युक्त्यनुशासन - गाथा 43: Difference between revisions
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<div class="PravachanText"><p><strong>विरोधि | <div class="PravachanText"><p><strong>विरोधि चाऽभेद्यविशेषभावात्-तद᳭द्योतन: स्याद᳭गुणतो निपात: ।</strong></p> | ||
<p><strong> विपाद्यसंधिश्च | <p><strong> विपाद्यसंधिश्च तथाऽङ्गभावा-दवाच्यताश्रायस लोप हेतु: ꠰꠰43।।</strong></p> | ||
<p> <strong>(150) सत्ताद्वैतवादी व शून्यवादी की स्वपक्ष समर्थनार्थ प्रस्ताव व उसका निर्णय―</strong>अब यहाँ सत्ताद्वैतवादी अथवा सर्वथा शून्यवादी कह रहे हैं कि सर्वथा अभेद का आलंबन लेकर शब्दों का प्रयोग होता है । चाहे अस्ति का प्रयोग करे तो वह नास्ति से भिन्न नहीं है, चाहे नास्ति का प्रयोग करे तो वह अस्ति से भिन्न नहीं है और ऐसा एक पद का अभिधेय अपने प्रतियोगी पद के वाच्य से च्युत नहीं है तो अभिधेय का वाच्य में पदार्थ का कोई स्वरूप नहीं रहता और उनके उस शब्द ने अभिधेय को कहाँ | <p> <strong>(150) सत्ताद्वैतवादी व शून्यवादी की स्वपक्ष समर्थनार्थ प्रस्ताव व उसका निर्णय―</strong>अब यहाँ सत्ताद्वैतवादी अथवा सर्वथा शून्यवादी कह रहे हैं कि सर्वथा अभेद का आलंबन लेकर शब्दों का प्रयोग होता है । चाहे अस्ति का प्रयोग करे तो वह नास्ति से भिन्न नहीं है, चाहे नास्ति का प्रयोग करे तो वह अस्ति से भिन्न नहीं है और ऐसा एक पद का अभिधेय अपने प्रतियोगी पद के वाच्य से च्युत नहीं है तो अभिधेय का वाच्य में पदार्थ का कोई स्वरूप नहीं रहता और उनके उस शब्द ने अभिधेय को कहाँ जोड़ा? अपने का भी उसने ग्रहण कराया और अपने प्रतियोगी का भी ग्रहण कराया । तो अभिधेय तो सबमें बन गया । उस पद को स्वरूपहीन कैसे कहा जा रहा? इसके समाधान में कहते हैं कि यह कथन स्ववचन विरोधी है । जब यह माना जा रहा है कि पद अपने प्रतियोगी का भी वाचक है तो फिर स्वार्थ का वाचक भी कहाँ रहा? जब एक पद जगत् के सभी पदार्थों का वाचक है तो एक वस्तु का बोध करा देने वाला कोई शब्द ही नहीं रह सकता इससे तो पदों का अभिधेय स्वरूपाहीन बन गया सो तो है ही, किंतु वह विरोधी भी बन गया, क्योंकि पद ने अपने अर्थ को और विरुद्ध अर्थ को दोनों को ही कह डाला । ये सत्ताद्वैतवादी यह कहते हैं कि अस्ति शब्द बोला तो उसका अभिधेय अस्तित्व है और अस्ति का प्रतियोगी पद है नास्ति, उसका अभिधेय नास्तित्व है, पर अस्तित्व और नास्तित्व ये दोनों अभिन्न है क्योंकि सत्ताद्वैत के सिद्धांत में कोई भेद नहीं माना गया है, तो अभिधान और अभिधेय दोनों का विरोध वहाँ घटित नहीं हो सकता अथवा दोनों ही घटित नहीं हो सकते, क्योंकि अस्ति का दूसरा अर्थ, नास्ति का दूसरा अर्थ । एक पद से दोनों में अभेद मान लिया तो यह घटित हो ही नहीं सकता ।</p> | ||
<p><strong> (151) अनादि अविद्यावश भेदसद᳭भाव मानकर दोषनिवृत्ति करने का शंकाकार का विफल प्रयास</strong>―शंकाकार कहता है कि भाई ! पदार्थों में भेद तो परमार्थ से जरा भी नहीं है मगर अनादिकालीन अविद्या के कारण उनमें भेद का भ्रम हो गया है इससे अभिधेय इनका अलग-अलग है । तो शंकाकार का यह कहना भी यों</p> | <p><strong> (151) अनादि अविद्यावश भेदसद᳭भाव मानकर दोषनिवृत्ति करने का शंकाकार का विफल प्रयास</strong>―शंकाकार कहता है कि भाई ! पदार्थों में भेद तो परमार्थ से जरा भी नहीं है मगर अनादिकालीन अविद्या के कारण उनमें भेद का भ्रम हो गया है इससे अभिधेय इनका अलग-अलग है । तो शंकाकार का यह कहना भी यों</p> | ||
