे नहीं है। ऐसे परिणामों की दृढ़ता का नाम त्याग है। और यही त्याग मेरा पुष्ट हो सके, परभावों को अपना न मान सकने के लिए आश्रयभूत बाह्यपदार्थों का त्याग किया जाता है, ऐसे त्याग का भाव करने वाला यह ज्ञानी अपने आत्मा में अपने गुणों से भरपूर, परिपूर्ण है, अपने में स्वतंत्र है, अपने आपका स्वामी है और ये बाह्य पदार्थ अपने-अपने अनुकूल परिणमते हुए सब अपने-अपने में स्वतंत्र है। किसी पदार्थ का कोई दूसरा पदार्थ क्या लगे ? कुछ भी तो नहीं है। लेकिन अज्ञानीजन व्यवहार की बातों को परमार्थ की बात मान लेते हैं किंतु ज्ञानीजीव व्यवहार की बातों को व्यवहारदृष्टि से यथार्थ मानते हैं। किसी मूल आधार से आगे स्वच्छंद बढ़ने में तो विडंबना है। त्याग के प्रयोजन से चिगने में विडंबना―एक श्रावक था, सो उसको रात को कोई चीज खाने का त्याग था। केवल दूध रखा था सो रात को दूध रोज पीते थे। तो स्त्री ने दूध जरा ज्यादा गाढ़ा करना शुरू कर दिया। थोड़ा गाढ़ा पीने लगे तो स्त्री ने और गाढ़ा कर दिया। अरे हमारे तो इस चीज का त्याग है। केवल थोड़ा दूध रखा है। अरे तो दूध ही तो है, थोड़ा गाढ़ा हो गया। इसमें दोष नहीं है। फिर रबड़ी बन गयी तो कहा कि चीज तो वही है, जरा और गाढ़ा हो गया। यों चलते चलते खोवा भी बन गया। कोई दूसरी चीज हो तो मत खावो। अरे दूध ही तो जरा सा गाढ़ा हो गया।
त्यागमर्म से अपरिचित पुरूषों की विडंबनावों के कुछ नमूने–भैया ! त्याग का मतलब तो विकल्प न करना था। अब त्याग करते हैं और उसमें कोई मार्ग ढूँढ़ते हैं। आज नमक का त्यागी है तो आज हलुवा बनना चाहिए। अरे त्याग का तो मतलब था कि विकल्प न उत्पन्न हो और हम अपने आत्मा के अनुभवने के लि मौका पायें। अनुभवने का मौका बनाना तो लक्ष्य में रहा नहीं, यहां तो त्याग का निभाना ही लक्ष्य में है। नमक का त्याग किया तो नमक न आ पावे। आज हमारे दाल का त्याग है तो देखो दाल की कलछुली साग में न लग जाय। अरे अगर सूखी दाल की कलछुली साग में आ गयी तो घबड़ाते क्यों हो और क्रोध क्यों करते हो ? प्रयोजन तो उस वस्तु के रस को न ग्रहण करने का था। तो कितनी ही ऐसी विडंबनाएँ हो जाती हैं कि जिसके पीछे अब रसोईघर में 5 कलछुली और खरीदें क्योंकि घर में एक त्यागी जी हो गए हैं। अरे भैया ! कलछुली को बचावो तो अभक्ष्य से बचावो। भक्ष्य चीज में जिस चीज का त्याग किया जाता है उसका रहस्य है कि इस पदार्थ का रस न मुझे आए। रस का स्वाद लेने का मेरा त्याग है। प्रयोजन का ठीक-ठीक पता नहीं है। थोड़ा विवेक तो रखना चाहिए। कलछुली के प्रयोग अलग अलग हों यह इसलिए तो ठीक है कि फिर रसत्याग का भाव ही मिट जायेगा, अगर कदाचित् किसी समय कोई कलछुली लग भी जाय तो यह ऐसे दोष वाली बात नहीं है कि जिसके पीछे क्रोध नाम का महादोष पैदा कर लिया जाय।
