अवर्णवाद: Difference between revisions
From जैनकोष
No edit summary |
No edit summary |
||
Line 1: | Line 1: | ||
| | ||
== सिद्धांतकोष से == | == सिद्धांतकोष से == | ||
< | <span class="SanskritText">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 6/13/331/13 गुणवत्सु महत्सु असद्भूतदोषोद्भावनमवर्णवादः।</span> | ||
< | <span class="HindiText">= गुणवाले बड़े पुरुषों में जो दोष नहीं हैं उनका उनमें उद्भावन करना अवर्णवाद है यथा -: </span> | ||
< | <span class="SanskritText">राजवार्तिक अध्याय 6/13/8-12/524/12 पिंडाभ्यवहारजीविनः कंबलदशानिर्हरणाः अलाबूपात्रपरिग्रहाः कालभेदवृत्तज्ञानदर्शनाः केवलिन इत्यादिवचनं केवलिष्ववर्णवादः। ...मांसमत्स्यभक्षणं मधुसुरापानं वेदार्दितमैथुनोपसेवा रात्रिभोजनमित्येवमाद्यनवद्यमित्यनुज्ञानं श्रुतेऽवर्णवादः ॥9॥ ...एते श्रमणाः शूद्राः अस्नानमलदिग्धांघाः अशुचयो दिगंबर निरपत्रपा इहैवेति दुःखमनुभवंति परलोकश्च मुषित इत्यादि वचनं संघेऽवर्गवादः ॥10॥ ...जिनोपदिष्टो दशविकल्पो धर्मो निर्गुण तदुपसेविनो ये चे तेऽसुरा भवंति इत्येवमाद्यभिधानं धर्मावर्णवाद ॥11॥ ...सुरा मांसं चोपसेवंते देवा आहल्यादिषुचासक्तचेतसः इत्या द्याघोषणं देवावर्णवादः ॥12॥</span> | ||
< | <span class="HindiText">= `केवली भोजन करते हैं, कंबल आदि धारण कहते हैं, तुंबड़ी का पात्र रखते हैं, उनके ज्ञान और दर्शन क्रमशः होते हैं इत्यादि <strong> केवली का अवर्णवाद</strong> है ॥8॥ <br /> | ||
मांस-मछली का भक्षण, मधु और सुरा का पीना, कामातुर को रतिदान तथा रात्रि भोजन आदि में कोई दोष नहीं है, यह सब <strong>श्रुत का अवर्णवाद</strong> है ॥9॥ <br /> | |||
ये श्रमण शूद हैं, स्नान न करने से मलिन शरीर वाले हैं, अशुचि हैं, दिगंबर हैं, निर्लज्ज हैं, इसी लोक मे ये दुःखी है, परलोक भी इनको कष्ट है, इत्यादि <strong>संघ का अवर्णवाद</strong> है ॥10॥ <br /> | |||
जिनोपदिष्ट धर्म निर्गुण है, इसके धारण करने वाले मरकर असुर होते हैं, इत्यादि <strong>धर्म का अवर्णवाद </strong> है ॥11॥ <br /> | |||
देव मद्य-मांस का सेवन करते हैं, आहल्या आदि में आसक्त हुए थे, इत्यादि <strong>देवों का अवर्णवाद </strong> है।</span> | |||
<span class="SanskritText">भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 47/161/23 सर्वज्ञतावीतरागते नार्हति विद्येते रागादिभिरविद्यया च अनुगताः समस्ता एव प्राणभृतः इत्यादिरर्हतामवर्णवादः। स्त्रीवस्त्रगंधमाल्यालंकारादिविरहितानां सिद्धानां मुखं न किंचिदतींद्रियाणाम्। तेषां समधिगतौ न निबंधनमस्ति किंचिदिति सिद्धावर्णवादः।..