अंतरात्मा: Difference between revisions
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Revision as of 22:12, 28 July 2022
सिद्धांतकोष से
बाह्य विषयों से जीव की दृष्टि हटकर जब अंतर की ओर झुक जाती है तब अंतरात्मा कहलाता है।
1. अंतरात्मा सामान्य का लक्षण
मोक्षपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 5 अक्खाणि बाहिरप्पा अंतरअप्पा हु अप्पसंकप्पो।
= इंद्रियनिकूं बाह्य आत्मा कहिए। उसमें आत्मत्व का संकल्प करे सो बहिरात्मा है। बहुरि अंतरात्मा है सो अंतरंग विषै आत्मा का प्रगट अनुभवगोचर संकल्प है।
( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 14/46/8)
नियमसार / मूल या टीका गाथा 149-150/300 आवासएण जुत्तो समणो सो होदि अंतरंगप्पा।...॥149॥ = जप्पेसु जो ण वट्टइसो उच्चइ अंतरंगप्पा ॥150॥
= आवश्यक सहित श्रमण वह अंतरात्मा है ॥149॥ जो जल्पों में नहीं वर्तता, वह अंतरात्मा कहलाता है ॥150॥
रयणसार गाथा 141 सिविणे वि ण भुंजइ विसयाइं देहाइभिण्णभावमई। भूंजइ णियप्परूवो सिवसुहरत्तो दु मज्झिमप्पो सो ॥141॥
= देहादिक से अपने को भिन्न समझनेवाला जो व्यक्ति स्वप्न में भी विषयों को नहीं भोगता परंतु निजात्मा को ही भोगता है, तणा शिव सुख में रत रहता है वह अंतरात्मा है।
परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 14/21/13 देह विभिण्णउ णाणमउ जो परमप्पु णिएइ। परम-समाहि-परिट्ठियउ पंडिउ सो जि हवेइ ॥14॥
= जो पुरुष परमात्मा को शरीर से जुदा केवलज्ञान कर पूर्ण जानता है, वही परम समाधि में निष्ठता हुआ अंतरात्मा अर्थात् विवेकी है।
धवला पुस्तक 1/1,1,2/120/5 अट्ठ-कम्मब्भंतरो त्ति अंतरप्पा।
= आठ कर्मों के भीतर रहता है इसलिए अंतरात्मा है।
( महापुराण सर्ग संख्या 24/103,107)
ज्ञानसार श्लोक 31 धर्मध्यानं ध्यायति दर्शनज्ञानयोः परिणतः नित्यम्। सः भण्यते अंतरात्मा लक्ष्यते ज्ञानवद्भिः ॥31॥
= जो धर्मध्यान को ध्याता है, नित्य दर्शन व विज्ञान से परिणत रहता है, उसको अंतरात्मा कहते हैं।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 194 जे जिण-वयणे कुसला भेयं जाणंति जीवदेहाणं। णिज्जिय-दुट्ठट्ठ-मया अंतरअप्पा य ते तिविहा ॥194॥
= जो जिनवचनों में कुशल हैं, जीव और देह के भेद को जानते हैं, तथा जिन्होंने आठ दुष्ट मदों को जीत लिया है वे अंतरात्मा हैं।
2. 'अंतरात्मा के भेद'''Italic text
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 14/49 अविरतगुणस्थाने तद्योग्याशुभलेश्यापरिणतो जघंयांतरात्मा, क्षीणकषायगुणस्थाने पुनरुत्कृष्टः, अविरतक्षीणकषाययोर्मध्ये मध्यमः।
= अविरत गुणस्थान में उसके योग्य अशुभ लेश्या से परिणत जघन्य अंतरात्मा है, और क्षीणकषाय गुणस्थान में उत्कृष्ट अंतरात्मा है। अविरत और क्षीणकषाय गुणस्थानों के बीच में जो सात गुणस्थान हैं सो उनमें मध्यम अंतरात्मा है।
( नियमसार / तात्पर्यवृत्तिगाथा 149 में `मार्ग प्रकाश' से उद्धृत)