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<p>संगत नहीं कि अगर अविद्या के वश से ही भेद है और स्वरूपत: उनमें भेद नहीं है तो विद्या और अविद्या में भी भेद नहीं बन सकता परमार्थ से तो अविद्या ही सिद्ध नहीं हो सकती, फिर अविद्या से भेद का भ्रम कहना, यह कैसे बन सकेगा? और विद्या और अविद्या का यदि भेद माना जाता कि अविद्या से तो भ्रम हुआ और विद्या से परमार्थ जाना तो विद्या अविद्या का द्वैत तो बन गया । फिर सत्ताद्वैत सिद्धांत नहीं बन सकता । इससे सत्ताद्वैतवादियों का यह कहना कि अस्तित्व से नास्तित्व अभेदी है याने उन दोनों का भेद नहीं है तो जब भेद न रहा अस्ति नास्ति में तो फिर वस्तुस्वरूप ही कुछ न रहा । किंतु जब भेद का सर्वथा अभाव है तो अस्तित्व और नास्तित्व इन दोनों भेदों का भी अभाव रहा । जब अस्तित्व नास्तित्व रहा ही नहीं तो अभेद कैसे माना जाये ? यदि कोई यह कहता है कि अस्तित्व नास्तित्व से अभेदी है याने उसको भिन्न करने वाला नहीं है तो उसके कहने में ही दो बातें आ गई कि अस्तित्व कोई वस्तु है । नास्तित्व भी कोई अभिधेय है और उन दोनों में कुछ बताया जा रहा है, क्योंकि कथंचित् भी अगर भेद न माना जाये तो भेद का प्रतिषेध करना या अभेद को भेद का अभेदी कहना, अस्तित्व को नास्तित्त्व का अभेदी कहना यह सब विरुद्ध | <p>संगत नहीं कि अगर अविद्या के वश से ही भेद है और स्वरूपत: उनमें भेद नहीं है तो विद्या और अविद्या में भी भेद नहीं बन सकता परमार्थ से तो अविद्या ही सिद्ध नहीं हो सकती, फिर अविद्या से भेद का भ्रम कहना, यह कैसे बन सकेगा? और विद्या और अविद्या का यदि भेद माना जाता कि अविद्या से तो भ्रम हुआ और विद्या से परमार्थ जाना तो विद्या अविद्या का द्वैत तो बन गया । फिर सत्ताद्वैत सिद्धांत नहीं बन सकता । इससे सत्ताद्वैतवादियों का यह कहना कि अस्तित्व से नास्तित्व अभेदी है याने उन दोनों का भेद नहीं है तो जब भेद न रहा अस्ति नास्ति में तो फिर वस्तुस्वरूप ही कुछ न रहा । किंतु जब भेद का सर्वथा अभाव है तो अस्तित्व और नास्तित्व इन दोनों भेदों का भी अभाव रहा । जब अस्तित्व नास्तित्व रहा ही नहीं तो अभेद कैसे माना जाये ? यदि कोई यह कहता है कि अस्तित्व नास्तित्व से अभेदी है याने उसको भिन्न करने वाला नहीं है तो उसके कहने में ही दो बातें आ गई कि अस्तित्व कोई वस्तु है । नास्तित्व भी कोई अभिधेय है और उन दोनों में कुछ बताया जा रहा है, क्योंकि कथंचित् भी अगर भेद न माना जाये तो भेद का प्रतिषेध करना या अभेद को भेद का अभेदी कहना, अस्तित्व को नास्तित्त्व का अभेदी कहना यह सब विरुद्ध पड़ जायेगा क्योंकि जब कुछ भेद ही नहीं है तो भेद अभेद का व्यवहार भी कैसे बन सकता है?</p> | ||
<p> <strong>(152) शब्दभेद व विकल्पभेद के कारण हुए भेदप्रतिषेध बताकर दोषनिवृत्ति करने का पुन: विफल प्रयास</strong>―यहाँ शंकाकार कहता है कि पदार्थ में परमार्थत: तो भेद नहीं है मगर शब्दभेद जो चल रहे हैं और विकल्पभेद जो चल रहे हैं उनसे भेदी होने वाले का जो प्रतिषेध है वह उनके स्वरूपभेद का प्रतिषेध है याने चूँकि शब्द निराले-निराले हें और विकल्प जब भिन्न-भिन्न हो रहे हैं तो पदार्थ में भेद बन गया, पर उन भेदों का जो प्रतिषेध है उसी के मायने तो हुआ कि स्वरूपभेद नहीं है । इसके समाधान में कहते हैं कि इस तरह की युक्ति देने पर कम से कम शब्द ओर विकल्प का तो भेद मान लिया और सिद्धांत की ओर से भेद यह स्वयं चाहता नहीं । तो जब संज्ञा भेद है तो संज्ञा के द्वारा वाच्य जो संज्ञी है पदार्थ है, उसके भेद कैसे दूर किए जा सकते हैं? और ऐसी स्थिति में द्वैत, अनेक पदार्थों के अस्तित्व में स्वयंसिद्ध हो जाते हैं, क्योंकि संज्ञी का प्रतिषेध, पदार्थ का प्रतिषेध, पदार्थ का अस्तित्व न हो तो कैसे किया जाये? कहीं असद᳭भूत वस्तु का भी प्रतिषेध किया जाता क्या?