युक्त्यनुशासन - गाथा 14: Difference between revisions
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<p><strong>स्यातामसंचेतित-कर्म च स्यात् ।</strong></p> | <p><strong>स्यातामसंचेतित-कर्म च स्यात् ।</strong></p> | ||
<p><strong>आकस्मिकेऽर्थे प्रलय स्वभावे</strong></p> | <p><strong>आकस्मिकेऽर्थे प्रलय स्वभावे</strong></p> | ||
<p><strong> </strong> <strong> | <p><strong> </strong> <strong>मार्गो न युक्तो वधकश्च न स्यात् ।।14।।</strong></p> | ||
<p><strong> (50) पदार्थों को आकस्मिक प्रलयस्वभावरूप मानने पर कृतप्रणाश व अकृतकर्मभोग व असंचलित कर्म का प्रसंग</strong>―यहाँ क्षणिकवादियों का यह मत है कि जिस समय पदार्थ उत्पन्न होता है उसी समय वह नष्ट हो जाता है याने पदार्थ का प्रलय स्वभाव है । प्रत्यय होने के लिए किसी कारण की आवश्यकता नहीं है । तो जैसे पदार्थ तन्मय होने का स्वभाव रखता है ऐसे ही कार्य की उत्पत्ति भी बिना कारण के आकस्मिक हो जाती है । क्षणिकवादी बौद्धों के यहाँ जीव जिस समय उत्पन्न होता है उसी समय नष्ट हो जाता है, दूसरे समय नहीं ठहरता । तो उसका विनाश होना भी बिना कारण के है और इसी तरह उसका उत्पाद होना भी बिना कारण के हैं, ऐसा क्षणिकवादियों का मत है, किंतु यह युक्तिसंगत नहीं है । कारण यह है कि यदि जीव बिना ही कारण नष्ट हो जाये तो पूर्वचित्त ने जो शुभ काम अथवा अशुभ काम किया उसके फल को वह तो न भोग सकेगा, क्योंकि जीव उत्पन्न हुआ और उसी समय मर गया, फिर नया जीव हुआ, ऐसा बौद्ध लोग मानते हैं । तो जो जीव नष्ट हो गया वह अपने किये का फल तो न भोग सकेगा । तब किए हुए कर्म निष्फल हो जायेंगे, और दूसरा जीव जिसने कर्म नहीं किया था, पूर्वचित्त ने किया था, अगर इसको भोगना पड़ा तो अकृतकर्मभोग हो गया । क्षणिकवाद में ये दो सबसे बड़ी आपत्तियां हैं कि जो करे वह तो फल भोगेगा नहीं, और जिसने किया नहीं, छुआ नहीं वह उसका फल भोगेगा । तो ये दो बड़े प्रसंग उपस्थित होते हैं, क्योंकि क्षणिकवाद का एक जीव दूसरे समय तक तो ठहरता नहीं । अगर आगे का जीव रहे तो उसकी यह बात बन सकेगी कि जिसने पुण्य-पाप किया उसी ने ही फल भोगा मगर जहाँ जीव क्षणिक है वहाँ यह कैसे सिद्ध हो सकता कि जिसने पुण्य-पाप किया वह फल भोग लेगा ।</p> | <p><strong> (50) पदार्थों को आकस्मिक प्रलयस्वभावरूप मानने पर कृतप्रणाश व अकृतकर्मभोग व असंचलित कर्म का प्रसंग</strong>―यहाँ क्षणिकवादियों का यह मत है कि जिस समय पदार्थ उत्पन्न होता है उसी समय वह नष्ट हो जाता है याने पदार्थ का प्रलय स्वभाव है । प्रत्यय होने के लिए किसी कारण की आवश्यकता नहीं है । तो जैसे पदार्थ तन्मय होने का स्वभाव रखता है ऐसे ही कार्य