समाधिशतक भा.4 अंतरात्मा के तीन भेद हैं - उत्तम अंतरात्मा, मध्यम अंतरात्मा, और जघन्य अंतरात्मा। अंतरंग - बहिरंग - परिग्रह का त्याग करनेवाले, विषय कषायों को जीतनेवाले और शुद्धोपयोग में लीन होनेवाले तत्त्वज्ञानी योगीश्वर `उत्तम अंतरात्मा' कहलाते हैं, देशव्रत का पालन करनेवाले गृहस्थ तथा छट्ठे गुणस्थानवर्ती मुनि `मध्यम अंतरात्मा' कहे जाते हैं और तत्त्व श्रद्धा के साथ व्रतों को न रखनेवाले अविरत सम्यग्दृष्टि जीव `जघन्य अंतरात्मा' रूप से निर्दिष्ट हैं।
3. अंतरात्मा के भेदों के लक्षणItalic text
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 195-197 पंच-महव्वय-जुत्ता धम्मे सुक्के वि संठिदा णिच्चं। णिज्जिय-सयल-पमाया, उक्किट्ठा अंतरा होंति॥ सावयगुणेहिं जुत्तो पमत्त-विरदा य मज्झिमा होंति। जिणहवणे अणुरत्ता उवसमसीला महासत्ता ॥196॥ अविरय-सम्मादिट्ठी होंति जहण्णा जिणिंदपयभत्ता। अप्पाणं णिंदंता गुणगहणे सुट्ठु अणुरत्ता ॥197॥
= जो जीव पाँचों महाव्रतों से युक्त होते हैं, धर्म-ध्यान और शुक्ल-ध्यान में सदा स्थित रहते हैं, तथा जो समस्त प्रमादों को जीत लेते हैं वे उत्कृष्ट अंतरात्मा हैं ॥195॥ श्रावक के व्रतों को पालनेवाले गृहस्थ और प्रमत्त गुणस्थानवर्ती मुनि `मध्यम अंतरात्मा' होते हैं। ये जिनवचन में अनुरक्त रहते हैं, उपशमस्वभावी होते हैं और महापराक्रमी होते हैं ॥196॥ जो जीव अविरत सम्यग्दृष्टि हैं वे जघन्य अंतरात्मा हैं। वे जिन भगवान् के चरणों के भक्त होते हैं, अपनी निंदा करते रहते हैं और गुणों को ग्रहण करने में बड़े अनुरागी होते हैं ॥197॥
नियमसार टी.149 में `मार्ग प्रकाश' से उद्धृत - जघन्यमध्यम त्कृष्टभेदादविरतः सुदृक्। प्रथमः क्षीणमोहोंत्यो मध्यमो मध्यमस्तयोः।
= अंतरात्मा के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ऐसे (तीन) भेद हैं। अविरत सम्यग्दृष्टि वह प्रथम (जघन्य) अंतरात्मा है। क्षीणमोह अंतिम अर्थात् उत्कृष्ट अंतरात्मा है और उन दो के मध्य में स्थित मध्यम अंतरात्मा है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 14/49/2 - देखें ऊपरवाला शीर्षक सं - 2।
• जीवको अंतरात्मा कहने की विवक्षा - देखें जीव - 1.3।
पुराणकोष से
आत्मा का दूसरा भेद । विवेकी, जिनसूत्र का वेत्ता, तत्त्व-अतत्त्व, शुभ-अशुभ, देव-अदेव, सत्य-असत्य, दुष्पथ-मुक्तिपथ का ज्ञाता तथा इंद्रिय-विषय-जनित सुख का निरभिलाषी और मुमुक्षु, कर्म और कर्मों के कार्यों से उत्पन्न मोह, इंद्रिय और राग-द्वेष आदि से आत्मा को पृथक्, निष्फल और योगिगम्य, जानने वाला जीव । ऐसा जीव सर्वार्थसिद्धि तक के सुखी को और जिनेंद्र के वैभव को भोगता है । इसके उत्तम मध्यम और जघन्य के भेद से तीन प्रकार है । चौथे गुणस्थानवर्ती जीव को जघन्य, पाँचवें से ग्यारह तक सात गुणस्थानवर्ती जीव को मध्यम तथा बारहवें गुणस्थानवर्ती जीव को उत्तम अंतरात्मा कहा गया है । वीरवर्द्धमान चरित्र 16.75-82, 95-96, ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों के अंतर्वर्ती होने से यह जीव कहलाता है । महापुराण 24.107 देखें जीव ।