</p> | <p> <strong>(152) शब्दभेद व विकल्पभेद के कारण हुए भेदप्रतिषेध बताकर दोषनिवृत्ति करने का पुन: विफल प्रयास</strong>―यहाँ शंकाकार कहता है कि पदार्थ में परमार्थत: तो भेद नहीं है मगर शब्दभेद जो चल रहे हैं और विकल्पभेद जो चल रहे हैं उनसे भेदी होने वाले का जो प्रतिषेध है वह उनके स्वरूपभेद का प्रतिषेध है याने चूँकि शब्द निराले-निराले हें और विकल्प जब भिन्न-भिन्न हो रहे हैं तो पदार्थ में भेद बन गया, पर उन भेदों का जो प्रतिषेध है उसी के मायने तो हुआ कि स्वरूपभेद नहीं है । इसके समाधान में कहते हैं कि इस तरह की युक्ति देने पर कम से कम शब्द ओर विकल्प का तो भेद मान लिया और सिद्धांत की ओर से भेद यह स्वयं चाहता नहीं । तो जब संज्ञा भेद है तो संज्ञा के द्वारा वाच्य जो संज्ञी है पदार्थ है, उसके भेद कैसे दूर किए जा सकते हैं? और ऐसी स्थिति में द्वैत, अनेक पदार्थों के अस्तित्व में स्वयंसिद्ध हो जाते हैं, क्योंकि संज्ञी का प्रतिषेध, पदार्थ का प्रतिषेध, पदार्थ का अस्तित्व न हो तो कैसे किया जाये? कहीं असद᳭भूत वस्तु का भी प्रतिषेध किया जाता क्या?</p> | ||
<p><strong> (153) परमान्यता के माध्यम से भेद मानकर दोषनिवृत्ति करने का शंकाकार का विफल प्रयास</strong>―इस प्रसंग में शंकाकार कहता है कि हम भेद नहीं मानते, किंतु दूसरे लोग भेद मानते हैं और उनके भेद मानने से शब्द और विकल्प में भेद बन जाते हैं । तो अब उनकी ओर से भेद की बात कहने में दोष नही है । इस शंका के समाधान में कहते हैं कि सत्ताद्वैत के मंतव्य में जब स्व और पर का भेद ही नहीं रहता तब दूसरे मानते हैं यह बात कही ही कैसे जा सकती है? दूसरी सिद्धि ही नहीं है शंकाकार के मंतव्य के अनुसार । तो जब दूसरे मानते हैं यह हेतु ही सिद्ध नहीं तो साध्य की सिद्धि कैसे बने याने भेद कर देने की सिद्धि कैसे बने? शंकाकार कहता है कि ऐन मौके की बात तो नहीं है, पर विचार से पहले तो स्व और पर का भेद प्रसिद्ध ही था । उसका भी उत्तर बहुत सीधा यह है कि अद्वैत के मंतव्य में जैसे स्व और पर का भेद नहीं है, ऐसे ही पूर्वकाल और पश्चात् काल का भी भेद सिद्ध नहीं होता । विचार से पहले दिमाग में भेद था, विचार करने पर भेद न रहा । तो भेद का पूर्वकाल और उत्तरकाल―ये दो भेद कहां से आ गए? और अगर आते हैं तो अद्वैत न रहा, काल का भेद हो गया । निष्कर्ष यह हैं कि सत्ताद्वैतवादी जो यह कह रहे थे कि सर्वथा भेद है ही नहीं, सब वचन अभेदी होते हैं तो यह विरोध की बात बन जाती है और इसमें वस्तु का स्वरूप ही नहीं रहता ।</p> | <p><strong> (153) परमान्यता के माध्यम से भेद मानकर दोषनिवृत्ति करने का शंकाकार का विफल प्रयास</strong>―इस प्रसंग में शंकाकार कहता है कि हम भेद नहीं मानते, किंतु दूसरे लोग भेद मानते हैं और उनके भेद मानने से शब्द और विकल्प में भेद बन जाते हैं । तो अब उनकी ओर से भेद की बात कहने में दोष नही है । इस शंका के समाधान में कहते हैं कि सत्ताद्वैत के मंतव्य में जब स्व और पर का भेद ही नहीं रहता तब दूसरे मानते हैं यह बात कही ही कैसे जा सकती है? दूसरी सिद्धि ही नहीं है शंकाकार के मंतव्य के अनुसार । तो जब दूसरे मानते हैं यह हेतु ही सिद्ध नहीं तो साध्य की सिद्धि कैसे बने याने भेद कर देने की सिद्धि कैसे बने? शंकाकार कहता है कि ऐन मौके की बात तो नहीं है, पर विचार से पहले तो स्व और पर का भेद प्रसिद्ध ही था । उसका भी उत्तर बहुत सीधा यह है कि अद्वैत के मंतव्य में जैसे स्व और पर का भेद नहीं है, ऐसे ही पूर्वकाल और पश्चात् काल का भी भेद सिद्ध नहीं होता । विचार से पहले दिमाग में भेद था, विचार करने पर भेद न रहा । तो भेद का पूर्वकाल और उत्तरकाल―ये दो भेद कहां से आ गए? और अगर आते हैं तो अद्वैत न रहा, काल का भेद हो गया । निष्कर्ष यह हैं कि सत्ताद्वैतवादी जो यह कह रहे थे कि सर्वथा भेद है ही नहीं, सब वचन अभेदी होते हैं तो यह विरोध की बात बन जाती है और इसमें वस्तु का स्वरूप ही नहीं रहता ।</p> | ||