त्याग का प्रयोजन और फल―भैया ! जिसका परवस्तु के त्याग करने में त्यागमात्र की ही दृष्टि है, त्याग के प्रयोजन की दृष्टि नहीं है उन्हें त्याग का फल मिल नहीं पाता। त्याग का फल है शांति। त्याग का फल है संसार से पार होना। त्याग का फल है संकटों से बचना। घर में कोई चीज आए और चार बच्चों में से एक बच्चे को दे दी, तीन बच्चों को न दी। होते होंगे कोई ऐसे पक्षपाती लोग, सो बाकी 3 लड़के मौका पाकर उसकी मुट्ठी खोलने लगे, कोई हाथ झकझोरने लगे। अब संकट आया। अब उस बच्चे को संकट से बचने का उपाय यह है कि चीज को त्याग दे। फिर काहे कोई थप्पड़ मारे, काहे कोई हाथ झकझोरे ? त्याग करे तो बच्चा संकटों में न आए। लोक में कितनी ही बातें ऐसी हैं कि संकटों से बचने का उपाय वहां त्याग नजर आता है और जहां संकट ही इसी का नाम का है कि परवस्तु को अपना मानना, अपनाना तो वहाँ त्याग बिना गुजारा ही नहीं हो सकता, पर को उपयोग में ग्रहण किए हुए है, उसका बोझ लदा है, चिंता बन गयी है, उसके संकट त्याग से ही मिट सकते हैं।
त्याग का अभिरूप―भैया ! त्याग अंतरंग में करना है, बाहर के त्याग का प्रयोजन भी अंतरंग में विभावों का त्याग है। इस कारण इन दोनों का मेल रखते हुए, द्रव्यानुयोग संबंधी त्याग और चरणानुयोग संबंधी त्याग दोनों का मेल रखकर जो त्यागवृत्ति आती है वह कार्यकर होती है। त्याग नाम ज्ञान का है। परमार्थ से व्याख्या की जा रही है, अमुक परपदार्थ मेरा है ऐसा विकल्प करने का नाम तो असंयम है और कोई पर मेरा नहीं है, मैं तो यह ज्ञानमात्र हूँ, इस प्रकार के अमली ज्ञान का नाम संयम है। त्याग में अंत:स्वरूप का एक दृष्टांत―जैसे आपने और आपके पड़ोसी ने अपनी-अपनी एक-एक चादर एक ही धोबी के यहां धुलने को दे दी। दो दिन बाद आप धोबी के यहां चले गए और चादर ले आए और उस चादर को तानकर आप सो गए। दो चार घंटे के बाद में पड़ोसी गया अपनी चादर लेने। दे दी चादर धोबी ने, पर उस चादर को देखकर कहता है कि यह मेरी चादर नहीं है। इसमें मेरे चिन्ह नहीं नजर आते हैं। धोबी बोला-अहो वह चादर तो बदल गयी है। तुम्हारे पड़ौस में अमुक रहता है ना, उसके यहां पहुंच गयी है। सो वह उस चादर को न लेकर खाली हाथ चला आया और जो चादर ताने सो रहा था उसे जगाया। चादर का खूँट खींचा। जगने पर कहा कि भार्इ यह चादर मेरी है, तुम्हारी नहीं है, बदल गयी है। तब वह अपनी चादर के निशान देखने लगा। उसकी चादर में जो निशान थे देखा कि उसमें नहीं हैं। इतना ज्ञान होते ही उसके चित्त में समा गया कि यह मेरी चादर नहीं है। तो ज्ञान में त्याग आ गया कि नहीं ? आ गया, पर अभी उतार कर देने में थोड़ा विलंब लगेगा। अंतर में उसके विशुद्ध त्याग हो गया।
दृष्टांत में ज्ञानी का त्याग विषयक अंत:निर्णय―कदाचित् कुछ लोभवश वह कहेगा कि मेरी चादर मिले तब दूंगा। जैसे कितने ही ईमानदार लोग अपने जूते उतार कर सभा में प्रवचन सुनने आते हैं ना और उनके जूता कोई दूसरा ले जाय और दूसरे के जूता खाली मिल जायें तो वह अपनी गणित लगा लेता है। किसी ने चारी की, वह हमारे लिए ये छोड़ गया है। तो उसको पहिन कर चला जाता है। यह ईमानदारी नहीं है। ईमानदारी तो यह है कि रोनी सी सूरत लेकर घर भाग आयें कि हमारे जूती खो गए हैं। तो कदाचित् वह थोड़ा इस लोभ की वजह से कि हमें मिलेगा चादर दूसरी तो यह देंगे, वह इतना भी कह देता हैं कि बतलावो हमारी चादर कहां है ? ऐसा भी चाहे कहे, पर अंतरंग में उसके यह ज्ञान जग गया है कि यह चादर मेरी नहीं है। इस भीतर के आशय को कौन बदल सकेगा और फिर कितना ही वह लड़े, आखिर देना ही तो है यह निर्णय उसके बराबर है। दूसरा पुरूष जब उसकी चादर लेता है और वह देख लेता है तो तुरंत उस चादर का त्याग कर देता है। त्याग तो उसने तभी कर दिया था जब ज्ञान जगा था कि यह मेरी चादर नहीं है।
