युक्त्यनुशासन - गाथा 20: Difference between revisions
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<div class="PravachanText"><p><strong>मूकात्म-संवेद्यवदात्म- | <div class="PravachanText"><p><strong>मूकात्म-संवेद्यवदात्म-वेद्यं</strong></p> | ||
<p><strong> </strong> <strong> | <p><strong>तन्म्लिष्ट-भाषा-प्रतिम-प्रलापम् ।</strong></p> | ||
<p><strong>अनङ्ग-संज्ञं तदवेद्यमन्यै: </strong></p> | |||
<p><strong>स्यात्त्वद᳭द्विषां वाच्यमवाच्यतत्त्वम् ।।20।।</strong></p> | |||
<p> <strong>(77) मूकात्मसंवेद्यवत् विज्ञानाद्वैत के आत्मवेद्यत्व की सिद्धि की असंभवता</strong>―अब यहाँ विज्ञानाद्वैतवादी कहते हैं कि जैसे कोई गूंगा पुरुष है वह मुख से नहीं बोल सकता, मगर स्वसंवेदन तो वहाँ भी है । अपने ज्ञान में अनुभव है, सुख-दु:ख की वेदना है । तो उसका स्वसंवेदन आत्मवेद्य है मायने वह खुद के ही द्वारा खुद में अपने आप पर बीती हुई बात को समझता है । तो जैसे गूंगे पुरुष का स्वसंवेदन आत्मवेद्य है, अपने आपके द्वारा ही जाना जाता है उसी प्रकार यह विज्ञानाद्वैत तत्त्व भी आत्मवेद्य है मायने स्वयं-स्वयं के द्वारा जान लिया जाता है और आत्मवेद्य है, इस तरह के शब्दों द्वारा भी उस तत्त्व का कथन नहीं हो पाता, वह तत्त्व तो सुसंवेद्य ही है । उस तत्त्व का कथन जैसे गूंगा बताये अपनी बोली में तो उस गूंगे की आवाज में कहा समझ में नहीं आता, उसकी भाषा अस्पष्ट रहती है और वह प्रलाप मात्र है, इस कारण निरर्थक है याने गूंगा अपने पर बीती हुई बात का संवेदन तो कर लेता है, पर वह बता नहीं सकता । वह शब्दरूप नहीं है और साथ ही साथ यह भी समझना कि जब शब्द द्वारा नहीं बताया जा सकता है तो किसी अंग के संवेदन द्वारा भी नहीं बताया जा सकता । इस तरह तब वह विज्ञानमात्र तत्त्व न शब्दों के द्वारा बताया जा सकता है और न किसी अंग के संवेदन द्वारा बताया जा सकता, तो इसका अर्थ यही तो हुआ कि वह विज्ञानमात्र तत्त्व दूसरे के द्वारा अवेद्य है याने किसी चित्त की बात को कोई दूसरा चित्त नहीं जान सकता । और दूसरों के लिए उसका प्रतिपादन भी नहीं किया जा सकता, तब फिर यह विज्ञानाद्वैतवादी कुछ न बोले, मौन ही बैठा रहे और जो कोई बोलेगा तो समझिये वह विज्ञानाद्वैतवाद में नहीं है ।</p> | <p> <strong>(77) मूकात्मसंवेद्यवत् विज्ञानाद्वैत के आत्मवेद्यत्व की सिद्धि की असंभवता</strong>―अब यहाँ विज्ञानाद्वैतवादी कहते हैं कि जैसे कोई गूंगा पुरुष है वह मुख से नहीं बोल सकता, मगर स्वसंवेदन तो वहाँ भी है । अपने ज्ञान में अनुभव है, सुख-दु:ख की वेदना है । तो उसका स्वसंवेदन आत्मवेद्य है मायने वह खुद के ही द्वारा खुद में अपने आप पर बीती हुई बात को समझता है । तो जैसे गूंगे पुरुष का स्वसंवेदन आत्मवेद्य है, अपने आपके द्वारा ही जाना जाता है उसी प्रकार यह विज्ञानाद्वैत तत्त्व भी आत्मवेद्य है मायने स्वयं-स्वयं के द्वारा जान लिया जाता है और आत्मवेद्य है, इस तरह के शब्दों द्वारा भी उस तत्त्व का कथन नहीं हो पाता, वह तत्त्व तो सुसंवेद्य ही है । उस तत्त्व का कथन जैसे गूंगा बताये अपनी बोली में तो उस गूंगे की आवाज में कहा समझ में नहीं आता, उसकी भाषा अस्पष्ट रहती है और वह प्रलाप मात्र है, इस कारण निरर्थक है याने गूंगा अपने पर बीती हुई बात का संवेदन तो कर लेता है, पर वह बता नहीं सकता । वह शब्दरूप नहीं है और साथ ही साथ यह भी समझना कि जब शब्द द्वारा नहीं बताया जा सकता है तो किसी अंग के संवेदन द्वारा भी नहीं बताया जा सकता । इस तरह तब वह विज्ञानमात्र तत्त्व न शब्दों के द्वारा बताया जा सकता है और न किसी अंग के संवेदन द्वारा बताया जा सकता, तो इसका अर्थ यही तो हुआ कि वह विज्ञानमात्र तत्त्व दूसरे के द्वारा अवेद्य है याने किसी चित्त की बात को कोई दूसरा चित्त नहीं जान सकता । और दूसरों के लिए उसका प्रतिपादन भी नहीं किया जा सकता, तब फिर यह विज्ञानाद्वैतवादी कुछ न बोले, मौन ही बैठा रहे और जो कोई बोलेगा तो समझिये वह विज्ञानाद्वैतवाद में नहीं है ।</p> | ||
<p> <strong>(78) स्याद्वादशासनविद्वेषियों के मंतव्य की असंगतता</strong>―हे वीर जिनेंद्र ! जो आपके स्याद्वाद मत से द्वेष रखते हैं उन क्षणिकवादियों का, ज्ञानाद्वैतवादियों का जो कुछ भी यह कहना है कि विज्ञानमात्र तत्त्व अवाच्य है तो इन शब्दों से तो वाच्य बन गया ना, सर्वथा अवाच्य कैसे रहा ? याने कोशिश करते हैं वे अपने में विज्ञानमात्र को समझाने की कि इसका स्वरूप अनभिलाप्य है, अवाच्य है, किसी भी प्रकार के शब्दों में ये अपने विज्ञानमात्र तत्त्व को बताना चाह रहे और बता रहे हैं, चाहे अवाच्य शब्द को हो बताया हो, मगर शब्द तो काम में आया और उन शब्दों द्वारा कुछ समझा तो वह विकल्प भी तो बना, तो ऐसा विज्ञानमात्र तत्त्व विकल्प से शून्य और शब्द से शून्य कहाँ रहा? जिसका यह सिद्धांत हुआ कि वास्तविक जो तत्त्व है वह शब्दों से परे है और उसका ग्रहण भी नहीं होता, तब उस तत्त्व की प्रतिष्ठा ही क्या है और इनके फिर बताने का तरीका ही क्या है? लोग उसे कैसे समझ पायें? तो ज्ञानाद्वैतवादियों का यह कहना है कि यह तत्त्व सर्वथा अवाच्य है । लो, उन्होंने ऐसा कहकर उसकी प्रसिद्धि तो की है, वाच्य तो बन गया और जब वाच्य बन गया तो शब्द भी रहे, अर्थ भी रहे, पदार्थ भी रहे और ज्ञानमात्र तत्त्व भी रहा, सभी की सिद्धि हो जाती है । जो ये पदार्थ बहुत स्पष्ट नजर में आ रहे हैं―सामान लाना, भोजन बनाना, भोजन करना, उस सामान का उपयोग करना, दूसरों से बात करना; ये सब बातें व्यवस्थापूर्वक जो बन रही हैं वह व्यवस्था ही यह सिद्ध करती है कि जगत् में पदार्थ नाना हैं, केवलज्ञान ही ज्ञान है सो बात नहीं है । सबकी सत्ता है ।</p> | <p> <strong>(78) स्याद्वादशासनविद्वेषियों के मंतव्य की असंगतता</strong>―हे वीर जिनेंद्र ! जो आपके स्याद्वाद मत से द्वेष रखते हैं उन क्षणिकवादियों का, ज्ञानाद्वैतवादियों का जो कुछ भी यह कहना है कि विज्ञानमात्र तत्त्व अवाच्य है तो इन शब्दों से तो वाच्य बन गया ना, सर्वथा अवाच्य कैसे रहा ? याने कोशिश करते हैं वे अपने में विज्ञानमात्र को समझाने की कि इसका स्वरूप अनभिलाप्य है, अवाच्य है, किसी भी प्रकार के शब्दों में ये अपने विज्ञानमात्र तत्त्व को बताना चाह रहे और बता रहे हैं, चाहे अवाच्य शब्द को हो बताया हो, मगर शब्द तो काम में आया और उन शब्दों द्वारा