<p> <strong>(154) सत्ताद्वैतवाद में अस्तित्व से नास्तित्व को अभेदी कहने की मान्यता, किंतु शून्याद्वैतवाद में नास्तित्व से अस्तित्व को अभेदी कहने की मान्यता तथा उसका निराकरण</strong>―सत्ताद्वैतवादी जैसे अस्तित्व से नास्तित्व को अभेदी बतलाते हैं । उनके ये कथन विरोधपूर्ण हैं, दूषित हैं, सत्ताद्वैतवादी और शून्याद्वैतवादी के वचनप्रयोग में यह अंतर समझना जिससे अंत:रहस्य भी ज्ञात होता, सत्ताद्वैतवादी तो अस्तित्व को नास्तित्व से अभेदी कहते । उन्होने अस्तित्व को तो पहले रखा और उन्हें माना और नास्तित्व को अभेदी बनाया अपना अद्वैतवाद कायम रखने के लिए । और शून्याद्वैतवादी कहते हैं कि नास्तित्व से अस्तित्व का अभेदी है । उन्होंने नास्तित्व को तो पहले रखा, क्योंकि उनका शून्य तत्त्व है और वह नास्तित्व से ही सिद्ध होता है । और उस नास्तित्व से अभेदी अस्तित्व को कहते हैं । अब जरा स्याद्वादशासन की ओर इनका निर्णय देखिये―यह तो निश्चित है कि अस्तित्व का विरुद्ध नास्तित्व है और दोनों विरुद्ध धर्मों की स्याद्वाद से एक वस्तु में सिद्धि की गई है । अनेकांत इसी का ही नाम है कि परस्पर विरुद्ध वस्तुधर्म को एक धर्मी में प्रसिद्ध करना । शंकाकार को यहाँ यह पता है स्याद्वाद के प्रति कि अस्ति पद के साथ एक लगाया तो उससे नास्तित्व का अभाव हो गया । और एव शब्द साथ में न लगाये, उसका आशय ही न हो तो उसका कहना अशक्य ठहरता है । उसे बताया है अनुक्ततुल्य याने कहा हुआ भी न कहे के समान । तो अब कोई दूसरा उपाय तो रहा ही नहीं । केवल अवक्तव्य ही है, ऐसा कह दो, तो आगे यही युक्त है कि अभिधेय सर्वथा अवक्तव्य ही है । उक्त शंका के समाधान में कहते हैं कि इस विरोधी धर्म का घातक ‘स्यात्’ शब्द रखा गया है जिससे प्रयुक्त धर्म को मुख्य सिद्ध किया जाता और अप्रयुक्त विरुद्ध धर्म का भी अस्तित्व स्वीकार कर लिया जाता, पर उस संबंध में प्रयोग नहीं है । तो स्याद्वाद शासन में शब्द के द्वारा किसी एक को मुख्य जाना गया और विरुद्ध धर्म को जो कि उसमें अप्रतियोगी है उसे गौणरूप समझा गया । इस तरह स्याद्वादशासन में एक पद अन्य विरुद्ध अर्थ का तो व्यवच्छेदी है, पर अपने ही वाच्य अर्थ में रहने वाले विशेषों का व्यवच्छेदक नहीं है । उन विशेषों में से किसी को प्रधानरूप से कहते हैं, शेष को गौणरूप से कहते हैं ।</p> | <p> <strong>(154) सत्ताद्वैतवाद में अस्तित्व से नास्तित्व को अभेदी कहने की मान्यता, किंतु शून्याद्वैतवाद में नास्तित्व से अस्तित्व को अभेदी कहने की मान्यता तथा उसका निराकरण</strong>―सत्ताद्वैतवादी जैसे अस्तित्व से नास्तित्व को अभेदी बतलाते हैं । उनके ये कथन विरोधपूर्ण हैं, दूषित हैं, सत्ताद्वैतवादी और शून्याद्वैतवादी के वचनप्रयोग में यह अंतर समझना जिससे अंत:रहस्य भी ज्ञात होता, सत्ताद्वैतवादी तो अस्तित्व को नास्तित्व से अभेदी कहते । उन्होने अस्तित्व को तो पहले रखा और उन्हें माना और नास्तित्व को अभेदी बनाया अपना अद्वैतवाद कायम रखने के लिए । और शून्याद्वैतवादी कहते हैं कि नास्तित्व से अस्तित्व का अभेदी है । उन्होंने नास्तित्व को तो पहले रखा, क्योंकि उनका शून्य तत्त्व है और वह नास्तित्व से ही सिद्ध होता है । और उस