त्याग का स्वरूप और उपाय सम्यग्ज्ञान―इसी प्रकार ये परवस्तु मेरी कुछ नहीं हैं, ये अपने स्वरूप से प्रवर्त रहे हैं, मैं अपने स्वरूप में रह रहा हूँ, ये बाह्य पदार्थ मेरे कुछ नहीं हैं और इन बाह्य पदार्थों का लक्ष्य करके जो मेरे में भाव बन रहा है यह भाव भी मेरा नहीं है। इस प्रकार का ज्ञान जग जाना सो वास्तव में त्याग है और उस ज्ञान की स्थिरता रह सके उसी का उपाय बाह्य वस्तुओं को हटा देना है और अपने आपको संविक्त बना लेता है। कोई करे तो, यही उसके सही त्याग की दिशा है, इस त्याग के फल में इस आत्मा को मिलता क्या है ? अपने आप में अनाकुलता।
भैया ! त्याग से ही संसार पार किया जा सकता है, ऐसा ही व्याख्यान एक साधु का हो रहा था। बड़े-बड़े सेठ सुनने आते थे। एक दिन वह साधु दूसरे गांव को जाने लगा तो रास्ते में एक नदी पड़ी । जैसे मान लो चंबल नदी पड़ी क्योंकि यहां से पूरब को जाना हो तो चंबल ही पड़ेगी। तो नाविक से कहा कि हमें नदी पार करा दो। तो नाविक ने कहा कि दो आने पैसे देने पड़ेंगे। साधु बोला कि पैसे नहीं हैं। तो नाविक बोला कि ऐसे नहीं पार किया जायेगा। साधु ने सोचा कि अच्छा उस पार न सही इसी पार सही। वह उसी किनारे बैठा रहा। कुछ देर बाद एक सेठ जी आए। सेठ जी ने पूछा कि महाराज आपको कहां जाना है ? तो साधु बोले कि हमें तो नदी के उस पार जाना है। तो सेठ ने दो आने अपने और दो आने साधु के देकर नदी पार किया। पार होकर सेठ साधु से पूछता है कि महाराज आप तो यह कह रहे थे कि त्याग से इस संसार समुद्र को परा कर लिया जाता है पर महाराज आप तो यह छोटी सी नदी भी नहीं पार कर सके। तो साधु बोला कि देखो यह नदी त्याग से ही पार हुए हैं। तुम्हारी चवन्नी यदि अंटी में ही दबी रहती उसका त्याग नहीं करते तो नदी कैसे पार कर सकते थे ? यह नदी त्याग से ही पार की गयी और संसार समुद्र समस्त वस्तुवों के त्याग करने से ही पार किया जा सकता है। निजग्रहण अपरनाम परपरिहार―त्याग नाम है पर से विविक्त ज्ञानमात्र आत्मा की ओर रहने का। बाहरी चीजों का कौन त्याग कर सकेगा ? जैसे हरी का त्याग करते हैं ना। जब नाम लेकर हरी का त्याग करें तो कहां तक लाखों हरियों का त्याग किया जाय। तो 10-5 हरी का नाम लिखकर शेष सबका त्याग कहा जाता है, संसार में अनंत पदार्थ हैं, उन सबसे मैं न्यारा ज्ञानमात्र हूँ, ऐसे परिणाम का नाम परमार्थ से त्याग है और यह त्यागी इस त्यागी का ही है परद्रव्य का त्यागी नहीं है।
जिस प्रकार यह आत्मा परद्रव्य का ज्ञायक नहीं है, परद्रव्य का दर्शक नहीं है, परद्रव्यों का त्यागी नहीं है इसी प्रकार यह आत्मा परद्रव्यों का श्रद्धानकर्ता भी नहीं है। इस बात का वर्णन अब इस गाथा में करते हैं।