की उत्पत्ति भी बिना कारण के आकस्मिक हो जाती है । क्षणिकवादी बौद्धों के यहाँ जीव जिस समय उत्पन्न होता है उसी समय नष्ट हो जाता है, दूसरे समय नहीं ठहरता । तो उसका विनाश होना भी बिना कारण के है और इसी तरह उसका उत्पाद होना भी बिना कारण के हैं, ऐसा क्षणिकवादियों का मत है, किंतु यह युक्तिसंगत नहीं है । कारण यह है कि यदि जीव बिना ही कारण नष्ट हो जाये तो पूर्वचित्त ने जो शुभ काम अथवा अशुभ काम किया उसके फल को वह तो न भोग सकेगा, क्योंकि जीव उत्पन्न हुआ और उसी समय मर गया, फिर नया जीव हुआ, ऐसा बौद्ध लोग मानते हैं । तो जो जीव नष्ट हो गया वह अपने किये का फल तो न भोग सकेगा । तब किए हुए कर्म निष्फल हो जायेंगे, और दूसरा जीव जिसने कर्म नहीं किया था, पूर्वचित्त ने किया था, अगर इसको भोगना पड़ा तो अकृतकर्मभोग हो गया । क्षणिकवाद में ये दो सबसे बड़ी आपत्तियां हैं कि जो करे वह तो फल भोगेगा नहीं, और जिसने किया नहीं, छुआ नहीं वह उसका फल भोगेगा । तो ये दो बड़े प्रसंग उपस्थित होते हैं, क्योंकि क्षणिकवाद का एक जीव दूसरे समय तक तो ठहरता नहीं । अगर आगे का जीव रहे तो उसकी यह बात बन सकेगी कि जिसने पुण्य-पाप किया उसी ने ही फल भोगा मगर जहाँ जीव क्षणिक है वहाँ यह कैसे सिद्ध हो सकता कि जिसने पुण्य-पाप किया वह फल भोग लेगा ।</p> | ||
<p> <strong>(51) शंकाकार का एक तथ्य</strong>―शंकाकार ऐसा मंतव्य रखता है कि करता तो कोई है । जो करने वाला है वह तो अगले समय ठहरता नहीं, किंतु फल की परंपरा चलती रहती है । तो ऐसे मंतव्य में ये दो आपत्तियां आयीं कि जो करे वह तो फल भोगेगा नहीं और जो नहीं करता उसको फल भोगना पड़ता है । तीसरी बात दोष की यह आती है कि जिस चित्त ने कर्म करने का विचार किया उस चित्त का उसी क्षण निरन्वय विनाश हो गया और विचार न करने वाले आगामी चित्त का उस फल से संबंध बनाया तो मतलब वही हुआ कि अविचारित कार्य हो गया । जिसने विचार किया उसे तो फल मिला नहीं और जिसमें विचार नहीं किया उसे फल मिल गया । तो जीव को सर्वथा क्षणिक मानने पर कोई व्यवस्था नहीं ठहरती ।</p> | <p> <strong>(51) शंकाकार का एक तथ्य</strong>―शंकाकार ऐसा मंतव्य रखता है कि करता तो कोई है । जो करने वाला है वह तो अगले समय ठहरता नहीं, किंतु फल की परंपरा चलती रहती है । तो ऐसे मंतव्य में ये दो आपत्तियां आयीं कि जो करे वह तो फल भोगेगा नहीं और जो नहीं करता उसको फल भोगना पड़ता है । तीसरी बात दोष की यह आती है कि जिस चित्त ने कर्म करने का विचार किया उस चित्त का उसी क्षण निरन्वय विनाश हो गया और विचार न करने वाले आगामी चित्त का उस फल से संबंध बनाया तो मतलब वही हुआ कि अविचारित कार्य हो गया । जिसने विचार किया उसे तो फल मिला नहीं और जिसमें विचार नहीं किया उसे फल मिल गया । तो जीव को सर्वथा क्षणिक मानने पर कोई व्यवस्था नहीं ठहरती ।</p> |