नास्तित्व से अभेदी अस्तित्व को कहते हैं । अब जरा स्याद्वादशासन की ओर इनका निर्णय देखिये―यह तो निश्चित है कि अस्तित्व का विरुद्ध नास्तित्व है और दोनों विरुद्ध धर्मों की स्याद्वाद से एक वस्तु में सिद्धि की गई है । अनेकांत इसी का ही नाम है कि परस्पर विरुद्ध वस्तुधर्म को एक धर्मी में प्रसिद्ध करना । शंकाकार को यहाँ यह पता है स्याद्वाद के प्रति कि अस्ति पद के साथ एक लगाया तो उससे नास्तित्व का अभाव हो गया । और एव शब्द साथ में न लगाये, उसका आशय ही न हो तो उसका कहना अशक्य ठहरता है । उसे बताया है अनुक्ततुल्य याने कहा हुआ भी न कहे के समान । तो अब कोई दूसरा उपाय तो रहा ही नहीं । केवल अवक्तव्य ही है, ऐसा कह दो, तो आगे यही युक्त है कि अभिधेय सर्वथा अवक्तव्य ही है । उक्त शंका के समाधान में कहते हैं कि इस विरोधी धर्म का घातक ‘स्यात्’ शब्द रखा गया है जिससे प्रयुक्त धर्म को मुख्य सिद्ध किया जाता और अप्रयुक्त विरुद्ध धर्म का भी अस्तित्व स्वीकार कर लिया जाता, पर उस संबंध में प्रयोग नहीं है । तो स्याद्वाद शासन में शब्द के द्वारा किसी एक को मुख्य जाना गया और विरुद्ध धर्म को जो कि उसमें अप्रतियोगी है उसे गौणरूप समझा गया । इस तरह स्याद्वादशासन में एक पद अन्य विरुद्ध अर्थ का तो व्यवच्छेदी है, पर अपने ही वाच्य अर्थ में रहने वाले विशेषों का व्यवच्छेदक नहीं है । उन विशेषों में से किसी को प्रधानरूप से कहते हैं, शेष को गौणरूप से कहते हैं ।</p> | ||
<p> <strong>(155) स्यात् और एव शब्द की प्रति वाक्य में महिमा का सोदाहरण विवरण</strong>―जैसे कि स्याद्वाद के अंगों में स्यात् पद और एव शब्द साथ लगा रहता है इसी प्रकार सभी शब्दों में चाहे स्यात् और एव शब्द बोले जायें या न बोले जायें सभी के साथ स्यात् और एव का आशय रहता है । तो जैसे कहा―‘स्यात᳭ जीव: अस्ति’ तो ‘स्यात्’ शब्द बोलने से स्वरूपदृष्टि तो मुख्य हुई, पर उसके विपक्षभूत पररूप से नहीं है, ऐसा संयोजन उसके साथ लगा हुआ है याने अस्तित्व के साथ पर के नास्तित्व का विरोध नहीं है, बल्कि दोनों में परस्पर साधकता है और इसी कारण स्यात् पद इन दोनों अंगों को | <p> <strong>(155) स्यात् और एव शब्द की प्रति वाक्य में महिमा का सोदाहरण विवरण</strong>―जैसे कि स्याद्वाद के अंगों में स्यात् पद और एव शब्द साथ लगा रहता है इसी प्रकार सभी शब्दों में चाहे स्यात् और एव शब्द बोले जायें या न बोले जायें सभी के साथ स्यात् और एव का आशय रहता है । तो जैसे कहा―‘स्यात᳭ जीव: अस्ति’ तो ‘स्यात्’ शब्द बोलने से स्वरूपदृष्टि तो मुख्य हुई, पर उसके विपक्षभूत पररूप से नहीं है, ऐसा संयोजन उसके साथ लगा हुआ है याने अस्तित्व के साथ पर के नास्तित्व का विरोध नहीं है, बल्कि दोनों में परस्पर साधकता है और इसी कारण स्यात् पद इन दोनों अंगों को जोड़ने वाला है । तो सर्वथा बात सब जगह अहितकर है इस प्रकार कोई सर्वथा तत्त्व को अवक्तव्य कहे तो वह भी मोक्ष के लोप का कारण है । वहाँ आत्महित की बात नहीं बन सकती, इसका कारण यह है कि जब तत्त्व सर्वथा अवाच्य है, तो उपेय के संबंध में बात कही नहीं जा सकती । तो जब उपेय तत्त्व का उपदेश न बना और उपाय का भी उपदेश न बना तो मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति कैसे हो सकती है? और जब मोक्षमार्ग का उपाय न बन सका तो मोक्ष की प्राप्ति कैसे हो सकती है? तो सर्वथा अवक्तव्य कहना भी मोक्षपद के लोप का कारण है । इससे स्यात् पद से सहित एव लगा हो किसी भी धर्म के समर्थन में तो वह अर्थवान है, सर्वथावाद में पद का कोई अर्थ ही नहीं बन सकता है ।</p> | ||