कुछ समझा तो वह विकल्प भी तो बना, तो ऐसा विज्ञानमात्र तत्त्व विकल्प से शून्य और शब्द से शून्य कहाँ रहा? जिसका यह सिद्धांत हुआ कि वास्तविक जो तत्त्व है वह शब्दों से परे है और उसका ग्रहण भी नहीं होता, तब उस तत्त्व की प्रतिष्ठा ही क्या है और इनके फिर बताने का तरीका ही क्या है? लोग उसे कैसे समझ पायें? तो ज्ञानाद्वैतवादियों का यह कहना है कि यह तत्त्व सर्वथा अवाच्य है । लो, उन्होंने ऐसा कहकर उसकी प्रसिद्धि तो की है, वाच्य तो बन गया और जब वाच्य बन गया तो शब्द भी रहे, अर्थ भी रहे, पदार्थ भी रहे और ज्ञानमात्र तत्त्व भी रहा, सभी की सिद्धि हो जाती है । जो ये पदार्थ बहुत स्पष्ट नजर में आ रहे हैं―सामान लाना, भोजन बनाना, भोजन करना, उस सामान का उपयोग करना, दूसरों से बात करना; ये सब बातें व्यवस्थापूर्वक जो बन रही हैं वह व्यवस्था ही यह सिद्ध करती है कि जगत् में पदार्थ नाना हैं, केवलज्ञान ही ज्ञान है सो बात नहीं है । सबकी सत्ता है ।</p> |
Latest revision as of 18:30, 28 November 2021
मूकात्म-संवेद्यवदात्म-वेद्यं
तन्म्लिष्ट-भाषा-प्रतिम-प्रलापम् ।
अनङ्ग-संज्ञं तदवेद्यमन्यै:
स्यात्त्वद᳭द्विषां वाच्यमवाच्यतत्त्वम् ।।20।।
(77) मूकात्मसंवेद्यवत् विज्ञानाद्वैत के आत्मवेद्यत्व की सिद्धि की असंभवता―अब यहाँ विज्ञानाद्वैतवादी कहते हैं कि जैसे कोई गूंगा पुरुष है वह मुख से नहीं बोल सकता, मगर स्वसंवेदन तो वहाँ भी है । अपने ज्ञान में अनुभव है, सुख-दु:ख की वेदना है । तो उसका स्वसंवेदन आत्मवेद्य है मायने वह खुद के ही द्वारा खुद में अपने आप पर बीती हुई बात को समझता है । तो जैसे गूंगे पुरुष का स्वसंवेदन आत्मवेद्य है, अपने आपके द्वारा ही जाना जाता है उसी प्रकार यह विज्ञानाद्वैत तत्त्व भी आत्मवेद्य है मायने स्वयं-स्वयं के द्वारा जान लिया जाता है और आत्मवेद्य है, इस तरह के शब्दों द्वारा भी उस तत्त्व का कथन नहीं हो पाता, वह तत्त्व तो सुसंवेद्य ही है । उस तत्त्व का कथन जैसे गूंगा बताये अपनी बोली में तो उस गूंगे की आवाज में कहा समझ में नहीं आता, उसकी भाषा अस्पष्ट रहती है और वह प्रलाप मात्र है, इस कारण निरर्थक है याने गूंगा अपने पर बीती हुई बात का संवेदन तो कर लेता है, पर वह बता नहीं सकता । वह शब्दरूप नहीं है और साथ ही साथ यह भी समझना कि जब शब्द द्वारा नहीं बताया जा सकता है तो किसी अंग के संवेदन द्वारा भी नहीं बताया जा सकता । इस तरह तब वह विज्ञानमात्र तत्त्व न शब्दों के द्वारा बताया जा सकता है और न किसी अंग के संवेदन द्वारा बताया जा सकता, तो इसका अर्थ यही तो हुआ कि वह विज्ञानमात्र तत्त्व दूसरे के द्वारा अवेद्य है याने किसी चित्त की बात को कोई दूसरा चित्त नहीं जान सकता । और दूसरों के लिए उसका प्रतिपादन भी नहीं किया जा सकता, तब फिर यह विज्ञानाद्वैतवादी कुछ न बोले, मौन ही बैठा रहे और जो कोई बोलेगा तो समझिये वह विज्ञानाद्वैतवाद में नहीं है ।