न प्रतिबिंबादिस्था अर्हदादयः तद्गुणवैकल्यान्न प्रतिबिंबानामर्हदादित्वमिति चैत्याबर्णवादः। ...अज्ञात चोपदिशतो बचः कथं सत्यं। तदुद्गतं च ज्ञानं कथं समीचीनमिति श्रुतावर्णवादः। ...सुखप्रदायी चेद्धर्मः स्वनिष्पत्त्यनंतरं सुखमात्मनः किं न करोति इति धर्मावर्णवादः। ...केशोल्लुंचनादिभिः पीडयतां च कथं नात्मवधः। अदृष्टमात्मविषयं, धर्मं, पापं, तत्फलं च गदतां कथं सत्यव्रतम्। इति साधववर्णवादः। एवमितरयोरपि।</span> | <span class="SanskritText">भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 47/161/23 सर्वज्ञतावीतरागते नार्हति विद्येते रागादिभिरविद्यया च अनुगताः समस्ता एव प्राणभृतः इत्यादिरर्हतामवर्णवादः। स्त्रीवस्त्रगंधमाल्यालंकारादिविरहितानां सिद्धानां मुखं न किंचिदतींद्रियाणाम्। तेषां समधिगतौ न निबंधनमस्ति किंचिदिति सिद्धावर्णवादः।..न प्रतिबिंबादिस्था अर्हदादयः तद्गुणवैकल्यान्न प्रतिबिंबानामर्हदादित्वमिति चैत्याबर्णवादः। ...अज्ञात चोपदिशतो बचः कथं सत्यं। तदुद्गतं च ज्ञानं कथं समीचीनमिति श्रुतावर्णवादः। ...सुखप्रदायी चेद्धर्मः स्वनिष्पत्त्यनंतरं सुखमात्मनः किं न करोति इति धर्मावर्णवादः। ...केशोल्लुंचनादिभिः पीडयतां च कथं नात्मवधः। अदृष्टमात्मविषयं, धर्मं, पापं, तत्फलं च गदतां कथं सत्यव्रतम्। इति साधववर्णवादः। एवमितरयोरपि।</span> | ||
<span class="HindiText">= वीतरागता व सर्वज्ञपना अर्हंत में नहीं है, क्योंकि जगत में संपूर्ण प्राणी ही रागद्वेष और अज्ञान से घिरे हुए देखे जाते हैं, ऐसा कहना यह <strong>अर्हंत का अवर्णवाद</strong> है। <br /> | <span class="HindiText">= वीतरागता व सर्वज्ञपना अर्हंत में नहीं है, क्योंकि जगत में संपूर्ण प्राणी ही रागद्वेष और अज्ञान से घिरे हुए देखे जाते हैं, ऐसा कहना यह <strong>अर्हंत का अवर्णवाद</strong> है। <br /> | ||
Line 10: | Line 14: | ||
मूर्ति में अर्हंत सिद्ध आदि पूज्य पुरुष वास नहीं करते हैं, क्योंकि उनके गुण मूर्ति में दीखते नहीं है, ऐसा कहना <strong>चैत्यावर्णवाद</strong> है। <br /> | मूर्ति में अर्हंत सिद्ध आदि पूज्य पुरुष वास नहीं करते हैं, क्योंकि उनके गुण मूर्ति में दीखते नहीं है, ऐसा कहना <strong>चैत्यावर्णवाद</strong> है। <br /> | ||
अज्ञात वस्तु का यदि यह उपदेश करेगा तो उसके उपदेश में प्रमाणता कैसे आवेगी? उसके उपदेश से लोगों को जो ज्ञान उत्पन्न होगा वह भी प्रमाण कैसे माना जायेगा? अतः आगमज्ञान प्रमाण नहीं हैं। ऐसा कहना <strong>श्रुतावर्णवाद</strong> है। <br /> | अज्ञात वस्तु का यदि यह उपदेश करेगा तो उसके उपदेश में प्रमाणता कैसे आवेगी? उसके उपदेश से लोगों को जो ज्ञान उत्पन्न होगा वह भी प्रमाण कैसे माना जायेगा? अतः आगमज्ञान प्रमाण नहीं हैं। ऐसा कहना <strong>श्रुतावर्णवाद</strong> है। <br /> | ||