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Latest revision as of 07:45, 11 December 2021
विरोधि चाऽभेद्यविशेषभावात्-तद᳭द्योतन: स्याद᳭गुणतो निपात: ।
विपाद्यसंधिश्च तथाऽङ्गभावा-दवाच्यताश्रायस लोप हेतु: ꠰꠰43।।
(150) सत्ताद्वैतवादी व शून्यवादी की स्वपक्ष समर्थनार्थ प्रस्ताव व उसका निर्णय―अब यहाँ सत्ताद्वैतवादी अथवा सर्वथा शून्यवादी कह रहे हैं कि सर्वथा अभेद का आलंबन लेकर शब्दों का प्रयोग होता है । चाहे अस्ति का प्रयोग करे तो वह नास्ति से भिन्न नहीं है, चाहे नास्ति का प्रयोग करे तो वह अस्ति से भिन्न नहीं है और ऐसा एक पद का अभिधेय अपने प्रतियोगी पद के वाच्य से च्युत नहीं है तो अभिधेय का वाच्य में पदार्थ का कोई स्वरूप नहीं रहता और उनके उस शब्द ने अभिधेय को कहाँ जोड़ा? अपने का भी उसने ग्रहण कराया और अपने प्रतियोगी का भी ग्रहण कराया । तो अभिधेय तो सबमें बन गया । उस पद को स्वरूपहीन कैसे कहा जा रहा? इसके समाधान में कहते हैं कि यह कथन स्ववचन विरोधी है । जब यह माना जा रहा है कि पद अपने प्रतियोगी का भी वाचक है तो फिर स्वार्थ का वाचक भी कहाँ रहा? जब एक पद जगत् के सभी पदार्थों का वाचक है तो एक वस्तु का बोध करा देने वाला कोई शब्द ही नहीं रह सकता इससे तो पदों का अभिधेय स्वरूपाहीन बन गया सो तो है ही, किंतु वह विरोधी भी बन गया, क्योंकि पद ने अपने अर्थ को और विरुद्ध अर्थ को दोनों को ही कह डाला । ये सत्ताद्वैतवादी यह कहते हैं कि अस्ति शब्द बोला तो उसका अभिधेय अस्तित्व है और अस्ति का प्रतियोगी पद है नास्ति, उसका अभिधेय नास्तित्व है, पर अस्तित्व और नास्तित्व ये दोनों अभिन्न है क्योंकि सत्ताद्वैत के सिद्धांत में कोई भेद नहीं माना गया है, तो अभिधान और अभिधेय दोनों का विरोध वहाँ घटित नहीं हो सकता अथवा दोनों ही घटित नहीं हो सकते, क्योंकि अस्ति का दूसरा अर्थ, नास्ति का दूसरा अर्थ । एक पद से दोनों में अभेद मान लिया तो यह घटित हो ही नहीं सकता ।
(151) अनादि अविद्यावश भेदसद᳭भाव मानकर दोषनिवृत्ति करने का शंकाकार का विफल प्रयास―शंकाकार कहता है कि भाई ! पदार्थों में भेद तो परमार्थ से जरा भी नहीं है मगर अनादिकालीन अविद्या के कारण उनमें भेद का भ्रम हो गया है इससे अभिधेय इनका अलग-अलग है । तो शंकाकार का यह कहना भी यों
संगत नहीं कि अगर अविद्या के वश से ही भेद है और स्वरूपत: उनमें भेद नहीं है तो विद्या और अविद्या में भी भेद नहीं बन सकता परमार्थ से तो अविद्या ही सिद्ध नहीं हो सकती, फिर अविद्या से भेद का भ्रम कहना, यह कैसे बन सकेगा? और विद्या और अविद्या का यदि भेद माना जाता कि अविद्या से तो भ्रम हुआ और विद्या से परमार्थ जाना तो विद्या अविद्या का द्वैत तो बन गया । फिर सत्ताद्वैत सिद्धांत नहीं बन सकता । इससे सत्ताद्वैतवादियों का यह कहना कि अस्तित्व से नास्तित्व अभेदी है याने उन दोनों का भेद नहीं है तो जब भेद न रहा अस्ति नास्ति में तो फिर वस्तुस्वरूप ही कुछ न रहा । किंतु जब भेद का सर्वथा अभाव है तो अस्तित्व और नास्तित्व इन दोनों भेदों का भी अभाव रहा । जब अस्तित्व नास्तित्व रहा ही नहीं तो अभेद कैसे माना जाये ? यदि कोई यह कहता है कि अस्तित्व नास्तित्व से अभेदी है याने उसको भिन्न करने वाला नहीं है तो उसके कहने में ही दो बातें आ गई कि अस्तित्व कोई वस्तु है । नास्तित्व भी कोई अभिधेय है और उन दोनों में कुछ बताया जा रहा है, क्योंकि कथंचित् भी अगर भेद न माना जाये तो भेद का प्रतिषेध करना या अभेद को भेद का अभेदी कहना, अस्तित्व को नास्तित्त्व का अभेदी कहना यह सब विरुद्ध पड़ जायेगा क्योंकि जब कुछ भेद ही नहीं है तो भेद अभेद का व्यवहार भी कैसे बन सकता है?