(78) स्याद्वादशासनविद्वेषियों के मंतव्य की असंगतता―हे वीर जिनेंद्र ! जो आपके स्याद्वाद मत से द्वेष रखते हैं उन क्षणिकवादियों का, ज्ञानाद्वैतवादियों का जो कुछ भी यह कहना है कि विज्ञानमात्र तत्त्व अवाच्य है तो इन शब्दों से तो वाच्य बन गया ना, सर्वथा अवाच्य कैसे रहा ? याने कोशिश करते हैं वे अपने में विज्ञानमात्र को समझाने की कि इसका स्वरूप अनभिलाप्य है, अवाच्य है, किसी भी प्रकार के शब्दों में ये अपने विज्ञानमात्र तत्त्व को बताना चाह रहे और बता रहे हैं, चाहे अवाच्य शब्द को हो बताया हो, मगर शब्द तो काम में आया और उन शब्दों द्वारा कुछ समझा तो वह विकल्प भी तो बना, तो ऐसा विज्ञानमात्र तत्त्व विकल्प से शून्य और शब्द से शून्य कहाँ रहा? जिसका यह सिद्धांत हुआ कि वास्तविक जो तत्त्व है वह शब्दों से परे है और उसका ग्रहण भी नहीं होता, तब उस तत्त्व की प्रतिष्ठा ही क्या है और इनके फिर बताने का तरीका ही क्या है? लोग उसे कैसे समझ पायें? तो ज्ञानाद्वैतवादियों का यह कहना है कि यह तत्त्व सर्वथा अवाच्य है । लो, उन्होंने ऐसा कहकर उसकी प्रसिद्धि तो की है, वाच्य तो बन गया और जब वाच्य बन गया तो शब्द भी रहे, अर्थ भी रहे, पदार्थ भी रहे और ज्ञानमात्र तत्त्व भी रहा, सभी की सिद्धि हो जाती है । जो ये पदार्थ बहुत स्पष्ट नजर में आ रहे हैं―सामान लाना, भोजन बनाना, भोजन करना, उस सामान का उपयोग करना, दूसरों से बात करना; ये सब बातें व्यवस्थापूर्वक जो बन रही हैं वह व्यवस्था ही यह सिद्ध करती है कि जगत् में पदार्थ नाना हैं, केवलज्ञान ही ज्ञान है सो बात नहीं है । सबकी सत्ता है ।
(79) जैनशासन में अनंत पदार्थों की घोषणा व व्यवस्था―जैनशासन में 6 प्रकार के द्रव्यों की घोषणा की है । इस लोक में अनंतानंत जीव हैं, उनसे भी अनंते गुणे पुद्गलद्रव्य हैं । एक धर्मद्रव्य है, एक अधर्मद्रव्य है, एक आकाशद्रव्य है और असंख्यात कालद्रव्य हैं, और ये सभी द्रव्य परस्पर में एक दूसरे का उपग्रह कर रहे हैं याने दूसरे की किसी भी प्रकार की विशिष्ट या अविशिष्ट परिणति में निमित्त हो रहे हैं । जैसे सभी पदार्थ प्रतिसमय पर्याय बदलते रहते हैं, यह कालद्रव्य का उपकार है । जीव और पुद᳭गल कहीं से कहीं गमन करते रहते हैं तो इसमें धर्मद्रव्य का उपग्रह है । चलते हुए जीव और पुद᳭गल किसी जगह थम जाते हैं तो यह अधर्मद्रव्य का उपग्रह है और ये पदार्थ आकाश में बने हुए हैं ऐसा अवगाह होना यह आकाशद्रव्य का उपग्रह है । तो ये सभी पदार्थ परस्पर उपग्रह करते हुए अपनी सत्ता में ठहरे हुए है । इनमें से किसी भी पदार्थ का अपलाप करना संगत नहीं है, क्योंकि ये सभी प्रत्यक्ष-सिद्ध हैं, युक्तिसिद्ध है और वीतराग आर्षवाणी की परंपरा से चली आयी हैं, ज्ञात हो रही हैं । इस तरह सब पदार्थ हैं और वे सभी पदार्थ सदा रहने वाले हैं, उनका प्रतिसमय में परिणमन होता रहता है । तो पर्याय-पर्याय को आपस में निरखा जाये तो वे भिन्न-भिन्न हैं, किंतु वे पर्याय स्वतंत्र सत् नहीं है, द्रव्य की ही विशेषता है, इस तरह से निरखा जाये तो सभी व्यवहार सिद्ध हो जाते हैं और बंध-मोक्ष की व्यवस्था भी सही बन जाती है । जिसने बंध किया वही मोक्ष पाता है, यह स्याद्वाद की व्यवस्था है । जिसने हिंसा की है वह पाप बांधता है और उसका फल पाता है । यह स्याद्वाद में व्यवस्थित है ꠰ तो स्याद्वाद से बाहर होकर जो विज्ञानमात्र तत्त्व की मान्यता करते हैं, हे प्रभु ! वे अपना कुछ भी उपकार नहीं कर सकते हैं ।