Latest revision as of 17:31, 28 November 2021
कृत-प्रणाशाऽकृत कर्मभोगौ
स्यातामसंचेतित-कर्म च स्यात् ।
आकस्मिकेऽर्थे प्रलय स्वभावे
मार्गो न युक्तो वधकश्च न स्यात् ।।14।।
(50) पदार्थों को आकस्मिक प्रलयस्वभावरूप मानने पर कृतप्रणाश व अकृतकर्मभोग व असंचलित कर्म का प्रसंग―यहाँ क्षणिकवादियों का यह मत है कि जिस समय पदार्थ उत्पन्न होता है उसी समय वह नष्ट हो जाता है याने पदार्थ का प्रलय स्वभाव है । प्रत्यय होने के लिए किसी कारण की आवश्यकता नहीं है । तो जैसे पदार्थ तन्मय होने का स्वभाव रखता है ऐसे ही कार्य की उत्पत्ति भी बिना कारण के आकस्मिक हो जाती है । क्षणिकवादी बौद्धों के यहाँ जीव जिस समय उत्पन्न होता है उसी समय नष्ट हो जाता है, दूसरे समय नहीं ठहरता । तो उसका विनाश होना भी बिना कारण के है और इसी तरह उसका उत्पाद होना भी बिना कारण के हैं, ऐसा क्षणिकवादियों का मत है, किंतु यह युक्तिसंगत नहीं है । कारण यह है कि यदि जीव बिना ही कारण नष्ट हो जाये तो पूर्वचित्त ने जो शुभ काम अथवा अशुभ काम किया उसके फल को वह तो न भोग सकेगा, क्योंकि जीव उत्पन्न हुआ और उसी समय मर गया, फिर नया जीव हुआ, ऐसा बौद्ध लोग मानते हैं । तो जो जीव नष्ट हो गया वह अपने किये का फल तो न भोग सकेगा । तब किए हुए कर्म निष्फल हो जायेंगे, और दूसरा जीव जिसने कर्म नहीं किया था, पूर्वचित्त ने किया था, अगर इसको भोगना पड़ा तो अकृतकर्मभोग हो गया । क्षणिकवाद में ये दो सबसे बड़ी आपत्तियां हैं कि जो करे वह तो फल भोगेगा नहीं, और जिसने किया नहीं, छुआ नहीं वह उसका फल भोगेगा । तो ये दो बड़े प्रसंग उपस्थित होते हैं, क्योंकि क्षणिकवाद का एक जीव दूसरे समय तक तो ठहरता नहीं । अगर आगे का जीव रहे तो उसकी यह बात बन सकेगी कि जिसने पुण्य-पाप किया उसी ने ही फल भोगा मगर जहाँ जीव क्षणिक है वहाँ यह कैसे सिद्ध हो सकता कि जिसने पुण्य-पाप किया वह फल भोग लेगा ।
(51) शंकाकार का एक तथ्य―शंकाकार ऐसा मंतव्य रखता है कि करता तो कोई है । जो करने वाला है वह तो अगले समय ठहरता नहीं, किंतु फल की परंपरा चलती रहती है । तो ऐसे मंतव्य में ये दो आपत्तियां आयीं कि जो करे वह तो फल भोगेगा नहीं और जो नहीं करता उसको फल भोगना पड़ता है । तीसरी बात दोष की यह आती है कि जिस चित्त ने कर्म करने का विचार किया उस चित्त का उसी क्षण निरन्वय विनाश हो गया और विचार न करने वाले आगामी चित्त का उस फल से संबंध बनाया तो मतलब वही हुआ कि अविचारित कार्य हो गया । जिसने विचार किया उसे तो फल मिला नहीं और जिसमें विचार नहीं किया उसे फल मिल गया । तो जीव को सर्वथा क्षणिक मानने पर कोई व्यवस्था नहीं ठहरती ।
