भोगभूमि: Difference between revisions
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< | <span class="HindiText"> अवसर्पिणी के प्रथम तीन कालों में विद्यमान भरतक्षेत्र की भूमि । यहाँ स्त्री-पुरुष युगल रूप में उत्पन्न होते हैं । इसे उत्तम, मध्यम और जघन्य के भेद से तीन भागों में विभाजित किया गया है । अवसर्पिणी के प्रथम सुषमा-सुषमा काल में उत्तम भोगभूमि होती हैं । इस समय मनुष्यों की आयु तीन पल्य और शरीर की अवगाहना छ: हजार धनुष होती है । वे सौम्याकृति तथा आभूषणों से अलंकृत होते हैं । ये तीन दिन के अंतर से <span class="GRef"> <span class="GRef"> <span class="GRef"> हरिवंशपुराण </span> </span> </span>के अनुसार चार दिन के अंतर से कल्पवृक्षों से प्राप्त बदरीफल के बराबर भोजन करते हैं । उन्हें कोई श्रम नहीं करना पड़ता । इनके न रोग होता है, न मलमूत्र आदि की बाधा । न मानसिक पीड़ा होती है, न पसीना ही आता है और न इनका असमय में मरण होता है । स्त्रियों की आयु और ऊँचाई पुरुषों के समान होती है । स्त्री-पुरुष दोनों जीवन पर्यंत भोग भोगते हैं । भोग-सामग्री इन्हें कल्पवृक्षों से प्राप्त होती है । इस समय मद्यांग, तूर्यांग, विभूषांग, माल्यांग, ज्योतिरंग, दीपांग, गृहांग, भोजनांग, पात्रांग और वस्त्रांग जाति के दस प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैं जो विभिन्न सामग्री देते हैं । आयु के अंत में पुरुष को जिह्माई और स्त्री को छींक आती है और वे मरकर स्वर्ग जाते हैं । दूसरे सुषमा काल में मध्यम भोगभूमि रहती है । इस काल के मनुष्य देवों के समान कांति के धारी होते हैं उनकी आयु दो पल्य की तथा शारीरिक ऊँचाई चार हजार धनुष होती है । ये दो दिन <span class="GRef"> <span class="GRef"> <span class="GRef"> हरिवंशपुराण </span> </span> </span>के अनुसार तीन दिन बाद कल्पवृक्ष से प्राप्त बहेड़े के बराबर आहार करते हैं । तीसरे सुषमा-दु:षमा काल में जघन्य भोगभूमि रहती है । इसमें मनुष्यों को आयु एक पल्य की तथा शरीर दो हजार धनुष ऊँचा और श्याम वर्ण का होता है । ये एक दिन के <span class="GRef"> <span class="GRef"> <span class="GRef"> हरिवंशपुराण </span> </span> </span>के अनुसार दो दिन के अंतर से आँवले के बराबर भोजन करते हैं । यहाँ कर्मभूमिज मनुष्य और तिर्यंच ही जन्मते हैं तथा मरकर वे पहले और दूसरे स्वर्ग में अथवा भवनवासी आदि तीन निकायों में उत्पन्न होते हैं । यहाँँ की भूमि इंद्रनील आदि नीलमणि, जात्यंदन आदि कृष्णमणि, पद्मराग आदि लालमणि, हैमा आदि पीतमणि और मुक्ता आदि सफेद-मणियों से व्याप्त होती है तथा चार अंगुल प्रमाण तृणों से आच्छादित होती है तथा दूध, दही, घी, मधु, ईख से भरपूर होती है । यहाँ गर्भ से युगल रूप में उत्पन्न स्त्री-पुरुषों के सात दिन तो अँगूठा चूसने में बीतते हैं, पश्चात् सात दिन तक वे रेंगते हैं, फिर सात दिन लड़खड़ाते हुए चलते, फिर सात दिन तक स्थिर गति से चलते, पश्चात् सात दिन कला-अभ्यास में निपुणता प्राप्त करते और इसके पश्चात् सात दिन इनके यौवन में बीतते हैं । सातवें सप्ताह में इन्हें सम्यग्दर्शन ग्रहण करने की योग्यता हो जाती है । पुरुष-स्त्री को आर्या तथा स्त्री-पुरुष को आर्य कहती है । इस समय न ब्राह्मण आदि चार वर्ण होते हैं और न असि-मसि आदि षट्कर्म । सेव्य-सेवक भी नहीं होते । मनुष्य विषयों में मध्यस्थ होते हैं । उनके न मित्र होते हैं न शत्रु । वे स्वभाव से अल्प कषायी होते हैं । आयु पूर्ण होने पर युगल रूप में ही मरते हैं । यहाँँ के सिंह भी हिंसा नहीं करते । नदियों में मगरमच्छ नहीं होते । यहाँ न अधिक शीत पड़ती है न अधिक गर्मी । तीव्र वायु भी नहीं चलती । जंबूद्वीप में छ: भोगभूमिया होती है । उनके नाम हैं― हैमवत, हरिवर्ष, रम्यक, हैरण्यव्रत, देवकुरु तथा उत्तरकुरु । <span class="GRef"> महापुराण 3.24-54, 9.183, 76. 498-500, </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 3.40, 51-63 </span><span class="GRef"> <span class="GRef"> <span class="GRef"> हरिवंशपुराण </span> </span> </span>7. 64-78, 92.94, 102-104</span> | ||