यदि धर्म सुखदायक है तो वह उत्पन्न होने के अनंतर ही सुख क्यों उत्पन्न नहीं करता है। ऐसा कहना यह <strong>धर्मावर्णवाद</strong> है। ये साधु केशलोंच उपवासादि के द्वारा अपने आत्मा को दुःख देते हैं, इसलिए इनको आत्मवध का दोष क्यों न लगेगा। पाप और पुण्य दृष्टिगोचर होते नहीं है, तो भी ये मुनि उनका और उसके नरक स्वर्गादि फलों का वर्णन करते हैं। उनका यह विवेचन झुठा होने से उन्हें सत्यव्रत कैसे हो सकता है। इत्यादि कहना यह <strong>साधु अवर्णवाद</strong> है। <br /> | यदि धर्म सुखदायक है तो वह उत्पन्न होने के अनंतर ही सुख क्यों उत्पन्न नहीं करता है। ऐसा कहना यह <strong>धर्मावर्णवाद</strong> है। <br /> | ||
ये साधु केशलोंच उपवासादि के द्वारा अपने आत्मा को दुःख देते हैं, इसलिए इनको आत्मवध का दोष क्यों न लगेगा। पाप और पुण्य दृष्टिगोचर होते नहीं है, तो भी ये मुनि उनका और उसके नरक-स्वर्गादि फलों का वर्णन करते हैं। उनका यह विवेचन झुठा होने से उन्हें सत्यव्रत कैसे हो सकता है। इत्यादि कहना यह <strong>साधु अवर्णवाद</strong> है। <br /> | |||
ऐसे ही अन्य में भी जानना।</span> | ऐसे ही अन्य में भी जानना।</span> | ||
Revision as of 21:47, 9 April 2022
सिद्धांतकोष से
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 6/13/331/13 गुणवत्सु महत्सु असद्भूतदोषोद्भावनमवर्णवादः।
= गुणवाले बड़े पुरुषों में जो दोष नहीं हैं उनका उनमें उद्भावन करना अवर्णवाद है यथा -:
राजवार्तिक अध्याय 6/13/8-12/524/12 पिंडाभ्यवहारजीविनः कंबलदशानिर्हरणाः अलाबूपात्रपरिग्रहाः कालभेदवृत्तज्ञानदर्शनाः केवलिन इत्यादिवचनं केवलिष्ववर्णवादः। ...मांसमत्स्यभक्षणं मधुसुरापानं वेदार्दितमैथुनोपसेवा रात्रिभोजनमित्येवमाद्यनवद्यमित्यनुज्ञानं श्रुतेऽवर्णवादः ॥9॥ ...एते श्रमणाः शूद्राः अस्नानमलदिग्धांघाः अशुचयो दिगंबर निरपत्रपा इहैवेति दुःखमनुभवंति परलोकश्च मुषित इत्यादि वचनं संघेऽवर्गवादः ॥10॥ ...जिनोपदिष्टो दशविकल्पो धर्मो निर्गुण तदुपसेविनो ये चे तेऽसुरा भवंति इत्येवमाद्यभिधानं धर्मावर्णवाद ॥11॥ ...सुरा मांसं चोपसेवंते देवा आहल्यादिषुचासक्तचेतसः इत्या द्याघोषणं देवावर्णवादः ॥12॥
= `केवली भोजन करते हैं, कंबल आदि धारण कहते हैं, तुंबड़ी का पात्र रखते हैं, उनके ज्ञान और दर्शन क्रमशः होते हैं इत्यादि केवली का अवर्णवाद है ॥8॥
मांस-मछली का भक्षण, मधु और सुरा का पीना, कामातुर को रतिदान तथा रात्रि भोजन आदि में कोई दोष नहीं है, यह सब श्रुत का अवर्णवाद है ॥9॥