(52) क्षणिकवाद में मोक्षमार्ग की व्यवस्था की असंभवता―अब आगे और भी आपत्तियाँ देखिये―जीव को ऐसा क्षणिक माना शंकाकार ने कि वह प्रलय का स्वभाव ही लिए हुए है याने अगले समय में वह नष्ट हो ही जायेगा, ऐसी बात होने पर फिर मोक्ष का मार्ग ही नहीं रह सकता । क्षणिकवाद में भी बताया है कि समस्त आस्रवों का निरोध हो जाये उसको मोक्ष कहते हैं या चित्त निरंतर उत्पन्न होते रहते हैं, उनकी संतति नष्ट हो जाये तो मोक्ष हो जाये याने जब तक यह मानना है कि मैं आत्मा हूँ तब तक तो इसके संतति चलती है और संतति चलने से संसार बढ़ता है, और जिस किसी आत्मा ने यह बोध किया कि मैं वह नहीं हूँ, मैं तो हुआ और हुए के साथ ही नष्ट हो गया, उसकी वासना न बनी तो संतति नष्ट हो गई और मोक्ष हो जायेगा । तो यह मार्ग भी इस क्षणिकवाद में नहीं बन सकता जो नाशरूप को भी अहेतुक मान रहा, क्योंकि जब नाश को अहेतुक माना तो फिर मोक्ष की क्यों व्यवस्था बनाते? जो हुआ वह अकारण नष्ट हो ही जायेगा । फिर चित्त की संतति नष्ट हो उसके लिए उपाय क्यों करते, क्योंकि अब तो जीव को प्रलयस्वभावी मान लिया । हुआ तो होते के ही साथ वह नष्ट हो गया । तो नष्ट हो ही गया, अब चित्त-संतति तो अपने आप नष्ट हो गई, फिर उसके नाश के लिए ग्रंथ क्यों बनाये जाते हैं कि तपश्चरण करो, तत्त्वज्ञान करो; ऐसी फिर मोक्षमार्ग की रचना ही क्यों की जाती है? तात्पर्य यह है कि पदार्थ अगर स्वभाव से ही नष्ट हो जाता है तब फिर उसके नाश करने के लिए कारण बनाने की जरूरत नहीं, न कारण बनाना चाहिए और न कारण बनाने का कोई प्रयत्न करना चाहिए । तो क्षणिकवाद में मोक्षमार्ग की व्यवस्था नहीं बनती ।
(53) क्षणिकवाद में अन्याय, अत्याचार, हिंसा करने पर भी उसको हिंसक सिद्ध करने की असंभवता―और भी आपत्तियां सुनो । क्षणिकवाद में कि यहाँ कोई बंधक भी नहीं रह सकता । बंधक मायने हिंसक, क्योंकि प्रत्येक जीव प्रलय स्वभावरूप है, और उनका ऐसा प्रत्यय होना अकारण है । तो जिस चित्त ने हिंसा करने का विचार किया वह चित्त तो उसी क्षण नष्ट हो गया और जिस चित्त का बंध हुआ वह उसके प्रलयस्वभाव से ही आकस्मिक बंध हो गया, वह भी अकारण बंध हो गया । तो जिसने बंध का विचार किया वह नष्ट हो गया, उसको तो फल नहीं मिल रहा और जिसका बंध हुआ तो स्वभाव से ही विनाश हो गया उसमें अपराध दूसरे का क्यों? और उस संतति में जो अगला चित उत्पन्न हुआ वह विरुद्ध कैसे कहलायेगा ? जिसने बंध करने का विचार किया अपराधी तो वह है, सो वह तो तुरंत नष्ट हो गया । अब दूसरा जीव उत्पन्न हुआ तो उसे अपराधी कैसे कहा जा सकता? तो मतलब यह है कि हिंसक भी कोई नहीं ठहर सकता इस क्षणिकवाद में ।