(152) शब्दभेद व विकल्पभेद के कारण हुए भेदप्रतिषेध बताकर दोषनिवृत्ति करने का पुन: विफल प्रयास―यहाँ शंकाकार कहता है कि पदार्थ में परमार्थत: तो भेद नहीं है मगर शब्दभेद जो चल रहे हैं और विकल्पभेद जो चल रहे हैं उनसे भेदी होने वाले का जो प्रतिषेध है वह उनके स्वरूपभेद का प्रतिषेध है याने चूँकि शब्द निराले-निराले हें और विकल्प जब भिन्न-भिन्न हो रहे हैं तो पदार्थ में भेद बन गया, पर उन भेदों का जो प्रतिषेध है उसी के मायने तो हुआ कि स्वरूपभेद नहीं है । इसके समाधान में कहते हैं कि इस तरह की युक्ति देने पर कम से कम शब्द ओर विकल्प का तो भेद मान लिया और सिद्धांत की ओर से भेद यह स्वयं चाहता नहीं । तो जब संज्ञा भेद है तो संज्ञा के द्वारा वाच्य जो संज्ञी है पदार्थ है, उसके भेद कैसे दूर किए जा सकते हैं? और ऐसी स्थिति में द्वैत, अनेक पदार्थों के अस्तित्व में स्वयंसिद्ध हो जाते हैं, क्योंकि संज्ञी का प्रतिषेध, पदार्थ का प्रतिषेध, पदार्थ का अस्तित्व न हो तो कैसे किया जाये? कहीं असद᳭भूत वस्तु का भी प्रतिषेध किया जाता क्या?
(153) परमान्यता के माध्यम से भेद मानकर दोषनिवृत्ति करने का शंकाकार का विफल प्रयास―इस प्रसंग में शंकाकार कहता है कि हम भेद नहीं मानते, किंतु दूसरे लोग भेद मानते हैं और उनके भेद मानने से शब्द और विकल्प में भेद बन जाते हैं । तो अब उनकी ओर से भेद की बात कहने में दोष नही है । इस शंका के समाधान में कहते हैं कि सत्ताद्वैत के मंतव्य में जब स्व और पर का भेद ही नहीं रहता तब दूसरे मानते हैं यह बात कही ही कैसे जा सकती है? दूसरी सिद्धि ही नहीं है शंकाकार के मंतव्य के अनुसार । तो जब दूसरे मानते हैं यह हेतु ही सिद्ध नहीं तो साध्य की सिद्धि कैसे बने याने भेद कर देने की सिद्धि कैसे बने? शंकाकार कहता है कि ऐन मौके की बात तो नहीं है, पर विचार से पहले तो स्व और पर का भेद प्रसिद्ध ही था । उसका भी उत्तर बहुत सीधा यह है कि अद्वैत के मंतव्य में जैसे स्व और पर का भेद नहीं है, ऐसे ही पूर्वकाल और पश्चात् काल का भी भेद सिद्ध नहीं होता । विचार से पहले दिमाग में भेद था, विचार करने पर भेद न रहा । तो भेद का पूर्वकाल और उत्तरकाल―ये दो भेद कहां से आ गए? और अगर आते हैं तो अद्वैत न रहा, काल का भेद हो गया । निष्कर्ष यह हैं कि सत्ताद्वैतवादी जो यह कह रहे थे कि सर्वथा भेद है ही नहीं, सब वचन अभेदी होते हैं तो यह विरोध की बात बन जाती है और इसमें वस्तु का स्वरूप ही नहीं रहता ।
(154) सत्ताद्वैतवाद में अस्तित्व से नास्तित्व को अभेदी कहने की मान्यता, किंतु शून्याद्वैतवाद में नास्तित्व से अस्तित्व को अभेदी कहने की मान्यता तथा उसका निराकरण―सत्ताद्वैतवादी जैसे अस्तित्व से नास्तित्व को अभेदी बतलाते हैं । उनके ये कथन विरोधपूर्ण हैं, दूषित हैं, सत्ताद्वैतवादी और शून्याद्वैतवादी के वचनप्रयोग में यह अंतर समझना जिससे अंत:रहस्य भी ज्ञात होता, सत्ताद्वैतवादी तो अस्तित्व को नास्तित्व से अभेदी कहते । उन्होने अस्तित्व को तो पहले रखा और उन्हें माना और नास्तित्व को अभेदी बनाया अपना अद्वैतवाद कायम रखने के