ये श्रमण शूद हैं, स्नान न करने से मलिन शरीर वाले हैं, अशुचि हैं, दिगंबर हैं, निर्लज्ज हैं, इसी लोक मे ये दुःखी है, परलोक भी इनको कष्ट है, इत्यादि संघ का अवर्णवाद है ॥10॥
जिनोपदिष्ट धर्म निर्गुण है, इसके धारण करने वाले मरकर असुर होते हैं, इत्यादि धर्म का अवर्णवाद है ॥11॥
देव मद्य-मांस का सेवन करते हैं, आहल्या आदि में आसक्त हुए थे, इत्यादि देवों का अवर्णवाद है।
भगवती आराधना / विजयोदयी टीका / गाथा 47/161/23 सर्वज्ञतावीतरागते नार्हति विद्येते रागादिभिरविद्यया च अनुगताः समस्ता एव प्राणभृतः इत्यादिरर्हतामवर्णवादः। स्त्रीवस्त्रगंधमाल्यालंकारादिविरहितानां सिद्धानां मुखं न किंचिदतींद्रियाणाम्। तेषां समधिगतौ न निबंधनमस्ति किंचिदिति सिद्धावर्णवादः।..न प्रतिबिंबादिस्था अर्हदादयः तद्गुणवैकल्यान्न प्रतिबिंबानामर्हदादित्वमिति चैत्याबर्णवादः। ...अज्ञात चोपदिशतो बचः कथं सत्यं। तदुद्गतं च ज्ञानं कथं समीचीनमिति श्रुतावर्णवादः। ...सुखप्रदायी चेद्धर्मः स्वनिष्पत्त्यनंतरं सुखमात्मनः किं न करोति इति धर्मावर्णवादः। ...केशोल्लुंचनादिभिः पीडयतां च कथं नात्मवधः। अदृष्टमात्मविषयं, धर्मं, पापं, तत्फलं च गदतां कथं सत्यव्रतम्। इति साधववर्णवादः। एवमितरयोरपि।
= वीतरागता व सर्वज्ञपना अर्हंत में नहीं है, क्योंकि जगत में संपूर्ण प्राणी ही रागद्वेष और अज्ञान से घिरे हुए देखे जाते हैं, ऐसा कहना यह अर्हंत का अवर्णवाद है।
स्त्री, वस्त्र, इतर वगैरह सुगंधी पदार्थ, पुष्पमाला और वस्त्रालंकार ये ही सुख के कारण हैं। इन पदार्थों का अभाव होने से सिद्धों को सुख नहीं है, सुख इंद्रियों से प्राप्त होता है परंतु वे सिद्धों को नहीं हैं, अतः वे सुखी नहीं हैं ऐसा कहना सिद्धावर्णवाद है।
मूर्ति में अर्हंत सिद्ध आदि पूज्य पुरुष वास नहीं करते हैं, क्योंकि उनके गुण मूर्ति में दीखते नहीं है, ऐसा कहना चैत्यावर्णवाद है।
अज्ञात वस्तु का यदि यह उपदेश करेगा तो उसके उपदेश में प्रमाणता कैसे आवेगी? उसके उपदेश से लोगों को जो ज्ञान उत्पन्न होगा वह भी प्रमाण कैसे माना जायेगा? अतः आगमज्ञान प्रमाण नहीं हैं। ऐसा कहना श्रुतावर्णवाद है।
यदि धर्म सुखदायक है तो वह उत्पन्न होने के अनंतर ही सुख क्यों उत्पन्न नहीं करता है। ऐसा कहना यह धर्मावर्णवाद है।
ये साधु केशलोंच उपवासादि के द्वारा अपने आत्मा को दुःख देते हैं, इसलिए इनको आत्मवध का दोष क्यों न लगेगा। पाप और पुण्य दृष्टिगोचर होते नहीं है, तो भी ये मुनि उनका और उसके नरक-स्वर्गादि फलों का वर्णन करते हैं। उनका यह विवेचन झुठा होने से उन्हें सत्यव्रत कैसे हो सकता है। इत्यादि कहना यह साधु अवर्णवाद है।
ऐसे ही अन्य में भी जानना।
पुराणकोष से
दर्शनमोहनीय कर्म के आस्रव का हेतु― केवली, श्रुति, संघ, धर्म तथा देव में झूठे दोष लगाना । हरिवंशपुराण 58.96