युक्त्यनुशासन - गाथा 44: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
No edit summary |
||
Line 1: | Line 1: | ||
<div class="PravachanText"><p><strong>तथा प्रतिज्ञाऽऽशयतोऽप्रयोग:</strong></p> | <div class="PravachanText"><p><strong>तथा प्रतिज्ञाऽऽशयतोऽप्रयोग:</strong></p> | ||
<p><strong> | <p><strong>सामर्थ्यतो वा प्रतिषेधयुक्ति: ।</strong></p> | ||
<p><strong>इति त्वदीया जिननाग ! दृष्टिः</strong></p> | <p><strong>इति त्वदीया जिननाग ! दृष्टिः</strong></p> | ||
<p><strong>पराऽप्रधृष्या परधर्षिणी च ।।44।।</strong></p> | <p><strong>पराऽप्रधृष्या परधर्षिणी च ।।44।।</strong></p> |
Latest revision as of 08:03, 11 December 2021
तथा प्रतिज्ञाऽऽशयतोऽप्रयोग:
सामर्थ्यतो वा प्रतिषेधयुक्ति: ।
इति त्वदीया जिननाग ! दृष्टिः
पराऽप्रधृष्या परधर्षिणी च ।।44।।
(156) प्रतिपद के साथ स्यात् और एव शब्द की प्रतिज्ञा का आशय―शब्दपद के साथ स्यात् और एव लगा ही रहता है, ऐसे वर्णन के प्रसंग में एक प्रश्न यह हो जाता है कि लोग तो अनेक शब्द और पद बोलते हैं, मगर उनके सब पदों में ‘स्यात्’ और ‘ही’ का प्रयोग नहीं देखा जाता । तब फिर यह कहना कैसे युक्त है कि पद के साथ स्यात् शब्द लगा हो और एव शब्द लगा हो तब ही वह पद अर्थ का वाचक होता है ? इस शंका का उत्तर यह है कि शास्त्र में या लोकव्यवहार में जहाँ स्यात् पद का प्रयोग नहीं है, क्योंकि हर एक शब्द के साथ स्यात् कौन लगाता है? तो उसका कारण यह है कि उनके आशय में स्यात् बना हुआ है और सभी मनुष्य वचन व्यवहार करते हैं और सब समझते हैं तो सभी के अभिप्राय में स्यात् पद का प्रयोग रहता है । उनकी प्रतिज्ञा का आशय ही यह है याने बोलने वाले के अभिप्राय में स्यात् का आशय समाया हुआ है, परंतु शास्त्रकारों ने उसका हर जगह प्रयोग नहीं किया । तो समझना चाहिए कि उनके उन सभी प्रयोगों में आशय ही अपेक्षा का बना हुआ है अथवा जो स्याद्वादशासन का आश्रय करता है वह स्यात् पद का आश्रय लिए बिना स्याद्वादी बन नहीं सकता और स्यात् के प्रयोग बिना अनेकांत की सिद्धि भी घटित नहीं होती । जैसे शब्द के साथ ‘ही’ न लगाया जाये तो सम्यक् एकांत की सिद्धि नहीं होती ।
(157) प्रतिपद के साथ स्यात् और एव शब्द की प्रतिज्ञा के आशय की सोदाहरण स्पष्टता―जैसे किसी ने कहा कि सोहन मोहन का पुत्र ही है तो एक पुत्रत्व धर्म की सही सिद्धि बनी अपेक्षा और ‘ही’ लगने से । तो स्याद्वादी होना ही इस बात को सूचित करता है कि उनका आश्रय प्रत्येक पद के साथ स्यात् शब्द के प्रयोग का है । भले ही सर्व प्रयोग में स्यात् शब्द लगा हुआ नहीं होता, मगर स्यात् शब्द को समझना एक पदप्रयोग की सामर्थ्य है । जैसे यह कहा कि जीव अपने स्वरूप से है तो स्वरूप से इतना कह दिया उसी के मायने स्यात् शब्द का प्रयोग है और कहीं ऐसा कह दिया जाये कि जीव किसी अपेक्षा से सत् है तो वहाँ स्वरूप की अपेक्षा यह बात ले ली जाती है और कहीं कोई यह ही कहे कि जीव है तो इसमें भी अपेक्षा ली जाती है । स्वरूप से जीव है ऐसा कहने पर कहीं यह अपेक्षा नहीं बनती कि जीव पररूप से है । वस्तुतत्त्व के समझने वाले पद का प्रयोग सुनकर ही स्यात् और एव का संबंध समझ लेते हैं, इसी तरह लोक में भी देखिये―कोई भी शब्द बोला जाये तो उनमें ‘अपेक्षा’ और ‘ही’ का अर्थ भरा हुआ ही रहता है । इस प्रकार हे जिनेंद्रदेव ! आपकी दृष्टि नागदृष्टि कहलाती है अर्थात् सब तरफ का देखते रहना, यह आपके शासन में एक विशेष बात है और इसी
कारण आपका शासन एकांतवादियों के द्वारा बाधित नहीं होता और एकांतवाद को आपका शासन निराकृत कर देता है । यों जैसे सतभंगी के प्रयोग में स्यात् और एव शब्द लगाते हैं, इसी प्रकार लोकव्यवहार में भी सभी पदों के साथ स्यात् और एव का आशय बना हुआ ही रहता है ।