लिए । और शून्याद्वैतवादी कहते हैं कि नास्तित्व से अस्तित्व का अभेदी है । उन्होंने नास्तित्व को तो पहले रखा, क्योंकि उनका शून्य तत्त्व है और वह नास्तित्व से ही सिद्ध होता है । और उस नास्तित्व से अभेदी अस्तित्व को कहते हैं । अब जरा स्याद्वादशासन की ओर इनका निर्णय देखिये―यह तो निश्चित है कि अस्तित्व का विरुद्ध नास्तित्व है और दोनों विरुद्ध धर्मों की स्याद्वाद से एक वस्तु में सिद्धि की गई है । अनेकांत इसी का ही नाम है कि परस्पर विरुद्ध वस्तुधर्म को एक धर्मी में प्रसिद्ध करना । शंकाकार को यहाँ यह पता है स्याद्वाद के प्रति कि अस्ति पद के साथ एक लगाया तो उससे नास्तित्व का अभाव हो गया । और एव शब्द साथ में न लगाये, उसका आशय ही न हो तो उसका कहना अशक्य ठहरता है । उसे बताया है अनुक्ततुल्य याने कहा हुआ भी न कहे के समान । तो अब कोई दूसरा उपाय तो रहा ही नहीं । केवल अवक्तव्य ही है, ऐसा कह दो, तो आगे यही युक्त है कि अभिधेय सर्वथा अवक्तव्य ही है । उक्त शंका के समाधान में कहते हैं कि इस विरोधी धर्म का घातक ‘स्यात्’ शब्द रखा गया है जिससे प्रयुक्त धर्म को मुख्य सिद्ध किया जाता और अप्रयुक्त विरुद्ध धर्म का भी अस्तित्व स्वीकार कर लिया जाता, पर उस संबंध में प्रयोग नहीं है । तो स्याद्वाद शासन में शब्द के द्वारा किसी एक को मुख्य जाना गया और विरुद्ध धर्म को जो कि उसमें अप्रतियोगी है उसे गौणरूप समझा गया । इस तरह स्याद्वादशासन में एक पद अन्य विरुद्ध अर्थ का तो व्यवच्छेदी है, पर अपने ही वाच्य अर्थ में रहने वाले विशेषों का व्यवच्छेदक नहीं है । उन विशेषों में से किसी को प्रधानरूप से कहते हैं, शेष को गौणरूप से कहते हैं ।
(155) स्यात् और एव शब्द की प्रति वाक्य में महिमा का सोदाहरण विवरण―जैसे कि स्याद्वाद के अंगों में स्यात् पद और एव शब्द साथ लगा रहता है इसी प्रकार सभी शब्दों में चाहे स्यात् और एव शब्द बोले जायें या न बोले जायें सभी के साथ स्यात् और एव का आशय रहता है । तो जैसे कहा―‘स्यात᳭ जीव: अस्ति’ तो ‘स्यात्’ शब्द बोलने से स्वरूपदृष्टि तो मुख्य हुई, पर उसके विपक्षभूत पररूप से नहीं है, ऐसा संयोजन उसके साथ लगा हुआ है याने अस्तित्व के साथ पर के नास्तित्व का विरोध नहीं है, बल्कि दोनों में परस्पर साधकता है और इसी कारण स्यात् पद इन दोनों अंगों को जोड़ने वाला है । तो सर्वथा बात सब जगह अहितकर है इस प्रकार कोई सर्वथा तत्त्व को अवक्तव्य कहे तो वह भी मोक्ष के लोप का कारण है । वहाँ आत्महित की बात नहीं बन सकती, इसका कारण यह है कि जब तत्त्व सर्वथा अवाच्य है, तो उपेय के संबंध में बात कही नहीं जा सकती । तो जब उपेय तत्त्व का उपदेश न बना और उपाय का भी उपदेश न बना तो मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति कैसे हो सकती है? और जब मोक्षमार्ग का उपाय न बन सका तो मोक्ष की प्राप्ति कैसे हो सकती है? तो सर्वथा अवक्तव्य कहना भी मोक्षपद के लोप का कारण है । इससे स्यात् पद से सहित एव लगा हो किसी भी धर्म के समर्थन में तो वह अर्थवान है, सर्वथावाद में पद का कोई अर्थ ही नहीं बन सकता है ।