द्यूतक्रीड़ा: Difference between revisions
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Revision as of 19:51, 25 August 2022
- द्यूत के अतिचार
सागार धर्मामृत/3/19 दोषो होढाद्यपि मनो-विनोदार्थं पणोज्झिन:। हर्षोऽमर्षोदयांगत्वात्, कषायो ह्यंहसेऽंजसा।19। =जुआ के त्याग करने वाले श्रावक के मनोविनोद के लिए भी हर्ष और विनोद की उत्पत्ति का कारण होने से शर्त लगाकर दौड़ना, जुआ देखना आदि अतिचार होता है, क्योंकि वास्तव में कषायरूप परिणाम पाप के लिए होता है।19।
लाटी संहिता/2/114,120 अक्षपाशादिनिक्षिप्तं वित्ताज्जयपराजयम् । क्रियायां विद्यते यत्र सर्वं द्यूतमिति स्मृतम् ।114। अन्योन्यस्येर्षया यत्र विजिगीषा द्वयोरिति। व्यवसायादृते कर्मं द्यूतातीचार इष्यते।120। =जिस क्रिया में खेलने के पासे डालकर धन की हार-जीत होती है, वह सब जुआ कहलाता है अर्थात् हार-जीत की शर्त लगाकर ताश खेलना, चौपड़ खेलना, शतरंज खेलना आदि सब जुआ कहलाता है।114। अपने-अपने व्यापार के कार्यों के अतिरिक्त कोई भी दो पुरुष परस्पर एक-दूसरे की ईर्ष्या से किसी भी कार्य में एक-दूसरे को जीतना चाहते हों तो उन दोनों के द्वारा उस कार्य का करना भी जुआ खेलने का अतिचार कहलाता है।120।
- रसायन सिद्धि शर्त लगाना आदि भी जुआ है–देखें द्यूतक्रीड़ा - 1।
- द्यूत का निषेध तथा उसका कारण
पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/146 सर्वानर्थप्रथमं मथनं शौचस्य सद्म मायाया:। दूरात्परिहरणीयं चौर्यासत्यास्पदं द्यूतम् ।146। =सप्त व्यसनों का प्रथम यानी संपूर्ण अनर्थों का मुखिया, संतोष का नाश करने वाला, मायाचार का घर, और चोरी तथा असत्य का स्थान जुआ दूर ही से त्याग कर देना चाहिए।146। ( लाटी संहिता/2/118 )
सागार धर्मामृत/2/17 द्यूते हिंसानृतस्तेयलोभमायामये सजन् । क्व स्वं क्षिपति नानर्थे वेश्याखेटान्यदारवत् ।17। =जूआ खेलने में हिंसा, झूठ, चोरी, लोभ और कपट आदि दोषों की अधिकता होती है। इसलिए जैसे वेश्या, परस्त्री सेवन और शिकार खेलने से यह जीव स्वयं नष्ट होता है तथा धर्म-भ्रष्ट होता है, इसी प्रकार जुआ खेलने वाला अपने को किस-किस आपत्ति में नहीं डालता। लाटी संहिता/2/115 प्रसिद्ध द्यूतकर्मेदं सद्यो बंधकरं स्मृतम् । यावदापन्मयं ज्ञात्वा त्याज्यं धर्मानुरागिणा।115। =जूआ खेलना संसारभर में प्रसिद्ध है। उसी समय महा अशुभकर्म का बंध करने वाला है, समस्त आपत्तियों को उत्पन्न करने वाला है, ऐसा जानकर धर्मानुरागियों को इसे छोड़ देना चाहिए।115।