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Revision as of 19:33, 17 April 2022
सिद्धांतकोष से
देखें भूमि ।
पुराणकोष से
अवसर्पिणी के प्रथम तीन कालों में विद्यमान भरतक्षेत्र की भूमि । यहाँ स्त्री-पुरुष युगल रूप में उत्पन्न होते हैं । इसे उत्तम, मध्यम और जघन्य के भेद से तीन भागों में विभाजित किया गया है । अवसर्पिणी के प्रथम सुषमा-सुषमा काल में उत्तम भोगभूमि होती हैं । इस समय मनुष्यों की आयु तीन पल्य और शरीर की अवगाहना छ: हजार धनुष होती है । वे सौम्याकृति तथा आभूषणों से अलंकृत होते हैं । ये तीन दिन के अंतर से हरिवंशपुराण के अनुसार चार दिन के अंतर से कल्पवृक्षों से प्राप्त बदरीफल के बराबर भोजन करते हैं । उन्हें कोई श्रम नहीं करना पड़ता । इनके न रोग होता है, न मलमूत्र आदि की बाधा । न मानसिक पीड़ा होती है, न पसीना ही आता है और न इनका असमय में मरण होता है । स्त्रियों की आयु और ऊँचाई पुरुषों के समान होती है । स्त्री-पुरुष दोनों जीवन पर्यंत भोग भोगते हैं । भोग-सामग्री इन्हें कल्पवृक्षों से प्राप्त होती है । इस समय मद्यांग, तूर्यांग, विभूषांग, माल्यांग, ज्योतिरंग, दीपांग, गृहांग, भोजनांग, पात्रांग और वस्त्रांग जाति के दस प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैं जो विभिन्न सामग्री देते हैं । आयु के अंत में पुरुष को जिह्माई और स्त्री को छींक आती है और वे मरकर स्वर्ग जाते हैं । दूसरे सुषमा काल में मध्यम भोगभूमि रहती है । इस काल के मनुष्य देवों के समान कांति के धारी होते हैं उनकी आयु दो पल्य की तथा शारीरिक ऊँचाई चार हजार धनुष होती है । ये दो दिन हरिवंशपुराण के अनुसार तीन दिन बाद कल्पवृक्ष से प्राप्त बहेड़े के बराबर आहार करते हैं । तीसरे सुषमा-दु:षमा काल में जघन्य भोगभूमि रहती है । इसमें मनुष्यों को आयु एक पल्य की तथा शरीर दो हजार धनुष ऊँचा और श्याम वर्ण का होता है । ये एक दिन के हरिवंशपुराण के अनुसार दो दिन के अंतर से आँवले के बराबर भोजन करते हैं । यहाँ कर्मभूमिज मनुष्य और तिर्यंच ही जन्मते हैं तथा मरकर वे पहले और दूसरे स्वर्ग में अथवा भवनवासी आदि तीन निकायों में उत्पन्न होते हैं । यहाँँ की भूमि इंद्रनील आदि नीलमणि, जात्यंदन आदि कृष्णमणि, पद्मराग आदि लालमणि, हैमा आदि पीतमणि और मुक्ता आदि सफेद-मणियों से व्याप्त होती है तथा चार अंगुल प्रमाण तृणों से आच्छादित होती है तथा दूध, दही, घी, मधु, ईख से भरपूर होती है । यहाँ गर्भ से युगल रूप में उत्पन्न स्त्री-पुरुषों के सात दिन तो अँगूठा चूसने में बीतते हैं, पश्चात् सात दिन तक वे रेंगते हैं, फिर सात दिन लड़खड़ाते हुए चलते, फिर सात दिन तक स्थिर गति से चलते, पश्चात् सात दिन कला-अभ्यास में निपुणता प्राप्त करते और इसके पश्चात् सात दिन इनके यौवन में बीतते हैं । सातवें सप्ताह में इन्हें सम्यग्दर्शन ग्रहण करने की योग्यता हो जाती है । पुरुष-स्त्री को आर्या तथा स्त्री-पुरुष को आर्य कहती है । इस समय न ब्राह्मण आदि चार वर्ण होते हैं और न असि-मसि आदि षट्कर्म । सेव्य-सेवक भी नहीं होते । मनुष्य विषयों में मध्यस्थ होते हैं । उनके न मित्र होते हैं न शत्रु । वे स्वभाव से अल्प कषायी होते हैं । आयु पूर्ण होने पर युगल रूप में ही मरते हैं । यहाँँ के सिंह भी हिंसा नहीं करते । नदियों में मगरमच्छ नहीं होते । यहाँ न अधिक शीत पड़ती है न अधिक गर्मी । तीव्र वायु भी नहीं चलती । जंबूद्वीप में छ: भोगभूमिया होती है । उनके नाम हैं― हैमवत, हरिवर्ष, रम्यक, हैरण्यव्रत, देवकुरु तथा उत्तरकुरु । महापुराण 3.24-54, 9.183, 76. 498-500, पद्मपुराण 3.40, 51-63 हरिवंशपुराण 7. 64-78, 92.94, 102-104